Author : Vikram Sood

Published on Nov 08, 2016 Updated 7 Days ago
चीन से रिश्तों में नई सोच जरूरी

इस बात को ले कर आसानी से आश्वस्त हुआ जा सकता है कि भारतीय प्रतिष्ठान को यह बात अच्छी तरह पता होगी कि पूरी दुनिया और खास तौर पर तीन बड़ी वैश्विक ताकतों- अमेरिका, रूस और चीन की नजर में पाकिस्तान की सबसे बड़ी खासियत जिहाद को पाल-पोस कर बड़ा करने और फैलाने की इसकी क्षमता है। आप इसे सही मानें या गलत लेकिन तीनों वैश्विक ताकतों ने तय कर लिया है कि उन्हें पाकिस्तान को अपने साथ मिला कर चलना है ताकि वे अपने देश में और अपनी दिलचस्पी के इलाकों में जिहाद की समस्या को नियंत्रित कर सकें। इन तीनों वैश्विक शक्तियों की दिलचस्पी भारत में भी है। हालांकि इस दिलचस्पी की वजहें अलग-अलग हैं। किसी के लिए इसकी वजह रक्षा उपकरणों की बिक्री है तो कोई तकनीक को ले कर और कोई निवेश और व्यापार को ले कर दिलचस्पी ले रहा है। इसमें अपने संदिग्ध गुणवत्ता वाले माल को भारत के बड़े और तेजी से समृद्ध हो रहे बाजार में बेच पाने की जुगत भी शामिल है। रूस-भारत के रिश्तों में अब शीत युद्ध के काल की सी गर्माहट भले ही नहीं रही हो लेकिन एक जरूरी व्यवहारिकता बनी हुई है। भारत और चीन के रिश्ते समय की काल कोठरी में ही बंद हैं तो इसकी एक बड़ी वजह यह है कि इस क्षेत्र में दोनों के हितों का टकराव हमेशा सर उठाता रहा है जिसकी वजह से दोनों के बीच मतभेद पैदा होते रहे हैं। यह भी सच्चाई है कि इस दौरान दोनों के बीच व्यापार में खासी बढ़ोतरी हुई है। पुराने संदेह तो हमेशा बने ही रहते हैं, उस पर से नई होड़ और शामिल हो गई है।

शीत युद्ध के बाद के विश्व में रणनीतिक हित आज बिल्कुल नए आयाम हासिल कर रहे हैं। पाकिस्तान को आगे बढ़ाने के लिए हर मुमिकन कदम उठाने में चीन की दिलचस्पी सीधे-सीधे भारत और अमेरिका के मजबूत होते रिश्तों से जुड़ी हुई है। पाकिस्तान में रूस की दिलचस्पी फिर से पैदा हो जाने की मुख्य वजह भी यही है। इसके अलावा उसे आतंकवाद के खतरे की भी चिंता है जो पश्चिम एशिया और खास तौर पर सीरिया में समस्या को बढ़ा रहा है। अमेरिका की भारत में दिलचस्पी व्यापारिक और रणनीतिक दोनों ही है। अमेरिका को तेजी से बढ़ते चीन के दखल को भी रणनीतिक रूप से चुनौती देनी है। खास तौर पर दक्षिण चीन सागर में। पाकिस्तान को ले कर अमेरिका हमेशा अपनी चाल को छुपाने की कोशिश करता रहेगा। इस देश से पैदा हो रही समस्याओं के बारे में इसे अच्छी तरह पता है। यह भी पता है कि ये सिर्फ भारत ही नहीं उसके लिए भी मुश्किलें खड़ी करती हैं। यह पाकिस्तान की जिहादी आतंकवाद के लिए निंदा जरूर करता है लेकिन किसी आतंकवादी विशेष के खिलाफ कानून बनाने से आगे इसके कदम नहीं बढ़ते। पाकिस्तान को इसकी ताजा चेतावनी काफी हैरानी पैदा करने वाली है जिसमें इसने कहा है कि अगर पाकिस्तान ने आतंकवाद को काबू करने के लिए कदम नहीं उठाए तो यह खुद कदम उठाएगा। हालांकि यह भी देखा जाना बाकी है कि यह वास्तव में कैसे कदम उठाता है। अब तक पाकिस्तान यही सोचता रहा है कि इस लिहाज से उस पर दबाव कोरी धमकियों तक ही सीमित रहेगा, लेकिन हम अब भी यह उम्मीद रखते हैं कि जितनी बार भारत पर आतंकवादी हमला होगा यह प्रतिक्रिया कुछ अलग होगी। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि महज उम्मीद के दम पर बेहतर विदेश नीति नहीं चलती।

