Author : Harsh V. Pant

Published on Dec 04, 2019 Updated 0 Hours ago

आज के युग में आर्थिक राजनय एक बार फिर से तमाम देशों के हितों के संरक्षण के लिए अग्रणी भूमिका में दिख रहा है.

भारत की आर्थिक कूटनीति में आयी नई धार

पिछले कुछ वर्षों में भारत की कूटनीति में बड़ी तेज़ी से सकारात्मक बदलाव आता दिख रहा है. हाल ही में नई दिल्ली में हुए रामनाथ गोयनका लेक्चर के दौरान भारत के विदेश मंत्री डॉक्टर एस. जयशंकर ने ये बात बहुत ज़ोर देकर कही. कूटनीति के मामले में कई बार इसी की आवश्यकता होती है. आख़िरकार, किसी भी कूटनीति के असरदार होने के लिए उस में समय के साथ साथ बदलाव होते रहने चाहिए, ताकि वो नई चुनौतियों और दबावों का सामना करते हुए, देश की ज़रूरतों को, उसके लक्ष्यों को हासिल कर सके. लेकिन, हाल के कुछ महीनों में भारत की कूटनीति में एक नई धार देखने को मिली है. भारत आज उन लोगों के साथ भी संवाद करने के लिए तत्पर दिख रहा है, जो भारत के हितों को नियमित रूप से चोट पहुंचाते रहे हैं. ये तथ्य ख़ास तौर से तब से स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहा है, जब से भारत ने जम्मू और कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने का फ़ैसला किया. भारत के इस फ़ैसले की वजह से जम्मू-कश्मीर का विशेष संवैधानिक दर्जा ख़त्म हो गया और लंबे समय से चली आ रही यथास्थिति भी बुनियादी तौर पर ख़त्म हो गई. और जैसी कि उम्मीद थी, भारत के इस फ़ैसले की चर्चा पूरी दुनिया में आज भी हो रही है.

दुनिया के ज़्यादातर देशों ने ये माना है कि जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्थिति में बदलाव, भारत का अंदरूनी मामला है. इन देशों ने भारत की चिंताओं से सहानुभूति भी जताई है. लेकिन, कई देशों ने खुल कर इस मामले में पाकिस्तान का साथ भी दिया है. इस मुद्दे पर चीन का रवैया भारत के लिए समस्या बना हुआ है. चीन का तर्क है कि भारत ने एकतरफ़ा फ़ैसला करते हुए अपने घरेलू क़ानून और प्रशासनिक क्षेत्रों में बदलाव किया है. ऐसा कर के भारत ने चीन की संप्रभुता और हितों को चुनौती दी है. चीन के अलावा भी, कई और देशों ने, जम्मू-कश्मीर के मसले पर, पाकिस्तान के शोर-शराबे का साथ दिया है.

सितंबर में हुई संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक में, तुर्की के राष्ट्रपति रेसिप तैयप अर्दोआन ने जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्थिति में बदलाव करने और अनुच्छेद 370 हटाने के लिए भारत की आलोचना की. यही नहीं, तुर्की के राष्ट्रपति ने पुरज़ोर तरीक़े से पाकिस्तान के उस नज़रिए का समर्थन किया, जैसा कि पाकिस्तान ये दावा करता रहा है कि, ‘कश्मीर के 80 लाख लोग अघोषित रूप से एक क़ैदख़ाने में रह रहे हैं. और दुर्भाग्यपूर्ण बात ये है कि ‘वो अपने घरों से निकलने के लिए भी आज़ाद नहीं हैं. इसीलिए, आज ये ज़रूरी हो गया है कि जम्मू-कश्मीर मसले का हल वार्ता के माध्यम से निकाला जाए. जिसकी बुनियाद इंसाफ़ और बराबरी हो, न कि संघर्ष.’ अर्दोआन ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में कहा कि, ‘दक्षिण एशिया की स्थिरता, शांति और तरक़्क़ी को कश्मीर मसले से अलग कर के नहीं देखा जा सकता है.’ तुर्की के राष्ट्रपति के इस भाषण का भारत के विदेश मंत्रालय ने बहुत सख़्त लहज़े में जवाब दिया. विदेश मंत्रालय ने कहा कि, ‘तुर्की की सरकार को चाहिए कि वो हालात की सही जानकारी और समझ हासिल करे. उस के बाद ही तुर्की की हुक़ूमत जम्मू-कश्मीर के बारे में आगे कोई और बयान दे.’ विदेश मंत्रालय ने ये बात भी ज़ोर देकर कही कि, ‘जम्मू-कश्मीर का मसला पूरी तरह से भारत का अंदरूनी मामला है.’ यही नहीं, संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक में भाग लेने गए प्रधानमंत्री ने इसके बाद तुर्की के विरोधी राष्ट्रों के नेताओं से मुलाक़ात की. इन में यूनान, साइप्रस और आर्मेनिया के राष्ट्राध्यक्ष और राष्ट्र प्रमुख शामिल थे. इन देशों के नेताओं से प्रधानमंत्री मोदी की मुलाक़ात के ज़रिए, भारत ने तुर्की के राष्ट्रपति रेसिप तैयप अर्दोआन को जो संदेश दिया, वो उन्हें बख़ूबी समझ में आ गया होगा.

