Published on Apr 03, 2018 Updated 0 Hours ago

एक बड़ा आइडिया जो वित्तीय क्षेत्र में जारी समस्‍त बहसों में कहीं खो गया है वह ‘उपभोक्ता’ है। स्वामित्व और नियंत्रण के बजाय उपभोक्ता को नियामकीय व्‍यवस्‍था के केंद्र में वापस लाने संबंधी नियामकीय उद्देश्य पर फिर से फोकस करना एक सही कदम साबित होगा।

नीरव मोदी-पीएनबी संकट से घबराएं नहीं, हालात सुधारें

इसका समाधान इस विशेष तथ्‍य में निहित है कि संसद एक-दूसरे से भिन्‍न कानूनों और उनके अंतर्गत आने वाले अनुच्‍छेदों को एक संयोजक कानूनी प्रणाली में प्रतिबिंबित करने में सक्षम है। | फोटो: पीटीआई

कभी-कभी कोई ‘अच्‍छा संकट’ भी बड़े काम का साबित होता है। अत: कभी भी किसी अच्छे संकट को बेकार नहीं जाने देना चाहिए। इसी संदर्भ में नीरव मोदी और पंजाब नेशनल बैंक (पीएनबी) के अधिकारियों से जुड़े कथित वित्तीय घोटाले का ताजा उदाहरण हमारे सामने है जिसमें भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और वित्त मंत्रालय (एमओएफ) दोनों एक-दूसरे पर नियामकीय दोष मढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। इस पर करीबी नजर रखने पर यह एक बिल्‍कुल ‘सटीक संकट’ प्रतीत होता है। इसमें समस्‍त जरूरी अवयव हैं, जैसे कि जबरदस्‍त वित्‍तीय चपत लगाना, संस्थागत विफलता, विशिष्ट तरह के अपराधों को अंजाम देना, ढीला-ढाला नियमन, इस संकट का जिम्मेदार बताने के लिए राजनीतिक स्‍तर पर तोहमत लगाने का दौर, सुधार लागू करने का अच्‍छा अवसर। भारतीय रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय द्वारा इस मामले में एक-दूसरे पर दोष मढ़े जाने से कतई विचलित न हों क्‍योंकि यह एक तरफ आरबीआई द्वारा अपनी साफ-सुथरी नियामक छवि को बनाए रखने और दूसरी तरफ वित्‍त मंत्रालय द्वारा अस्‍वस्‍थ ढंग से सकारात्मक सुर्खियां पाने के बीच जारी एक छोटे से खेल में महज सार्वजनिक स्‍तर पर अपनी प्रतिष्‍ठा को अक्षुण्‍ण रखने की कवायद है। बड़े मुद्दे तो इन खेलों के पीछे छिपे हुए हैं।

एक ‘अच्छा संकट’ वह होता है जो संस्थागत खामियों एवं नियामकीय खालीपन की कलई खोलता है और नीतिगत परिवर्तनों जैसे कि संशोधनों, नियमों एवं विनियमों के जरिए इसे दूर करता है तथा एक अपेक्षाकृत अधिक प्रभावशाली प्रणाली की स्थापना का मार्ग प्रशस्‍त करता है। इस विषय पर जारी बहस तो पहले ही इस संकट के विशिष्‍ट स्‍वरूप से अलग हटकर उन बड़े नियामकीय मुद्दों की ओर उन्‍मुख हो गई है जिनकी अनदेखी लंबे समय से हो रही है। आर्थिक एजेंट नीरव मोदी और मध्यस्थ पीएनबी तो गवर्नेंस में अंतर्निहित खामियों के गंभीर रोग के लक्षण मात्र हैं, जिनका बार-बार उभरना तय है।


एक ‘अच्छा संकट’ वह होता है जो संस्थागत खामियों एवं नियामकीय खालीपन की कलई खोलता है और नीतिगत परिवर्तनों जैसे कि संशोधनों, नियमों एवं विनियमों के जरिए इसे दूर करता है तथा एक अपेक्षाकृत अधिक प्रभावशाली प्रणाली की स्थापना का मार्ग प्रशस्‍त करता है।


हमने भारत के वित्तीय क्षेत्र में ऐसे कई संकट देखे हैं। जब वर्ष 1992 के प्रतिभूति घोटाले ने आरबीआई और विदेशी बैंकों पर इसकी निगरानी में अंतर्निहित खामियों का खुलासा किया था, तब केंद्रीय बैंक के नियामकीय ढांचे को मजबूत किया गया था। उसी वर्ष प्रकटीकरण (डिस्‍क्‍लोजर) और निगरानी के मानकों में अंतर्निहित खामियां उजागर हुई थीं जिसके परिणामस्‍वरूप भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) को वैधानिक दर्जा देने का मार्ग प्रशस्‍त हुआ था। इसी तरह बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में निवेशकों के लिए पारदर्शिता के अभाव को ध्‍यान में रखते हुए वर्ष 1994 में नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के शुभारंभ के जरिए कंप्यूटर आधारित ऑर्डर-मिलान ट्रेडिंग व्‍यवस्‍था शुरू की गई थी। प्रणालीगत नियामकीय रोग को ठीक करने के लिए हमें मौजूदा संकट के लक्षणों का समुचित उपयोग करना होगा।

