प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 21 से 24 जून तक होने वाली अमेरिका की राजकीय यात्रा को लेकर ज़बरदस्त उत्साह का माहौल है. कुछ लोगों का कहना है कि यह किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री का वॉशिंगटन डीसी का सबसे महत्त्वपूर्ण दौरा है. अन्य लोगों ने इसे प्रधानमंत्री मोदी के डेंग जियाओपिंग क्षण के रूप में करार दिया है, जो कि भारत की भू-आर्थिक और भू-राजनीतिक तक़दीर को बदल सकता है.
कुल मिलाकर, पीएम मोदी की इस यात्रा का सबसे बड़ा उद्देश्य भारत-अमेरिका आर्थिक संबंधों, ख़ास तौर पर रक्षा प्रौद्योगिकी सेक्टर की आधारशिला रखना होगा.
इस यात्रा की सबसे अहम उपलब्धि भारतीय लड़ाकू विमानों को ताक़त प्रदान करने के लिए GE-414 जेट इंजन के निर्माण लाइसेंस से संबंधित घोषणा होगी. दोनों पक्ष "अमेरिका और भारतीय रक्षा नवाचार सेक्शन के बीच साझेदारी" को बढ़ावा देने के लिए औपचारिक रूप से NDUS X पहल भी शुरू करेंगे.
प्रधानमंत्री के अमेरिका दौरे को लेकर महत्त्वपूर्ण चर्चा-परिचर्चा जनवरी महीने के आख़िर में तब हुई थी, जब भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने अपने अमेरिकी समकक्ष जेक सुलिवन के साथ मिलकर इनिशिएटिव फॉर क्रिटिकल एंड इमर्जिंग टेक्नोलॉजीज (iCET) की औपचारिक शुरुआत करने के लिए वॉशिंगटन का दौरा किया. इस पहल की घोषणा मई 2022 में उस वक़्त की गई थी, जब अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने टोक्यो में प्रधानमंत्री मोदी से मुलाक़ात की थी.
iCET की शुरुआत के अवसर पर व्हाइट हाउस की तरफ से जारी एक बयान में कहा गया कि दोनों देश न केवल सरकारों के बीच, बल्कि दोनों देशों के व्यवसायों और शैक्षणिक संस्थानों के बीच अपनी "रणनीतिक प्रौद्योगिकी साझेदारी और रक्षा औद्योगिक सहयोग" का विस्तार करने के लिए तैयार हैं.
इस यात्रा की सबसे अहम उपलब्धि भारतीय लड़ाकू विमानों को ताक़त प्रदान करने के लिए GE-414 जेट इंजन के निर्माण लाइसेंस से संबंधित घोषणा होगी. दोनों पक्ष "अमेरिका और भारतीय रक्षा नवाचार सेक्शन के बीच साझेदारी" को बढ़ावा देने के लिए औपचारिक रूप से NDUS X पहल भी शुरू करेंगे. इस यात्रा के दौरान 18 MQ-9 रीपर आर्म्ड ड्रोन के अधिग्रहण से संबंधित घोषणा हो सकती है. फिलहाल, ख़ुफ़िया जानकारी साझा करने और कुछ संयुक्त रक्षा गतिविधियों से संबंधित महत्त्वपूर्ण फैसलों का खुलासा नहीं किया जा सकता है.
यात्रा की योजना
इस यात्रा को लेकर पहले ही काफ़ी योजना बनाई जा चुकी हैं और कोशिशें की गई हैं. इस महीने की शुरुआत में अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिनभारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के साथ भारत-अमेरिका रक्षा औद्योगिक सहयोग के रोडमैप पर चर्चा को अंतिम रूप देने के लिए नई दिल्ली में थे. दोनों ने सुरक्षा, विशेष रूप से अंतरिक्ष और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (AI) से संबंधित सभी क्षेत्रों में सहयोग का विस्तार करने के लिए मई में हुए एडवांस्ड डोमेन्स डिफेंस डायलॉग का भी उल्लेख किया.
पीएम मोदी की अमेरिका यात्रा से एक सप्ताह पहले, अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन इसे अंतिम रूप देने के लिए नई दिल्ली में मौज़ूद थे. बाद में उन्होंने और उनके भारतीय समकक्ष अजीत डोभाल ने iCET को आगे बढ़ाने पर भारतीय उद्योग परिसंघ (CII) द्वारा आयोजित एक संगोष्ठी में भाग लिया.
