Author : Rasheed Kidwai

Published on Jan 09, 2020 Updated 0 Hours ago

सोनिया गांधी चाहती हैं कि राहुल जल्द ही कांग्रेस अध्यक्ष बन जाएं. लेकिन दिल्ली का चुनावी नतीजा नेहरू-गांधी परिवार के लिए गले की हड्डी ना बन जाए.

दिल्ली चुनावों के ज़रिये कांग्रेस और सोनिया गांधी के सामने नई चुनौती

दिल्ली के चुनाव में कांग्रेस की भूमिका को लेकर तरह-तरह के आकलन किए जा रहे हैं. अधिकांश लोगों का मानना यह है कि कांग्रेस दिल्ली में अपना कोई दमख़म नहीं दिखा पाएगी. लेकिन कांग्रेस इस लड़ाई को पूरी गंभीरता से लड़ने की तैयारी कर रही है. तक़रीबन हर असेंबली सीट के लिए पार्टी ने चार अलग-अलग तरह के सर्वे कराए हैं, ताकि यह पता चले कि वहां मुद्दे किस प्रकार के हैं और कौन व्यक्ति इसके लिए सबसे ज़्यादा उपयुक्त हो सकता है जो चुनाव में आम आदमी पार्टी और भाजपा को चुनौती दे सके.

कांग्रेस का अनुमान है कि 2013 वाली स्थिति फिर से उत्पन्न हो सकती है जहां किसी भी राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था. कांग्रेस के आकलन में उसके पास 15 ऐसे चेहरे हैं जो अपने दमख़म और अपने बलबूते पर चुनाव में जीत दिला सकते हैं. उनमें दिल्ली के पूर्व मंत्री रह चुके और कांग्रेस के कई पदाधिकारी हैं, जिनका जनता के बीच में अच्छा जनाधार है. ऐसे लोगों की वह एक सूची बनाई गई है और इन्हीं 15 सीटों पर ही कांग्रेस अपनी तमाम शक्ति झोंकेगी. कांग्रेस एक संदेश देना चाहती है,दूसरे राजनीतिक दलों को कि वो उसे कम आंकने की गलती न करें. आम आदमी पार्टी और बीजेपी के आंतरिक सर्वे में भी कांग्रेस को 3 से 5 सीटें दे रहे हैं और 2 से 4 और सीटें ऐसी मान रहे हैं, जहां कांग्रेस एक तगड़ी टक्कर दे सकती है. 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन दिल्ली लोकसभा की 7 सीटों में आम आदमी पार्टी से अच्छा रहा था. वह सात लोकसभा सीटों में से पांच पर दूसरे स्थान पर आई थी. सातों सीटें बीजेपी  ने जीती थी और आम आदमी पार्टी केवल दो जगह पर दूसरे नंबर पर आई थी. इसके साथ-साथ जब चुनाव के बाद सीएसडीएस ने सर्वे किया तो उसमें यह जाहिर हुआ था कि दिल्ली की 70 असेंबली सीट्स में आम आदमी पार्टी 2019 के लोकसभा चुनाव में एक भी क्षेत्र में अपनी बढ़त नहीं बना पाई थी वहां कांग्रेस को पांच विधान सभा क्षेत्रों में बढ़त मिली थी. इस हिसाब से तो बीजेपी की 65 सीटों की दावेदारी बनती है, लेकिन आज की राजनीति बिल्कुल बदल चुकी है, हालात बदल चुके हैं और दिल्ली में 2020 का चुनाव आम आदमी पार्टी और बीजेपी के बीच में लड़ा जा रहा है.

दिल्ली में कांग्रेस के अध्यक्ष है सुभाष चोपड़ा- एक सक्षम और समझदार नेता हैं, लेकिन जनता में अरविंद केजरीवाल के सामने बिलकुल नहीं टिकते हैं.

