Published on Feb 20, 2020 Updated 0 Hours ago

अब वक़्त आ गया है जब नई दिल्ली सहमति, वॉशिंगटन कंसेंसस की जगह ले. ये भारत के अपवाद का प्रतीक नहीं होगा. बल्कि असल में ज़्यादा समावेशी और भागीदारी वाली विश्व व्यवस्था के लिए उठने वाली आवाज़ का प्रतीक है.

उदारवादी विश्व व्यवस्था का मिथक, राजनीतिक परिवर्तन और वैश्विक शक्ति संतुलन का त्रिशंकु

आज जब हम इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के आख़िरी पड़ाव की ओर बढ़ रहे हैं, तो ये स्पष्ट है कि आज अंतरराष्ट्रीय उदारवादी व्यवस्था संकट के दौर से गुज़र रही है. राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा के जो मूलभूत तत्व इसकी बुनियाद थे, वो अमान्य हो चुके हैं. जबकि अभी उन तत्वों पर सहमति होनी बाक़ी है, जो उदारवादी व्यवस्था के इन मूलभूत तत्वों की जगह ले सकें. भूमंडलीकरण को आज आर्थिक राष्ट्रवाद से चुनौती मिल रही है. जिन सीमाओं को खोलने के लिए कभी कड़ी मशक़्क़त करनी पड़ी थी, आज उन्हीं सीमाओं के दरवाज़े बंद किए जा रहे हैं. मज़बूत छवि वाले नेता आज तमाम शिकायतों-फिर चाहे वो वास्तविक हों या आभासी,

आज ये सोच सशक्त हो रही है कि विश्व व्यवस्था एक बार फिर से वेस्टफेलियन बन रही है. इसका अर्थ ये है कि आज हर राष्ट्र अपनी संप्रभुता पर अधिक ज़ोर दे रहा है. इसका नतीजा ये हुआ है कि एक दूसरे पर निर्भरता की उपलब्धियों को गंवाया जा रहा है.

से अपने राजनीतिक हित साध रहे हैं. ताकि अपने लोकलुभावन नेतृत्व को जायज़ ठहरा सकें. आज साझा वैश्विक मुद्दों को सुलझाने और उनके प्रबंधन में अंतरराष्ट्रीय नियम और संस्थान ख़ुद को अक्षम पा रहे हैं. आज ये सोच सशक्त हो रही है कि विश्व व्यवस्था एक बार फिर से वेस्टफेलियन बन रही है. इसका अर्थ ये है कि आज हर राष्ट्र अपनी संप्रभुता पर अधिक ज़ोर दे रहा है. इसका नतीजा ये हुआ है कि एक दूसरे पर निर्भरता की उपलब्धियों को गंवाया जा रहा है. आज हम तमाम राष्ट्रों में अपनी संप्रभुता पर ज़ोर देने की इच्छाशक्ति को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं. फिर चाहे वो लोकतांत्रिक देश हों या किसी अन्य प्रकार की शासन व्यवस्था वाले राष्ट्र हों. और, इन सबसे ऊपर, दुनिया को आज एक तरह की अनिश्चितता ने घेर रखा है कि इस शताब्दी के आने वाले दशकों में हमारे समाज के लिए कौन सी चुनौतियां निहित हैं.

विश्व की मौजूदा स्थिति जैसी है, वैसी क्यों है, इसे समझने का प्रयास करने वाले विद्वानों का बहुमत ये मानता है कि लोकप्रिय और जनवादी नेताओं ने ही अच्छी नियत के साथ बढ़िया ढंग से चल रही विश्व व्यवस्था को ये पलीता लगाया है. हमारी कोशिश है कि हम इस परिचर्चा को दुरुस्त करें. हमारे नज़रिए से देखें, तो दुनिया को मूलभूत रूप से केवल डार्विन के सिद्धांत के माध्यम से ही सर्वश्रेष्ठ तरीक़े से परिभाषित किया जा सकता है. डार्विन का सिद्धांत-‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ का है. सच तो ये है कि विश्व कूटनीति सदैव ताक़तवर की लाठी की तरह चलाई जाती रही थी. वैश्विक प्रशासन की प्रक्रियाओं ने बस उसे वैधता प्रदान की है. कूटनीतिक प्रक्रिया का अर्थ केवल ये निकला है कि कोई देश बिना सैन्य शक्ति का प्रयोग किए हुए ही शक्ति और संपत्ति को इकट्ठा कर सकता है और इस समीकरण को अपरिवर्तित रख सकता है. जैसा कि हमारी पुस्तक बताएगी, वैश्विक प्रशासनिक व्यवस्था का ये संकट कई मामलों में 1945 के बाद उभरी विश्व व्यवस्था के संरक्षकों को फटकार जैसा है. ये कहानी लोकप्रिय और मज़बूत नेताओं के मौजूदा विश्व व्यवस्था को अपने पैरों तले रौंदने से नहीं आरंभ होती. हालांकि, इसमें भी कोई दो राय नहीं कि इन नेताओं ने इस व्यवस्था को नुक़सान पहुंचाया है. लेकिन, ये मज़बूत छवि वाले लोकप्रिय नेता उन विरोधाभासों से ही उपजे हैं, जो एक उदारवादी विश्व व्यवस्था को सदैव परिभाषित करते आए हैं.

