Published on Jul 30, 2023 Updated 0 Hours ago

यूक्रेन पर रूसी हमले से वैश्विक व्यवस्था ख़तरे में है. तो क्या भारत को रूस की निंदा करनी चाहिए या फिर अपने बुनियादी हितों पर ध्यान देना चाहिए?

भारत-रूस संबंध: सामरिक स्वायत्तता और हितों का वास्ता देकर रूस से बनी रहेंगी भारत की नज़दीकियां!
भारत-रूस संबंध: सामरिक स्वायत्तता और हितों का वास्ता देकर रूस से बनी रहेंगी भारत की नज़दीकियां!

भारत के कई विशेषज्ञों और टीकाकारों ने ज़ोर देकर कहा है कि यूक्रेन पर हमले के राष्ट्रपति पुतिन के फ़ैसले के बाद भारत को रूस से दूरी बना लेनी चाहिए. उनकी दलील है कि रूस ने अपनी साम्राज्यवादी हरकत से मौलिक रूप से वैश्विक व्यवस्था की बुनियाद को ही चुनौती दे डाली है. लिहाज़ा भारत को रूसी कार्रवाई की निंदा करते हुए उसके साथ अपने रिश्तों पर फिर से विचार करना चाहिए. इस संदर्भ में एक और दलील पेश की जा रही है. कहा जा रहा है कि यूक्रेन पर रूस के आक्रमण को लेकर भारत का रुख़ सामरिक स्वायत्तता और बुनियादी हितों के बीच की पसंदगी को ज़ाहिर करता है. ऐतिहासिक और समसामयिक तौर पर भारत के लिए सामरिक स्वायत्तता की क़वायद और अपने हितों की तलाश एक ही सिक्के के दो पहलू रहे हैं. हालांकि, भारत के पास रूस के साथ भाईचारे का रिश्ता क़ायम रखने की तमाम वजहें मौजूद हैं. जज़्बाती होकर सामरिक और नीतिगत मसलों पर फ़ैसले नहीं लिए जा सकते. यूक्रेन पर रूस के आक्रमण की निंदा नहीं करने के रुख़ को जायज़ ठहराते हुए कई दलीलें दी जा रही हैं. पहला तर्क ये है कि भारत अतीत में इसी तरह की अतिक्रमणकारी हरकत करने वाले देशों की निंदा करने से परहेज़ करता रहा है. हालांकि, भारत की ख़ामोशी भरे रुख़ के ज़्यादातर मामले रूस और पूर्ववर्ती सोवियत संघ के संदर्भों में ही रहे हैं. दूसरा, रूस के संदर्भ में भारतीय हितों का बुनियादी मसला रक्षा कारोबार से जुड़ा रहा है. रक्षा से जुड़े मसलों में किसी भी तरह के ख़लल से अपने प्रमुख शत्रुओं- चीन और पाकिस्तान से बचाव करने की भारतीय क्षमताओं पर असर पड़ सकता है. 

यूक्रेन पर रूस के आक्रमण को लेकर भारत का रुख़ सामरिक स्वायत्तता और बुनियादी हितों के बीच की पसंदगी को ज़ाहिर करता है. ऐतिहासिक और समसामयिक तौर पर भारत के लिए सामरिक स्वायत्तता की क़वायद और अपने हितों की तलाश एक ही सिक्के के दो पहलू रहे हैं.

