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चीन को लेकर भारत को अपने तौर तरीक़े में आमूल-चूल परिवर्तन करने की ज़रूरत है. और, अगर भारत की सैन्य व्यवस्था, चीन को लेकर भारत की नीति में अर्थपूर्ण भागीदारी चाहता है, तो उसे भी अपने सामरिक दृष्टिकोण में भी बदलाव लाने की ज़रूरत है.
15 जून को गलवान घाटी में भारतीय सैनिकों के चीन के साथ संघर्ष में शहीद होने और वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनातनी से एक बाद बिल्कुल साफ है-चीन के साथ लगी सीमा पर पैदा हुआ ये संकट, पिछले पचास वर्षों के किसी भी सीमा विवाद से बिल्कुल अलग है. आज वास्तविक नियंत्रण रेखा पर जितने बड़े पैमाने पर टकराव की स्थिति बनी हुई है और जिस तरह चीन ने अड़ियल रुख़ अपनाया हुआ है, उससे ऐसा लगता है कि चीन, अपने अतिक्रमण के तीन में से कम से कम एक ठिकाने पर तो स्थायी रूप से क़ब्ज़ा करना चाहता है. ये तीन ठिकाने हैं-पैगॉन्ग झील, गोगरा और गलवान घाटी. इनमें से पैंगॉन्ग झील का उत्तरी तट विवादित इलाक़ा है. और चीन की सेना ने सैनिकों की अभूतपूर्व संख्या के साथ पहले ही इस पर अधिकार जमाया हुआ है. यहां पर चीन के सैनिकों की संख्या को देखते हुए ऐसा लग रहा है कि चीन ने जिन तीन इलाक़ों में अतिक्रमण किया है, उनमे से पैंगॉन्ग सो वाले ठिकाने पर अपने क़ब्ज़े को स्थायी बनाना उसका पहला लक्ष्य है. गलवान घाटी, जहां पर भारत और चीन के बीच संघर्ष में 1975 के बाद से पहली बार भारतीय सैनिकों की जान गई थी, वो जगह भी सामरिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है. क्योंकि, ये जगह दौलत बेग ओल्डी को जाने वाली महत्वपूर्ण सड़क पर नज़र रखने वाली है. दोनों देशों के कोर कमांडरों के बीच कई दौर की बातचीत हो चुकी है. लेकिन, ताज़ा सैटेलाइट तस्वीरें बताती हैं कि चीन ने वास्तविक नियंत्रण रेखा के भारत वाले हिस्से में अच्छी ख़ासी मोर्चेबंदी कर रखी है.
जब भी चीन हमारी देश की ज़मीन का छोटा हिस्सा हथियाता है, तो हम जिस तरह चौंक कर हालात संभालने के लिए भागते हैं, उससे एक बात तो बिल्कुल साफ है. हम चीन की रणनीति पर गंभीरता से ध्यान नहीं दे रहे हैं.
इस ताज़ा विवाद से इतर जो तल्ख़ सच्चाई है, वो ये है कि चीन लगातार भारत से लगी अपनी पूरी सीमा पर अतिक्रमण करता रहा है. सीमा पर जो भी नया संकट खड़ा होता है, वो चीन की तरफ़ से उकसाने वाली कार्रवाई से ही शुरू होता है. फिर भी, वर्ष 2020 में हम बैक फुट पर हैं. 1993 में भारत और चीन ने सीमा पर शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिए पांच समझौते किए थे. लेकिन, इन समझौतों के बावजूद आज तक दोनों देशों में सीमा की वास्तविक स्थिति को लेकर सहमति नहीं बन सकी है. और इन समझौतों से चीन के बार बार, उत्तर और पूरब में भारत की सीमा में अतिक्रमण के हौसले भी कमज़ोर नहीं हुए हैं. इसके विपरीत, कई विश्लेषक तो बस इसी बात को बार बार दोहराते रहते हैं कि 1993 में हुए समझौतों के कारण ही भारत और चीन की सीमा पर पिछले कई वर्षों में कोई गोली नहीं चली है. यानी इन समझौतों से सीमा पर अमन क़ायम करने में सफलता मिली है. इस हक़ीक़त को भारत के कूटनीतिक क्षेत्र में एक ऐसी मरीचिका के तौर पर पेश किया जाता रहा है, जिससे चीन के अतिक्रमण की सच्चाई छुप गई है. लेकिन, अगर हमारे सैनिकों की जान जा रही है और हमारी क्षेत्रीय संप्रभुता पर हमले हो रहे हैं, तो ये कोई असरदार कूटनीति तो है नहीं. सीमा पर गोली न चलाने के इस समझौते का लक्ष्य तो ये होना चाहिए था कि, इससे सीमा विवाद का समाधान होता. मगर, जैसा कि भारत के साथ हमेशा होता आया है कि कोई भी गतिविधि या प्रक्रिया उपलब्धि के तौर पर प्रचारित की जाने लगती है.