तुर्की और पाकिस्तान के नज़दीकी रिश्तों को देखते हुए भारत के लिए ये ज़रूरी हो गया था कि वो तुर्की को ये स्पष्ट संदेश दे कि, वो ऐसे अहम प्रोजेक्ट में तुर्की की कंपनी के साथ सहयोग नहीं कर सकता है

इसके बाद, भारत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रस्तावित तुर्की यात्रा को रद्द करने का भी फ़ैसला किया. इसी के साथ साथ भारत ने अभूतपूर्व क़दम उठाते हुए, तुर्की की कंपनी अनादोलु शिपयार्ड को भारत में रक्षा क्षेत्र से जुड़े कारोबार करने पर भी रोक लगा दी. भारत की कंपनी हिंदुस्तान शिपयार्ड ने भारतीय नौसेना के लिए लड़ाकू जहाज़ों के सहयोगी जहाज़ बनाने के ठेके में अनादोलु शिपयार्ड को अपना साझीदार बनाया था. ये ठेका दो अरब डॉलर का है. लेकिन, तुर्की और पाकिस्तान के नज़दीकी रिश्तों को देखते हुए भारत के लिए ये ज़रूरी हो गया था कि वो तुर्की को ये स्पष्ट संदेश दे कि, वो ऐसे अहम प्रोजेक्ट में तुर्की की कंपनी के साथ सहयोग नहीं कर सकता है. इसके साथ साथ भारत ने सीरिया में तुर्की के सैन्य अभियानों की कड़ी आलोचना की. जो तुर्की के ख़िलाफ़ भारत के सख़्त रवैये का साफ़ संकेत था. भारत ने इस मामले पर अपने बयान में कहा कि सीरिया में तुर्की का इकतरफ़ा सैन्य अभियान क्षेत्र की स्थिरता के लिए ख़तरनाक है. इसकी वजह से आतंकवाद के ख़िलाफ़ वैश्विक लड़ाई भी कमज़ोर होगी. भारत ने तुर्की से मांग की कि वो सीरिया क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का सम्मान करे और अपने उकसाऊ अभियान पर लगाम लगाए.

जम्मू-कश्मीर मसले पर पाकिस्तान का समर्थन मलेशिया ने भी किया था. भारत ने मलेशिया को भी मज़बूती से जवाब दिया. हालांकि तुर्की के मुक़ाबले, मलेशिया के प्रति भारत ने थोड़ी नरमी दिखाई. मलेशिया से भारत की नाराज़गी की वजह वहां के प्रधानमंत्री महाथिर मोहम्मद का एक ट्वीट था, जो उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक के दौरान ही किया था. इस ट्वीट में मलेशिया के प्रधानमंत्री ने लिखा था कि, ‘जम्मू कश्मीर पर आक्रमण कर के उस पर क़ब्‍ज़ा कर लिया गया है.’ हालांकि महाथिर मोहम्मद ने आगे ये भी लिखा था कि, ‘हो सकता है कि इस क़दम के पीछे कोई वजह हो, मगर ये क़दम ग़लत है.’ जम्मू-कश्मीर के अलावा, भारत और मलेशिया के बीच कट्टरपंथी इस्लामिक प्रचारक ज़ाकिर नाईक को लेकर भी मतभेद चल रहे हैं. भारत चाहता है कि मलेशिया, ज़ाकिर नाईक का प्रत्यर्पण कर के उसे सौंप दे. हालांकि, संयुक्त राष्ट्र महासभा में महाथिर मोहम्मद के भड़काने वाले बयान के बाद भारत ने मलेशिया पर सीधे तौर पर तो निशाना नहीं साधा. लेकिन, महाथिर मोहम्मद के बयान के बाद भारत में वेजिटेबल ऑयल की सबसे बड़ी कारोबारी संस्था ने अपने सदस्यों से कहा कि वो मलेशिया से पाम ऑयल ख़रीदना बंद कर दें. भारत, दुनिया भर से खाद्य तेलों का सब से बड़ा ख़रीदार देश है. और, इस फ़ैसले के साथ ही भारत ने ये संदेश दिया है कि वो मलेशिया के बजाय दूसरे देशों से पाम ऑयल ख़रीदने के विकल्पों पर ग़ौर कर रहा है. मलेशिया से पाम ऑयल की ख़रीद पर क़रीब एक महीने की रोक लगी रही. इसके बाद जाकर भारतीय कंपनियों ने मलेशिया से दोबारा पाम ऑयल ख़रीदना शुरू किया.