वॉशिंगटन डीसी में 6 जून को इंडिया-यूएस स्ट्रैटेजिक ट्रेड डायलॉग की शुरुआत के साथ ही इस दिशा में एक प्रमुख क़दम आगे बढ़ाया गया था. विदेश सचिव वी एम क्वात्रा ने भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया, जिसका उद्देश्य "महत्त्वपूर्ण प्रौद्योगिकी क्षेत्रों" में विकास और व्यापार को सुविधाजनक बनाना था, जिसमें सेमीकंडक्टर, अंतरिक्ष, दूरसंचार, क्वॉन्टम टेक्नोलॉजी, एआई, रक्षा, बायोटेक जैसे विभिन्न क्षेत्र शामिल हैं. अमेरिका के वाणिज्य विभाग के शक्तिशाली ब्यूरो ऑफ इंडस्ट्री एंड सिक्योरिटी में निर्यात के नियंत्रण व अनुपालन से निपटने वाले शीर्ष अमेरिकी अधिकारी एलन एस्टेवेज़ द्वारा संचालित इस बातचीत का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि अमेरिकी नियमों का जंजाल प्रक्रिया में रुकावट न बने.
पीएम मोदी की अमेरिका यात्रा से एक सप्ताह पहले, अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन इसे अंतिम रूप देने के लिए नई दिल्ली में मौज़ूद थे. बाद में उन्होंने और उनके भारतीय समकक्ष अजीत डोभाल ने iCET को आगे बढ़ाने पर भारतीय उद्योग परिसंघ (CII) द्वारा आयोजित एक संगोष्ठी में भाग लिया. अपने वक्तव्य में डोभाल ने इस मुद्दे पर भारतीय सोच को अभिव्यक्त किया. उन्होंने कहा कि शुरुआत में उन्हें कुछ संदेह हुआ था, "मुझे यकीन नहीं था कि यह विचार आगे जा पाएगा या नहीं." लेकिन सरकारों, उद्योग, वैज्ञानिकों और अनुसंधान संस्थानों की प्रतिक्रिया देखने के बाद, "मैं बहुत अधिक आश्वस्त और आशान्वित हूं." उन्होंने कहा कि iCET भारत-अमेरिका संबंधों में एक "ऊंची छलांग" प्रदान करने वाला साबित करेगा.
iCET और नए वॉशिंगटन की सहमति
मौज़ूदा डेवलपमेंट को भारत और अमेरिका द्वारा प्रौद्योगिकी-व्यापार संबंध स्थापित करने के लिए आधी शताब्दी से की जा रही कोशिशों के परिप्रेक्ष्य में देखने की ज़रूरत है. इन कोशिशों की शुरुआत गांधी-रीगन साइंस एंड टेक्नोलॉजी इनीशिएटिव और वर्ष 1984 के प्रौद्योगिकी हस्तांतरण पर समझौता ज्ञापन (MoU) के माध्यम से हुई थी और आगे भारत-यूएस विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संयुक्त आयोग (2005) और डिफेंस टेक्नोलॉजी एंड ट्रेड इनीशिएटिव (2012) के ज़रिए ये प्रयास आगे बढ़े. देखा जाए तो इस पूरी प्रक्रिया का अनुभव उत्साहजनक नहीं रहा है.
इन कोशिशों को देखा जाए तो, इनमें बहुत कुछ ऐसा था, जो दोनों पक्षों को अलग-अलग लक्ष्यों के साथ करना था, और इसमें से कुछ ऐसा भी था, जो उनके बीच भारी विषमता का स्वाभाविक नतीज़ा था. ज़ाहिर है कि भारत आर्थिक सीढ़ी को आगे बढ़ाने के लिए अमेरिकी प्रौद्योगिकी और व्यापार की मांग कर रहा था, जबकि अमेरिका अपने वैश्विक आर्थिक ढांचे में भारत को शामिल करना चाहता था. हालांकि, वर्तमान परिस्थितियों की बात करें तो चीन को नियंत्रित करने की दृष्टि से रक्षा और सुरक्षा संबंधों पर ज़्यादा ज़ोर दिया जा रहा है.
