Author : Samir Saran

Published on Jul 23, 2020 Updated 0 Hours ago

इस टिप्पणी के प्रकाशन के साथ ही भारत के ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन और रूस के वाल्दाई क्लब के बीच ऑनलाइन सहयोग की शुरुआत हो रही है, जो वाल्दाई क्लब के थिंक टैंक प्रोजेक्ट का एक हिस्सा है. दोनों थिंक टैंक के बीच तमाम द्विपक्षीय एवं वैश्विक विषयों पर वैचारिक आदान प्रदान की योजनाबद्ध श्रृंखला की ये पहली कड़ी है. आने वाले दिनों में आप इस विषय पर और टिप्पणियों, वीडियो एवं वेबिनार के लिए हमारे साथ बने रहें.

द्वार पर खड़ी नई विश्व व्यवस्था: भूमंडलीकरण, तकनीक का भय एवं विश्व व्यवस्था

आज से लगभग तीन दशक पहले फ्रांसिस फुकुयामा ने बड़े तार्किक तौर पर ये कहा था कि सोवियत संघ के विघटन और उदारवाद के सार्वभौमीकरण से विभिन्न विचारधारा एवं अलग अलग राजनीतिक व्यवस्थाओं के बीच चल रहा ऐतिहासिक संघर्ष अब ख़त्म हो जाएगा. हाल ही में ख़ुद फ्रांसिस फुकुयामा ने माना है कि उनका ये विचार कुछ ज़्यादा ही यथार्थवादी था. जिस तरह से कुछ मज़बूत और राष्ट्रवादी पहचान वाले नेताओं का विश्व परिदृश्य पर अभ्युदय हुआ है, उसने आक्रोशवादी राजनीति और क़बीलाई संघर्ष को जन्म दिया है. इसे अगर हम विश्व की शक्तियों के बीच सत्ता के संतुलन में आए परिवर्तन और व्यवस्थाओं को बदलने वाली तकनीकों के आगमन और औद्योगिक प्रक्रियाओं के साथ जोड़कर देखें, तो पता चलता है कि अब हमारे सामने एक नई दुनिया का उदय हो रहा है. इस दशक की शुरुआत के साथ ही नए कोरोना वायरस के प्रकोप ने भीतर ही भीतर परिवर्तन को बढ़ावा दे रही कई प्रक्रियाओं को नई धार एवं रफ़्तार दे दी है. परिवर्तन की रफ़्तार तेज़ हो जाने के कारण उत्पन्न नई परिस्थितियों से तालमेल बिठाने के लिए विभिन्न देशो की सरकारों, वाणिज्यिक समूहों और अलग अलग समुदायों के पास बहुत कम समय बचा है. उन्हें अब जल्द से जल्द भविष्य के लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण निर्णय लेने होंगे.

विश्व परिदृश्य में शायद जो सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन हो गया है, वो ये है कि अब अमेरिका के प्रभुत्व वाली विश्व व्यवस्था के दिन पूरे हो गए हैं. कोविड-19 की महामारी ऐसी पहली वैश्विक चुनौती है, जिस दौरान हम अमेरिका के नेतृत्व को पूरी तरह से अनुपस्थित देख रहे हैं. इस महामारी से उपजे संकट ने पश्चिमी देशों की सामाजिक और प्रशासनिक कमज़ोरियों को भी व्यापक रूप से दुनिया के समक्ष उजागर कर दिया है. यहां तक कि यूरोपीय संघ भी इस महामारी के दौरान अपने सदस्य देशों के बीच संसाधनों के समान वितरण को लेकर संघर्ष कर रहा है. यूरोपीय संघ के कई देशों ने खुलकर चीन पर अपनी निर्भरता का इज़हार किया है. इसका कारण या तो उनकी फौरी ज़रूरत है या फिर भोलापन. आज अर्थव्यवस्था को लेकर उत्तरी और दक्षिणी यूरोप के बीच विभाजन बढ़ने की आशंका दिखाई दे रही है. आज अटलांटिक के आर-पार के संबंधों वाली उदारवादी विश्व व्यवस्था का केंद्र बिंदु कमज़ोर हो गया है. इस बात की आशंका है कि उदारवादी अर्थव्यवस्था कोरोना वायरस की महामारी के बाद और भी अप्रासंगिक होती जाएगी.

