भारत के सबसे नजदीकी हिंद महासागर के दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों में राजनीतिक और कूटनीतिक/भौगोलिक-सामरिक दोनों ही मोर्चों पर काफी कुछ हो रहा है। लेकिन भारत की राजनीति विमुद्रीकरण के बाद की गतिविधियों में फंसी है और भारतीय सामरिक समुदाय सर्जिकल स्ट्राइक, जम्मू-कश्मीर और पाकिस्तान में उलझा है। ऐसे में उनके पास पड़ोस में किसी और जगह पर देखने का न तो समय है और न ही इच्छा। इसका असर भारत की संपूर्ण विदेश नीति पर तो पड़ेगा ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ढाई साल पहले अपना कार्यकाल शुरू करते समय ‘पड़ोसी पहले’ की जिस नीति पर जोर दिया था उस पर भी इसका खासा असर होगा।
सर्वविदित है कि श्रीलंका और मालदीव हिंद महासागर में भारत के नजदीकी पड़ोसी हैं। मोदी ने मार्च, 2015 में श्रीलंका, सेशेल्स और मॉरिशस की तीन-देशीय महत्वपूर्ण यात्रा की थी और घरेलू राजनीतिक परिस्थितियों की वजह से इस कार्यक्रम से मालदीव को बाहर रखना पड़ा था। लेकिन इसके बाद के जरूरी फॉलो अप के लिहाज से भारत की ओर से कुछ खास नहीं किया गया जो भारत के लिए मध्य और दीर्घकालिक नजरिए से बेहद चिंता और महत्व का विषय है।
ऐसा नहीं है कि भारत ने इन देशों में हो रही गतिविधियों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया हो और न ही इन जगहों पर हो रहे कार्यक्रमों में इसने हिस्सा लेना बंद किया है। हाल ही में भारतीय नौसेना प्रमुख एडमिरल सुनील लांबा अपनी पांच दिन की यात्रा पर श्रीलंका में थे। इस दौरान उन्होंने नवंबर के अंत में प्रतिष्ठित युद्धोपरांत वार्षिक ‘गैले संवाद’ में मुख्य वक्तव्य भी दिया। कुछ समय पहले आए सरकारी बयान में कहा गया है कि इस यात्रा का मकसद दोनों देशों के बीच ‘समुद्री रिश्तों को मजबूती देना’ था। एडमिरल लांबा से पहले मोदी सरकार के गठन के कुछ महीनों के अंदर वर्ष 2014 के ‘गैले संवाद’ में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) ए. के. डोवाल ने मुख्य संबोधन किया था।
बाहरी दखलंदाजी
पिछले हफ्तों/महीनों के दौरान श्रीलंका से जुड़े मामलों में गैर-क्षेत्रीय पक्षों की भूमिका पर ज्यादा लोगों का ध्यान नहीं गया है। कोलंबो स्थित चीन के राजदूत यी शियालियांग ने कोलंबो में हाल में बिना किसी खास मौके के कहा कि उनका देश श्रीलंका के मामलों में ‘बाहरी शक्तियों’ की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं करेगा। इसी दौरान एक अलग जगह रूसी प्रतिनिधि एलेक्जेंडर ए. कर्चवा ने स्थानीय लोगों को याद दिलाया कि जेनेवा में यूएनएचआरसी से जुड़े ‘जवाबदेही जांच’ के मामले में मास्को ने किस तरह श्रीलंका का जम कर साथ दिया था।
हाल के हफ्तों में श्रीलंका के मामलों में राजदूत यी की ओर से सार्वजनिक रूप से बयान देने का यह पहला मामला नहीं है। अगर वे श्रीलंका के पड़ोसी भारत की चर्चा कर रहे थे तो कम से कम उन्होंने इसका नाम तो नहीं लिया। कुछ संभावना इस बात की भी है कि चीन अब चाहता है कि उसकी गिनती जब उसे मुफीद रहे तब दक्षिण एशिया के देशों में हो। दक्षिण एशियाई देशों के अब निष्क्रिय हो चुके संगठन सार्क में उसे सदस्य देश के रूप में शामिल करने की चीन के मित्र देशों ने काफी कोशिश की है।
