Author : Girish Luthra

Published on Jul 31, 2023 Updated 0 Hours ago

रणनीति में प्रमुख चुनौती चीन है. पिछली रणनीति में मुख्य उद्देश्य के तौर पर "क्षेत्रीय लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अमेरिकी प्रभाव को बरकरार रखने" की पहचान की गई थी. नई रणनीति में भी इस इलाक़े में "प्रभाव का संतुलन तैयार करने" को एक लक्ष्य के तौर पर रेखांकित किया गया है.

अमेरिका की नई हिंद-प्रशांत रणनीति: नए-उभरते वातावरण के साथ ‘निरंतरता का संतुलन’ साधने की क़वायद!
अमेरिका की नई हिंद-प्रशांत रणनीति: नए-उभरते वातावरण के साथ ‘निरंतरता का संतुलन’ साधने की क़वायद!

22 फ़रवरी 2022 को जारी अमेरिकी हिंद-प्रशांत रणनीति को लेकर सीमित दिलचस्पी देखी जा रही है. इसके पीछे कई वजहें हैं. एक अहम कारण तो रूस-यूक्रेन का संकट है जिसने 24 फ़रवरी 2022 को आक्रमण और युद्ध का रुप अख़्तियार कर लिया. दूसरी वजह यह है कि मोटे तौर पर इस रणनीतिक दस्तावेज़ के ज़्यादातर मसले उसी दिशा में हैं जो पहले से ही सार्वजनिक पटल पर मौजूद हैं. इसके अलावा इस दस्तावेज़ में कथनी को करनी में बदलने को लेकर बेहद सीमित जानकारियां दी गई हैं. हालांकि अमेरिका निरंतर ऐसे संकेत दे रहा है कि इस इलाक़े से उसका जुड़ाव और उसकी रणनीति टिकाऊ हैं. अमेरिका जताना चाहता है कि संसार के किसी दूसरे हिस्से के टकरावों और संकटों का यहां की रणनीतियों पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ेगा. अमेरिका की पिछली हिंद-प्रशांत रणनीतिक रिपोर्ट 1 जून 2019 को जारी हुई थी. नई रणनीति में भी मोटे तौर पर पिछले दस्तावेज़ की बातों को जारी रखने की बात रेखांकित की गई है. हालांकि कुछ चुनिंदा क्षेत्रों में थोड़े-बहुत बदलाव देखने को मिले हैं. इसे उभरते भू-सामरिक वातावरण के हिसाब से रुख़ अख़्तियार करने के तौर पर देखा जा सकता है.  

नई रणनीति में भी इस इलाक़े में “प्रभाव का संतुलन तैयार करने” को एक लक्ष्य के तौर पर रेखांकित किया गया है. बहरहाल, ताज़ा रणनीति में कुछ और बिंदुओं को जोड़ा गया है, जिनके ज़रिए चीन के साथ प्रतिस्पर्धा से ज़िम्मेदार तरीक़े से निपटने पर ज़ोर दिया गया है.

रणनीति में प्रमुख चुनौती चीन  है. पिछली रणनीति में मुख्य उद्देश्य के तौर पर “क्षेत्रीय लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अमेरिकी प्रभाव को बरकरार रखने” की पहचान की गई थी. नई रणनीति में भी इस इलाक़े में “प्रभाव का संतुलन तैयार करने” को एक लक्ष्य के तौर पर रेखांकित किया गया है. बहरहाल, ताज़ा रणनीति में कुछ और बिंदुओं को जोड़ा गया है, जिनके ज़रिए चीन के साथ प्रतिस्पर्धा से ज़िम्मेदार तरीक़े से निपटने पर ज़ोर दिया गया है. शायद ऐसे कम भड़काऊ या अपेक्षाकृत नरम रुख़ का मक़सद महाशक्तियों के बीच की रस्साकशी और प्रतिस्पर्धा को लेकर इस इलाक़े की चिंताओं को दूर करना है. साथ ही भागीदारियां विकसित करना और उन्हें मज़बूत करना भी इसका लक्ष्य मालूम होता है. जहां तक हिंद-प्रशांत क्षेत्र के भौगोलिक विस्तार का ताल्लुक़ है तो पिछली रिपोर्ट में इसे “अमेरिका के पश्चिमी तट से लेकर भारत के पश्चिमी समुद्री तट तक” के इलाक़े के तौर पर रेखांकित किया गया था. जबकि नई रिपोर्ट में इसे “प्रशांत महासागर में अमेरिकी समुद्री तट से लेकर हिंद महासागर तक” के इलाक़े के तौर पर देखा गया है. इसके तहत उत्तर पूर्वी एशिया, दक्षिण पूर्वी एशिया, दक्षिण एशिया और ओशिनिया  (प्रशांत महासागर के द्वीपों समेत) को तवज्जो दी गई है. दोनों ही रणनीतियों में पश्चिमी हिंद महासागर को शामिल नहीं किया गया. हालांकि नई रणनीति में भारत के पश्चिमी समुद्री तट के दायरे को ख़त्म कर पूरे दक्षिण एशिया को ही शामिल कर लिया गया है. नतीजतन अरब सागर का व्यापक इलाक़ा अब अमेरिका की नज़र में हिंद-प्रशांत क्षेत्र का हिस्सा हो गया है.     