मौजूदा संकट में नीतिगत सवाल यह है: सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) को कौन संचालित या नियंत्रित करता है — भारतीय रिजर्व बैंक, वित्त मंत्रालय अथवा दोनों? एक निष्‍कर्ष के रूप में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के नियमन में भारतीय रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय के बीच अधिकारों का विभाजन किस तरह से है? इसके अलावा, क्‍या इस तरह का नियामकीय खालीपन होना चाहिए? एक आदर्श दुनिया में, कथित मुजरिम नीरव मोदी और पीएनबी के अंतर्गत संदिग्ध सांठगांठ के बीच आगे की राह काफी आसान है: विभिन्‍न बिंदुओं या चिन्‍हों को आपस में जोड़ने के लिए केवाईसी (अपने ग्राहक को जानो) मानदंडों का उपयोग करें, धनराशि पर करीबी नजर रखने के लिए ‘आधार’ का उपयोग करें और अभियुक्त को कानून के दायरे में लाएं। यह इतनी बड़ी बात क्यों है? नियामक अधिकारों के विभाजन से क्षमता घट जाती है, ध्यान केंद्रित निरीक्षण संभव नहीं हो पाता है और ऐसे में जवाबदेही अस्‍पष्‍ट हो जाती है। आरबीआई गवर्नर पटेल और वित्त मंत्री अरुण जेटली के बीच उभरे सार्वजनिक विवाद ने संकट की गंभीरता को कम कर दिया है, क्‍योंकि ये दोनों ही इससे जुड़ी जवाबदेही की गेंद को एक-दूसरे के पाले में डाल रहे हैं।

संक्षेप में, मौजूदा घोटाला कुछ इस प्रकार है : पीएनबी के अधिकारियों के साथ सांठगांठ कर हीरा व्यापारी नीरव मोदी और उसके चाचा मेहुल चोकसी ने आवश्यक प्रतिभूतियों और व्यापारिक रिकॉर्डों के बिना ही इस बैंक से उपक्रम पत्र या लेटर ऑफ अंडरटेकिंग (एलओयू) प्राप्त करने के लिए एक नियामकीय खामी का कथित तौर पर इस्तेमाल किया। घोटाला कुल मिलाकर 12,700 करोड़ रुपये का हुआ है, जो अधिकारियों द्वारा अनुमानित ‘मोदीकेयर’ की वार्षिक लागत से भी कुछ अधिक है। अपनी ओर से संभवत: एक तगड़ा झटका देते हुए भारतीय रिजर्व बैंक ने भारत में आयात के लिए एलओयू और ऋण पत्र (लेटर ऑफ क्रेडिट) जारी करने की प्रथा बंद कर दी है। [1]. अभी इस दिशा में कुछ और भी कार्रवाई किए जाने की संभावना है।

यह घोटाला एक ‘सटीक संकट’ इसलिए है क्‍योंकि नीरव मोदी भारत से बाहर है, जिस वजह से सामान्य तौर पर सरकार, विशेष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नियामकीय चेहरे के रूप में भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित आर. पटेल निर्मम विपक्षी दलों द्वारा इसको लेकर किए जा रहे ताबड़तोड़ हमलों के आगे बेबस नजर आ रहे हैं। इस घोटाले को लेकर सियासी शोर-शराबे ने इस मामले को काफी तूल दे दिया है। पिछली यूपीए सरकार में घोटालों से थक गए देश के लिए यह संकट एक चेतावनी है कि चीजें अब भी बदली नहीं हैं और संभवत: आगे भी नहीं बदलेंगी। पारदर्शी गवर्नेंस सुनिश्चित करने का दावा करने वाली इस सरकार के लिए यह एक काला धब्बा है। निगरानी सुनिश्चित करने का दावा करने वाली व्‍यवस्‍था के अंतर्गत नियामक ढांचे में खामी साफ तौर पर नजर आ रही है।

संबंधित प्रणाली या सिस्‍टम पर दबाव बढ़ता जा रहा है। 14 मार्च, 2018 को उर्जित पटेल ने गांधीनगर स्थित गुजरात नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में ‘मैं क्या कर सकता हूं?’ विषयक भाषण दिया। वैसे तो इस भाषण का मूल कारण (ट्रिगर) ‘भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में नवीनतम घोटाला’ था, लेकिन अपने द्वारा उठाए गए मुद्दों के तहत उन्होंने सार्वजनिक बैंकों (पीएसबी) की गवर्नेंस व्‍यवस्‍था पर प्रकाश डालने के उद्देश्‍य से धोखाधड़ी या घोटाले को एक केस स्‍टडी के रूप में सामने रखा। अत्‍यंत सावधानीपूर्वक योजनाबद्ध ढंग से दिए गए ‘बैंकिंग नियामकीय अधिकारों को स्वामित्व-तटस्थ होना चाहिए’ विषयक व्याख्यान में पटेल ने पीएसबी के बैंकिंग नियमन की अंदरूनी व्‍यवस्‍था को खुलकर सबके सामने रखा। [2] यह किसी पत्रकार के प्रश्न का कोई तत्क्षण या सहज जवाब नहीं था, न ही यह स्थायी संसदीय समिति को दिया गया स्पष्टीकरण था अथवा न ही आरबीआई बोर्ड की बैठक में हुई कोई आंतरिक चर्चा थी। 4,387 शब्दों वाला यह व्याख्यान त्रुटिहीन उद्धरणों एवं ठोस दलीलों के साथ किसी विद्वान द्वारा अत्‍यंत तर्कसंगत रूप से पेश किए गए पेपर जैसा प्रतीत होता है।


इस घोटाले को लेकर सियासी शोर-शराबे ने इस मामले को काफी तूल दे दिया है। पिछली यूपीए सरकार में घोटालों से थक गए देश के लिए यह संकट एक चेतावनी है कि चीजें अब भी बदली नहीं हैं और संभवत: आगे भी नहीं बदलेंगी।