अगर राजदूत यी अमेरिका का हवाला दे रहे थे तो जाहिर है कि चीन भी क्षेत्र से बाहर की दूसरी ताकत अमेरिका की ही तरह अपनी राजनीतिक उपस्थिति और पहल को भविष्य के लिए एक निर्विवादित तथ्य के तौर पर स्थापित करना चाहता है। अगर इसे यूं ही छोड़ दिया जाए तो इसके कई अहम नतीजे हो सकते हैं, हालांकि उनमें से सभी खास तौर पर मेजबान के लिए दुखद हों ऐसा जरूरी नहीं है। भारत अपने पड़ोस की परिस्थितियों को ले कर यह तो नहीं तय कर सकता कि श्रीलंका को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, लेकिन खास तौर पर बाहरी सुरक्षा संबंधी चिंताओं को ले कर क्या चल रहा है और क्या होने वाला है इसे ले कर सजग रहना होगा।
इस संदर्भ में श्रीलंका के प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने हाल ही में दुहराया है कि जहां तक हिंद महासागर क्षेत्र (आईओआर) का सवाल है आने वाले समय में ट्रंप प्रशासन के दौरान भी अमेरिका यहां ऐसी समस्या के तौर पर रहने वाला है जिसके बारे में कोई चर्चा नहीं करना चाहता। इससे पहले गैले संवाद 2015 में अपने उद्घाटन भाषण के दौरान भी इसका उल्लेख किया था और यह साफ कर दिया था कि अमेरिकी मौजूदगी और प्रभाव से कोई इंकार नहीं कर सकता। उसके बाद के मौकों पर, वह निश्चित तौर पर यह प्रयास कर रहे थे कि लोगों को यह उम्मीद नहीं रहे कि ट्रंप प्रशासन इस क्षेत्र से अपनी सक्रियता कम करने की पहल करेगा।
ध्यान देने की बात है कि राजदूत यी ने श्रीलंका के वित्त मंत्री रवि करुणानायके के साथ भी चीनी कर्ज के अपेक्षाकृत महंगे होने पर चर्चा की थी। श्रीलंका के वित्त मंत्री ने कई मौकों पर कहा है कि यह कर्ज बहुत महंगा है। श्रीलंका के विदेश सचिव एस्ला वीराकून के राजदूत ली से फोन पर बात करने के बाद इस मुद्दे को अपनी स्वाभाविक मौत मर जाने दिया गया क्योंकि उन्होंने कहा था कि इस दोतरफा मुद्दों को मीडिया में नहीं उछाला जाए।
ऐसा कर के वीराकून और श्रीलंका सरकार ने दोतरफा संबंधों के लिए जरूरी संवेदनशीलता दिखाई। इस मामले में श्रीलंका के विदेश सचिव के पास चीन के दूत को समन करने और इस मामले में अपने देश के विचार रखने का विकल्प भी उपलब्ध था। मंत्री रवि ने भी इस मामले पर बोलना बंद कर दिया। खास बात है कि इस मुद्दे को किसी ने श्रीलंका की संसद में भी न तब मुद्दा बनाया और न ही उसके बाद। इसी तरह स्थानीय मीडिया ने भी वीराकून की राजदूत यी से बातचीत के बाद इस मुद्दे को तूल नहीं दिया।
अहम रक्षा साझेदार
इन सब के बीच यह खबर भी आई कि श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रिपाल श्रीसेन मार्च, 2017 में मास्को जाएंगे। स्थानीय मीडिया के मुताबिक उनका यह दौरा अपने समकक्ष ब्लादिमीर पुतिन के साथ ‘मित्रवत मुलाकात’ के लिए था। इसी बीच अमेरिका के निर्वाचित उप राष्ट्रपति माइक पेंस ने श्रीसेन से बात कर उन्हें दोतरफा रिश्तों को सुधारने के लिए अमेरिका आने का न्यौता दिया।
माना जा रहा है कि ट्रंप प्रशासन को पुतिन के नेतृत्व वाली रूसी सरकार के साथ काम करने को ले कर ज्यादा समस्या नहीं है और उसकी चिंता चीन की बढ़ती ताकत ही है। ऐसे में श्रीलंका या भारत के अन्य पड़ोसियों के लिए इसके क्या मायने होंगे यह देखा जाना अभी बाकी है। यह भी देखा जाना है कि भारत को अमेरिका का अहम रक्षा साझेदार बनाने वाला बराक ओबामा के लेम डक काल के दौरान किया गया दोतरफा समझौता आने वाले हफ्तों, महीनों और साल में किस तरफ जाता है।