स्मरण रहे कि लोकसभा चुनाव के समय एक पुरज़ोर कोशिश हुई थी कि आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन हो जाए. इसके पीछे शरद पवार, ममता बनर्जी और चंद्रबाबू नायडू की बहुत ज्यादा कोशिशें थी. उन्होंने उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को इस बात के लिए तैयार कर लिया था कि वह आम आदमी पार्टी से लोकसभा में दिल्ली की 7 सीटों में समझौता करें लेकिन फिर वह इस शह मात का खेल हो गया. आम आदमी पार्टी ने दिल्ली से बाहर, हरियाणा, पंजाब और गोवा में कुछ सीटों की मांग की. वहां के क्षेत्रीय कांग्रेस नेताओं ने उस को नकार दिया और फिर 4-3 का विवाद चलता रहा कि दिल्ली के लोकसभा के चुनाव में आम आदमी पार्टी 4 सीटों पर चुनाव लड़े और कांग्रेस 3 सीटों पर. बाद में यह भी कहा गया कि आम आदमी पार्टी 5 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती थी और कांग्रेस को केवल 2 सीटें देना चाहती थी. उस समय दिल्ली कांग्रेस की अध्यक्षा शीला दीक्षित ने इसकी बहुत ज्यादा मुखालफत की और वह खुद चुनाव लड़ने को तैयार हो गई थीं. राहुल गांधी जो एक आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन के पक्षधर थे उन्होंने पार्टी के नेताओं से कहा कि अगर वह गठबंधन नहीं करना चाहते हैं तो चुनाव लड़े और कांग्रेस ने 2019 का लोकसभा चुनाव दिल्ली में अपनी पूरी ताकत के साथ लड़ा था. यह ज़रूर है कि कामयाबी हाथ नहीं लगी लेकिन कांग्रेस को इस बात का ज़रूर संतोष हुआ कि वह 7 में से 5 सीटों में बीजेपी के बाद दूसरे नंबर की पार्टी के रूप में उभरी. आज शीला दीक्षित नहीं है और दिल्ली मे कांग्रेस के पास कोई बड़ा चेहरा नहीं है. दिल्ली में कांग्रेस के अध्यक्ष है सुभाष चोपड़ा- एक सक्षम और समझदार नेता हैं, लेकिन जनता में अरविंद केजरीवाल के सामने बिलकुल नहीं टिकते हैं. चेहरे की समस्या बीजेपी में भी है लेकिन वो नरेंद्र मोदी और अमित शाह के रचे भावनात्मक मुद्दों पर दांव खेलना चाहती है. केजरीवाल, प्रशांत किशोर द्वारा तैयार रणनीति के अनुसार सधी हुई चालें चल रहे हैं और काफी समय से विवादों से बच रहे हैं.

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने दिल्ली के चुनाव को लेकर के बहुत सारी समितियां बनाई है और इन समितियों में उन्होंने 607 सदस्य रखे हैं जिसमें पार्टी के अनुभवी नेता जैसे डॉ करण सिंह जनार्दन द्विवेदी कपिल सिब्बल अजय माकन और दीगर नेताओं की भरमार है. हर समिति डेढ़ सौ से 75 सदस्यों से भरी हुई है. इतनी बड़ी कमेटी बनने की वजह से अब जब चुनाव सिर पर हैं तो उनकी मीटिंग बुलाना भी बेमानी हो गया है. मेनिफेस्टो कमेटी, कैंपेन, प्रचार, और इलेक्शन कैंपेन मैनेजमेंट कमेटी सब सिर्फ कागजी कार्रवाई है. ऐसा नहीं लगता कि वह कमेटियां बैठकर विचार-विमर्श करके कोई रणनीति तैयार कर पाएगी. कांग्रेस की अब स्क्रीनिंग कमेटी की मीटिंग की शुरुआत शुरू हो गई है हर विधान सभा क्षेत्र में टिकटार्थी अपने पक्ष में माहौल बना रहे हैं और क्षेत्र में जाकर प्रचार करने की कोशिश कर रहे हैं.