पीएसबी के नियमन में अंतर्निहित ‘मौलिक दरारों’ के बारे में अपने ठोस विचार प्रस्‍तुत करने के लिए पटेल ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक द्वारा आयोजित ‘वित्तीय क्षेत्र आकलन कार्यक्रम (एफएसएपी)’ का सहारा लिया। एफएसएपी के 19 जनवरी 2018 के ‘प्रभावकारी बैंकिंग पर्यवेक्षण के लिए बेसल कोर सिद्धांतों के पालन के विस्तृत आकलन’ से भारतीय रिजर्व बैंक की स्वायत्‍तता से जुड़ी कमियों और पीएसबी की निगरानी करने के दौरान हितों के अंतर्निहित टकराव के बारे में पता चला। ‘पीएसबी की निगरानी और नियमन के लिए भारतीय रिजर्व बैंक को प्राप्‍त कानूनी अधिकार भी सीमित हैं — वह पीएसबी के निदेशकों या प्रबंधन को नहीं हटा सकता है, जिसे भारत सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता है और न ही वह विलय के लिए विवश कर सकता है या किसी पीएसबी के परिसमापन की दिशा में कदम उठा सकता है। यही नहीं, आरबीआई को रणनीतिक दिशा, जोखिम प्रोफाइल, प्रबंधन के आकलन और क्षतिपूर्ति के बारे में पीएसबी के बोर्डों को जवाबदेह बनाने के मामले में भी सीमित कानूनी अधिकार प्राप्‍त हैं।’ इसमें इन बातों का उल्‍लेख किया गया है। [3] इसके साथ ही इसमें ‘पर्यवेक्षी अमल में समान अवसर सुनिश्चित करने’ के लिए कानूनी सुधारों को लागू करने की सिफारिश की गई है।

एफएसएपी के आकलन में यह भी कहा गया है कि भारतीय रिजर्व बैंक ‘बीआरए’ की धारा 21 के जरिए बैंकों की गवर्नेंस पर जो प्रभाव डाल सकता है — बैंकों द्वारा दिए जाने वाले अग्रिमों को नियंत्रित करने के लिए आरबीआई को प्रदत्‍त अधिकार — बैंकों के बोर्डों में आरबीआई के प्रतिनिधियों का प्‍लेसमेंट, अन्य बैंकिंग अधिनियमों के तहत आरबीआई के बेहद सीमित अधिकार के साथ-साथ ‘पीएसबी बोर्डों को जिम्मेदार ठहराने की प्रथा’ समस्याग्रस्त हो गई है। [4] एफएसएपी के आकलन में कहा गया है कि कानून के तहत और प्रथा के अनुसार रिजर्व बैंक आकलन के लिए और — आवश्यकता पड़ने पर — कमजोर एवं गैर-प्रदर्शन करने वाले वरिष्ठ प्रबंधन और सरकार द्वारा नियुक्त बोर्ड के सदस्यों को प्रतिस्‍थापित करने के लिए पीएसबी बोर्डों को जवाबदेह नहीं ठहरा सकता है।

भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा ‘बैंकिंग क्षेत्र की धोखाधड़ि‍यों एवं अनियमितताओं पर अपना आक्रोश, चोट और दर्द’ व्यक्त करने वाले पटेल के तर्कों को पहली बार पढ़ने पर हम यह विश्वास करने पर विवश हो जाते हैं कि कानून द्वारा आरबीआई पर थोपी गई पाबंदियों के कारण वह पीएसबी को संचालित या नियंत्रित करने के मामले में बेबस है। उदाहरण के लिए, बीआरए की धारा 51 में पीएसबी पर कानून के अमल के बारे में स्पष्ट रूप से एक सूची तैयार की गई है। पटेल ने इसे पीएसबी की ‘कॉरपोरेट गवर्नेंस पर आरबीआई के अधिकारों को पूरी तरह से हटाने या क्षीणता’ के रूप में वर्णित किया है। ‘इस विधायी वास्तविकता ने वास्तव में बैंकिंग नियामकीय क्षेत्र के परिदृश्य में गहरी दरार उत्‍पन्‍न कर दी है: भारतीय रिजर्व बैंक के अलावा वित्त मंत्रालय द्वारा दोहरे नियमन की एक प्रणाली।’

हालांकि, बीआरए और संबंधित कानूनों, विशेषकर भारतीय स्टेट बैंक अधिनियम, 1955; बैंकिंग कंपनियां (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम, 1970; और बैंक राष्ट्रीयकरण अधिनियम, 1980 को गहराई से पढ़ने पर यह पता चलता है कि सच्चाई अस्‍पष्‍ट है, पटेल सही तो हैं लेकिन पूरी तरह से नहीं। उदाहरण के लिए, एसबीआई अधिनियम के तहत बोर्ड की नियुक्ति में आरबीआई की कोई भूमिका नहीं है, जो ‘केंद्र सरकार के निर्देशों के अनुसार निर्देशित’ है। हालांकि, बोर्ड के चेयरमैन और (अधिकतम चार) प्रबंध निदेशकों की नियुक्ति सरकार द्वारा ‘रिजर्व बैंक के परामर्श से’ की जाती है। इसी तरह बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम के तहत कार्यरत सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में निदेशकों की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा ‘रिजर्व बैंक के परामर्श से’ की जाती है। इसी तरह कई अन्य प्रावधानों के लिए (बॉक्स 2 देखें) ‘आरबीआई के साथ परामर्श’ नियामकीय दृष्टि से संभवत: बाध्यकारी नहीं है, लेकिन उसका प्रभाव या निशान अवश्‍य दिखता है। यही नहीं, जब भी किसी घोटाले का पर्दाफाश होता है और उसकी जांच शुरू की जाती है, तो इस तरह के प्रभाव या निशान की ओर ध्‍यान जाना तय है। अत: कानूनी रूप से सही होने पर भी पटेल इस सटीकता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति की अनदेखी कर रहे हैं। बेशक, जब तक पटेल यह नहीं कह रहे हैं कि सरकार उससे बिल्कुल भी परामर्श नहीं कर रही है।