नीचे की पड़ताल से पता चलता है कि किसी बड़ी ताक़त द्वारा सैन्य शक्ति के इस्तेमाल की हर बड़ी घटना में भारत के हित भी दांव पर लगते रहे हैं. भारत के लिए ये महज़ “सामरिक स्वायत्तता और बुनियादी हितों” के बीच किसी एक को चुनने का मामला नहीं रहा है. 1956 में सोवियत संघ ने हंगरी के विद्रोहियों के ख़िलाफ़ बेरहमी से कार्रवाई की थी. नेहरू ने इसके लिए कभी भी सोवियत संघ की आलोचना नहीं की. यहां तक कि उन्होंने निजी तौर पर इस पूरे मसले को “अस्पष्ट” करार दे डाला था. हालांकि, सार्वजनिक रूप से उन्होंने कभी भी इसके ख़िलाफ़ कुछ नहीं कहा. दरअसल सार्वजनिक तौर पर सोवियत संघ की आलोचना नहीं करने के पीछे सामरिक रूप से उनके पास ढेरों वजहें मौजूद थीं. भौगोलिक तौर पर भारत तत्कालीन सोवियत संघ के नज़दीक था. 1955 से सोवियत संघ ख़ासतौर से कश्मीर और गोवा पर भारत का समर्थन करता आ रहा था. इसके अलावा नेहरू सोवियत संघ के साथ रक्षा क्षेत्र में भागीदारी के रिश्तों का आग़ाज़ करने की कोशिशों में लगे थे. इन तमाम कारकों की वजह से हंगरी के विद्रोह को कुचलने की सोवियत संघ की क़वायद पर भारत ने चुप्पी साध ली थी. इसी तरह 1968 में चेकोस्लोवाकिया पर सोवियत संघ द्वारा धावा बोले जाने पर भी भारत ने ख़ामोशी भरा रुख़ बरकरार रखा. इस बार भी रूस की निंदा नहीं करने के फ़ैसले के पीछे वही तमाम वजहें थीं. सोवियत संघ लगातार कश्मीर मसले पर भारत का समर्थन कर रहा था. इससे भी अहम बात ये थी कि मॉस्को के साथ भारत के रक्षा संबंधों में लगातार तरक़्क़ी हो रही थी. 1962 में भारत का चीन के साथ युद्ध हुआ था और 1960 के दशक के आख़िर तक चीन और सोवियत संघ के रिश्तों में भी भारी खटास आ गई थी. ऐसे में भारत सरकार सोवियत संघ के साथ रिश्तों में किसी तरह का दरार नहीं आने देने को लेकर बेहद संजीदा हो गई. 1979 में सोवियत संघ ने अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण कर दिया. इस बार भी निजी स्तरों पर गहरे विरोध और आक्रोश का इज़हार करने के बावजूद भारतीय पक्ष ने सार्वजनिक रूप से सोवियत संघ की आलोचना से परहेज़ किया. सामरिक तौर पर सोवियत संघ पर अपनी निर्भरताओं के चलते भारत ऐसा ख़ामोशी भरा रुख़ अख़्तियार करने को मजबूर था. पूर्ववर्ती सोवियत संघ की तरह रूस भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है. इस नाते उसके पास वीटो का अधिकार है. कश्मीर जैसे भारतीय हितों के मसलों पर सियासी समर्थन के लिए रूस बेहद अहम स्रोत है. ऐसे में सवाल उठता है कि भारत अपने रुख़ से रूस को अलग-थलग करने की कोशिश क्यों करेगा. अगर भविष्य में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कश्मीर के मुद्दे पर वोटिंग की नौबत आती है (भले ही आज ये दूर की कौड़ी लगती हो) तो परिषद के पश्चिमी सदस्य देशों द्वारा भारत का समर्थन किए जाने की कोई गारंटी नहीं है. ग़ौरतलब है कि रूस मौजूदा वक़्त में पाकिस्तान के साथ भी नज़दीकियां बढ़ा रहा है. यूक्रेन पर रूसी आक्रमण की निंदा करने वाले प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में हुई वोटिंग से भारत के नदारद रहने के पीछे ये भी एक बड़ी वजह है.   

1962 में भारत का चीन के साथ युद्ध हुआ था और 1960 के दशक के आख़िर तक चीन और सोवियत संघ के रिश्तों में भी भारी खटास आ गई थी. ऐसे में भारत सरकार सोवियत संघ के साथ रिश्तों में किसी तरह का दरार नहीं आने देने को लेकर बेहद संजीदा हो गई.