आम तौर पर सरकारें और प्रशासन निरंतरता में काम करते हैं। संभव है कि विदा हो रहे ओबामा प्रशासन ने ट्रंप की आने वाली टीम को इस मामले में विश्वास में ले लिया हो। इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि विभिन्न देशों में राजनीतिक प्रशासन के नेतृत्वकर्ता, जिनमें मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल हैं, ने हमेशा उसी रफ्तार और दिशा में दोतरफा और क्षेत्रीय संबंधों को कायम रखा हो।
दबाव के बिंदु
हालांकि श्रीलंका में दोतरफा, क्षेत्रीय या अंतरराष्ट्रीय मुद्दो पर कोई भी ज्यादा बात करता नजर नहीं आ रहा है। चाहे वह भौगोलिक-रणनीतिक चिंताओं का ही मामला क्यों नहीं हों, जो अब भी किसी न किसी तरह से इस देश के दिल के बेहद करीब है। भले ही इस बारे में बातचीत शुरू नहीं हुई हो, लेकिन जब मैत्री-रानिल जोड़ी के युद्धकाल जिम्मेवारी जांच को ले कर किए गए पिछले वादे की समीक्षा होगी तो देर-सबेर यूएनएचआरसी मार्च सत्र को ले कर चर्चाएं गर्म होंगी ही।
यही वह मुकाम है, जहां ट्रंप के ताजा चुने गए प्रशासन की मानवाधिकार के विषय पर राय के बारे में लोगों को जानकारी मिल सकेगी। इसे खास कर उनके पहले के प्रशासन के संदर्भ को ले कर ही देखा जाएगा। जरूरी नहीं है कि यह मामला सिर्फ श्रीलंकाई तमिल तक ही सीमित रहे या फिर यूरोप और अमेरिका के सटे हुए पड़ोसी कनाडा में उनके बंधुओं तक सीमित रहे। दुनिया भर के अन्य मानवाधिकार समूह भी इस पर नजर रखे होंगे। लेकिन यह भी सच है कि उन्होंने भी अधिकांश मौकों पर अपना स्वतंत्र रवैया अपनाने की बजाय वही रवैया अपनाया है जो अमेरिका को मुफीद बैठता हो।
भारत भी ट्रंप प्रशासन पर दिलचस्पी के साथ नजर जमाए होगा। ओबामा प्रशासन ने काफी जोर-शोर से जेनेवा प्रक्रिया शुरू की थी और पहले साल 2012 में बेहद अहम भारतीय वोट भी पूरी तरह ले गए थे। पूर्व के अपने प्रदर्शन या भविष्य के अपने इरादे से परे हट कर भारत भी यह देख रहा होगा कि श्रीलंका अपने नजदीकी पड़ोसी से कूटनीतिक या अन्य मोर्चों पर क्या उम्मीद लगाए है और अगर यह मुद्दा वहां आता है तो चीन व रूस जैसे देश बदले में जिनीवा में क्या कर सकते हैं।
सामूहिक निर्णय
श्रीलंका में युद्ध-उपरांत नस्ली मित्रता स्थापित करने के नाम पर नया संविधान, कार्यकारी राष्ट्रपतित्व, संघीय राज्य और सत्ता का हस्तांतरण यह सब बेहद पैनी निगाह में होंगे। उधर, दोनों के पड़ोसी मालदीव में राजनीतिक उथल-पुथल का माहौल जारी है। राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने साबित कर दिया है कि कोई अकेले हो या साथ हो, नजदीकी हो या दूर का हो, वे सब पर भारी पड़ेंगे।
कहा जा सकता है कि इन देशों की अंदरूनी राजनीति से भारत के तात्कालिक हित जुड़े नहीं हैं। ना ही उनकी घरेलू राजनीतिक दिशा अथवा भौगोलिक-सामरिक प्राथमिकताओं को ले कर उनके राष्ट्रीय फैसलों के मुकाबले भारत उनके मानवाधिकारों, चिंताओं और प्राथमिकताओं के बारे में सोच सकता है।
भारत अपने छोटे पड़ोसियों की संप्रभुता का सम्मान करता है। लेकिन ऐसे मुद्दों पर किसी ‘साझा फैसले’ तक पहुंच पाने में इन देशों की अक्षमता की वजह से इनके यहां निरंतर राजनीतिक हलचल बनी रही है। इसलिए भारत भी चिंतित रहा है क्योंकि इससे सीधे या परोक्ष उसे भी प्रभावित होना है।
कमान संभालने को तैयार