संक्षेप में, 27 पीएसबी को नियंत्रित या संचालित करने वाले पांच कानून हैं (देखें बॉक्स 1)। इनमें विशिष्ट कानून शामिल हैं, जैसे कि भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) अधिनियम, 1955 है जिसके तहत एसबीआई का गठन किया गया था और इसके साथ ही वह कार्यरत है। इसी तरह बैंक राष्ट्रीयकरण पर व्यापक कानून हैं जैसे कि बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम, 1970 जो 14 बैंकों को नियंत्रित या संचालित करता है और बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम 1980, जो छह बैंकों की देख-रेख करता है।

ऐसे में यह प्रश्न उभर कर सामने आता है: सबसे पहली बात तो यह है कि इस तरह की ढीली-ढाली और गैर-बाध्‍यकारी कानूनी व्यवस्था क्यों है, जबकि एक ज्‍यादा मजबूत कानून अधिकारों को समेकित करने और अधिक जवाबदेही सुनिश्चित करने में मददगार साबित हो सकता है? एक अधिक कुशल वित्तीय व्‍यवस्‍था को अपनाने पर आरबीआई के एकल नियामकीय छत्र के तहत सभी पीएसबी आ जाएंगे, जैसा कि भारत में बैंकों के बोर्डों की गवर्नेंस की समीक्षा करने के लिए पी.जे. नायक की अध्यक्षता में गठित समिति ने मई 2014 में पेश अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की है। [5] समिति ने 1970 और 1980 के बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियमों, एसबीआई अधिनियम, 1955 और एसबीआई (सब्सिडियरी बैंक) अधिनियम, 1959 में संशोधन करने के लिए एक विधायी निर्देश देने का सुझाव दिया जो सभी पीएसबी को कंपनी अधिनियम के दायरे में लाना सुनिश्चित करता है। समिति ने सुझाव दिया है कि आरबीआई द्वारा ही इन सभी का नियमन सुनिश्चित किया जाए जिसमें चेयरमैनों एवं निदेशकों की नियुक्ति भी शामिल होगी। समिति ने एक ‘बैंक इन्वेस्टमेंट कंपनी’ गठित करने की भी सिफारिश की, जिसे पीएसबी में किए गए समस्‍त सरकारी निवेश को हस्‍तांतरित किया जाएगा।

इसी तरह की सिफारिशें एक साल पहले बी.एन. श्रीकृष्ण की अध्यक्षता वाले वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग (एफएसएलआरसी) द्वारा 22 मार्च 2013 को पेश की गई रिपोर्ट में की गई थीं। इस रिपोर्ट में ‘समान अवसर’ प्रदान करने के उद्देश्‍य से सभी पीएसबी को कंपनी अधिनियम के तहत कंपनियों में परिवर्तित करके उनका निगमीकरण (कॉरपोरेटाइजेशन) करने [6] और ‘बीआरए के तहत एकल एकीकृत ढांचे के साथ उन्‍हें लाकर विलय/एकीकरण प्रावधानों को युक्तिसंगत बनाने’ की सिफारिशें की गईं। इस रिपोर्ट में ‘कानून का एकसमान शासन’ सुनिश्चित करने पर भी विशेष जोर दिया गया, जिसका पालन सभी बैंकों को करना होगा, चाहे उन पर स्वामित्व किसी का भी क्‍यों न हो। इन सिफारिशों में चेयरमैन एवं प्रबंध निदेशक के पदों को अलग-अलग करना और सेबी एवं स्टॉक एक्सचेंजों के सूचीबद्धता (लिस्टिंग) मानदंडों का पूर्ण अनुपालन सुनिश्चित करना [7] भी शामिल हैं। इसके साथ ही आयोग ने यह निष्कर्ष निकाला कि ‘बैंकिंग से संबंधित कानूनों को स्वामित्व-तटस्थ होना चाहिए और इन कानूनों के तहत सभी बैंकों को समान अवसर प्रदान किए जाने चाहिए।’ [8]

इससे पीएसबी की गवर्नेंस में सरकार के हितों में टकराव का एक और चिंताजनक मुद्दा उभर कर सामने आता है। यह टकराव एक शेयरधारक के रूप में सरकार और एक बैंकर के रूप में, एक बैंकिंग सेवा प्रदाता एवं समान बैंकों के जरिए एक सार्वजनिक सामान प्रदाता के रूप में, एक कानून निर्माता एवं एक कानून निष्पादक के रूप में, आरबीआई के जरिए निजी बैंकों के लिए एक निरीक्षण प्रदाता एवं सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिए एक अधिक प्रत्यक्ष निरीक्षक के रूप में सरकार के बीच है। बैंकों का सार्वजनिक स्वामित्व वित्तीय प्रणाली में विश्वास उत्‍पन्‍न करता है, जैसा कि आरबीआई के पूर्व गवर्नर दुव्वुरी सुब्बाराव ने कहा था। [9] उस स्थिति में क्या पीएसबी को उन निजी बैंकों की भांति ही समान मानदंडों पर नियमित और नियंत्रित किया जाना चाहिए जिनका एकमात्र उद्देश्य भले ही न सही, लेकिन मुख्‍य उद्देश्‍य लाभ कमाना है?