भारत और चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चल रहे इस टकराव से अंतत: हमें ये अपेक्षा करनी चाहिए कि, भारत सरकार के सभी अंग ये बात समझ लें कि चीन हर हाल में बदलाव करने पर अड़ा हुआ देश है. चीन एक ऐसा देश है, जो सीमा विवाद जैसे मसलों पर ईमानदारी से सहयोग नहीं करता. फिर चाहे गोली चले या न चले. जब भी चीन हमारी देश की ज़मीन का छोटा हिस्सा हथियाता है, तो हम जिस तरह चौंक कर हालात संभालने के लिए भागते हैं, उससे एक बात तो बिल्कुल साफ है. हम चीन की रणनीति पर गंभीरता से ध्यान नहीं दे रहे हैं. जैसे कि दक्षिणी चीन सागर में चीन की रणनीति पर ही देखिए. यानी हम चीन के अतिक्रमण को लेकर सही सबक़ सीख पाने में लगातार असफल हो रहे हैं. भारत की सीमा में अतिक्रमण को लेकर चीन ने अपने दोमुंहेपन का ख़ूब फ़ायदा उठाया है. पहले चीन के सैनिक अवैध रूप से भारतीय क्षेत्र में घुसते हैं. अपना अड्डा बनाते हैं. फिर युद्ध छिड़ने का डर दिखा कर स्थायी रूप से उस हिस्से पर क़ाबिज़ हो जाते हैं. चीन की ये चाल लगातार सफल होती रही है. अमेरिका के पूर्व रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस, इराक़ युद्ध के शुरुआती दौर में मरीन कोर के मेजर जनरल रहे थे. मैटिस ने अपनी कमान के सैनिकों को कहा था कि वो, “विनम्र रहें, पेशेवर तरीक़े अपनाएं लेकिन, हमेशा ऐसी योजना पर तैयार रहें, जिससे वो हर उस शख़्स को मार सकें, जिससे उनकी मुलाक़ात हो.” चीन के साथ हमारे संबंध इसी मंत्र के आधार पर निभाए जाने चाहिए. और हमें आगे चल कर इसी नीति पर अमल करना चाहिए. अगर कूटनीतिक शब्दों में कहें तो भारत के विदेश मंत्रालय को चाहिए कि वो, “भरोसा करे, मगर तथ्यों की प्रामाणिकता की पड़ताल ज़रूर करे.”
जब भी चीन हमारी देश की ज़मीन का छोटा हिस्सा हथियाता है, तो हम जिस तरह चौंक कर हालात संभालने के लिए भागते हैं, उससे एक बात तो बिल्कुल साफ है. हम चीन की रणनीति पर गंभीरता से ध्यान नहीं दे रहे हैं.
भारत को इस हक़ीक़त को स्वीकार कर लेना चाहिए कि चीन, केवल वास्तविक नियंत्रण रेखा पर कभी-कभार खड़ी होने वाली समस्या नहीं है. न ही ये बलूचिस्तान के ग्वादर में बन रहे बंदरगाह की चुनौती भर है. चीन, हमारे स्मार्टफोन के भीतर नहीं है. वो वैसा टिकटॉक वीडियो भी नहीं है, जिसे हम बनाते और देखते हैं. भारत के लिए चीन, स्पष्ट रूप से एक सामरिक प्रतिद्वंदी है. भारत के चतुष्कोणीय सुरक्षा संवाद (QUAD) को लेकर चीन जिस तरह से खुल कर बयान देता है, उससे साफ है कि चीन, भारत को एक ऐसे देश के तौर पर देखता है, जो उसकी सामरिक महत्वाकांक्षाओं पर लगाम लगाना चाहता है. जबकि सच ये है कि भारत की विदेश और सुरक्षा की नीति में इतना घालमेल है कि वो चीन के लिए कोई ख़तरा पैदा नहीं करता. या फिर ये कहें कि भारत अपनी कूटनीति और सामरिक चालों से चीन पर लगाम लगा पाने में पूरी तरह से असफल रहा है. अब अगर, चीन केवल अटकलों के आधार पर अपने क़दम उठा रहा है, तो भारत को चीन की समस्या को उसी गंभीरता के साथ लेना शुरू करना होगा, जितनी वो असल में है. इसमें कोई दो राय नहीं कि क्षेत्रीय और वैश्विक गठबंधनों की भूमिका महत्वपूर्ण है. लेकिन, भारत में घरेलू मोर्चे पर जो नीतिगत नीम बेहोशी का माहौल है, सबसे पहले और तेज़ी से निपटने की ज़रूरत है. भारत सरकार के किसी भी संगठन को इस बात की इजाज़त नहीं होनी चाहिए कि वो चीन की कंपनियों को ठेके दे दे. वो भी तब, जब पंद्रह हज़ार फुट की ऊंचाई वाली सीमा पर चीन से लड़ने में भारत के सैनिकों की जान जा रही हो. यहां हमें समझना होगा कि चीन में ‘निजी कंपनी’ जैसी कोई चीज़ नहीं होती है. चीन के साथ हमारा व्यापार घाटा तो साफ़ तौर पर दिखता ही है. चीन की कंपनियों को भारत में कारोबार करने का मौक़ा देना, हमारे बुनियादी ढांचे के महत्वपूर्ण क्षेत्रों जैसे कि — बिजली निर्माण और वितरण, दूरसंचार और रेलवे के सेक्टर में कमज़ोर कड़ियों का निर्माण करता है.