सामरिक स्वायत्तता, प्रतिबद्धता को लेकर समावेशी रुख़ 

रूस और उसके पूर्ववर्ती सोवियत संघ के परे देखें तो भारत ने 1990 में कुवैत पर इराक़ी हमले की भी निंदा नहीं की थी. उस वक़्त कुवैत में हिंदुस्तानियों की एक बड़ी आबादी की रिहाइश थी. इसके बावजूद भारत ने इराक़ के ख़िलाफ़ कोई टीका-टिप्पणी नहीं की. दरअसल सद्दाम हुसैन की अगुवाई में इराक़ी सरकार कश्मीर मुद्दे पर भारत का समर्थन करती रही थी. मुस्लिम देशों के समूह में इराक़ एक अपवाद था. इसी को देखते हुए भारत ने उसकी निंदा नहीं करने का फ़ैसला किया था. इतना ही नहीं भारत ने इराक़ी फ़ौज के अधिकारियों और नौकरशाहों को भी प्रशिक्षित किया था. ग़ैर-वाजिब फ़ौजी कार्रवाई को लेकर आधिकारिक स्तर पर भारत की दुविधा और निंदा से परहेज़ करने की फ़ितरत से अमेरिका और उसके मित्र देशों को भी फ़ायदा हुआ है. मिसाल के तौर पर 2003 में ब्रिटिश और अमेरिकी फ़ौज द्वारा इराक़ पर आक्रमण किए जाने पर भी भारत ने ऐसा ही रुख़ अपनाया था. 2011 में अमेरिका और उसके मित्र देशों को लीबिया के ख़िलाफ़ ग़ैर-वाजिब तरीक़े से ताक़त का इस्तेमाल किए जाने की मंज़ूरी देने के प्रस्ताव पर सुरक्षा परिषद में वोटिंग हुई थी. भारत ने इसके पक्ष में मतदान करने की बजाए ग़ैर-हाज़िर रहने का विकल्प चुना था. भारत का विचार था कि ऐसी क़वायद से सोमालिया जैसी नाकाम और अस्थिर राज्यसत्ता पैदा हो सकती थी. दोनों ही मामलों में भारत की तत्कालीन सरकारों (चाहे 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार हो या 2011 में मनमोहन सिंह की) ने दबी आवाज़ में आलोचना का रुख़ अपनाया था. 

अगर रूस के ख़िलाफ़ निंदा का कोई प्रस्ताव सचमुच भारतीय संसद के सामने रखा जाता है तो इसको मिलने वाले समर्थन के बारे में पक्के तौर पर कुछ भी कहना मुश्किल है. इसके बावजूद रूस की आलोचना करने वाले प्रस्ताव पर आत्मा की आवाज़ से मतदान कराने के लिए भारत सरकार संसद का विशेष सत्र बुलवा सकती है.   