फिर भी, ये बात तुरंत स्पष्ट नहीं है कि आने वाले समय में कौन सी महाशक्ति दुनिया का नेतृत्व करेगी. इस बात के लिए चीन को सबसे अग्रणी प्रतिभागी माना जा रहा है. लेकिन, अंतरराष्ट्रीय समुदाय आपस में जुड़े कई कारणों से चीन से नाराज़ है. इसकी शुरुआत, इस वायरस के प्रकोप से निपटने में नाकामी से हुई थी. चीन ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के माध्यम से अपनी इस छवि को चमकाने का प्रयास किया है. इसके अलावा वो स्वास्थ्य सेवा से जुड़े उपकरण भी कई क्षेत्रों को आपूर्ति कर रहा है, ताकि अपनी छवि चमका सके. लेकिन, जिस तरह से चीन ने यूरोपीय संघ के देशों के बीच विभेद पैदा करने के प्रयास किए. और, जिस तरह से उसने हॉन्गकॉन्ग, ताइवान और दक्षिणी चीन सागर से जुड़े सीमा विवाद में दादागीरी दिखाने की कोशिश की है, उससे चीन के प्रति दुनिया की नाराज़गी बढ़ी ही है. इसके अलावा चीन ने अफ्रीकी मूल के अप्रवासियों के साथ अपने यहां जिस तरह का दुर्व्यवहार किया है, उसके दस्तावेज़ी सबूत सामने आने के बाद कई और देश और समुदाय, चीन के साथ अपने संबंधों और अपनी निर्भरता की नए सिरे से समीक्षा करने को बाध्य हुए हैं.

बहुत से देश आज तेज़ी से परिवर्तित हो रहे और चीन एवं पश्चिमी देशों के बीच उभर रहे नए शक्ति संतुलन के बीच तालमेल बनाने का संघर्ष कर रहे हैं. पूर्वी एशिया के लोकतांत्रिक देश, जिन्होंने निश्चित रूप से इस वायरस के प्रकोप से ज़्यादा असरदार तरीक़े से निपटने का प्रयास किया था, वो इस तेज़ी से बदल रहे विश्व परिदृश्य को चिंता भरी नज़रों से देख रहे हैं. ये साफ है कि वो एक दूसरे ख़िलाफ़ कूटनीतिक दांव चलते रहेंगे और ख़ुद को अहम बनाए रखने में सफल भी होंगे. रूस, जो चीन से लोगों की आवाजाही पर नियंत्रण लगाने वाला पहला देश था, वहां के शहरों भी नए कोरोना वायरस का प्रकोप बड़ी तेज़ी से फैल रहा है. लेकिन, रूस तब तक चीन के सुर में सुर मिलाता रहेगा, जब तक चीन, उसकी इस सोच का समर्थन करता रहेगा कि अमेरिका की अगुवाई वाली मौजूदा विश्व व्यवस्था अलोकतांत्रिक और ग़ैर बराबरी वाली है. अब ये देखना दिलचस्प होगा कि रूस अपनी अध्यक्षता के दौरान, ब्रिक्स (BRICS) देशों (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) को विश्व व्यवस्था में आ रहे इन उतार चढ़ावों के प्रति कैसा रुख़ अपनाने वाला नेतृत्व प्रदान करता है.

पूर्वी एशिया के लोकतांत्रिक देश, जिन्होंने निश्चित रूप से इस वायरस के प्रकोप से ज़्यादा असरदार तरीक़े से निपटने का प्रयास किया था, वो इस तेज़ी से बदल रहे विश्व परिदृश्य को चिंता भरी नज़रों से देख रहे हैं

अलग अलग भौगोलिक क्षेत्रों में हो रहे ये उतार चढ़ाव एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. और इनसे एक अन्य व्यापक धारा का प्रवाह भी जुड़ा हुआ है. और वो है राष्ट्रवादी नेतृत्व व मज़बूत राष्ट्र की अवधारणा की वापसी. कोरोना वायरस के प्रकोप से इस राजनीतिक प्रक्रिया को और भी तीव्रता मिलेगी. कई सरकारें इस आपात स्थिति का लाभ उठाकर राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर अपनी शक्ति को बढ़ा लेंगी. जैसा कि हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान ने पहले ही करके दिखाया है. कई अन्य देशों के नेता इस महामारी के नाम पर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं पर इल्ज़ाम लगाएंगे और उन्हें कमज़ोर करने का प्रयास करेंगे. जैसा कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की सरकार कर रही है. और बहुत से देशों के नेता, अपनी जनता के समर्थन का लाभ उठाएंगे, जैसा कि वो पहले से करते आ रहे हैं.