मौजूदा गठजोड़ों को आधुनिक बनाने पर ज़ोर

2019 की रणनीति में ‘सामरिक भागीदारियों’ की अहमियत पर ज़ोर दिया गया था. दूसरी ओर नई रणनीति में ‘गठजोड़ों और भागीदारियों’ पर बल दिया है. इस संदर्भ में ख़ासतौर से मौजूदा क्षेत्रीय संधियों वाले गठजोड़ों का हवाला दिया गया है. ताज़ा रणनीति में उभरती भागीदारियों को मज़बूत बनाने के साथ-साथ मौजूदा गठजोड़ों (ऑस्ट्रेलिया, जापान, फिलीपींस, कोरियाई गणराज्य, ताइवान और थाईलैंड) को आधुनिक बनाने और उन्हें बदलते वक़्त की ज़रूरतों के हिसाब से ढालने की हिमायत की गई है. तमाम भागीदारियों के बीच क्वॉड पर ख़ास तवज्जो दी गई है. रणनीति में कई बार इसका ज़िक्र हुआ है. दरअसल ताज़ा रणनीति की शुरुआत ही 24 सितंबर 2021 को क्वॉड नेताओं के शिखर सम्मेलन में राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा दिए गए संबोधन से हुई है. इसमें क्वॉड को मज़बूत बनाने और आसियान के साथ क्वॉड की गतिविधियों का तालमेल बिठाने की संभावनाओं की तलाश पर ज़ोर दिया गया है. 2019 की रणनीति के विपरीत नई रणनीति में ईयू और नेटो के साथ समान रुख़ क़ायम करने की ज़रूरत बताई गई है. दरअसल, इस इलाक़े को लेकर ईयू और अमेरिका की रणनीतियां कई मसलों और मायनों में अलग-अलग हैं. इसी को समझते हुए ताज़ा क़वायद की गई है. ये बात भी ग़ौरतलब है कि इलाक़े को लेकर ऑस्ट्रेलिया, यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका (ऑकस) की नई सुरक्षा भागीदारी (15 सितंबर 2021 से शुरू हुई) की इस ताज़ा रणनीति के आख़िरी हिस्से में केवल संक्षेप में चर्चा की गई है. इस हिस्से में कार्य योजनाओं का ब्योरा दिया गया है. दरअसल इस संक्षिप्त ब्योरे में भी ऑकस का गठन करते वक़्त जारी साझा बयान की सामग्रियों को ही बस दोहरा दिया गया है. ताज़ा रणनीति में ऑकस को ज़्यादा तवज्जो नहीं दिए जाने की वजह शायद इसके संभावित दायरों को लेकर कुछ साथी देशों द्वारा ज़ाहिर की गई चिंताएं हैं. दरअसल अमेरिका ये सुनिश्चित करना चाहता है कि इस इलाक़े के भीतर और यहां से परे भागीदारियां और संपर्क तैयार करने के रास्ते में किसी भी सूरत में ऑकस के चलते कोई रुकावट न आए.   

ताज़ा रणनीति में ऑकस को ज़्यादा तवज्जो नहीं दिए जाने की वजह शायद इसके संभावित दायरों को लेकर कुछ साथी देशों द्वारा ज़ाहिर की गई चिंताएं हैं. दरअसल अमेरिका ये सुनिश्चित करना चाहता है कि इस इलाक़े के भीतर और यहां से परे भागीदारियां और संपर्क तैयार करने के रास्ते में किसी भी सूरत में ऑकस के चलते कोई रुकावट न आए.