क्‍या पीएसबी को ग्रामीण क्षेत्रों में पैठ मजबूत करने, प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को कर्ज देने, ऋण माफी, इत्‍यादि राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उपयोग में लाए जाने वाला साधन होना चाहिए अथवा क्‍या उन्‍हें निजी बैंकों की भांति शेयरधारकों को समुचित रिटर्न देने पर अपना ध्‍यान केंद्रित करना चाहिए? सुब्बाराव की यह दलील है कि सार्वजनिक स्वामित्व वाले बैंक सरकार और लोकतांत्रिक संस्थानों के प्रति अपनी जवाबदेही को ध्‍यान में रखते हैं। यही कारण है कि सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का आकलन उन मानदंडों पर करती है जो बाजार द्वारा उपयोग किए जाने वाले मानदंडों से काफी भिन्न होते हैं। सरकार से सहायता प्राप्‍त संस्थानों के कहीं ज्‍यादा सुरक्षित एवं जवाबदेह होने की अवधारणा से यह साबित होता है कि हम एक राष्‍ट्र के रूप में कानून के शासन में विश्वास नहीं करते हैं, बल्कि हम स्वामित्व के नियम पर भरोसा करते हैं – अत: अधिक सुरक्षित होने की बात को ध्‍यान में रखते हुए सरकारी संस्थानों के लिए नियमों के एक अलग सेट की आवश्यकता है। यदि नियामक प्रणाली मजबूत है, तो हर बैंक सुरक्षित होगा। यदि ऐसा नहीं है, जैसा कि उदाहरण के लिए हम बीमा के मामले में देखते हैं, तो कोई भी संस्थान उपभोक्ताओं की सेवा नहीं करेगा। दरअसल, एक बड़ा आइडिया जो वित्तीय क्षेत्र में जारी समस्‍त बहसों में कहीं खो गया है वह ‘उपभोक्ता’ है। स्वामित्व और नियंत्रण के बजाय उपभोक्ता को नियामकीय व्‍यवस्‍था के केंद्र में वापस लाने संबंधी नियामकीय उद्देश्य पर फिर से फोकस करना एक सही कदम साबित होगा, जैसा कि एफएसएलआरसी सिफारिशों में चिन्हांकित किया गया है।

क्‍या पीएसबी को ग्रामीण क्षेत्रों में पैठ मजबूत करने, प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को कर्ज देने, ऋण माफी, इत्‍यादि राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उपयोग में लाए जाने वाला साधन होना चाहिए अथवा क्‍या उन्‍हें निजी बैंकों की भांति शेयरधारकों को समुचित रिटर्न देने पर अपना ध्‍यान केंद्रित करना चाहिए?

यह स्पष्ट है कि न तो आरबीआई और न ही वित्‍त मंत्रालय पूरी तरह से सही है। कानून निर्माताओं के विचित्र विधानों के विधायी दलदल में उलझी इस समस्‍या का समाधान संसद में निहित है जो इन असमान कानूनों और उनके अंतर्गत आने वाली धाराओं को एक ऐसी ठोस कानूनी व्यवस्था में अभिभूत करने में सक्षम है जो आरबीआई को अधिकार के साथ-साथ उससे जुड़ी जवाबदेही भी प्रदान करेगी, स्वामित्व संबंधी स्पष्टता सुलभ कराएगी और सरकार की भूमिका तय करेगी तथा दोनों के बीच नीतिगत तनाव को कम कर देगी। वैसे तो पटेल को इस मुद्दे को आम जनता के बीच उठाने की आवश्‍यकता नहीं थी और इस समस्या को हल करने के लिए उन्‍हें वित्‍त मंत्रालय के साथ मिलकर काम करने की जरूरत थी, लेकिन अब चूंकि यह मुद्दा व्यापक बहस के लिए आम जनता के बीच आ चुका है, इसलिए आर्थिक एवं राजनीतिक दोनों ही दृष्टि से और नियामक, सरकार एवं लोगों के लिए यह एक अच्छी बात है।

सियासी रुख को भांपने पर सामान्य रूप से वित्तीय संकटों, विशेष रूप से घोटालों और नीरव मोदी एवं पीएनबी मामले में मिली भारी नाकामयाबी से तत्‍काल निजात पाने की अंतर्निहित इच्छा उभर कर सामने आती है। ऐसा नहीं है कि इस समस्‍या का कोई हल नहीं है। दरअसल, पिछली यूपीए सरकार ने इस संदर्भ में कुछ आइडिया सामने रखे थे और मौजूदा एनडीए सरकार के समक्ष ये भलीभांति विद्यमान हैं। यह मार्ग काफी स्पष्ट है। हम सभी को केवल उन कानूनी संशोधनों की सख्‍त आवश्यकता है जो इन परिवर्तनों को उत्प्रेरित करे और एक ऐसी सुव्‍यवस्थित नियामकीय प्रणाली की स्‍थापना का मार्ग प्रशस्‍त कर दे जिसमें सभी बैंकों का नियमन भारतीय रिजर्व बैंक करे। इस प्रकार की सशक्त व्‍यवस्‍था केंद्रीय बैंक पर और भी अधिक जवाबदेही सुनिश्चित करेगी तथा इसके साथ ही सार्वजनिक बैंकों (पीएसबी) को परिचालन स्पष्टता भी सुलभ कराएगी। बेशक, इस तरह की ठोस व्‍यवस्‍था वास्‍तव में बन जाने पर ऋण वितरण पर राजनीतिक प्रभाव के साथ-साथ अतिथि गृहों और कारों जैसी नौकरशाही सुविधाओं पर भी विराम लग सकता है।

27 पीएसबी, पांच कानून, खुली जवाबदेही

बैंकिंग नियमन अधिनियम के अलावा ऐसे पांच कानून हैं जो 27 पीएसबी के कामकाज की देख-रेख करते हैं और जिनमें इन बैंकों के विभिन्न पहलुओं के संचालन के लिए प्रावधान हैं। ऐसे नियामकीय अधिकार-क्षेत्र बन रहे हैं जो इस सेक्‍टर के लिए हानिकारक हैं। ये निम्‍नलिखित हैं:

1. भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) अधिनियम, 1955, जिसके तहत एसबीआई की स्थापना की गई है।

2. भारतीय स्टेट बैंक (सब्सिडियरी बैंक) अधिनियम, 1959, जिसके तहत पांच बैंकों — स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एंड जयपुर, स्टेट बैंक ऑफ इंदौर, स्टेट बैंक ऑफ मैसूर, स्टेट बैंक ऑफ पटियाला, स्टेट बैंक ऑफ त्रावणकोर — की स्थापना की गई है।

3. स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद एक्ट, 1956, जिसके तहत स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद की स्थापना की गई है।

4. बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम, 1970, जिसके तहत इन 14 बैंकों की स्थापना की गई है — सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया, बैंक ऑफ इंडिया, पंजाब नेशनल बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, यूको बैंक, केनरा बैंक, यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया, देना बैंक, सिंडिकेट बैंक, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया, इलाहाबाद बैंक, इंडियन बैंक, बैंक ऑफ महाराष्ट्र, और इंडियन ओवरसीज बैंक।

5. बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम, 1980, जिसके तहत इन छह बैंकों की स्थापना की गई है — आंध्र बैंक, कॉर्पोरेशन बैंक, न्‍यू बैंक ऑफ इंडिया, ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स, पंजाब एंड सिंध बैंक, और विजया बैंक।


पीएसबी का नियमन कौन करता है  आरबीआई या सरकार? आरबीआई के गवर्नर ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) के ढीले-ढाले नियमन के बारे में बहस छेड़ दी है। उनका कहना है कि आरबीआई सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का नियमन करने में असमर्थ है। वित्त मंत्रालय ने इस पर पलटवार करते हुए कहा है कि आरबीआई के पास नियमन करने के लिए पर्याप्त अधिकार हैं। सच्चाई इन दोनों के बीच में कहीं अवस्थित है। पीएसबी के विभिन्न पहलुओं का नियमन कौन करता है, इसके चुनिंदा उदाहरण नीचे दिए गए हैं:1. प्रबंधन को नियुक्त करनाएसबीआई अधिनियम की धाराएं 17, 18 और 19 बोर्ड की नियुक्ति में भारतीय रिजर्व बैंक की कोई भी भूमिका नहीं होने के बारे में सुस्पष्ट हैं। प्रबंधन कार्य एक केंद्रीय बोर्ड को सौंपा जाता है, जबकि केंद्रीय बोर्ड ‘केंद्र सरकार के निर्देशों के अनुसार निर्देशित’ होता है। लेकिन धारा 18 में यह भी कहा गया है कि केंद्रीय बोर्ड में एक चेयरमैन, अधिकतम चार प्रबंध निदेशक, और अन्य निदेशक होते हैं, जिनमें से सभी को ‘रिजर्व बैंक के साथ परामर्श’ कर सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता है। अन्य निदेशक शेयरधारकों द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम, 1970 की धाराओं 9(3)(ए) और 9(3)(बी) के तहत प्रत्येक पीएसबी में ‘रिजर्व बैंक के साथ परामर्श कर’ केंद्र सरकार द्वारा अधिकतम चार निदेशकों की नियुक्ति‍ की जाएगी और एक निदेशक, जो केंद्र सरकार का एक अधिकारी है, को सरकार द्वारा मनोनीत किया जाएगा। इसी तरह बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम, 1980 की धारा 9(3)(1) के अनुसार ‘रिजर्व बैंक के साथ परामर्श करने के बाद’ केंद्र सरकार द्वारा निदेशकों की नियुक्ति‍ की जा सकती है। एसबीआई अधिनियम की धारा 19(ए) में यह सुनिश्चित किया गया है कि बैंक के चेयरमैन को ‘रिजर्व बैंक के साथ परामर्श’ कर केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता है। एसबीआई अधिनियम की धारा 19 (बी) में सरकार को ‘रिजर्व बैंक के साथ परामर्श कर’ प्रबंध निदेशकों को नियुक्त करने का अधिकार दिया गया है। बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम की धाराओं 9(3)(ए), 9(3)(सी), 9(3)(एफ), 9(3)(जी) में केंद्र सरकार को ‘रिजर्व बैंक के साथ परामर्श के बाद’ निदेशकों को नियुक्त करने का अधिकार दिया गया है। धारा 9(3बी) में आरबीआई को किसी निदेशक को हटाने का अधिकार दिया गया है।2. अतिरिक्त निदेशकों को नियुक्त करना एसबीआई अधिनियम की धारा 19बी में आरबीआई को अतिरिक्त निदेशकों को नियुक्त करने का अधिकार दिया गया है, बशर्ते कि यह बैंकिंग नीति के हित में उपयुक्‍त हो, सार्वजनिक हित में हो या एसबीआई के जमाकर्ताओं के हित में हो। ये अतिरिक्‍त निदेशक ‘रिजर्व बैंक की इच्‍छा के दौरान’ अपने पद पर बने रहेंगे। इसी तरह बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम, 1970 की धारा 9ए में और बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम, 1980 की धारा 9ए में भारतीय रिजर्व बैंक को अतिरिक्त निदेशकों को नियुक्त करने का अधिकार दिया गया है।3. प्रबंधन को हटाना

