Author : Rajeev Jayadevan

Published on Jul 29, 2023 Updated 0 Hours ago

ओमिक्रॉन वेरिएंट के चलते शुरू हुई कोविड-19 महामारी की तीसरी लहर कितनी घातक हो सकती है?

#Omicron: ओमिक्रॉन से जुड़े तथ्यों को अटकलों से अलग करने की गंभीर कोशिश
#Omicron: ओमिक्रॉन से जुड़े तथ्यों को अटकलों से अलग करने की गंभीर कोशिश

सबसे पहले दक्षिण अफ्रीका में नवंबर 2021 में पहचाना गया कोविड-19 का ओमिक्रॉन वेरिएंट दुनिया के बहुत से देशों में फैल चुका है. इस नए वेरिएंट की खोज के बाद तमाम तरह की अफ़वाहें फैल रही हैं कि ये कोरोना की वैक्सीन को भी चकमा देने की ताक़त रखता है. ये ज़्यादा ख़तरनाक भी है और इसकी संक्रमण की रफ़्तार भी तेज़ है. इस लेख में हम ओमिक्रॉन वेरिएंट के बारे में अब तक उपलब्ध तथ्यों की पड़ताल करेंगे. डेल्टा की तरह ओमिक्रॉन वेरिएंट भी उस सार्स कोरोना वायरस-2 (SARS-CoV2) का ही एक नया रूप है, जिसने दिसबंर 2019 में कोविड-19 महामारी की शुरुआत की थी. यहां इस बात पर ज़ोर देने की ज़रूरत इसलिए है, क्योंकि बहुत से लोग ये समझते हैं कि ये कोई नया वायरस है.

डेल्टा की तरह ओमिक्रॉन वेरिएंट भी उस सार्स कोरोना वायरस-2 (SARS-CoV2) का ही एक नया रूप है, जिसने दिसबंर 2019 में कोविड-19 महामारी की शुरुआत की थी.

कुछ विषाणुओं में ये क़ुदरती गुण होता है कि वो दुनिया के एक बड़े भौगोलिक इलाक़े में बार-बार संक्रमण फैलाते हैं. जो लोग वायरस पर रिसर्च करते हैं, उनके लिए ये कोई अनहोनी बात नहीं; इसकी कई मिसालें मिलती हैं, जैसे कि पैराइन्फ्लुएंज़ा 1, 2 और 3, पैरा वायरस, रोटा वायरस वग़ैरह. ऐसे वायरसों के बार बार संक्रमण फैलाने के कई कारण होते हैं. सबसे सामान्य वजह तो ये है कि इन वायरसों में हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता, हमारे शरीर के इम्यून सिस्टम में सेंध लगाने की ताक़त होती है, जो या तो प्राकृतिक तौर पर संक्रमण के चलते शरीर में बन जाती है या फिर टीके लगवाने के कारण विकसित होती है. या फिर हमारे शरीर में रोगों से लड़ने की ये ताक़त इन दोनों कारणों से आ जाती है.

वायरस टीका और रोग प्रतिरोधक क्षमता

इंसानों को संक्रमित करने, उन्हें बीमार करने और उनके प्रति शरीर में प्रतिरोधक क्षमता पैदा होने की क्षमता हर वायरस में अलग तरह की होती है. कुछ वायरस, इंसानों को सिर्फ़ एक बार संक्रमित करते हैं और एक बार संक्रमित करने से ही हमारे शरीर में ज़िंदगी भर के लिए उनसे लड़ने की क्षमता विकसित हो जाती है. इनमें खसरे, कंठमाला या मोनो वायरस शामिल हैं. उदाहरण के लिए हेपेटाइटिस-बी का जो टीका हिपेटाइटिस बी वायरस की ऊपरी सतह पर स्थित एंटीजेन की मदद से तैयार किया जाता है, उसे एक बार लगवा लेने पर हमारे शरीर में इस वायरस के प्रति ज़िंदगी भर के लिए प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती है. इसके अलावा, हमारे शरीर में हेपेटाइटिस-बी के प्रति जो जीवन भर की रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित होती है, उसे हम एक पैमाने से माप सकते हैं. जैसे कि अगर शरीर में हेपेटाइटिस-बी की एंटीबॉडी 10mlU/ml से ज़्यादा है, तो इससे पता चल जाता है कि हेपेटाइटिस-बी से लड़ने की 100 प्रतिशत क्षमता है, वो भी उम्र भर के लिए. बदक़िस्मती से सार्स कोरोना वायरस-2 के मामले में ऐसी इम्यूनिटी का कोई पैमाना नहीं मिल सका है. यहां ये समझना ज़रूरी है कि हर वायरस एक अलग तरह का जीव होता है और हमारे शरीर में उससे लड़ने के लिए अलग अलग तरह से प्रतिरोधक क्षमता विकसित होती है. सच तो ये है कि ज़्यादातर वायरस इंसानों के लिए नुक़सानदेह होते ही नहीं हैं.

