Author : Sushant Sareen

Published on Apr 20, 2018 Updated 0 Hours ago

सारी संभावनाओं के विपरीत प्रधानमंत्री मोदी में पाकिस्तान को लेकर कोई बड़ा विचार या प्रेम नहीं दिखाई देता है।

पाकिस्तान का जवाब क्या सिर्फ़ मोदी के है पास?

यह ग़लतफ़हमी अब मज़बूत हुई है कि नरेंद्र मोदी पाकिस्तान के ख़िलाफ़ विरोधी रुख़ अपनाकर भारत के 15वें प्रधानमंत्री बने हैं। वास्तविकता यह है कि पाकिस्तान उनके अभियान का एक छोटा हिस्सा भर था।

उनके अभियान के मुख्य बिंदु प्रशासन, अर्थव्यवस्था और विकास के मुद्दे थे। हालांकि उन्होंने किसी के दिमाग़ में इस बात का संदेह नहीं छोड़ा था कि वह पहले के प्रधानमंत्रियों के मुक़ाबले पाकिस्तान को लेकर अधिक आक्रामक और बर्दाश्त न करने की नीति अपनाएंगे।

लोकसभा का आम चुनाव जीतते ही अपने शपथ ग्रहण समारोह में उन्होंने सभी सार्क देशों को आमंत्रित कर दिया। अधिकतर राजनीतिक पंडितों ने इसको पाकिस्तान तक अपनी पहुंच बनाने की उनकी एक ‘चाल’ के रूप में देखा।

सारी संभावनाओं के विपरीत प्रधानमंत्री मोदी में पाकिस्तान को लेकर कोई बड़ा विचार या प्रेम नहीं दिखाई देता है।

लेकिन ऐसा लगता है कि उन्होंने पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देने से पहले साधारण सूझ-बूझ अपनाई। वह पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने की सारी संभावनाओं को तलाश लेना चाहते थे।

और अगर सच कहा जाए तो वह शायद पाकिस्तान तक अपनी पहुंच बनाने के रास्ते से हट गए।

पांच बार रिश्ते बनाने की कोशिश

तकरीबन दो साल तक मोदी ने कम से कम पांच बार रिश्ते सामान्य करने की कोशिश की लेकिन हर बार बातचीत पटरी से उतर गई।

रमज़ान के महीने की बधाई देने के लिए फ़ोन करना, विदेश सचिव को दौरे पर भेजना, पेरिस में नवाज़ शरीफ़ के पास ख़ुद चलकर जाकर रूस के उफ़ा में बातचीत के रोडमैप पर राज़ी होना, दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के बीच बैठक की शुरुआत करना। इसके अलावा अचानक उनका लाहौर जाना और पठानकोट एयरबेस पर पाकिस्तानी चरमपंथियों द्वारा किए गए हमले के बाद पाकिस्तानी जांच एजेंसी को आने की अनुमति देना।

अगर इन सब कोशिशों को देखा जाए तो मोदी को कोशिश नहीं करने को लेकर दोषी नहीं ठहराया जा सकता है।

हालांकि, पहले के प्रधानमंत्रियों के दृष्टिकोण को दोहराने की कोशिश करने और जहां वे असफ़ल रहे, वहां ख़ुद को सफ़ल होने की आशा करने के लिए उन्हें दोष दिया जा सकता है।

एक कठोर यथार्थवादी होते हुए उन्हें यह मालूम होना चाहिए था कि बार-बार ये दोहराना और हर बार अलग परिणामों की उम्मीद करना बेवकूफ़ाना है।

जब पीएम ने बदले गियर

पाकिस्तान चरमपंथी हमले में पाकिस्तान की जांच ने आखों में धूल झोंकने का काम किया। प्रधानमंत्री मोदी के लाहौर दौरे के एक सप्ताह बाद यह हमला हुआ था। यह उनके लिए एक सबक था कि उन्होंने पड़ोसी के विश्वासघाती रवैए को पहचाना।

यह वह बिंदु था जब उन्होंने अपने गियर बदले और पाकिस्तान को लेकर अपने दृष्टिकोण को कड़ा किया। उड़ी चरमपंथी हमले में तकरीबन 20 जवानों के मारे जाने के बाद उन्होंने स्वीकार कर लिया कि अब नरम रुख़ नहीं अपनाना है।

मोदी जानते थे कि एक नेता होने के नाते उनकी विश्वसनीयता दांव पर है। उनके पूर्ववर्तियों को यह विशेषज्ञता हासिल थी कि वे जवाब दिए जाने की धमकी देते थे लेकिन फिर योजना पाइपलाइन में चली जाती थी।

‘सर्जिकल स्ट्राइक’ बेहद निडर और साहसिक क़दम था लेकिन वह काफ़ी ख़तरनाक हो सकता था अगर वह नियंत्रण से बाहर हो जाता।

लेकिन पाकिस्तान ने इस स्ट्राइक को नकारा लेकिन साफ़ था कि यह केवल दिखावा भर है।

पिछले चार सालों में मोदी ने अगर एक बात साबित की है तो वह यह है कि उनकी ख़तरे लेने की क्षमता बेमिसाल है और तब बहुत अधिक हो जाती है जब उन्हें किसी चीज़ के लिए राज़ी कर लिया जाए।

इसका मतलब है कि अगर पाकिस्तानी अपरिभाषित लाल रेखा पार करते हैं तो वह परमाणु मुद्दे समेत उनके धोखे का जवाब दे सकते हैं।

जहां इस क्षेत्र में तनाव की स्थिति रहती है, वहीं पाकिस्तान को लेकर पुराने उदाहरण बदल चुके हैं। अब देश इस बात को लेकर सुनिश्चित नहीं हैं कि भारत की ओर से क्या प्रतिक्रिया हो सकती है।

‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की रणनीतिक स्थिति

सीमापार हमले ही केवल अब तक एक ऑफ़-ऑपरेशन प्रक्रिया है। लेकिन सुरक्षाबल इस तरह के ऑपरेशनों के लिए तैयार दिखते हैं. यह तभी हो सकता है जब पाकिस्तान सब्र की दहलीज़ को लांघ जाए।

इसका आभास है कि अगर पाकिस्तान के सिर से इसका ख़तरा टल जाता है तो ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की रणनीतिक स्थिति गुम हो जाएगी।

लेकिन पाकिस्तान को लेकर नए दृष्टिकोण में भारत का यह इकलौता हथियार है। नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान की ओर से घुसपैठ को लेकर होती लगातार जवाबी कार्रवाई ने ख़ून और पैसे के मामले में भारी क़ीमत चुकाई है।

पाकिस्तानी साफ़तौर से नुकसान पहुंचा रहे हैं लेकिन वह ख़ुद का एक बहादुरी वाला चेहरा दिखाने की कोशिश करता रहा है। इसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मूर्खतापूर्ण प्रचार के साथ-साथ कश्मीर में चरमपंथ फैलाने की कोशिश से शुरू होता है।

भारत के लिए यह अभी एक उपद्रव से कम नहीं है और निश्चित रूप से यह अस्तित्व के लिए ख़तरा नहीं है जो हर बार सीमा पार हमले को आमंत्रित करता है।

कूटनीतिक स्तर पर भारत पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाने को लेकर सक्रिय रहा है।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो भी मंच मौजूद हैं भारत ने उसका इस्तेमाल किया है और पाकिस्तान को चरमपंथ को प्रायोजित करने वाला देश बताया है।

पुरानी नीतियों से किनारा

संबंधों को सामान्य करने के लिए लोगों से लोगों के बीच में संपर्क स्थापित करने की रणनीति में भी सरकार का विश्वास उतना नहीं रहा है। क्योंकि अब यह सत्य माना जाने लगा है कि लोगों से लोगों के बीच संपर्क स्थापित करने से पाकिस्तान के साथ शांति कायम करने में अहम भूमिका नहीं है।

कई आकलनों से पता चलता है कि लोगों से लोगों को जोड़ने की नीति केवल सराहना के लिए ही रही है। इस तरह की नीति लगता है कि पाइपलाइन में है। इसके कारण कड़ी वीज़ा नीति, द्विपक्षीय क्रिकेट पर पाबंदी, बॉलीवुड में कोई अनुबंध नहीं और भी बहुत से फ़ैसले लिए गए हैं।

बहुत से पाकिस्तानी और उनके प्रचारक-वकील जिनमें भारतीय उदादवादी भी शामिल हैं, वह कहते हैं कि दोनों देशों के रिश्ते पिछले दशकों में सबसे बुरे हैं।

असलियत है कि संबंध पिछले 70 सालों में सबसे ख़राब रहे हैं।

इतने सालों में किसी युद्ध और शांति दोनों न होने की स्थिति में सिर्फ़ यह बदलाव हुआ है कि पहली बार भारत ने पाकिस्तान को एक भाषा और तरीके से जवाब देना शुरू किया है जो अभी तक पाकिस्तानी या दूसरे देश भारत सरकार से उम्मीद नहीं करते थे।

इन दोनों समूहों का आंतरिक रूप से नरम रुख़ लगता रहा है। इसके परिणामस्वरूप पाकिस्तानी चिंताओं को लेकर बड़ी समझ और सहानुभूति दिखाई जाती रही और उदारतावाद का यह एक हॉलमार्क बन गया। हालांकि, भारत की चिंताओं को नकारा जाता रहा और उन पर बात नहीं हुई। यह अब बदल चुका है और अगर इसका अर्थ समझा जाए तो रिश्ते अब हाशिए पर पहुंच चुके हैं।

मोदी की पाकिस्तान नीति में हालांकि दो प्रमुख समस्याएं हैं। सबसे पहली यह कि नीति की कामयाबी की परिभाषा क्या होगी यह साफ़ नहीं है। यह आंशिक रूप से समझ में आता है। चूँकि पाकिस्तान भारत के लिए एक सामान्य देश नहीं है, इसलिए उसके साथ संबंधों की सफलता का पैमाना अन्य देशों की तरह नहीं हो सकता।

हालांकि, कुछ उद्देश्य होने चाहिए ताकि नीति किसी उद्देश्य तक पहुंच सके। इसे साफ़ तरीके से बयां करने की ज़रूरत है।

दूसरी समस्या यह है कि मोदी सरकार ने वास्तव में इस नीति पर व्यापक राजनीतिक और सामाजिक सहमति नहीं बनाई है। अब तक ऐसा लगता है कि यह नीति उनकी सरकार की है, इस राष्ट्र की नहीं है। यह सवाल खड़ा होता है कि तब क्या होगा जब मोदी प्रधानमंत्री कार्यालय में नहीं होंगे या फिर उनकी जगह कोई और आएगा।

अगर ऐसा होता है तो फिर वही पुरानी नीति अपनाई जाएगी जिसके वही परिणाम होंगे जो पिछले सात दशकों से मिलते रहे हैं।

दूसरे शब्दों में कहें तो मोदी का दृष्टिकोण उनके बाद भी जीवित रहता है तो यह एक सफलता होगी, अन्यथा भारत के पाकिस्तान के साथ संबंधों के लंबे इतिहास का एक अध्याय होगा।


यह लेख मूल रूप से BBC हिन्दी में प्रकाशित हुई थी।

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