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Published on Mar 30, 2023 Updated 0 Hours ago

भारत, पाकिस्तान, इराक़ और UAE जैसे देश रूस और चीन के साथ तेल या अन्य वस्तुओं के व्यापार के लिए अपनी तमाम स्थानीय मुद्राओं में भुगतान करने का सौदा कर चुके हैं.

तेल से जुड़ी भू-राजनीति: पेट्रोडॉलर रिसाइक्लिंग से जुड़ी क़वायद पर एक नज़र…!

ये लेख हमारी श्रृंखला कॉम्प्रिहैंसिव एनर्जी मॉनिटर: इंडिया एंड द वर्ल्ड का हिस्सा है.


पृष्ठभूमि

पिछली दो सदियों के ज़्यादातर हिस्से में वैश्विक आर्थिक वृद्धि और समृद्धि को जीवाश्म ईंधनों (कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस) ने ही ऊर्जा प्रदान की थी. ख़ासतौर से प्रथम विश्वयुद्ध के बाद राष्ट्रों की सुरक्षा सुनिश्चित करने, आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने और वैश्विक व्यापार को बरक़रार रखने के लिए तेल मुख्य ईंधन बन गया. औद्योगिकृत देशों से ‘पीक ऑयल’ और ‘ऊर्जा सुरक्षा’ जैसे शैक्षणिक विमर्शों का आग़ाज़ हुआ. इन देशों ने तेल आपूर्ति में रुकावट को अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक जोख़िम के प्रमुख स्रोत के तौर पर देखा. इस क़वायद ने तेल क़ीमतों में उछाल ला दी. नतीजतन तेल निर्यातक देशों (ख़ासतौर से फ़ारस की खाड़ी या “खाड़ी”) के पास अतिरिक्त राजस्व आ गया. इस अतिरिक्त कमाई को औद्योगिक देशों ने ‘पेट्रोडॉलर रिसाइक्लिंग’ के ज़रिए ‘सामाजिक और पर्यावरणीय लागतों के दायरे से बाहर’ कर दिया. बहरहाल, तेल उत्पादक और उपभोक्ता राष्ट्रों के बीच भू-राजनीतिक संपर्कों में बदलावों का अल्प-काल में पेट्रोडॉलर रिसाइक्लिंग पर ज़बरदस्त प्रभाव पड़ने के आसार हैं.

एक अवशोषण मार्ग था, जिसके ज़रिए घरेलू उपभोग और निवेश के वित्त-पोषण के लिए पेट्रोडॉलर ख़र्च किए गए. इस व्यवस्था से वस्तुओं और सेवाओं के आयात की मांग बढ़ गई. 

पेट्रोडॉलर रिसाइक्लिंग

तेल की बढ़ी मांग की विशेषता वाली आर्थिक वृद्धि और उसके नतीजतन तेल की ऊंची क़ीमतों से ना सिर्फ़ खाड़ी में तेल निर्यात से होने वाली कमाई पर आश्रित अर्थव्यवस्थाओं बल्कि अन्य समृद्ध देशों (ख़ासतौर से अमेरिका) को भी खूब फ़ायदा हुआ. तमाम हथकंडों के ज़रिए तेल से होने वाली कमाई को हड़पने में अमेरिका कामयाब रहा. इसी क़वायद को पेट्रोडॉलर रिसाइक्लिंग के नाम से जाना जाने लगा. इसके तहत तेल निर्यातक देशों से डॉलर में नामित पेट्रोलियम राजस्व का बाक़ी दुनिया में प्रवाह सुनिश्चित किया गया. मोटे तौर पर दो रास्तों से पेट्रोडॉलर की रिसाइक्लिंग की गई.

एक अवशोषण मार्ग था, जिसके ज़रिए घरेलू उपभोग और निवेश के वित्त-पोषण के लिए पेट्रोडॉलर ख़र्च किए गए. इस व्यवस्था से वस्तुओं और सेवाओं के आयात की मांग बढ़ गई. दूसरा पूंजी खाते का रास्ता था, जिसके तहत आयात पर ख़र्च नहीं किए गए पेट्रोडॉलरों को विदेशों में धारित विदेशी परिसंपत्तियों में जमा करके रखा जाता था. इससे पूंजी खाते में बाहर की ओर प्रवाह का नतीजा सामने आया. इन परिसंपत्तियों को केंद्रीय बैंक अपने अंतरराष्ट्रीय आरक्षित भंडार के तौर पर धारित करते थे या तेल-निर्यातक देशों के संस्थागत कोषों द्वारा इन्हें जमा रखा जाता था. आमतौर पर पूंजी खाते के रास्ते से होने वाली क़वायदों को ही पेट्रोडॉलर रिसाइक्लिंग के नाम से जाना जाता है.