मालदीव में अब मुख्य राजनीति दो पक्षों के बीच नहीं रही, बल्कि पूर्व राष्ट्रपति मौमून अब्दुल गयूम के पीपीएम से अलग होने के बाद इसमें तीन पक्ष शामिल हो गए हैं। गयूम ही पीपीएम के संस्थापक और अध्यक्ष थे और राष्ट्रपति यामीन उन्हीं के नुमाइंदे थे। उधर, एमडीपी जिसका नेतृत्व एक और पूर्व-राष्ट्रपति मोहम्मद अन्नी नौशाद करते हैं, यूके में राजनीतिक शरणार्थी के तौर पर अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं।
जनवरी की मंत्री स्तरीय कार्य समूह सीएमएजी बैठक के पहले मालदीव के राष्ट्रमंडल से बाहर हो जाने के बाद यूके की जो थोड़ी-बहुत दिलचस्पी यामिन प्रशासन में थी, वह भी समाप्त हो गई। अगर कोई है तो वह भारत ही है जिसे आगे बढ़ना होगा, क्योंकि इसके दीर्घकालिक सुरक्षा हित जुड़े हैं। मालदीव की मौजूदा सरकार ने पिछले महीनों में एक से ज्यादा बार इस बात को स्वीकार किया है कि वह भारत सरकार के साथ बहुत करीबी तालमेल के साथ काम कर रही है, खास तौर पर अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से लड़ने में।
फिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि मालदीव में चीन-प्रायोजित माले-हुलहुले समुद्र-पुल आने वाले महीनों में और खास तौर पर नवंबर, 2018 में होने जा रहे राष्ट्रपति चुनाव के पहले चर्चा में रहेगा। यह पुल माले की अति महत्वपूर्ण राष्ट्रीय राजधानी को अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा वाले द्वीप से जोड़ता है। अभी यह देखा जाना बाकी है कि यह मालदीव के मतदाताओं को यामीन की ओर ले जाता है या नाशीद गुट के लोकतांत्रिक मुद्दों की ओर या फिर गैयूम की ओर से अरसा पहले शुरू किए गए मध्य मार्ग की ओर ले जाता है।
श्रीलंका में भी नई व्यवस्था (जो अब पुरानी होती जा रही है) लगातार पीछे हटती जा रही है ताकि चीन को निवेश के मोर्चे पर शरीक किया जा सके। इस लिहाज से सबसे ताजा उदाहरण है दक्षिणी हमबंटोटा पोर्ट के निजीकरण का मामला है जिसे पूर्ववर्ती महिंदर राजपक्षे के कार्यकाल में बनाया गया था। इस पोर्ट का काम जब शुरू हो रहा था, तभी भारत के सामरिक समुदाय के एक वर्ग ने कहा था कि यह हमारे लिए एक बेहद अहम भौगोलिक-सामरिक अहमियत का मुद्दा था जो हाथ से निकल गया।
इस दौरान, चीन ने भी लड़ाकू विमान और राजधानी कोलंबो के नजदीक बेहद अहम कट्टनायके एयरबेस/हवाई ड्डे के पास और रख-रखाव केंद्र खोलने का प्रस्ताव किया है। अमेरिका के बारे में भी माना जा रहा है कि इसने श्रीलंका को बोइंग पोसीडन सैन्य विमान की बिक्री का प्रस्ताव किया है। श्रीलंका की आर्थिक हालत और राजस्व की स्थिति को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि ऐसे किसी विकल्प के साथ अमेरिकी सरकार को वित्तीय पैकेज भी देना होगा।
कभी प्रशिक्षण के ले तो कभी मानवीय कार्यों के लिए, हाल के महीनों में अमेरिका के सैन्य दलों ने श्रीलंका का कई बार दौरा किया है। इन सबसे यह सहूलियत तो हो ही जाती है कि भविष्य में उन्हें यह इलाका बिल्कुल अनजान नहीं लगेगा। इस तरह से कम से कम अब कोई मालदीव से तत्काल किसी चीनी पनडुब्बी के समुद्र में उतरने, या फिर अमेरिका अथवा रूस की सैन्य मदद या मौजूदगी की बात नहीं कर रहा। इसकी वजह है एसओएफए में अमेरिका की बुरी तरह नाकाम रही कोशिश और रूसी सांसद के पुत्र की अमेरिका में डेटा चोरी में शर्मिंदा कर देने वाली गिरफ्तारी। पहली घटना यामीन के सत्ता में आने से पहले की है और दूसरी यामीन की निगरानी में हुई है।
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