इन सभी बदलावों का सबसे स्पष्ट प्रभाव तो ये होगा कि हम अब तक भूमंडलीकरण को जिस रूप में जानते आए हैं, उसका अंत हो जाएगा. अब कई देश, बड़ी तेज़ी से दूसरे देशों पर अपनी निर्भरता को कम से कम करने का प्रयास करेंगे. ख़ास तौर पर उन भौगोलिक क्षेत्रों में जहां तमाम देशों के बीच राजनीतिक विश्वास की बहुत कमी है. जापान जिस तरह से स्टिमुलस पैकेज की मदद से अपने यहां के उद्योगों को बढ़ावा दे रहा है, उससे साफ है कि वो चीन की आपूर्ति श्रृंखलाओं पर अपनी निर्भरता को निश्चित रूप से कम करना चाहता है. लेकिन, ऐसे निर्णयों के व्यापक प्रभाव अन्य क्षेत्रों पर भी पड़ेंगे. खाड़ी देश, जो तेल की आपूर्ति और कामगारों की उपलब्धता की चुनौती से जूझ रहे हैं, उन पर भी ऐसे निर्णयों का असर होगा. तो, आसियान देश भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेंगे क्योंकि उनके वाणिज्यिक प्रवाह पर बहुत अधिक विपरीत प्रभाव पड़ेगा. क्योंकि आसियान देश, कारोबारी तौर पर चीन और अमेरिका की अर्थव्यवस्थाओं से समान रूप से जुड़े हुए हैं.

अब ये तय है कि हम ‘ग्लोबल विलेज’ की अवधारणा से उस दिशा में बढ़ रहे हैं जहां आपस में जुड़े समुदाय आपस में मिलकर एक बंद भूमंडलीकरण की व्यवस्था विकसित होगी. जो राजनीतिक और आर्थिक विश्वास पर आधारित होगी. विश्व अर्थव्यवस्था के डिजिटलीकरण से ये प्रक्रिया और भी तेज़ होगी. और शायद तकनीक के उपकरण इस प्रक्रिया को और भी तेज़ करेंगे. अब जबकि सरकारें डिजिटल और निगरानी के उपकरणों का फ़ायदा उठाकर कोविड-19 की महामारी से निपटने का प्रयास कर रही हैं. जल्द ही एक नया भय, टेकफोबिया या विदेशी तकनीकी प्लेटफ़ॉर्म और कंपनियों के प्रति भय या अविश्वास का भाव उदारवादी या अनुदारवादी, दोनों ही तरह के समाजों में अपनी जड़ें जमाने की कोशिश करेगा. अब लगभग सभी सामाजिक, आर्थिक और सामरिक संवाद वर्चुअल और डिजिटल मंचों के माध्यम से संचालित किए जाएंगे. इसीलिए तमाम देश, अपने राजनीतिक मूल्यों और तकनीकी पैमानों को दूसरों से प्रभावित होने से बचाने के लिए एक तकनीकी संरक्षण या एनकोडिंग करने का प्रयास करेंगे. इसके लिए ऐसे एल्गोरिदम और मूलभूत ढांचे का विकास होगा, जो हमारे समाजों का संचालन करेगा. ये निश्चित रूप से एक प्रतिद्वंदात्मक प्रक्रिया होगी, जिससे स्थायी ‘कोड वार’ का जन्म होना सुनिश्चित है.

अब ये तय है कि हम ‘ग्लोबल विलेज’ की अवधारणा से उस दिशा में बढ़ रहे हैं जहां आपस में जुड़े समुदाय आपस में मिलकर एक बंद भूमंडलीकरण की व्यवस्था विकसित होगी. जो राजनीतिक और आर्थिक विश्वास पर आधारित होगी

सबसे चिंताजनक बात ये है कि वैश्विक प्रयासों के माध्यम से सामूहिक चुनौतियों से निपटने की अंतरराष्ट्रीय समुदाय की क्षमताओं और इच्छाशक्ति को अपूरणीय क्षति होगी. हमने देखा है कि कोरोना वायरस कि महामारी से निपटने में G-20 देशों से लेकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद तक ने तो त्वरित गति और न ही अपनी क्षमता का परिचय दिया है. विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठन राजनीतिक क़ब्ज़े और कूटनीतिक हथकंडों के शिकार हो गए हैं. इसी वजह से विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे बहुपक्षीय मंचों पर से दुनिया का विश्वास उठता जा रहा है. आज वैश्विक सहयोग बेहद ख़तरनाक रूप से नाज़ुक हो गया है. ऐसे में कोविड-19 जैसी भविष्य में उठने वाली चुनौतियों से कैसे निपटा जाएगा, इसे लेकर अनिश्चितता का माहौल बन गया है. तब क्या होगा जब जलवायु परिवर्तन जैसी चुनौती, हमारे समुद्र तटों को नए सिरे से परिभाषित करने लगेगी? जब इसके कारण से दुनिया की एक बड़ी आबादी के सामने खान पान का संकट खड़ा हो जाएगा. दुनिया में असमानता बढ़ेगी और राष्ट्रीय संसाधनों पर अभूतपूर्व दबाव पड़ेगा, तब दुनिया इन चुनौतियों से कैसे निपटेगी? जिस तरह से दुनिया ने कोविड-19 की महामारी से निपटने का प्रयास किया है, उसे अगर भविष्य का संकेत मानें, तो आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक चुनौती के भयावाह नतीजे दुनिया को भुगतने पड़ सकते हैं.