बीआरए की धारा 36एए(1) के तहत आरबीआई को प्रबंधकीय और अन्य व्यक्तियों को अपने पदों से हटाने का अधिकार दिया गया है। यह पीएसबी पर लागू नहीं है। हालांकि, बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम, 1970 की धारा 3बी के तहत आरबीआई को किसी निदेशक को हटाने का अधिकार है। इसी तरह बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम, 1980 की धारा 9(3बी) के तहत भी आरबीआई किसी निदेशक को हटा सकता है। एसबीआई अधिनियम की धारा 24 के तहत यह अधिकार केंद्र सरकार के पास है, लेकिन ‘रिजर्व बैंक के साथ परामर्श करने के बाद’ ही यह संभव है। बीआरए की धारा 10 बी(6) के तहत आरबीआई को किसी बैंक के चेयरमैन एवं प्रबंध निदेशक को अपने पद से हटाने का अधिकार है। हालांकि, यह पीएसबी पर लागू नहीं है। एसबीआई के मामले में यह अधिकार एसबीआई अधिनियम, 1955 की धारा 24 के तहत केंद्र सरकार में निहित है, लेकिन ‘रिजर्व बैंक के साथ परामर्श करने के बाद’ ही यह संभव है।

4. बोर्ड का अधिकार अपने हाथ में लेना

बीआरए की धारा 36 एसीए(1) के तहत आरबीआई ‘कुछ विशेष मामलों में’ निदेशक मंडल (बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स) के अधिकारों को अपने हाथ में ले सकता है। यह पीएसबी पर लागू नहीं है। हालांकि, बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम, 1970 की धारा 18ए (1) के तहत यह अधिकार केंद्र सरकार में निहित है, लेकिन ‘रिजर्व बैंक की सिफारिश पर’ ही यह संभव है। इसी तरह, एसबीआई के मामले में सरकार को एसबीआई अधिनियम, 1955 की धारा 24ए के तहत यह अधिकार प्राप्‍त है, लेकिन ‘रिजर्व बैंक की सिफारिश पर’ ही यह संभव है। बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम, 1980 की धारा 18ए में भी यह प्रावधान है।

5. कारोबार का स्थगन

बीआरए की धारा 45 के तहत आरबीआई को किसी बैंक के कारोबार के स्‍थगन या उस पर रोक लगाने के लिए केंद्र सरकार से निवेदन करने और एकीकरण एवं विलय के पुनर्गठन की एक योजना तैयार करने का अधिकार प्राप्‍त है। यह पीएसबी पर लागू नहीं है। हालांकि, बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम, 1970 की धारा 3 के तहत पीएसबी की पूंजी में सभी बदलाव केंद्र सरकार द्वारा किए जाते हैं, लेकिन ‘रिजर्व बैंक के साथ परामर्श’ करने पर ही यह संभव है। एसबीआई अधिनियम की धारा 35 के तहत सरकार को ‘रिजर्व बैंक के साथ परामर्श कर’ किसी अन्य बैंक की परिसंपत्तियां और देनदारियों का अधिग्रहण करने का अधिकार प्राप्‍त है।

6. जुर्माना लगाना

बीआरए की धारा 46 और 47ए के तहत आरबीआई को विभिन्न अपराधों के लिए अधिकारियों को दंडित करने का अधिकार प्राप्‍त है। इन अपराधों में जानबूझकर किसी बैलेंस शीट में कोई गलत विवरण देना (जुर्माना: तीन साल तक कारावास की सजा या 1 करोड़ रुपये का अर्थदंड अथवा दोनों ही), या अपेक्षित जानकारी उपलब्‍ध नहीं कराना (जुर्माना: 20 लाख रुपये का अर्थदंड) शामिल है। यह सरकार या भारतीय रिजर्व बैंक के उस अधिकारी पर लागू नहीं है जिसे एसबीआई, किसी भी संबंधित नए बैंक [बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम, 1970 की धारा 3, या (बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम, 1980 की धारा 3 के तहत स्थापित पीएसबी], किसी क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, किसी सब्सिडियरी या सहायक बैंक या किसी बैंकिंग कंपनी के निदेशक के रूप में मनोनीत या नियुक्त किया गया है।

7. शाखा बंद करना

एसबीआई अधिनियम की धारा 16 (3) यह सुनिश्चित करती है कि ऐसी कोई भी शाखा जो उस समय अस्तित्व में थी जब एसबीआई को इंपीरियल बैंक कहा जाता था, वह ‘रिजर्व बैंक के पूर्ववर्ती अनुमोदन के बिना बंद’ नहीं हो। धारा 16(5) में यह कहा गया है कि नई शाखाएं ‘रिजर्व बैंक के परामर्श से’ ही खोली जाएंगी और कोई भी शाखा ‘रिजर्व बैंक के पूर्ववर्ती अनुमोदन के बिना’ बंद नहीं की जाएगी। हालांकि, आदर्श रूप में इस तरह के मामले में नियमन की बिल्‍कुल जरूरत नहीं है — यदि किसी बैंक को यह प्रतीत होता है कि किसी शाखा में मामूली व्यवसाय ही हो रहा है और यह व्यवहार्य या लाभप्रद नहीं है, तो इस बारे में निर्णय नियामक के बजाय बैंक के प्रबंधन द्वारा लिया जाना चाहिए।

8. हितों का टकराव

बीआरए की धारा 20(1)(बी)(iii) बैंकों को किसी ऐसी कंपनी को कर्ज देने से रोकती है, जहां संबंधित बैंक का कोई निदेशक उसमें एक निदेशक, एक कर्मचारी, एक गारंटर है या उसके पर्याप्त हित या हिस्‍सेदारी निहित है। यह किसी ऐसे बैंक पर लागू नहीं है जहां सरकार 40 फीसदी या अधिक पूंजी की मालिक है। एसबीआई सामान्‍य विनियम, 1955 की धारा 64(बी) के तहत निदेशकों को ऐसे व्यक्तियों के नामों का खुलासा करना होगा, जिनके साथ वे एक गारंटर के रूप में जुड़े हुए हैं, लेकिन इस संदर्भ में कोई पाबंदी नहीं है। बीआरए की धारा 10(1)(सी) किसी बैंक को किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा प्रबंधित होने से रोकती है जो किसी अन्य कंपनी में निदेशक है। यह भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के चेयरमैन पर लागू नहीं है।