इस्लामी जिहाद का मुकाबला

इन तीन वैश्विक शक्तियों के अतिरिक्त दुनिया को इस्लामी जिहाद नाम की एक और वास्तविकता का सामना करना है जो अलग-अलग चेहरे धरने और आत्यंतिक हिंसा में शामिल होने की ताकत रखती है और इसमें खुशी भी पाती है। विभिन्न देशों के क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय हितों के टकराव की वजह से यह स्थिति और ज्यादा भयावह हो रही है और किसी समाधान की ओर बढ़ने से रोक रही है। यह आंदोलन सिर्फ धर्मांध शक्तियों से ही मजबूती हासिल नहीं करता, बल्कि यह मुस्लिम जगत के विभिन्न हिस्सों में फैला है और तीन घोषित इस्लामी देशों- सऊदी अरब, पाकिस्तान और ईरान से ताकत पाता है। सऊदी अरब और पाकिस्तान अपनी क्षेत्रीय दुश्मनी को पूरा करने के लिए जिहाद का सहारा लेते हैं क्योंकि उनकी सैनिक क्षमता इतनी नहीं है कि वे जिसे अपना दुश्मन मानते हैं, उनसे सीधे टकरा सकें। ईरान ने इजरायल को ले कर अपनी घृणा को कभी छुपाया नहीं है और ना ही अपनी इस आशंका को छुपाया है कि अगर अरब जगत में सुन्नियों को बढ़त मिली तो वे अमेरिका के साथ मिल कर कभी भी उसे पटक सकते हैं। कच्चे तेल की डावांडोल कीमत और खराब आर्थिक प्रबंधन की वजह से सऊदी अरब और पाकिस्तान दोनों ही इस समय बुरी आर्थिक स्थिति में हैं, जिस वजह से ये दोनों ही ज्यादा खतरनाक भी हो जाते हैं और इनके किसी की चाल में आसानी से आ जाने का खतरा भी बढ़ जाता है। आखिर इनके पास खोने को है क्या?

अमेरिकी नीति और इसके पश्चिमी सहयोगियों ने इस्लामी जिहाद को काबू करने के लिए कुछ खास किया नहीं है। बल्कि उल्टा इन्होंने स्थिति को बिगाड़ा ही है। सद्दाम हुसैन और गद्दाफी को हिंसक रूप से सत्ताच्युत किए जाने से इराक और लीबिया दोनों जगह पहले अल कायदा और फिर बाद में आईएसआईएस को बढ़ावा मिला जहां से यह सीरिया तक फैला। इस परिस्थिति में कोई बड़ी वैश्विक शक्ति अपने मित्रों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की सोचेगी भी नहीं क्योंकि इन्हें उम्मीद है कि ये ही आतंकवाद को उनके अपने देश में पहुंचने से रोकने में मदद करेंगे। ऊर्जा और रणनीतिक हित तीनों वैश्विक शक्तियों को ईरान और सऊदी अरब के खिलाफ कार्वाई से रोकेंगे जबकि पाकिस्तान के साथ परमाणु-आतंकवाद-प्रायोजक का तमगा जुड़ा होने की वजह से उसकी स्थिति भी अलग है। चीन और रूस दोनों ही चाहते हैं कि भूमध्य सागर से ले कर अरब सागर तक उनकी मौजूदगी बनी रही ताकि वे अमेरिका की जगह नहीं भी ले सकें तो कम से कम उसके साथ-साथ अपनी जगह भी सुनिश्चित कर सकें।