कोरोना वायरस से लड़ने के लिए किस स्तर की रोग प्रतिरोधक क्षमता चाहिए, इसका पता न लग पाने के कई कारण हैं. पहला तो ये कि ये वायरस, विषाणों के ऐसे परिवार से आता है, जो बार बार संक्रमित करने के लिए जाने जाते हैं. दूसरी वजह ये है कि वायरस चाहे एक जैसे हों, मगर हर इंसान की रोगों से लड़ने की ताक़त अलग-अलग होती है. 

कोरोना वायरस से लड़ने के लिए किस स्तर की रोग प्रतिरोधक क्षमता चाहिए, इसका पता न लग पाने के कई कारण हैं. पहला तो ये कि ये वायरस, विषाणों के ऐसे परिवार से आता है, जो बार बार संक्रमित करने के लिए जाने जाते हैं. दूसरी वजह ये है कि वायरस चाहे एक जैसे हों, मगर हर इंसान की रोगों से लड़ने की ताक़त अलग-अलग होती है. इस बात को हम इस मिसाल से समझ सकते हैं. हम ये मान सकते हैं कि एक औसत भारतीय पुरुष की लंबाई पांच से छह फुट के बीच या 5 फुट पांच इंच के बीच होती है. इस दायरे में भारत के लगभग 95 फ़ीसद पुरुष आ जाते हैं. इसका मतलब है कि पांच फुट पांच इंच का औसत देश की आबादी के क़रीब क़रीब सभी नागरिकों की लंबाई का पैमाना हो सकता है. मगर दुर्भाग्य से सार्स कोरोना वायरस के मामले में एंटीबॉडी के निर्माण का दायरा इतना अलग-अलग है कि इससे सभी लोगों के लिए औसत का एक पैमाना तय कर पाना बहुत मुश्किल है. मतलब ये कि किस स्तर पर एंटी बॉडी हों तो व्यक्ति सुरक्षित है और कितनी एंटीबॉडी से कम होने पर उसके संक्रमित होने का ख़तरा होगा.

इसका तीसरा कारण ये है कि किसी भी वायरस के प्रति इम्यूनिटी दो स्तर की होती है. पहली तो ये कि वो वायरस किसी इंसान को संक्रमित न कर सके. ये क्षमता शरीर में मौजूद एंटीबॉडी पर निर्भर करती है. दूसरी ये कि संक्रमित होने की सूरत में वो वायरस हमें गंभीर रूप से बीमार न करे. हमारे अंगों को नुक़सान न पहुंचा सके. इसका कोई पैमाना उपलब्ध नहीं है. संक्रमित होने से बचाने या आगे संक्रमण फैलाने से रोकने के मामले में कोविड-19 के मौजूदा टीके बहुत कारगर नहीं हैं. हालांकि ये टीके लगवाने से भयंकर बीमारी से सुरक्षा ज़रूर मिल जाती है. लेकिन, इन टीकों से संक्रमण रोकने की क्षमता तीन महीने बाद ही विकसित होनी शुरू होती है, और छह महीने बाद ये फिर से शून्य हो जाती है. किसी इंसान के शरीर में एंटीबॉडी की कमी होने के अलावा, वायरस के ख़ुद को बदलने की ताक़त के चलते भी, इसके इम्यूनिटी को चकमा देने की आशंका होती है. इसीलिए, कम से कम दो वजहें ऐसी हैं, जिनके चलते सार्स कोरोना वायरस-2 बार बार संक्रमण फैलाने में सक्षम है.

टीके लगवाने से भयंकर बीमारी से सुरक्षा ज़रूर मिल जाती है. लेकिन, इन टीकों से संक्रमण रोकने की क्षमता तीन महीने बाद ही विकसित होनी शुरू होती है, और छह महीने बाद ये फिर से शून्य हो जाती है.