2022 की शुरुआत में, नई रणनीति में एक ‘हिंद-प्रशांत आर्थिक ढांचे’ के साथ आर्थिक और व्यापारिक भागीदारी का एजेंडा पेश किया गया है. इसके तहत लोकतांत्रिक मूल्यों, तकनीक, डिजिटल, जलवायु, पर्यावरण और स्वास्थ्य जैसे मसलों का भी ज़िक्र किया गया है. इससे ये रणनीति एक व्यापक स्वरूप लेती दिखाई देती है. हालांकि इसका मुख्य ज़ोर ‘सुरक्षा’ पर ही है. इस सिलसिले में सामुद्रिक दायरों पर ख़ासतौर से ध्यान दिया गया है. पिछली रणनीति में हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी सुरक्षा बलों की छावनियों या संचालन केंद्रों, तेवरों और तैयारियों को रेखांकित गया था. इलाक़े के लिए संसाधन जुटाने की नई योजना के तहत नए दूतावास या कॉन्सुलेट खोले जाने, भागीदार देशों को सुरक्षा सहायता मुहैया कराने और इलाक़े में अमेरिकी तटरक्षक बलों की मौजूदगी का विस्तार करने पर ज़ोर दिया गया है. ये क़वायद भागीदारियों पर नए सिरे से तवज्जो दिए जाने और दक्षिण चीन सागर और पूर्वी चीन सागर में चीन के ग्रे ज़ोन ऑपरेशंस के चलते पैदा नई चुनौतियों से जुड़ती है.  

भारत के निरंतर उभार और क्षेत्रीय नेतृत्व की कार्य योजना की एक अलग कारक के तौर पर हिमायत की गई है. ये क़वायद क्वॉड को और ज़्यादा प्रभावी बनाने के प्रयासों से जुड़ती है. बहरहाल, रूस-यूक्रेन जंग पर भारत के तटस्थ रुख़ के मद्देनज़र अमेरिकी रणनीति के इस हिस्से को आगे बढ़ाने में निकट भविष्य में अलग-अलग राय दिखाई दे सकती है. 

चीन की संभावित प्रतिक्रिया

हिंद-प्रशांत क्षेत्र का वातावरण, चुनौतियां और अवसर पूर्वी यूरोप के मुक़ाबले काफ़ी अलग हैं. इसके बावजूद रूस-यूक्रेन जंग और उससे जुड़े मौजूदा घटनाक्रमों का हिंद-प्रशांत से जुड़ी रिवायतों पर गहरा प्रभाव पड़ना तय है. दोनों इलाक़ों की तुलनाओं को लेकर वाजिब या ग़ैर-वाजिब तरीक़े की बहस होना भी तय है. चीन और रूस हिंद-प्रशांत क्षेत्र के विचार के विरोधी हैं. ऐसे में उन्होंने मौजूदा संकट से हिंद-प्रशांत की तुलना करते हुए इस इलाक़े को लेकर अमेरिकी रणनीतियों की आलोचना भी शुरू कर दी है. पिछले महीने रूस और यूक्रेन में बढ़ते तनाव के बीच 4 फ़रवरी को जारी चीन और रूस के साझा बयान में कहा गया कि “…दोनों ही पक्ष नेटो के और ज़्यादा विस्तार का विरोध करते हैं”. बयान में नेटो से शीत युद्ध वाले तेवर छोड़ने को कहा गया. चीन ने ज़ोर देकर कहा है कि रूस के साथ उसकी सामरिक भागीदारी की “कोई हद” नहीं है. चीन ने रूस और यूक्रेन के बीच “अधिकतम संयम” के साथ बातचीत के ज़रिए समाधान तक पहुंचने की रणनीति के समर्थक के तौर पर ख़ुद को पेश किया है. साथ ही चीन ने दो टूक कहा है कि नेटो जैसे सैन्य गुटों के विस्तार के ज़रिए क्षेत्रीय सुरक्षा का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता. 7 मार्च 2022 को प्रेस के साथ बातचीत के दौरान चीन के स्टेट काउंसलर और विदेश मंत्री वांग यी ने कहा कि अमेरिका की हिंद-प्रशांत रणनीति “गुटबाज़ी वाली राजनीति का ही दूसरा नाम है… अमेरिका भू-राजनीतिक रस्साकशी को हवा दे रहा है और अपने ख़ास गुट तैयार कर रहा है… उसका असल मक़सद हिंद-प्रशांत में नेटो जैसा ढांचा खड़ा करना है.” उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि अमेरिका की हिंद-प्रशांत रणनीति का विफल होना तय है. यी के मुताबिक चीन “एशिया प्रशांत सहयोग के लिए एक व्यापक और समावेशी मंच” की हिमायत करेगा. चीन द्वारा लगातार इसी रुख़ को आगे बढ़ाए जाने के आसार हैं. वो यही कहता रहेगा कि अमेरिका और नेटो पूर्वी यूरोप को लेकर अपने रुख़ को ही हिंद-प्रशांत में भी अपनाने की कोशिश करेंगे. चीन के मुताबिक हिंद-प्रशांत में इसके नतीजे यूक्रेन की तबाही और तकलीफ़ों जैसे ही होने की आशंका रहेगी.  