उरी आतंकवादी हमले के बाद भारत ने कूटनीतिक गतिविधियों को ले कर काफी सक्रियता दिखाई है साथ ही सितंबर में पाक अधिकृत कश्मीर में अपनी बदले की कार्रवाई भी की है। पाकिस्तान पर यह दबाव और सार्क सम्मेलन को रद्द किए जाने और इससे पहले प्रधानमंत्री की ओर से बलूचिस्तान का उल्लेख किए जाने के बाद भारतीय मीडिया चैनलों के लिए इस संबंध में बात करना काफी उपयुक्त हो गया है। अक्तूबर के गोवा के ब्रिक्स सम्मेलन के दौरन इसकी एक बार फिर पुष्टि हुई जब प्रधानमंत्री मोदी की ओर से पाकिस्तान के खिलाफ खुल कर आरोप लगाए जाने के बावजूद किसी सदस्य देश ने उसका नाम नहीं लिया। साझा घोषणापत्र ने भारतीय चिंताओं को ले कर आंखें बंद कर लीं, जबकि इसने सीरिया का नाम लिया जो चीन और रूस दोनों के हितों से जुड़ा है। लेकिन तब यह भी सच है कि इस्लामी स्टेट वास्तव में कोई स्टेट या राष्ट्र है नहीं, इसलिए इसकी आलोचना आसान है। संभवतः अब यह समझ आने लगा है कि यह भारत की अपनी अकेले की लड़ाई है और दूसरे देश उरी हमले की भर्त्सना तक ही सीमित रहेंगे। हालांकि पाकिस्तान को यह एहसास करवाने की नीति बिल्कुल सही है कि अब यह समय आ गया है कि उसे अपनी करनी का फल भी भुगतना पड़ेगा लेकिन इस नीति को ठोस रूप से उतारने के लिए हमें मजबूत अर्थव्यवस्था और मजबूत सैन्य क्षमता चाहिए होगी। इसके अतिरिक्त हम जब समस्या के हल के लिए बाहर देख रहे होंगे, तब हमें गंभीर रूप से अपने अंदर भी समाधान तलाशने होंगे।

चीन और भारत

दुनिया की दो सबसे बड़ी सेनाएं, दोनों परमाणु बम से लैस, दोनों दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में और दोनों ही दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाले देशों में भी। उस पर से दोनों के बीच अनिर्धारित सीमा जहां दोनों एक-दूसरे के आमने-सामने खड़े होते हैं। बढ़ते कारोबार के बावजूद इंतजाम बहुत अच्छे नहीं कहे जा सकते। पुराने संदेह कायम हैं और उस पर से नए मुकाबले भी शुरू हो चुके हैं। नई दिल्ली में नई सरकार के गठन के बाद पिछले दो साल के दौरान भारत में चीन का निवेश बढ़ कर दो अरब अमेरिकी डॉलर से ज्यादा हो चुका है (हालांकि यह बहुत छोटा बदलाव है क्योंकि इस दौरान चीन ने 2015 में समाप्त होने वाले दशक में दुनिया भर में एक ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा का निवेश किया है)। शी जिन पिंग के 2014 के भारत दौरे के दौरान लंबे समय तक चले संघर्ष को छोड़ दें तो सीमा पर संघर्ष काफी कम हो गए हैं। इन सब के बावजूद चीन ने भारत के रेलवे सिस्टम के आधुनिकीकरण के अलावा गुजरात और महाराष्ट्र में इंडस्ट्रियल पार्क शुरू करने और भारतीय फार्मा कारोबार को बाजार उपलब्ध करवाने का प्रस्ताव किया है। बारहं समझौतों पर दस्तखत किए गए जिनमें से एक भारत में अगले पांच साल के लिए 20 अरब डॉलर के निवेश का भी था।

इसके बावजूद चीन इस बात के लिए कभी सहमत नहीं होगा कि भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद या एनएसजी का सदस्य बन जाए। ना ही इस बात के लिए तैयार हो रहा है कि जैश-ए-मोहम्मद के मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र की ओर से आतंकवादी का दर्जा दिया जाए, जबकि पठानकोट पर हुए हमले और भारत में आतंकवाद में उसका हाथ है। न ही पाकिस्तान को आतंकवाद का प्रायोजक राष्ट्र मानने को तैयार है और यह बात उसने हाल के ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान भी साबित की है। वह चाहता है कि भारत को एनएसजी की भी सदस्यता नहीं हासिल करने दी जाए, क्योंकि एक बार यहां पहुंच गया तो भारत के लिए सुरक्षा परिषद की सदस्यता पाना आसान हो जाएगा। एमटीसीआर में भारत की सदस्यता ने भी चीन को काफी परेशान किया है। एनएसजी जैसी अहम जगहों से भारत को दूर रख कर चीन दरअसल, भारत को इसकी जगह दिखाना चाहता है। चीन की नजर में भारत उसके बराबर नहीं, बल्कि पाकिस्तान के बराबर हो सकता है। पाकिस्तान को ले कर हमारा लगातार हाय तौबा मचाना एक तरह से उसके इस विचार को बल ही देता है। भौगोलिक-रणनीतिक रूप से चीन को ग्वादार में अपनी पहुंच बनाने के लिए पाकिस्तान की जरूरत है और भारत को एनएसजी से बाहर रखना एक तरह से पाकिस्तान को भी खुश रखने की कोशिश है।