पेट्रोडॉलर रिसाइक्लिंग की जड़ें द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 1944 में हुए ब्रेटन वूड्स समझौतों तक जाती हैं. इस रज़ामंदी ने अमेरिकी डॉलर को दुनिया की इकलौती आरक्षित मुद्रा बना दिया. इसके मायने ये हुए कि तेल के सभी क़रारों के मूल्य अमेरिकी डॉलर में ही तय होने थे. 1945 में अमेरिकी राष्ट्रपति और सऊदी अरब के किंग के बीच हुई बैठक से दोनों देशों के बीच रिश्तों में और मज़बूती आ गई. इससे सऊदी अरब में तेल के क्षेत्र में अमेरिकी निवेश ने रफ़्तार पकड़ ली. सोने के प्रवाह से जुड़े बढ़ते संकट और घरेलू स्तर पर महंगाई की समस्या से निपटने के लिए 1971 में अमेरिकी राष्ट्रपति ने सोने में डॉलर की परिवर्तनीयता को ख़त्म कर दिया. इसके चलते डॉलर में हुए अवमूल्यन से खाड़ी क्षेत्र के तेल निर्यातक देशों के राजस्व पर चोट पड़ी. दूसरी ओर आयातों की लागत में इज़ाफ़ा हो गया.

1970 के दशक में जब डॉलर और तेल के बीच की कड़ी मज़बूत हुई, तब अमेरिकी रक्षा उद्योग में निजीकरण और अंतरराष्ट्रीयकरण को बढ़ावा दिया जा रहा था. तब से अमेरिका में तेल का प्रवाह और खाड़ी क्षेत्र में हथियारों की आमद अमेरिकी अर्थव्यवस्था का एक अहम हिस्सा बन गई.

1973 में खाड़ी के तेल निर्यातक देशों ने तेल निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया. इससे खाड़ी देशों के हालात पलट गए और कुछ ही महीनों में तेल की क़ीमतें चार गुणा तक बढ़ गईं. नतीजतन खाड़ी इलाक़े के तेल निर्यातक देशों को पहली बार छप्परफाड़ मुनाफ़े का स्वाद चखने को मिला.

तेल निर्यातकों द्वारा डॉलर की जमाख़ोरी एक अप्रत्याशित घटना थी. ये अमेरिका के लिए गंभीर चिंता का विषय था. 1974 में सऊदी अरब की सरकार अमेरिकी ठेकों के बदले भुगतान के लिए अमेरिकी डॉलर के इस्तेमाल पर रज़ामंद हो गई. आर्थिक सहयोग पर अमेरिका और सऊदी अरब के साझा आयोग के ज़रिए अदायगी को लेकर ये क़रार हुआ. इसने ज़ाहिर तौर पर ‘पेट्रोडॉलर’ रिसाइक्लिंग को औपचारिक रूप दे दिया. इस प्रकार तथाकथित ‘पेट्रोडॉलर’ वास्तविक अर्थों में स्वर्ण मानकों (1971 से पहले वाले दौर के) की जगह स्थापित हो गया. इससे बाक़ी दुनिया को डॉलर संजोकर रखने की तमाम वजहें मिल गईं. नतीजतन कच्चे तेल की क़ीमतों को आर्थिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किए जाने की रणनीति की हवा निकल गई. इसके साथ ही अमेरिका के बढ़ते व्यापार घाटे के वित्त-पोषण के लिए ‘पेट्रोडॉलर’ एक ज़रिया बन गया. 2022 में सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात (UAE), कुवैत और इराक़ क़रीब 271 अरब अमेरिकी डॉलर की ट्रेज़री सिक्योरिटी होल्डिंग्स के साथ अमेरिका के प्रमुख साख-प्रदाता देशों में शामिल रहे.

हथियारों का व्यापार

खाड़ी क्षेत्र में तेल निर्यातक देशों की अतिरिक्त कमाई, हथियारों के व्यापार के ज़रिए वापस औद्योगिकृत देशों तक पहुंचने लगी. ‘निक्सन सिद्धांत’ के मुताबिक मित्र राष्ट्रों (खाड़ी में मौजूद देशों समेत) को औज़ारों और विशेषज्ञों की आपूर्ति के साथ-साथ उपभोक्ता राष्ट्रों से कम-लागत वाली सैन्य टुकड़ियों के जुगाड़ की क़वायद, पश्चिम के आर्थिक हितों की सुरक्षा के लिहाज़ से सर्वोत्तम विकल्प था. अमेरिकी अर्थशास्त्रियों ने तेल निर्यातक देशों द्वारा हथियारों की ख़रीद को दुनिया के अल्प-कालिक पूंजी बाज़ारों में घूम रहे पेट्रोडॉलर को कम करने के लिहाज़ से एक उपाय के तौर पर देखा. 1976 में रक्षा सामग्रियों की ख़रीद के उप सहायक सचिव ने अमेरिकी कांग्रेस को बताया कि गिरते सैन्य औद्योगिक आधार की व्यावहारिकता को बरक़रार रखने में हथियारों की बिक्री से मदद मिली. इससे ख़रीद की लागत में कमी आई और अमेरिकी भुगतान संतुलन के स्तर में सुधार आया. आकलनों के मुताबिक 1960 के दशक के आख़िर से अबतक सुपुर्द किए जा चुके हथियारों (निर्माण, प्रशिक्षण और सेवाओं को छोड़कर) से प्राप्त भुगतान, निर्यात से अमेरिका को हुई सकल आय का 4.5-7 प्रतिशत रहा है.