सबसे बड़ी परेशानी यह है कि भारत की आत्मनिर्भर प्रौद्योगिकी से जुड़ी महत्वाकांक्षाएं, उसके सामर्थ्य के मुताबिक़ नहीं है, यानी उसकी क्षमता से कहीं आगे हैं. ये जटिल रक्षा प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में स्पष्ट रूप से प्रकट होता है.
जो भारत-अमेरिका प्रौद्योगिकी साझेदारी के लिए नए नियमों और शर्तों पर काम करना चाहते हैं, वे इस सबके बारे में भली भांति जानते हैं. हालांकि, बयानबाज़ी के स्तर पर देखा जाए, तो भारत-अमेरिका संबंधों का बखान "असीमित साझेदारी" के रूप में किया जा सकता है. लेकिन व्यावहारिक स्तर पर देखा जाए तो ख़ास तौर पर कुछ तकनीक़ों का उपयोग करने में भारत की अक्षमता की वजह से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के मोर्चे पर कुछ सीमाएं हैं. साथ ही जहां तक अमेरिका की बात है, तो उनमें से कुछ की रक्षा करने की ज़रूरत को लेकर अमेरिका की ओर से भी सीमाएं हैं.
इसलिए, अपनी इच्छा के अनुरूप नतीज़ों को वास्तविक परिणामों से अलग करने की ज़रूरत है. इसके लिए हमें भारतीय और अमेरिकी नीतियों को निर्धारित करने वाले कारकों की और गहराई से पड़ताल करने की आवश्यकता है. आज, वॉशिंगटन की भू-राजनीतिक वैश्विक दृष्टि में नई दिल्ली को एक पसंदीदा जगह हासिल है, लेकिन एक बड़े अमेरिकी परिप्रेक्ष्य के भीतर यह ऐसा है, जो नए वॉशिंगटन की सहमति के रूप में विकसित हो रहा है. ज़ाहिर है कि अमेरिका सबसे प्रमुख सैन्य ताक़त बना हुआ है, इसलिए उसका वर्तमान लक्ष्य चीन की सबसे भयावह चुनौती के विरुद्ध अमेरिकी वैश्विक दबदबे को मज़बूत करने के लिए अपनी घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक नीति को बदलने की ज़रूरत पर ज़्यादा केंद्रित है.
अपनी आर्थिक और सुरक्षा नीतियों को लेकर जो भी परिवर्तनकारी क़दम हो सकते हैं, अमेरिका उन क़दमों को उठा रहा है. इसके साथ ही अमेरिका अपनी सुरक्षा नीतियों के महत्व पर ख़ासा ज़ोर दे रहा है. अप्रैल में, ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन में एक भाषण को दौरान जेक सुलिवन ने एक आधुनिक अमेरिकी औद्योगिक रणनीति के आधार पर एक नई सहमति बनाने का आह्वान किया.
सबसे पहले, यह सेमीकंडक्टर्स, स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकी आदि जैसे क्षेत्रों में नवाचार और प्रतिस्पर्धा पर फोकस करेगा. दूसरा, क्षमता निर्माण और लचीलेपन में अमेरिकी भागीदारों को शामिल किया जाएगा. तीसरा, यह मौजूदा व्यापार प्रणाली को "इनोवेटिव और नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक साझेदारी" के साथ बदलने की कोशिश करेगा, जो कि सिर्फ़ टैरिफ पर ध्यान केंद्रित नहीं करेगा. चौथा स्तंभ, मौज़ूदा विकास बैंकों के ऑपरेटिंग मॉडल्स को अपडेट करने के माध्यम से ऊर्जा, भौतिक और डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर को विकसित करने के लिए उभरती अर्थव्यवस्थाओं में बड़े पैमाने पर निवेश होगा.
अमेरिकी सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन की योजना का आख़िरी और प्रमुख स्तंभ अमेरिका की " मूलभूत तकनीक़ों के साथ एक महत्वपूर्ण आर्थिक भागीदार से प्राप्त व्यापक लाभों को खोए बिना चयनित सामरिक संपत्तियों की रक्षा करना" था. साथ ही सभी हाई-टेक और विदेशी निवेशों को सख़्त राष्ट्रीय सुरक्षा परीक्षण से गुजरना होगा.