जब हम दक्षिण अफ्रीका की मिसाल देखते हैं, तो एक साफ़ पैटर्न दिखता है. समय के बराबर के अंतर से महामारी की चार लहरें पैदा हुईं. हर लहर वायरस के एक अलग वेरिएंट के चलते शुरू हुई. दो लहरों के बीच छह महीने का फ़ासला था. हालांकि, सभी देशों में महामारी का यही पैटर्न नहीं देखा गया है. ये अंतर शायद भौगोलिक और आबादी के कारणों, टीकाकरण के कवरेज, प्राकृतिक संक्रमण की दर औ कोविड के अनुरूप बर्ताव में फ़र्क़ की वजह से देखने को मिला है.

ओमिक्रॉन कितना घातक है?

ओमिक्रॉन के संक्रमण के आंकड़ों को देखें, तो बहुत से लोग ये मान रहे हैं कि ये वायरस का एक कमज़ोर प्रतिरूप है. हालांकि, हक़ीक़त इससे अलग हो सकती है; इसकी बड़ी वजह ये हो सकती है कि तथ्यों का व्यापक आंकड़ा उपलब्ध न होने की सूरत में वैज्ञानिक इसे कमज़ोर मान रहे हैं. अब ये बात साबित हो चुकी है कि दोनों टीके लगवाने वाले और बूस्टर डोज़ ले चुके लोगों को भी ओमिक्रॉन वेरिएंट संक्रमित कर रहा है. नॉर्वे के पास फरो द्वीपों पर बूस्टर डोज़ लगवा चुके 33 स्वास्थ्य कर्मियों ने जब एक सामाजिक कार्यक्रम में हिस्सा लिया तो उनमें से दो तिहाई को ओमिक्रॉन वेरिएंट ने संक्रमित कर लिया. इनमें संक्रमण के लक्षण भी साफ़ दिख रहे थे. जिन लोगों में ऐसे संक्रमण होते हैं उनमें थकान, निढाल होने, पानी की कमी, बुखार और शरीर में दर्द जैसी शिकायत होती है. अच्छी बात ये है कि इनमें से ज़्यादातर लोगों को अस्पताल में भर्ती कराने की ज़रूरत नहीं पड़ती. हालांकि, इसका ये मतलब नहीं है कि ये बीमारी के हल्के लक्षण हैं.

दक्षिण अफ्रीका के आंकड़े ये भी बताते हैं कि डेल्टा वेव की तुलना में ओमिक्रॉन की लहर के दौरान, जिन लोगों को अस्पताल में भर्ती होने की ज़रूरत पड़ी, उनकी औसत उम्र दो दशक कम थी. संक्रमित लोगों में से सिर्फ़ 17 प्रतिशत लोगों को ऑक्सीजन की ज़रूरत पड़ी. जबकि डेल्टा वेव के चलते बीमार हुए 74 फ़ीसद लोगों को ऑक्सीजन सपोर्ट की ज़रूरत पड़ी थी.

वैज्ञानिकों के बीच अब ये आम सहमति बन रही है कि ओमिक्रॉन वेरिएंट के गंभीर लक्षण न दिखने की बड़ी वजह वायरस से ज़्यादा उससे संक्रमित इंसान के शरीर का बर्ताव होता है. दूसरे शब्दों में कहें तो बड़े स्तर पर टीकाकरण और महामारी की इससे पहले आई लहरों ने आबादी के एक बड़े हिस्से में B और T कोशिकाएं बना दी हैं. इसका मतलब ये है कि हो सकता है कि अब भले ही ये वायरस ज़्यादा तेज़ी से संक्रमित कर रहा हो, लेकिन उससे निपटने के लिए हमारे शरीर से भी ज़्यादा संगठित ढंग से प्रतिक्रिया हो रही है. इससे शरीर के अंगों को नुक़सान भी कम हो रहा है और इससे मौतें भी कम हो रही हैं.