19वीं शताब्दी में उपनिवैशिक ताकतों ने रूस को अरब सागर से बाहर रखने के लिए अफगानिस्तान में कई चालें चलीं और युद्ध भी लड़े और पिछली शताब्दि के अंत में सोवियत संघ के खिलाफ अफगानिस्तान में सफल भी हुए। लेकिन आज दुनिया की सबसे बड़ी ताकत उस समय दूसरी तरफ मुंह फेर रही है, जब चीन ग्वादार में अपना मजबूत गढ़ बना रहा है। आज पूंजीवाद का ऐसा बोलबाल है कि पश्चिम की कम बड़ी शक्तियां भी सीपीईसी (चीन-पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरीडोर) में निवेश करने को तत्पर है। यूके 2015 में उस समय 121 मिलियन डॉलर की ग्रांट का वादा कर रहा है जब चीन अपनी आर्थिक शक्ति को रणनीतिक फायदे के लिए उपयोग कर रहा है और 21वीं सदी में कनेक्टिविटी हासिल कर रहा है। सीपीईसी चीन की महत्वाकांक्षी योजना वन बेल्ट वन रोड और मैरिटीम सिल्क रोड प्रोजेक्ट से जुड़ा है। चीन का अनुमान है कि ग्वादार के आस-पास की परियोजनाओं में 2017 तक इसे एक बिलियन डॉलर से ज्यादा खर्च करना होगा। काराकोरम हाइवे पर कशगार का रास्ता गिलगिट और बाल्टिस्तान से हो कर मिलेगा। पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर में यह विशाल निवेश और इतनी योजनाएं शुरू कर रहा है तो चीन का यही मानना है कि गिलगिट और बाल्टिस्तान आर्थिक समृद्ध के लिए पाकिस्तान में ही रहेंगे। दूसरे शब्दों में कहें तो चीन यह संदेश दे रहा है कि उसने मान लिया है कि जम्मू-कश्मीर का कुछ हिस्सा अब पाकिस्तान का है।

ओबीओआर और मैरिटीम सिल्क रोड परियोजना शी की बहुत महत्वाकांक्षी परियोजनाएं हैं। सड़क शियान में शुरू होती है और रोटर्डम में खत्म होती है और इस बीच मध्य एशिया, ईरान, तुर्की और रूस से होती हुई पश्चिमी यूरोप में प्रवेश करती है। समुद्री रास्ता फुजहाओ में शुरू होता है और अफ्रीका से जुड़ता है और मल्लका और एथेंस से होता हुआ वेनिस पर समाप्त होता है। सीपीईसी इस परियोजना का पाकिस्तान से जुड़ा चरण है, जहां पाकिस्तान की ढांचागत सुविधाएं, ऊर्जा परियोजनाएं, रिसर्च व विकास और रक्षा व्यवस्था काफी हद तक चीन के निवेश और इसके फैसलों पर निर्भर करेगी।

ओबीओआर को इस तरह डिजाइन किया गया है कि अंदरुनी और पश्चिमी क्षेत्र विकसित हो सकें और समुद्री रास्ते पर निर्भरता कम हो सके साथ ही चीन और यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं के बीच नजदीकी बढ़े। पैंसठ देशों से गुजरने वाले और दुनिया की 7. फीसदी आबादी तक पहुंच रखने वाली इस 81 हजार किलोमीटर लंबी 1.4  ट्रिलियन डॉलर की लागत वाली हाई स्पीड रेलवे परियोजना की सुरक्षा एक बहुत बड़ा मुद्दा होगा। ऐसे देशों को इसमें शामिल करना जहां इस्लामी आतंवकवाद बढ़ा रहा है और इनमें से कुछ में जहां इस्लामी आतंकवादी समूहों ने शिनजियांग के उईगुअर्स को मदद का भरोसा दिलाया है इस चुनौती को और बढ़ाता है।