अगर कोई देश भारत के साथ द्विपक्षीय फ़ायदे वाला संबंध रखना चाहता है, तो उसे भारत के हितों और उसकी संवेदनाओं का ख़याल रखना होगा

भारत ने अपने इन क़दमो से उन देशों को स्पष्ट रूप से संदेश दिया है कि अगर वो भारत के हितों को चोट पहुंचाते हैं, तो उन्हें इसकी भारी क़ीमत चुकानी होगी. भारत के मित्र राष्ट्र हों या फिर इसके विरोधी, इन क़दमों से भारत ने साफ़ तौर से ये पैग़ाम दिया है कि अगर कोई देश भारत के साथ द्विपक्षीय फ़ायदे वाला संबंध रखना चाहता है, तो उसे भारत के हितों और उसकी संवेदनाओं का ख़याल रखना होगा. तभी, वो दुनिया की सब से तेज़ी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक, यानी भारत के साथ बेहतर संबंध की उम्मीद कर सकेंगे. ये भारत के कूटनीतिक रवैये में आया बहुत बड़ा बदलाव है. क्योंकि, इससे पहले तक भारत तमाम देशों के साथ, ‘रणनीतिक साझेदारी’ जैसे समझौते कर के ही संतुष्ट हो जाता था. ये समझौते इतनी बड़ी तादाद में किए गए कि इन समझौतों की अहमियत ही ख़त्म हो चुकी है. इन में से ज़्यादातर समझौते न तो रणनीतिक हैं और न ही इन्हें सही मायनों में साझेदारी कहा जा सकता है.

लेकिन, भारत के लिए ऐसी आक्रामक कूटनीति के रास्ते पर चलने के अपने ख़तरे भी हैं. अगर, ऐसे मसलों को ठीक से नहीं संभाला गया, तो विश्व स्तर पर भारत की एक ज़िम्मेदार और गंभीर देश की छवि को नुक़सान पहुंचने का डर है. आलोचक, चीन के प्रति भारत के रवैये की तरफ़ भी उंगली उठाएंगे. क्योंकि चीन के साथ भारत ने कूटनीति का मध्यमार्गी रवैया अपनाया है. भारत ने चीन के साथ संवाद क़ायम रखते हुए कई मसलों पर अलग-अलग तरीक़े से अपनी नाराज़गी भी ज़ाहिर की है. आख़िरकार, चीन भी तो अमेरिका और भारत जैसे देशों के साथ ऐसे ही अलग-अलग मुद्दों पर बिल्कुल अलग-अलग तरीक़े से पेश आता है. विश्व स्तर पर किसी भी देश की कूटनीति का असर, उस देश की असल ताक़त के आधार पर ही तय होता है. लेकिन, पिछले कुछ वर्षों में भारत ने चीन के साथ भी ऐसी नीति पर अमल किया है कि, अगर चीन भारत के हितों को नुक़सान पहुंचाता है, तो उसे इसकी क़ीमत चुकानी पड़ती है.

भारत की आर्थिक ताक़त के बल बूते पर इसकी कूटनीति में आई ये नई तरह की धार है. पहले के मुक़ाबले ज़्यादा आक्रामक विदेश नीति अपना कर भारत ने अपनी कूटनीति के लिए संभावनाओं के नए दरवाज़े खोले हैं. हो सकता है कि बहुत से परंपरावादी इस से सहमत न हों. लेकिन, जैसे-जैसे भारत की आर्थिक शक्ति बढ़ रही है, वैसे-वैसे भारत अपनी कूटनीति की मदद से अपने हितों को बढ़ाने के तरीक़े पर अमल कर रहा है. भारत को इस नई आर्थिक क्षमता का इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करना चाहिए. ख़ास तौर से तब, जब आज के युग में आर्थिक राजनय एक बार फिर से तमाम देशों के हितों के संरक्षण के लिए अग्रणी भूमिका में दिख रहा है.

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