यहां पर हमें किसी संक्रामक बीमारी की बुनियादी बातें याद रखनी चाहिए. ये वायरस एरोसॉल यानी हवा में मौजूद हल्की बूंदों के ज़रिए फैलता है. ये भारहीन कण होते हैं, जो हवा में लटके रहते हैं, और उन बंद जगहों पर भारी तादाद में बनकर घंटों तैरते रहते हैं, जहां पर लोग जमा होते और बातें करते हैं. टीका लगवाने से अस्थायी तौर पर आंशिक संरक्षण ज़रूर मिल जाता है. लेकिन, हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि हम हवा में मौजूद इन एरोसॉल से ख़ुद को बचाएं. क्योंकि इनमें वायरस होते हैं. यही कारण है कि लोगों से कोविड के अनुरूप बर्ताव करने को कहा जाता है क्योंकि ये बहुत महत्वपूर्ण है. इसका सबसे अहम तरीक़ा यही है कि हम बंद जगहों पर भीड़-भाड़ वाले कार्यक्रमों में जाने से ख़ास तौर से तब ज़रूर परहेज़ करें, जब संक्रमण तेज़ी से फैल रहा हो.

इस महामारी की एक बड़ी समस्या ये है कि इससे जुड़े कई पूर्वाग्रह फैल रहे हैं. मिसाल के तौर पर जो व्यक्ति सिर्फ़ ICU में जाता है, वो शायद ये सोच ले कि ओमिक्रॉन से संक्रमित ज़्यादातर मरीज़ गंभीर रूप से बीमार हैं. जो डॉक्टर बाहरी मरीज़ों को ही देखते हैं, वो ये समझने लगें कि लोगों में हल्के लक्षण ही हो रहे हैं. हवाई अड्डे के जो कर्मचारी, यात्रियों का परीक्षण करते हैं, वो शायद इस नतीजे पर पहुंचें कि ज़्यादातर लोगों में तो संक्रमण के लक्षण ही नहीं दिखते हैं. इसे हम आंखों देखा पूर्वाग्रह कहते हैं. इसकी वजह असल में ये होती है कि हम मरीज़ों और संक्रमित लोगों के हर तबक़े के आधार पर अपनी राय नहीं क़ायम कर पाते हैं.

इससे पता चलता है कि हमें ओमिक्रॉन के बारे में लगातार संस्थागत तरीक़े से जुटाए और प्रकाशित किए गए आंकड़ों पर नज़र रखनी चाहिए. अच्छी बात ये है कि हमारे पास दक्षिण अफ्रीका के ऐसे आंकड़े हैं. हमें अब ये मालूम है कि दक्षिण अफ्रीका में महामारी की चौथी लहर बड़ी तेज़ी से फैली थी और उतनी ही तेज़ी से इसमें उतार भी देखा गया है. दक्षिण अफ्रीका के आंकड़े ये भी बताते हैं कि डेल्टा वेव की तुलना में ओमिक्रॉन की लहर के दौरान, जिन लोगों को अस्पताल में भर्ती होने की ज़रूरत पड़ी, उनकी औसत उम्र दो दशक कम थी. संक्रमित लोगों में से सिर्फ़ 17 प्रतिशत लोगों को ऑक्सीजन की ज़रूरत पड़ी. जबकि डेल्टा वेव के चलते बीमार हुए 74 फ़ीसद लोगों को ऑक्सीजन सपोर्ट की ज़रूरत पड़ी थी. डेल्टा लहर के दौरान जहां अस्पताल में भर्ती कराए गए 29 प्रतिशत लोगों की मौत हो गई थी. वहीं, ओमिक्रॉन वैरिएंट से संक्रमित जितने लोग अस्पताल में भर्ती हुए, उनमें से केवल 3 फ़ीसद की ही जान गई. इस बार शायद हमारे पास ये सबसे भरोसेमंद आंकड़ा है, जो हमें इस बात का अंदाज़ा कराता है कि ओमिक्रॉन वैरिएंट एक जैसी आबादी वाले देशों में कैसा असर दिखाने वाला है.

भारत में इस्तेमाल की जा रही वैक्सीनों की बूस्टर या प्रिकॉशन डोज़ से कितने वक़्त सुरक्षा मिलेगी, इसके आंकड़े अभी उपलब्ध नहीं हैं. लेकिन, विदेशों में इस्तेमाल की जा रही mRNA वैक्सीन के आंकड़े बताते हैं कि बूस्टर डोज़ से कम से कम दस हफ़्ते तक सुरक्षा मिलती है. इससे एक बड़ा सवाल ये पैदा होता है कि आगे चलकर क्या रणनीति अपनानी होगी