भारत के लिए उपयुक्त
यह एक महत्वाकांक्षी योजना है और यह देखा जाना अभी शेष है कि यह कैसे काम करेगी और भारत इसमें किस प्रकार से फिट होगा. नई दिल्ली को कई प्रमुख पहलों में एक भागीदार के तौर पर देखा जाता है, जैसे कि आपूर्ति श्रृंखला लचीलापन और स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकी से संबंधित पहलें. भारत उल्लेखनीय निवेश की उम्मीद कर सकता है, लेकिन वे अमेरिकी नियम-क़ानूनों और विनियमों के दायरे में होंगे और अमेरिकी ज़रूरतों के मुताबिक़ आकार लेंगे. पर सच्चाई यह है कि न तो अमेरिकी तकनीक़ तक और न ही अमेरिकी बाज़ार तक, कोई विशेष स्वचालित पहुंच होगी, जो कि भारत के आर्थिक विकास के लिए एक प्रमुख आवश्यकता है.
अमेरिका पहले से ही भारत का एक प्रमुख व्यापार और निवेश साझीदार है. नई दिल्ली ने हमेशा अमेरिका की बड़ी हाई-टेक कंपनियों की व्यापक प्रतिबद्धताओं का स्वागत किया है, चाहे वो मुनाफ़े के लिए हों या आपूर्ति श्रृंखला लचीलेपन को लेकर. इसी प्रकार से भारतीय और चीनी व्यापक राष्ट्रीय ताक़त के बीच बढ़ती खाई को समाप्त करने के लिए भारत को अमेरिकी रक्षा प्रौद्योगिकी की आवश्यकता है.
इस संदर्भ में, GE 414 इंजन के मैन्युफैक्चरिंग लाइसेंस की मंजूरी अहम है, जैसा कि 100 प्रतिशत प्रौद्योगिकी हस्तांतरण का वादा महत्त्वपूर्ण है. F 414 परियोजना अत्यधिक मांग वाली होगी और सिर्फ़ इंजन को इंपोर्ट करना और AMCA के लिए एक इंजन विकसित करने के लिए GE द्वारा तकनीक़ी सहायता प्रदान करना कहीं अधिक सस्ता हो सकता है. अब तक, भारत ने केवल 1960 के दशक में Gnat के लिए ऑर्फियस इंजन और MiG21 के लिए RD 33 इंचन एवं SU-30 MKI के लिए AL 31P इंजन का निर्माण किया है. कई मामलों में इन इंजनों का निर्माण विदेशों से आपूर्ति किए गए घटकों से किया गया था. LCA तेजस के लिए कावेरी इंजन निर्मित करने का भारत का घरेलू कार्यक्रम विफल रहा है.
सबसे बड़ी परेशानी यह है कि भारत की आत्मनिर्भर प्रौद्योगिकी से जुड़ी महत्वाकांक्षाएं, उसके सामर्थ्य के मुताबिक़ नहीं है, यानी उसकी क्षमता से कहीं आगे हैं. ये जटिल रक्षा प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में स्पष्ट रूप से प्रकट होता है. भारतीय कंपनियां रक्षा प्रौद्योगिकी को आसानी से उपलब्ध नहीं करा सकती हैं. फिर भी इनता तो निश्चित है कि निर्माण करने के लाइसेंस के बावज़ूद, इंजन से संबंधित कुछ प्रौद्योगिकियों के हस्तांतरण पर पाबंदी होगी.
नई दिल्ली विशेष तौर पर अमेरिकी रक्षा योजनाओं की चीन को लेकर किसी भी बड़ी प्रतिबद्धता को लेकर चौकन्ना है. यह अमेरिकी सांसद माइक गैलाघेर के नेतृत्व में रणनीतिक प्रतिस्पर्धा पर यूएस हाउस की सलेक्ट कमेटी द्वारा मई महीने में पेश किए गए प्रस्ताव को लेकर उसकी प्रतिक्रिया में स्पष्ट था कि भारत को उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (NATO) प्लस 5 ग्रुप में सदस्यता की पेशकश की जाएगी. इस समूह में NATO और भारत-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के पांच सहयोगी- ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, जापान, इज़राइल और दक्षिण कोरिया शामिल हैं.