चीन ने पाकिस्तान में जो 45 अरब डॉलर की बड़ी और महत्वाकांक्षी परियोजना को शुरू किया है, ग्वादार आज उसके आकर्षण का केंद्र बन गया है। ग्वादार से कशगार की आपूर्ति लाइन की वजह से कशगार और शंघाई के बीच की दूरी लगभग तीन हजार किलोमीटर कम हो जाती है। खाड़ी का तेल जहां से बाकी दुनिया के लिए रवाना होता है

उस हरमुज से लगभग 500 किलोमीटर दूर है ग्वादार। इसी तरह ग्वादार भारत के जामनगर से 843 किलोमीटर दूर है। इन सभी चीनी परियोजनाओं में चीन की व्यापक मौजूदगी की लंबे समय तक जरूरत होगी और इसके लिए पाकिस्तान सरकार खास तरह की सुरक्षा उपलब्ध करवाने को तैयार हो गई है जो बलूचिस्तान में जरूरी होगी। चीन के लिए यह प्रतिष्ठा का प्रश्न होगा और इसके लिए वे कुछ भी करने को तैयार होंगे।

भारत के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि ये परियोजनाएं कितनी सफल होंगी या नहीं या फिर पाकिस्तान और चीन के बीच संबंध आगे कैसे रहेंगे। महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि चाहे जो हो, लेकिन पाकिस्तान में चीन की बड़े स्तर पर मौजूदगी बनी रहेगी और आने वाले समय में यह अलग मायने ले सकती है। चीन और पाकिस्तान ने साउथ शिनजियांग जिले में स्थित पीएलए वेस्ट जोन के मुख्यालय और रावलपिंडी स्थित पाकिस्तानी सेना के जीएचक्यू के बीच सुरक्षित फाइबर ऑप्टिक लिंक तैयार कर लिया है। चीन के वेस्ट जोन को अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत से सटी सीमा को सुरक्षित रखने और सीपीईसी में लगे चीन के निवेश और इसके लोगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई है। पाकिस्तान को रणनीतिक परमाणु हथियार डिजाइन करने और तैयार करने में चीन पूरी मदद कर रहा है। भारत-चीन रिश्तों को यह पहलू एक और आयाम प्रदान करता है जो भारत के लिए प्रतिकूल माना जाएगा। चीन को अपने व्यापक रणनीतिक लक्ष्य पूरे करने के लिए पाकिस्तान का साथ चाहिए।

चीन के पास पैसों की बहुतायत है। यह सभी को पता है। फिर भी यह ध्यान रखना जरूरी है कि विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2015 में चीन का जीडीपी 10.8 खरब अमेरिकी डॉलर था यानी भारत के 2.7 खरब डॉलर जीडीपी के मुकाबले पांच गुना। आर्थिक विशेषज्ञ मोहन गुरुस्वामी के मुताबिक चीन की अर्थव्यवस्था भले ही धीमी हो रही हो, लेकिन सात फीसदी की विकास दर के साथ भी यह वैश्विक विकास में यह 500 अरब अमेरिकी डॉलर का योगदान करता है जबकि हम 7.9  फीसदी की विकास दर के साथ भी सिर्फ 140 अरब डॉलर का सहयोग करते हैं। उनके मुताबिक हमें यह अंतर दूर करने के लिए अगले एक दशक तक नौ से दस फीसदी की विकास दर कायम रखनी होगी। यह हमारी एक और चुनौती है। उधर, 140 अरब अमेरिकी डॉलर के रक्षा बजट के साथ चीन भारत के 58 अरब डॉलर के बजट को काफी पीछे छोड़ देता है। आने वाले दशकों में भारत चीन को पीछे छोड़ देगा यह कहने से पहले हमें इन बातों को ध्यान में रखना होगा। हमें चीन से निपटने के लिए अन्य रास्ते तलाशने होंगे।

ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान भी उसका नजरिया ऐसा ही रहा। हमें पहले से इसे समझ लेना चाहिए था। राष्ट्रपति शी ने भारत के साथ २० अरब डॉलर के समझौते पर दस्तखत करने के कुछ महीने बाद ही अप्रैल, 2015 में गोवा आते समय रास्ते में पाकिस्तान के साथ 45 अरब डॉलर के भारी-भरकम समझौते सीपीईसी के तहत किए और ढाका में बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना से मुलाकात की और दोनों ने उस समझौते पर दस्तखत किए, जिसके तहत बांग्लादेश को चीन से २० अरब डॉलर की आर्थिक सहायता मिलेगी। हमने ढाका को पिछले साल जो दो अरब  डॉलर के कर्ज का वादा किया है, उससे यह बहुत अधिक है। रूस के साथ यह भी आतंकवाद के मुद्दे पर अड़ियल रुख अपनाए रहा। कुछ लोग ब्रिक्स जैसे फोरम पर आतंकवाद के मुद्दे पर बहुत अधिक बल देने की नीति की आलोचना कर सकते हैं, लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि रूस-चीन के रवैये ने साफ कर दिया है कि आतंकवाद जैसे मुद्दे पर हमें अपने दम पर ही आगे बढ़ना है।

जैश-ए-मोहम्मद जैसे मामलों पर चीन का अड़ियल रवैया दुनिया भर को दिख रहा है। साथ ही अपने पिछलग्गू देश को परमाणु रिएक्टर्स सप्लाई करने और पांच हमलावर पनडुब्बियों की आपूर्ति का पांच अरब डॉलर का सौदा करने को तैयार रहने से साफ जाहिर होता है कि यह एक ऐसे देश को मदद करने के लिए किस हद तक जा सकता है जो खुले आम आतंकवाद को प्रश्रय दे रहा है और न्यूक्लियर ब्लैक मार्केट में शामिल है। ब्रिक्स सम्मेलन ने चीन के रवैये के बारे में तो स्थिति साफ की ही है साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया है कि हमें आतंकवाद के मुद्दे पर लगातार जोर देते रहना है और साथ ही यह भी ध्यान रखना है कि इस पर प्रतिक्रिया सिद्धांत-आधारित नहीं, बल्कि हित-आधारित होगी।

आतंकवाद को सभी के लिए खतरा बताने में भारत ब्रिक्स के बाद हुई ब्रिक्स-बिम्सटेक आउटरीच समिट के दौरान ज्यादा सफल रहा। बिम्सटेक भारत को अपनी ‘एक्ट ईस्ट नीति’ के लिए ज्यादा मौका उपलब्ध करवाता है, चीन के बोलबाले को चुनौती देता है, पाकिस्तान को और अलग-थलग करता है और भारत के उत्तर-पूर्व में कनेक्टीविटी को बढ़ावा देता है। चीन मामलों के एक प्रख्यात विशेषज्ञ जयदेव राणाडे के मुताबिक चीन इस बात को ले कर बहुत दिलचस्पी लेता रहा है कि इसकी ओबीओआर परियोजना के तहत चीन-म्यांमार-बांग्लादेश-भारत कॉरीडोर में भारत भी शामिल हो जाए। लेकिन चिंता यह है कि चूंकि हमारे उत्तर-पूर्व राज्यों की बाकी देश के साथ कनेक्टिविटी उतनी अच्छी नहीं है, इसलिए ऐसे में वहां चीन के माल से बाजार पट जाएंगे। साथ ही इस बात की भी आशंका है कि हजारों चीनी लोग इस दौरान गैर-कानूनी रूप से उत्तर-पूर्व में बस जाएं, जैसा कि उन्होंने रूस, कजाखिस्तान और अन्य जगहों पर किया है।

सार्क, जिसे इस बार स्थगित करना पड़ा, सहित विभिन्न बहुपक्षीय मंचों पर भारत काफी सक्रिय रहा है। लेकिन हमारे लिए ज्यादा नतीजे द्विपक्षीय मंचों पर ही मिले हैं। चाहे वह अमेरिका और रूस के साथ हो या फिर हाल के महीनों में अपने पड़ोसी देशों के साथ। संभवतः यह हमारे लिए बेहतर रास्ता है। निकट भविष्य में चीन के साथ हमारे रिश्तों में कोई बड़ा बदलाव होता नहीं दिख रहा। हमें उसके लिए तैयार रहना है। भारत-अमेरिका रिश्तों और भारत की एक्ट ईस्ट नीति को अपने खिलाफ समझ कर चीन हमारे विरोध में अपनी कोशिशें जारी रखेगा। दूसरी तरफ, अगर भारत अंतरराष्ट्रीय रूप से निष्क्रिय हो गया तो चीन को हमारे पड़ोस में अपनी गतिविधियों में कोई बाधा नहीं दिखेगी।

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