अब जब चुनाव सिर पर हैं तो उनकी मीटिंग बुलाना भी बेमानी हो गया है. मेनिफेस्टो कमेटी, कैंपेन, प्रचार, और इलेक्शन कैंपेन मैनेजमेंट कमेटी सब सिर्फ कागजी कार्रवाई है.

दिल्ली के राजनैतिक मुद्दे ऐसे हैं कि वह कांग्रेस के लिए एक निष्पक्ष भूमिका बनाना बड़ा कठिन साबित हो रहा है. जहां एक तरफ नागरिकता के कानून को लेकर प्रियंका गांधी ने एक स्पष्ट रवैया अपनाते हुए उसके विरोध करने का फैसला किया है, तो वही दिल्ली के अधिकांश नेता इसके पुरज़ोर विरोध से बचने की कोशिश कर रहे हैं. उन्हें लगता है कि ऐसा करने से बीजेपी को ताकत मिलेगी लेकिन कांग्रेस का जो थिंकटैंक है वह यह चाहता है कि कांग्रेस कम से कम 8 या 10 सीटों पर अपना प्रदर्शन अच्छा करे और ऐसी स्थिति हो जहां पर किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत ना मिल सके. ऐसी स्थिति कांग्रेस और आम आदमी पार्टी मिलकर सरकार बना सके. आज की राजनैतिक स्थिति में यह एक ख्य़ाली पुलाव प्रतीत होता है.

कांग्रेस ने राष्ट्रीय स्तर पर भी एक ऐसी रणनीति अपनाई है कि वह सत्ता से ज़्यादा दूर ना दिखे. उसका आकलन है कि उन्हें सब जगह चाहे छोटी ही भूमिका क्यों न हो सरकार बनाने में उसकी पूरी भागेदारी हो. जिस तरीके से महाराष्ट्र में सरकार बनी है, झारखंड में सरकार बनी है, वह सोनिया गांधी का एक प्रिय मॉडल बन गया है. जैसा एक वरिष्ठ सदस्य ने कहा कि अगर कोई व्यक्ति गरम खिचड़ी खा रहा हो तो वह किनारे-किनारे से खाने की कोशिश करता है और इससे धीरे-धीरे उसका पेट भरने लगता है और वह प्लेट भी साफ कर देता है. कांग्रेस इसी तरीके से राज्यों में अपनी छोटी भूमिका के ज़रिए बीजेपी को कमजोर करने की कोशिश कर रही है. अगर दिल्ली में कांग्रेस कामयाब होती है तो उसका अगला लक्ष्य बिहार होगा जहां वह छोटी भूमिका में सत्ता में शामिल होने की कोशिश करेगी.

तमिलनाडु में भी कांग्रेस गठबंधन के ऊपर बहुत सालों से निर्भर है. इस मॉडल के द्वारा कांग्रेस चाहती है कि जब तक मोदी की लोकप्रियता और बीजेपी का पूरे देश की राजनीति में दबदबा बना हुआ है तब तक कांग्रेस राज्यों में बेहतर प्रदर्शन करें. जहां उनकी सरकारें हैं वह ठीक से काम करें जिस तरीके से पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की सरकार मध्यप्रदेश में कमलनाथ की सरकार और राजस्थान में अशोक गहलोत की सरकार काम कर रही है. उसके ऐसी स्कीम और योजनाओं का उल्लेख हो कि कांग्रेस की छवि बेहतर हो.

लेकिन कांग्रेस की सबसे बड़ी और मुश्किल चुनौती उसके शीर्ष नेतृत्व की है. क्या राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बनने के लिए तैयार हैं? और क्या वह कांग्रेस में सबको साथ लेकर के चल सकेंगे? ये कुछ ऐसे सवाल है जो कांग्रेस के लिए समस्या पैदा कर सकते हैं. यह बात जगजाहिर है कि सोनिया गांधी चाहती हैं कि राहुल जल्द ही कांग्रेस अध्यक्ष बन जाएं. लेकिन दिल्ली का चुनावी नतीजा नेहरू-गांधी परिवार के लिए गले की हड्डी ना बन जाए.

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