चीन हिंद-प्रशांत को लेकर अपने और ईयू के रुख़ के साझा बिंदुओं पर भी ज़ोर दे सकता है. ख़ासतौर से समावेशी नज़रिए को लेकर चीन और ईयू के रुख़ों में अनेक समानताएं हैं, जबकि ये कारक अमेरिकी रणनीति से नदारद हैं. बहरहाल यूरोप का एक व्यापक तबका चीन को रूस के हिमायती के तौर पर देखता है

इतना ही नहीं, चीन हिंद-प्रशांत को लेकर अपने और ईयू के रुख़ के साझा बिंदुओं पर भी ज़ोर दे सकता है. ख़ासतौर से समावेशी नज़रिए को लेकर चीन और ईयू के रुख़ों में अनेक समानताएं हैं, जबकि ये कारक अमेरिकी रणनीति से नदारद हैं. बहरहाल यूरोप का एक व्यापक तबका चीन को रूस के हिमायती के तौर पर देखता है, लिहाज़ा यूरोप के साथ अपने तालमेल पर इसके कुप्रभावों को कम करने के लिए चीन पूरी जुगत लगाएगा. जंग ख़त्म करने का तरीक़ा, युद्ध के बाद रूस और यूक्रेन के बीच होने वाले समझौते के दायरे और यूरोपीय सुरक्षा ढांचे में बदलावों का हिंद-प्रशांत समेत तमाम दूसरे इलाक़ों के रुख़ों पर प्रभाव पड़ेगा. 

इस ताज़ा रणनीति से हिंद-प्रशांत क्षेत्र को लेकर नीतिगत स्तर पर अमेरिका में दोनों राजनीतिक दलों की हिमायत और निरंतरता दिखाई देती है. 2019 की रणनीति की तुलना में बदलाव लाते हुए इसे मौजूदा वातावरण के हिसाब से ढाला गया है. इनमें से कुछ का ब्योरा ऊपर दिया भी गया है. हालांकि ये रणनीति इरादों का इज़हार ज़्यादा दिखाई देती है. अमल में लाने के तौर-तरीक़ों का इसमें ज़्यादा ब्योरा नहीं दिया गया है. लिहाज़ा इसकी कार्य योजना से जुड़े तमाम पहलुओं पर अलग-अलग आकलनों और अनुमानों की गुंजाइश खुली रह गई है. रणनीति के दायरे को सुरक्षा से परे ले जाने की कोशिश दिखाई देती है लेकिन इसको लेकर भी बेहद सीमित जानकारी दी गई है. हिंद-प्रशांत क्षेत्र को अमेरिका द्वारा दी जा रही प्राथमिकता और इस रणनीति के खुलासे पर रूस-यूक्रेन युद्ध की छाया पड़ गई है. ग़ौरतलब है कि दूसरे विश्वयुद्ध के ख़ात्मे के बाद से ये परंपरागत स्वरूप वाला सबसे बड़ा सैन्य हमला है. रूस-यूक्रेन जंग और आगे चलकर उसके निपटारे का दूसरे इलाक़ों से जुड़ी रणनीतियों के अमल पर भी असर पड़ेगा. इनमें हिंद-प्रशांत से जुड़ी अमेरिकी रणनीति भी शामिल है. रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर तमाम तरह की तुलनाओं और मिसालों पर बहस का दौर शुरू होने के आसार हैं. इनमें उप-क्षेत्रीयतावाद के साथ-साथ आर्थिक प्रतिबंध जैसे मसले भी शामिल हैं, जिनका मक़सद डराने और प्रतिरोध करने से लेकर अलग-थलग करना और पंगु बनाना तक है. इसके अलावा सहयोगात्मक सुरक्षा बनाम सामूहिक सुरक्षा, सत्ता और प्रभाव के संतुलन, पारंपरिक ख़तरों और परंपरागत युद्धों जैसे विषयों पर भी लंबी बहस शुरू होने के आसार हैं. बड़ी ताक़तों के बीच प्रतिस्पर्धा और विचारधारा की उभरते रिवायतों और कूटनीति की ज़ाहिर हो चुकी हदों और खुलती परतों के चलते नई रणनीति में भी जल्द ही बदलाव की ज़रूरत पड़ सकती है. लिहाज़ा आने वाले महीनों में कुछ और ब्योरों के सामने आने की उम्मीद की जा सकती है.   

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