ये हालात 1950 के दशक से पहले वाली अमेरिकी हथियार निर्यात नीति से ठीक विपरीत थे. उस वक़्त 95 फ़ीसदी हथियार विदेशी सहायता के तौर पर मुहैया कराए जाते थे. 1980 का दशक आते-आते विदेशी मदद के तौर पर निर्यातित हथियारों का हिस्सा घटकर 45 प्रतिशत तक पहुंच गया, जबकि साल 2000 तक ये और गिरकर 25 फ़ीसदी से भी कम हो गया. 1970 के दशक में जब डॉलर और तेल के बीच की कड़ी मज़बूत हुई, तब अमेरिकी रक्षा उद्योग में निजीकरण और अंतरराष्ट्रीयकरण को बढ़ावा दिया जा रहा था. तब से अमेरिका में तेल का प्रवाह और खाड़ी क्षेत्र में हथियारों की आमद अमेरिकी अर्थव्यवस्था का एक अहम हिस्सा बन गई. खाड़ी क्षेत्र के देश हथियारों और प्रतिरक्षा उपकरणों के सबसे बड़े आयातक बन गए. 1974 में सऊदी अरब द्वारा हथियारों और रक्षा साज़ोसामानों का आयात 2.6 अरब अमेरिकी डॉलर के बराबर था. 1985 से 1992 के बीच इसमें दस गुणा बढ़ोतरी हुई और ये 25.4 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया.

.ग़ौरतलब है कि भारत समेत तमाम अन्य देशों को तेल आयातों के लिए ज़रूरी रकम जुटाने के लिए कर्ज़ लेना पड़ता था. वस्तुओं और सेवाओं (हथियारों के व्यापार समेत) के व्यापार या पूंजी बाज़ारों के ज़रिए दुनिया भर में तेल की कमाई का प्रसार हो रहा था. इससे तेल आयातकों और तेल निर्यातकों के बीच के असंतुलन ने मूर्त रूप ले लिया.

तेल की ऊंची क़ीमतों वाले दौर में खाड़ी और अन्य क्षेत्रों के तेल निर्यातकों ने अपने विदेशी मुद्रा भंडारों से एक हिस्सा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) को उधार के तौर पर भी उपलब्ध कराया. इसका मक़सद तमाम तेल-आयातक देशों की भुगतान संतुलन ज़रूरतों को पूरा करना था. इस प्रणाली के तहत विकासशील देशों के ज़रिए तेल क़ीमतों की रिसाइक्लिंग की जाती थी. IMF से सहायता हासिल करने वाले विकासशील देशों को अक्सर कई प्रकार की नीतियां अपनानी पड़ती थी. इस कड़ी में उनकी अर्थव्यवस्थाओं को पश्चिमी वस्तुओं और सेवाओं के साथ-साथ पश्चिमी जगत की नीतियों के लिए खोले जाने की उम्मीद की जाती थी.