2003 के वाक़ये में तो अमेरिका ने इराक़ में ब्रिटेन के साथ जारी अपनी साझा कार्रवाई में भारत से मदद तक मांग ली थी. जवाब में भारत अपनी सेना की पूरी इंफ़ेंट्री डिविजन की तैनाती का फ़ैसला लेने जा रहा था. ये एक विनाशकारी फ़ौजी क़वायद होती. आख़िरकार जनमत के भारी दबाव और आम सहमति के अभाव में वाजपेयी सरकार ने भारतीय टुकड़ी को इराक़ भेजने से पल्ला झाड़ लिया. ऐसा काफ़ी हद तक भारत और अमेरिका के बीच सकारात्मक द्विपक्षीय रिश्तों की वजह से मुमकिन हो सका था. दोनों ही देश अपनी सामरिक भागीदारी को गहरा करने की जुगत में लगे थे. इसकी शुरुआत क्लिंटन प्रशासन के दौरान हुई थी. राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश के कार्यकाल में ये क़वायद और तेज़ हुई. इसी के नतीजे के तौर पर बुश प्रशासन के कार्यकाल का अंत होते-होते भारत और अमेरिका के बीच परमाणु सौदा पूरा हो सका. आधिकारिक तौर पर वाजपेयी और मनमोहन सिंह की सरकारों ने कभी भी इराक़ और लीबिया में अमेरिकी या पश्चिमी ताक़तों की गतिविधियों की निंदा नहीं की. हालांकि इन क़वायदों के ख़िलाफ़ भारतीय संसद में चर्चा और वोट के ज़रिए निंदा प्रस्ताव पारित किए जाने की छूट ज़रूर दी गई. मोदी सरकार भी ऐसा कर सकती है. हालांकि भारत की मुख्य विपक्षी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने सुरक्षा परिषद में मतदान से ग़ैर-हाज़िर रहने के मोदी सरकार के ताज़ा फ़ैसले का समर्थन किया है. रूस की हरकत को लेकर भारत में गहरी नाख़ुशी और घबराहट का माहौल है. इसके बावजूद भारत के राजनीतिक दलों में रूसी कार्रवाई की निंदा करने के ख़िलाफ़ एक प्रकार की आम सहमति दिखाई देती है. मीडिया और भारतीय विदेश नीति से जुड़ी व्यवस्था के एक तबके को छोड़ दें तो बाक़ी कहीं से भी रूस के ख़िलाफ़ मुखर रुख़ अपनाने का समर्थन दिखाई नहीं देता. अगर रूस के ख़िलाफ़ निंदा का कोई प्रस्ताव सचमुच भारतीय संसद के सामने रखा जाता है तो इसको मिलने वाले समर्थन के बारे में पक्के तौर पर कुछ भी कहना मुश्किल है. इसके बावजूद रूस की आलोचना करने वाले प्रस्ताव पर आत्मा की आवाज़ से मतदान कराने के लिए भारत सरकार संसद का विशेष सत्र बुलवा सकती है.   

भारत अपनी सेना की पूरी इंफ़ेंट्री डिविजन की तैनाती का फ़ैसला लेने जा रहा था. ये एक विनाशकारी फ़ौजी क़वायद होती. आख़िरकार जनमत के भारी दबाव और आम सहमति के अभाव में वाजपेयी सरकार ने भारतीय टुकड़ी को इराक़ भेजने से पल्ला झाड़ लिया. ऐसा काफ़ी हद तक भारत और अमेरिका के बीच सकारात्मक द्विपक्षीय रिश्तों की वजह से मुमकिन हो सका था.

बहरहाल, अगर सचमुच ऐसी नौबत आती है तो आगे होने वाली घटनाएं यही दिखाएंगी कि सामरिक स्वायत्तता और अपने हितों के प्रति भारत की प्रतिबद्धता दो अलग-अलग खांचों में नहीं, बल्कि पारस्परिक रूप से समावेशी हैं. ऊपर बताए गए तमाम संदर्भों में भारत ने अपने बुनियादी हितों को आगे बढ़ाते हुए अपनी सामरिक स्वायत्तता का इस्तेमाल किया. एक ओर मोदी सरकार यूक्रेन में फंसे तमाम भारतीयों की सुरक्षित रूप से वतन वापसी सुनिश्चित कर रही है. दूसरी ओर हमले के चलते पश्चिमी देशों द्वारा रूस पर लगाई गई पाबंदियों से भारत को होने वाले संभावित नुक़सानों पर भी सरकार को ध्यान देना होगा. रूस पर लागू प्रतिबंधों से भारत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की आशंका है. भारत सरकार को इससे निपटने के उपाय ढूंढने होंगे. इसके साथ ही रूसी हथियारों पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता को कम करने की दिशा में भी काम करना होगा. भारत सामरिक स्वायत्तता को काफ़ी अहमियत देता है. ये क़वायद देश के बुनियादी हितों का नतीजा है. ऐसे में भारत में एक मज़बूत घरेलू रक्षा उद्योग होना लाज़िमी है. 

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