9. परिसमापन

बीआरए की धारा 39 के तहत आरबीआई को आधिकारिक परिसमापक बना दिया गया है। यह एसबीआई पर लागू नहीं है। एसबीआई अधिनियम की धारा 45 ‘स्टेट बैंक के परिसमापन पर रोक’ में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि ‘कंपनियों के समापन से संबंधित कानून का कोई भी प्रावधान स्टेट बैंक पर लागू नहीं होगा और केंद्र सरकार के आदेश पर स्टेट बैंक को परिसमापन संचय में नहीं रखा जाएगा।’ इसी तरह, बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम की विघटन संबंधी धारा 18 ने यह स्पष्ट कर दिया है कि किसी पीएसबी के समापन से जुड़े किसी भी कानून को तब तक परिसमापन में नहीं रखा जाएगा जब तक कि इस बारे में ‘केंद्र सरकार की ओर से आदेश’ जारी नहीं होगा। सरकार को इसके लिए आरबीआई की ओर से न तो किसी सिफारिश और न ही उसके साथ परामर्श करने की जरूरत है।

10. ऑडिटरों को नियुक्त करना

एसबीआई अधिनियम की धारा 41(1) के तहत एसबीआई के केंद्रीय बोर्ड को ‘रिजर्व बैंक के पूर्ववर्ती अनुमोदन से’ दो ऑडिटरों को नियुक्त करने का अधिकार दिया गया है। धारा 41(2) के तहत भारतीय रिजर्व बैंक को ‘केंद्र सरकार के साथ परामर्श से’ ऑडिटरों का पारिश्रमिक तय करने का अधिकार दिया गया है। इसी तरह, बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम, 1970 की धारा 10(1) के तहत सरकार को ‘रिजर्व बैंक के पूर्ववर्ती अनुमोदन से’ ऑडिटरों को नियुक्त करने का अधिकार दिया गया है।

वैसे तो ‘अधिकारों के बारे में कोई अस्पष्टता नहीं है, लेकिन ‘परामर्श’, ‘सिफारिश’ और ‘अनुमोदन’ जैसे शब्‍दों का क्‍या अर्थ है, इस पर हमें और भी ज्‍यादा स्पष्टता की आवश्यकता है। इसके अलावा, कानूनों और नियमों के इस जाल में जवाबदेही को तय करना मुश्किल हो जाता है। उदाहरण के लिए, यदि सरकार आरबीआई से सलाह लेती है, उसकी सिफारिशों पर गौर करती है और फिर भी कुछ गलत हो जाता है, तो कौन जवाबदेह होगा? इसका समाधान या उपाय सरल है — उन कानूनों में संशोधन करें जो भारतीय रिजर्व बैंक को पीएसबी के नियमन के लिए समस्‍त अधिकार प्रदान करते हैं। हालांकि, मौजूदा सियासी हालात को देखते हुए इस तरह के संशोधन करना अत्‍यंत कठिन साबित होगा। एक ऐसी सरकार जिसे संसद के दोनों सदनों में पूर्ण बहुमत प्राप्‍त हो और जो बैंकिंग क्षेत्र की समस्‍या सुलझाने को लेकर अत्‍यंत गंभीर हो, केवल वही इन सुधारों को लागू किया जाना सुनिश्चित कर सकती है। तब तक, ‘घोटाले’ और ‘संकट’ हमारे समक्ष आक्रोश एवं सियासी तमाशे से भी कुछ अधिक सामग्री परोसते रहेंगे।


[1] Discontinuance of Letters of Undertaking (LoUs) and Letters of Comfort (LoCs) for Trade Credits, Circular, Reserve Bank of India, 13 March 2018, Accessed on 14 March 2018

[2] Urjit R. Patel, Banking Regulatory Powers Should Be Ownership Neutral, Inaugural Lecture: Centre for Law and Economics, Centre for Banking and Financial Laws, Gujarat National Law University, Gandhinagar, Reserve Bank of India, 14 March 2018, Accessed on 16 March 2018

[3] India: Financial Sector Assessment Program – Detailed Assessment of Observance of the Basel Core Principles for Effective Banking Supervision, International Monetary Fund, Para 6, p 7, 19 January 2018, Accessed on 16 March 2018

[4] Ibid, Para 50, p 18

[5] Report of The Committee to Review Governance of Boards of Banks in India, Chapter 8.3, p 90, 12 May 2014, https://rbidocs.rbi.org.in/rdocs/PublicationReport/Pdfs/BCF090514FR.pdf, Accessed on 16 March 2018

[6] Report of the Financial Sector Legislative Reforms Commission, Ministry of Finance, Government of India, Recommendation 11, p 184, https://dea.gov.in/sites/default/files/fslrc_report_vol1_1.pdf, Accessed on 16 March 2018

[7] Ibid, Recommendation 11, p 185

[8] Ibid, Recommendation 7, p 184

[9] Duvvuri Subbarao, Corporate Governance of Banks inIndia: In Pursuit of Productivity Excellence, Reserve Bank of India, Para 24, p 1390, 13 September 2011, https://rbidocs.rbi.org.in/rdocs/Bulletin/PDFs/01SPBL100811.pdf, Accessed on 16 March 2018

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