2001 से 2011 के कालखंड के बीच तेल की क़ीमतें अपेक्षाकृत ऊंची बनी रहीं. नतीजतन खाड़ी के तेल निर्यातकों को तेल की छप्परफाड़ दरें हासिल हुईं. कुल मिलाकर उनका राजस्व 12 खरब अमेरिकी डॉलर से भी पार निकल गया. इसका 67 प्रतिशत हिस्सा वस्तुओं के आयात पर और 12 प्रतिशत सेवा आयातों पर ख़र्च किया गया. तेल के बाक़ी बचे राजस्व में से तक़रीबन 5 प्रतिशत (100 अरब अमेरिकी डॉलर) विदेशी कामगारों द्वारा वापस उनके वतन भेजने के ख़र्च हुआ जबकि 15 प्रतिशत हिस्सा विदेशी परिसंपत्तियों पर निवेश किया गया. खाड़ी क्षेत्र के देशों द्वारा हथियारों के आयात में 2007-11 और 2012-16 के बीच 86 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई. इस दौरान अकेले सऊदी अरब का आयात 212 फ़ीसदी बढ़ गया. 2013-17 और 2018-22 के बीच अमेरिकी हथियारों के निर्यात में 14 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ. वैश्विक स्तर पर हथियारों के कुल निर्यात में अमेरिका का हिस्सा 33 प्रतिशत से बढ़कर 40 प्रतिशत हो गया. 2018-22 में अमेरिकी हथियारों का कुल 41 प्रतिशत हिस्सा खाड़ी क्षेत्र में पहुंचा. 2013-17 में ये 49 प्रतिशत के स्तर पर था, ज़ाहिर है इस आंकड़े में गिरावट दर्ज की गई. 2018-22 के बीच अमेरिकी हथियारों के शीर्ष 10 आयातकों में खाड़ी के चार देश शामिल थे. सऊदी अरब, क़तर, कुवैत और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) अमेरिकी हथियारों के शीर्ष 10 निर्यात ठिकानों में थे. इन चार देशों ने अमेरिकी हथियार निर्यातों के लगभग 35 प्रतिशत हिस्से की ख़रीद की.

तेल की ऊंची क़ीमतों वाले दौर में तेल उत्पादकों को तेल की बिक्री से हुई अंधाधुंध कमाई से विश्व व्यापार में असंतुलन का संकट और गहरा गया. अंतरराष्ट्रीय व्यापार का झुकाव तेल का आयात करने वाले बड़े विकासशील देशों (भारत जैसे देश, जो भारी-भरकम व्यापार घाटा झेल रहे थे) के ख़िलाफ़ था. वैसे तो अमेरिका भी भारी व्यापार घाटे का शिकार था लेकिन आयातों के ख़र्चे के लिए डॉलर छापने की उसकी क़ाबिलियत उसे भारत जैसे देशों के मुक़ाबले ज़बरदस्त बढ़त मुहैया कराती थी. ग़ौरतलब है कि भारत समेत तमाम अन्य देशों को तेल आयातों के लिए ज़रूरी रकम जुटाने के लिए कर्ज़ लेना पड़ता था. वस्तुओं और सेवाओं (हथियारों के व्यापार समेत) के व्यापार या पूंजी बाज़ारों के ज़रिए दुनिया भर में तेल की कमाई का प्रसार हो रहा था. इससे तेल आयातकों और तेल निर्यातकों के बीच के असंतुलन ने मूर्त रूप ले लिया. तेल का आयात करने वाले विकासशील देशों (जैसे भारत) को संतुलन बहाल करने के लिए भारी क़ीमत चुकानी पड़ी.         

मुद्दे

बहरहाल, तेल निर्यातक और आयातक देशों की भू-राजनीतिक वरीयताओं में बदलावों के चलते अल्पकाल से लेकर मध्यम कालखंड में पेट्रोडॉलर रिसाइक्लिंग की क़वायद को ख़तरा पेश होने के आसार हैं. 2022 में सऊदी अरब ने कहा था कि वो चीन के साथ युआन में तेल का व्यापार करने पर विचार कर रहा है. जनवरी 2023 में डावोस में सऊदी अरब के विदेश मंत्री कह चुके हैं कि उनका मुल्क ना सिर्फ़ युआन बल्कि दुनिया की अन्य तमाम मुद्राओं में व्यापार करने का इच्छुक है. भारत, पाकिस्तान, इराक़ और UAE जैसे देश रूस और चीन के साथ तेल या अन्य वस्तुओं के व्यापार के लिए अपनी तमाम स्थानीय मुद्राओं में भुगतान करने का सौदा कर चुके हैं. ये क़वायद वैश्विक मौद्रिक प्रणाली की पहले से ज़्यादा विकेंद्रीकृत व्यवस्था (डॉलर से परे) का रूप ले सकती है. दीर्घकाल में जलवायु परिवर्तन पर लगाम लगाने से जुड़ी नीतियों के चलते तेल उत्पादन और उसके इस्तेमाल की प्रक्रिया सीमित या यहां तक कि समाप्त भी हो सकती है, जिससे पेट्रोडॉलर वाली व्यवस्था बेकार हो जाएगी. 

 Oil Geopolitics Revisiting Petrodollar Recycling

स्रोत: विश्व ऊर्जा 2022 की बीपी सांख्यिकीय समीक्षा

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Authors

Akhilesh Sati

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Akhilesh Sati is a Programme Manager working under ORFs Energy Initiative for more than fifteen years. With Statistics as academic background his core area of ...

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Lydia Powell

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Ms Powell has been with the ORF Centre for Resources Management for over eight years working on policy issues in Energy and Climate Change. Her ...

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Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change. Member of the Energy News Monitor production ...

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