कोरोना वायरस के प्रकोप ने अचानक ही दुनिया को उस मुहाने पर ला खड़ा किया है, जिसे अमेरिकी चिंतक इयान ब्रेमर, ’G-ज़ीरो विश्व’ कहते हैं. यानी एक ऐसी दुनिया जो एक साथ बहुध्रुवीय भी है, नेतृत्वविहीन भी है और नए भौगोलिक सामरिक संघर्ष में उलझी हुई है. ये एक ऐसी दुनिया होगी, जिसमें पश्चिमी देश अपनी नैतिक शक्ति को गंवा चुके होंगे. और चीन अपनी दादागीरी और आर्थिक व सैन्य शक्ति के अलावा बेल्ट और रोड इनिशिएटिव (BRI) के माध्यम से एक नई विश्व व्यवस्था को गढ़ने का प्रयास कर रहा होगा. ये एक ऐसी दुनिया होगी, जिसमें रूस, पूर्वी यूरोप, पश्चिमी एशिया और आर्कटिक क्षेत्रों में अपना प्रभाव बढ़ाने का प्रयास कर रहा होगा. और ये एक ऐसी विश्व व्यवस्था होगी, जहां भौगोलिक सामरिक शक्ति या भौगोलिक आर्थिक ताक़त से विहीन तमाम देशों को किसी न किसी पक्ष का दामन पकड़ना होगा. फिर चाहे वो दबाव में ऐसा करें, या मजबूरी में.

कोरोना वायरस के प्रकोप ने अचानक ही दुनिया को उस मुहाने पर ला खड़ा किया है, जिसे अमेरिकी चिंतक इयान ब्रेमर, ’G-ज़ीरो विश्व’ कहते हैं. यानी एक ऐसी दुनिया जो एक साथ बहुध्रुवीय भी है, नेतृत्वविहीन भी है और नए भौगोलिक सामरिक संघर्ष में उलझी हुई है

कोरोना वायरस की महामारी ने निश्चित रूप से दुनिया में फैली अव्यवस्था पर रौशनी डाली है. इस अव्यवस्थित विश्व में अधिकतर लोग ग़रीबी, संघर्ष, बेरोज़गारी और ग़ैर बराबरी के शिकार हैं. और इन चुनौतियों से निपटने के बजाय तमाम बड़ी ताक़तें या तो अपनी नज़रें फेर रही हैं या फिर अपने संसाधनों को अपने देश की जनता और अपने हितों की पूर्ति के लिए बचा कर रख रही हैं. आज G-20, ब्रिक्स G-7, शंघाई सहयोग संगठन और OSCE जैसे बहुपक्षीय संगठन ही ऐसे व्यवहारिक मंच बच गए हैं, जहां तमाम वैश्विक ताक़तें आपस में समन्वय और सहयोग से किसी एक मक़सद के लिए काम कर सकती हैं. अब ऐसे ही मंच बचे हैं, जहां पर वो ताक़तें जो ख़ुद से अपनी आवाज़ नहीं उठा सकतीं, वो किसी अन्य देश के माध्यम से अपनी बात कह सकती हैं. क्या ऐसे संगठन, नए बंद भूमंडलीकरण की व्यूह रचना करेंगे? या फिर हम अपने आप से ऐसे प्रयास करेंगे, जिससे संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे संगठन में क्रांतिकारी सुधार के माध्यम से नई जान डालकर इसे नए सिरे से खड़ा किया जा सके? क्या ये दुनिया के लिए संभव होगा कि वो संयुक्त राष्ट्र की 75वीं सालगिरह पर एक साझा भविष्य के लिए नए संयुक्त राष्ट्र का निर्माण कर सके?

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