अगर भारत सरकार के सभी अंग एक साथ मिलकर चीन से निपटने की कोशिश करते हैं, तो निश्चित है कि इसमें सेना की भी भागीदारी होगी. ताकि वो भारत की संप्रभुता में चीन के अतिक्रमण को रोक सके. मगर, आज ज़रूरत इस बात की है कि भारत के सैन्य बल, देश की सुरक्षा से संबंधित बढ़ती हुई चुनौतियों और ख़ास तौर से चीन से मिल रहे चैलेंज से निपटने के लिए अपने अंदर गंभीरता से सुधार करें. कोई भी देश एक ऐसी सेना से नहीं डरता, जो पुरातनपंथी हो, जिसका दायरा कुछ ज़्यादा ही बड़ा हो और जो अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए आयातित हथियारों पर निर्भर हो. आज के दौर में दूसरे देश पर हमला करने वाला कोई भी देश, यही कोशिश करेगा कि एक छोटे से क्षेत्र में जंग को सीमित रखे और दुश्मन देश पर पूरी ताक़त से हमला करे. ऐसा कर पाने की भारत की क्षमता बेहद सीमित है और वो दुश्मन देश में ख़ौफ़ नहीं पैदा करती. अब अगर भारत सिर्फ़ एक प्रतिक्रियावादी देश बना रहता है, तो भी भारत की सेनाओं की प्रतिक्रिया बेहद धीमी होती है. और वो अपनी पूरी ताक़त का प्रदर्शन भी नहीं कर पाते. ऐसे में भारत के सैन्य बल, दुश्मन से मुक़ाबले में कुछ ख़ास उपलब्धि नहीं हासिल कर पाएंगे. और भारत की सेना का डर तो दुश्मन में और भी कम होगा.
चीन की कंपनियों को भारत में कारोबार करने का मौक़ा देना, हमारे बुनियादी ढांचे के महत्वपूर्ण क्षेत्रों जैसे कि- बिजली निर्माण और वितरण, दूरसंचार और रेलवे के सेक्टर में कमज़ोर कड़ियों का निर्माण करता है.
भारत के सैन्य बलों में सुधार की प्रक्रिया एक तो सरकार के अन्य अंगों के समानांतर होनी चाहिए और साथ ही साथ भारत को अपनी ज़रूरत के हथियारों की ख़रीदारी पर भी ध्यान देना होगा. इन सबके साथ भारत को भविष्य के नीति और शक्ति निर्माण में भी निवेश करने की ज़रूरत होगी. लंबी अवधि के विकास कार्यक्रमों पर अक्सर हथियारों की फौरी ख़रीद को तरज़ीह दी जाती है. लेकिन, सीमा पर चीन के साथ चल रहा टकराव इस बात की मिसाल है कि आपके पास किसी चुनौती से निपटने और सेना की संगठन शक्ति में बदलाव के लिए कई दशकों का समय नहीं होता.
भविष्य की फौरी ज़रूरतों के लिए लड़ने की शक्ति को हम गोला-बारूद के घरेलू उत्पादन और एक मानक तय करके हासिल कर सकते हैं. टैंक और तोप के गोले, छोटे हथियार जैसे कि बंदूकें और गोलियां, और हवा में मार करने वाले रिमोट हथियारों का उत्पादन घरेलू स्तर पर बढ़ाया जा सकता है. मक़सद ये होना चाहिए कि इन हथियारों का भारी मात्रा में उत्पादन किया जाए, भले ही इसके लिए कुछ भी करना पड़े. भले ही इसका मतलब ये हो कि हमें विदेश से गोला-बारूद ख़रीदना पड़े या फिर लाइसेंस लेकर अपने देश में उत्पादन का रास्ता चुनना पड़े. सरकारी हथियार निर्माण कारखानों की हालत बेहद ख़राब है. वो सेना के लिए ऐसे गोले बारूद भी नहीं बना पा रहे हैं, जिन पर भरोसा किया जा सके. ज़ाहिर है हम ऐसी ऑर्डनेंस फैक्टरी के बूते चीन को कैसे डरा सकते हैं? क्योंकि चीन के पास तो औद्योगिक सैनिक उत्पादन का विशाल ढांचा है.