इस महीने की शुरुआत में प्रधानमंत्री मोदी की सरकार के 9 वर्ष पर बोलते हुए विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इस विचार को एक सिरे से ख़ारिज कर दियाथा. उन्होंने कहा, "NATO का प्रतिरूप भारत पर लागू नहीं होता है." इससे पहले भी अप्रैल 2021 में, रायसीना डायलॉग में बोलते हुए विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा था कि क्वॉड "एशियाई NATO" नहीं था और भारत की कभी भी " NATO मानसिकता" नहीं रही.
लेकिन ऐसे अन्य मंच और स्तर भी हैं, जिन पर भारत-अमेरिका क्वासी-अलायंस यानी एक सुरक्षा व्यवस्था जो औपचारिक रक्षा समझौते पर नहीं, बल्कि अनकहे समझौतों पर आधारित है, काम कर सकता है और कथित तौर पर इसको लेकर चर्चा चल रही है. इनमें अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ ख़ुफ़िया जानकारी साझा करने की व्यवस्था से संबंधित मुद्दे भी शामिल हैं. उल्लेखनीय है कि इंडो-पैसिफिक समुद्री क्षेत्र में पहले से ही एक निश्चित स्तर तक जानकारी साझा करने का ढांचा मौज़ूद है. LAC पर ख़ुफ़िया जानकारी एकत्र करने के लिए बोइंग P 8I पोसीडॉन और सी गार्जियन ड्रोन्स (Sea Guardian drones) जैसे अमेरिकी उपकरणों का भी इस्तेमाल किया गया है.
रिपोर्ट्स के मुताबिक़ पिछले साल दिसंबर में यांग्त्से में भारतीय चौकियों पर कब्ज़ा करने की चीनी योजना के बारे में अमेरिकी इंटेलिजेंस ने भारतीय सेना को जानकारी उपलब्ध कराई थी. चीनी प्रयास को नाक़ाम करने और समय पर भारत द्वारा की गई कार्रवाई के लिहाज़ से देखा जाए तो अमेरिका द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी अमूल्य साबित हुई.
कुछ सुझाव हैं, जैसे कि इंटेलिजेंस एक ऐसा क्षेत्र हो सकता है, जहां अमेरिका और भारत के बीच गहरी बातचीत हो सकती है. सितंबर 2021 में इंटेलीजेंस ऑपरेशन्स पर अमेरिकी कांग्रेस की उपसमिति ने अमेरिका के राष्ट्रीय ख़ुफ़िया निदेशक से फाइव आईज (Five Eyes) ख़ुफ़िया साझाकरण प्रणाली और इस व्यवस्था को भारत, दक्षिण कोरिया, जापान एवं जर्मनी के साथ विस्तार के अवसरों व फायदों पर एक रिपोर्ट मांगी थी. ऐसा अनुमान है कि इसके बारे में जो रिपोर्ट मई 2022 तक प्रस्तुत की जानी थी, वह तैयार हो चुकी है और फिलहाल गोपनीय है.
ऐसे अन्य मंच और स्तर भी हैं, जिन पर भारत-अमेरिका क्वासी-अलायंस यानी एक सुरक्षा व्यवस्था जो औपचारिक रक्षा समझौते पर नहीं, बल्कि अनकहे समझौतों पर आधारित है, काम कर सकता है और कथित तौर पर इसको लेकर चर्चा चल रही है.
इसके मद्देनज़र, अगला तर्कसंगत क़दम अमेरिकी नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी और नेशनल टेक्निकल रिसर्च ऑफिस (NTRO) द्वारा भारत-चीन सीमा पर संयुक्त सिग्नल इंटेलिजेंस डेटा संग्रह साइटों की स्थापना हो सकता है. इसको लेकर पहले भी कुछ किया जा चुका है. अमेरिका और चीन ने 1980 के दशक में झिंजियांग और आंतरिक मंगोलिया में तत्कालीन सोवियत संघ पर नज़र रखने के उद्देश्य से ख़ुफ़िया सूचनाएं एकत्र करने के लिए सुविधाएं स्थापित की थीं. 1960 के दशक में नंदा देवी सेंचुरी में भारत और अमेरिका का अपना-आपना वेंचर था, जहां चीनी टेलीमेट्री ख़ुफ़िया जानकारी एकत्र करने के लिए माना जाता है कि एक परमाणु-संचालित उपकरण लगाया गया था.
मनोज जोशी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में डिस्टिंग्विश्ड फेलो हैं.
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