अगर बीमारी के पैमानों पर देखें, तो भारत की आबादी, ब्रिटेन या अमेरिका की तुलना में दक्षिण अफ्रीका से ज़्यादा मिलती जुलती है. ख़ास तौर से दक्षिण अफ्रीका के गौटेंग सूबे में आबादी का घनत्व भारत के बराबर ही है. औसत उम्र तीस साल से कुछ ही कम है और आबादी के एक बड़े तबक़े के बीच क़ुदरती तौर पर संक्रमण फैलने की दर भी लगभग समान है. हालांकि, भारत की तुलना में दक्षिण अफ्रीका में टीकाकरण की दर बहुत कम है. दक्षिण अफ्रीका का मौसम, पश्चिमी देशों में होने वाली सर्दी की तुलना में गर्म है. ठंडे मौसम के चलते पश्चिमी देशों में बंद जगहों पर लोग ज़्यादा इकट्ठे होते हैं. 

भारत में ओमिक्रॉन

भारत में इस वक़्त ओमिक्रॉन वेरिएंट की तेज़ लहर चल रही है. चूंकि भारत का भौगोलिक दायरा बहुत बड़ा है, इसलिए मॉडल पर आधारित अध्ययन बताते हैं कि देश के अलग अलग इलाक़ों में इस लहर का पीक अलग-अलग वक़्त पर आएगा. माना जा रहा है कि डेल्टा वेरिएंट से पैदा हुई लहर की तुलना में ओमिक्रॉन वैरिएंट की लहर कम वक़्त ही चलेगी. इसके कारणों का ज़िक्र हम पहले ही कर चुके हैं. वयस्कों के बड़े पैमाने पर टीकाकरण और आबादी के एक बड़े हिस्से को वायरस द्वारा संक्रमित करने के चलते जो रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित हुई है, उससे संक्रमित मरीज़ों की तादाद भले ही अधिक हो, मगर अस्पताल में कम ही लोगों को भर्ती कराना पड़ेगा. आगे चुनौती इस बात की होगी कि अस्पताल की व्यवस्था, इस लहर के शीर्ष पर पहुंचने के दौरान और उसके बाद भी सुचारु रूप से चलती रहे. जिससे कोविड-19 के मरीज़ों के इलाज से मना करने की स्थिति न आए. हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था दो कारणों से बोझ तले दब सकती है: या तो बहुत बड़ी संख्या में लोग बीमार पड़ जाएं और उनके साथ साथ बहुत से स्वास्थ्यकर्मी भी ख़ुद बीमार हो जाएं, छुट्टियों पर चले जाएं. ये उम्मीद की जा रही है कि जिस तरह बूस्टर डोज़ लगाने का काम शुरू किया गया है, उससे स्वास्थ्य कर्मियों की बड़ी संख्या को बीमार होने से बचाया जा सकेगा. इसके अलावा लोग कोविड अनुरूप बर्ताव करके ख़ुद को संक्रमित होने से बचाएंगे.

भारत में इस्तेमाल की जा रही वैक्सीनों की बूस्टर या प्रिकॉशन डोज़ से कितने वक़्त सुरक्षा मिलेगी, इसके आंकड़े अभी उपलब्ध नहीं हैं. लेकिन, विदेशों में इस्तेमाल की जा रही mRNA वैक्सीन के आंकड़े बताते हैं कि बूस्टर डोज़ से कम से कम दस हफ़्ते तक सुरक्षा मिलती है. इससे एक बड़ा सवाल ये पैदा होता है कि आगे चलकर क्या रणनीति अपनानी होगी? जिन लोगों ने वैक्सीन के पहले चरण में टीका लगवा लिया है, उन्हें हर कुछ वक़्त के बाद बूस्टर डोज़ देने का विकल्प उपयोगी और तार्किक नहीं लगता है. संक्रमण को कम करने का एक बेहतर समाधान निकालने की ज़रूरत होगी. ख़ास तौर से तब और जब वैक्सीन की दो ख़ुराक हमें लंबे समय तक गंभीर संक्रमण और बीमारी से बचाव दे सकती हैं.

ओआरएफ हिन्दी के साथ अब आप FacebookTwitter के माध्यम से भी जुड़ सकते हैं. नए अपडेट के लिए ट्विटर और फेसबुक पर हमें फॉलो करें और हमारे YouTube चैनल को सब्सक्राइब करना न भूलें. हमारी आधिकारिक मेल आईडी [email protected] के माध्यम से आप संपर्क कर सकते हैं.


The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.