रक्षा मंत्रालय को चाहिए कि वो भेदभाव के बग़ैर कुछ गिने चुने, महत्वपूर्ण मगर वास्तविकता के क़रीब के प्रोजेक्ट पर काम करें. बाक़ी की ज़रूरतों को विदेश से ख़रीदारी करने पूरा करने पर ज़ोर दिया चाहिए और वो भी कम लागत में.
इस दौरान हमें हथियार बनाने की क्षमता का विकास नियमित करना होगा. कोशिश ये होनी चाहिए कि सरकार को ऐसे कार्यक्रमों की संख्या बहुत अधिक नहीं बढ़ानी चाहिए कि प्रोजेक्ट तो तमाम शुरू हो जाएं, मगर वो रेंगते रहें. कभी कभार तेज़ी दिखाएं और बाक़ी वक़्त में सुस्त पड़े रहें. रक्षा मंत्रालय को चाहिए कि वो भेदभाव के बग़ैर कुछ गिने चुने, महत्वपूर्ण मगर वास्तविकता के क़रीब के प्रोजेक्ट पर काम करें. बाक़ी की ज़रूरतों को विदेश से ख़रीदारी करने पूरा करने पर ज़ोर दिया चाहिए और वो भी कम लागत में. भारत में अक्सर ऐसा होता है कि सेनाओं के लिए ज़रूरी संसाधनों की ख़रीद में पहले ढिलाई बरती जाती है. फिर अचानक से ऊंचे दाम पर जल्दबाज़ी में ख़रीद होती है. आनन फानन में हुए ऐसे समझौतों में तकनीक हासिल करने और स्वदेश में उत्पादन जैसी शर्तें जोड़ देने का सेना को भी कोई फ़ायदा नहीं हुआ है और हमारे सैन्य उद्योगों का भी कोई भला नहीं हुआ. ऐसी प्रवृत्ति ने हमें नुक़सान ही पहुंचाया है. अगर स्वदेशी अनुसंधान, विकास और उत्पादन को स्थायी तौर पर आगे बढ़ाया जाएगा तो फिर हमें आगे चलकर महंगे विदेशी सााज़-ओ-सामान नहीं ख़रीदने होंगे. हमें अपनी फौरी ज़रूरत पूरी करने अक्सर ऐसे महंगे सौदे करने पड़े हैं, जिनका लंबी अवधि में कोई लाभ नहीं होता.
और आख़िर में सैन्य बलों की संख्या में सुधार की बातों को बार बार उठाया जा चुका है. इस बात की कई दफे चर्चा हो चुकी है कि हमें अपने रक्षा व्यय के लिए सेना के कर्मचारियों की संख्या कम करनी चाहिए. मगर, ये ऐसा तथ्य है जिसे बार बार दोहराने की ज़रूरत है. क्योंकि, भारी भरकम संख्या सेना की सबसे बड़ी चुनौती बन चुकी है.
सैन्य योजना, प्रशिक्षण, हथियारों की ख़रीद को हम लंबे समय तक ये कहकर नहीं टाल सकते कि प्रमोशन का चक्र पूरा हो गया है. रिटायरमेंट का समय आ गया है. ये ऐसी ज़रूरतें हैं जो रक्षा मंत्री के पद की म्यूज़िकल चेयर के हिसाब से नहीं घटती बढ़तीं. चीन ने जब ये अच्छी तरह से देख समझ लिया कि भारत की सैन्य तैयारियों की हालत कैसी है, तो उसने हमारी संप्रभुता पर हमला बोल दिया. उसे पता था कि हम हिमालय की चोटियों पर लंबे दौर के संघर्ष के लिए तैयार नहीं हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि भारत की सेना ने चीन की चुनौती का बड़ी बहादुरी से जवाब दिया है. लेकिन, ये सवाल पूछना तो बनता है कि चीन ने कैसे हमारी सीमा में घुसपैठ की हिमाकत की. और इससे हमारी रक्षा तैयारियों के बारे में क्या संकेत मिलते हैं?
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Angad Singh was a Project Coordinator with ORFs Strategic Studies Programme.
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