हम इस बारे में और विस्तार से चर्चा करें, उससे पहले इसका संदर्भ तय कर देना उपयोगी होगा. हम आज कहां हैं? एक बात तो ये है कि जो देश इस उदारवादी विश्व व्यवस्था की प्रतिभूति दिया करते थे. वो आज ख़ुद ही इन परिवर्तनों की धार में बह चले हैं. अमेरिका का कुलीन वर्ग आज भी इस बात से दुखी है कि अमेरिकी जनता ने डोनाल्ड ट्रंप को अपना राष्ट्रपति चुना. जबकि ट्रंप ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें वैश्विक साझीदारियों में क़तई दिलचस्पी नहीं है. वहीं, यूरोपीय श्रेष्ठि वर्ग अभी भी हठात् खड़ा है कि यूरोपीय देशों में आल्टरनेटिव फॉर ड्यूशलैंड (Afd), द नेशनल रैली, विक्टर ओर्बन और इनके जैसे दूसरे नेता और दल उभर रहे हैं. जो ऐसे मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो यूरोपीय समुदाय के जीवन मूल्यों के ठीक उलट हैं. वहीं दूसरी ओर, जो बहुपक्षीय मूल्यों और भूमंडलीकरण के समर्थक हैं, वो अपनी प्रासंगिकता बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. फ्रांस के राष्ट्रपति इमैन्युअल मैक्रों कारोबारियों के प्रति अपनी दोस्ताना नीतियों के ख़िलाफ़ जनता की नाराज़गी का सामना कर रहे हैं. वहीं, जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल यूरोपीय यूनियन में लोकप्रिय राजनेताओं के उभार के ख़िलाफ़ एक हारती हुई लड़ाई लड़ रही हैं. और मर्केल कुछ वक़्त बाद अपना पद छोड़ देंगी. पश्चिमी कुलीन वर्ग की दृष्टि से देखें तो, दूसरे विश्व युद्ध के बाद जिन नियमों, संस्थाओं और साझेदारियों को बड़ी सावधानी से तैयार किया गया था, अब वो उनके लिए शांति की गारंटी देने की स्थिति में नहीं हैं. इसके विपरीत, ऐसा लगता है कि असल में यही आदर्श मौजूदा समस्या की जड़ में हैं. अमेरिका और यूरोपीय देशों में जनता की नाराज़गी का जो सैलाब आया हुआ है, वो उदारवादी आंदोलन और खुली सीमाओं के विरुद्ध ही है. जनता की नाराज़गी के निशाने पर भूमंडलीकरण है और एक दूसरे पर निर्भरता की परिवर्तनशीलता है. जनता का ये क्षोभ राजनीति, कारोबार, विद्वत क्षेत्र और मीडिया के कुलीन वर्ग के विरुद्ध है, जो इन नीतियों का समर्थन करते हैं. स्थानीय पहचान और संप्रभुता, जिनके बारे में ये माना जाता है कि अंतरराष्ट्रीय उदारवादी व्यवस्था ने इन्हें ख़त्म कर दिया है. लेकिन, आज ये स्थानीयता और संप्रभुता ही ख़ुद को पुरज़ोर तरीक़े से प्रतिपादित कर रहे हैं.

अमेरिका और यूरोपीय देशों में जनता की नाराज़गी का जो सैलाब आया हुआ है, वो उदारवादी आंदोलन और खुली सीमाओं के विरुद्ध ही है. जनता की नाराज़गी के निशाने पर भूमंडलीकरण है और एक दूसरे पर निर्भरता की परिवर्तनशीलता है. जनता का ये क्षोभ राजनीति, कारोबार, विद्वत क्षेत्र और मीडिया के कुलीन वर्ग के विरुद्ध है, जो इन नीतियों का समर्थन करते हैं.

इस घरेलू-उथल पुथल ने वैश्विक उदारवादी व्यवस्था की सुरक्षा की नींव को हिला दिया है. सुरक्षा का ये ढांचा असल में अटलांटिक महासागर और प्रशांत महासागर के आर-पार अमेरिकी साझीदारियों की बुनियाद पर खड़ा था. अमेरिका की ट्रंप सरकार का एक मुख्य मंत्र उन सभी विचारों की अनदेखी करना है, जिन्हें आज तक सम्मान की नज़र से देखा जाता था. ट्रंप के प्रशासन ने ऐसी आर्थिक और सुरक्षा की नीतियों का अनुपालन करना शुरू कर दिया है, जो यूरोपीय यूनियन और जापान के विरोध के मुहाने पर खड़ी हैं. ट्रंप प्रशासन लगातार ये दबाव बनाए हुए है कि यूरोपीय यूनियन और जापान अपनी हिफ़ाज़त का बोझ ख़ुद उठाएं या इसकी ज़्यादा क़ीमत अदा करें. इससे भी अधिक बात ये है कि ट्रंप इन क्षेत्रों में सैन्य तनाव बढ़ाने के लिए भी तैयार दिखते हैं. पश्चिमी एशिया में ईरान के साथ तो पूर्वी एशिया में उत्तरी कोरिया के साथ. ट्रंप का बहुपक्षीय वार्ताओं से इतर एकतरफ़ा ताक़त और दबाव का इस्तेमाल करने का इरादा, यूरोप, जापान और दक्षिण कोरिया का तनाव बढ़ा रहा है. और इसका एक बड़ा नतीजा ये है कि आज ट्रंप अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के संस्थागत ढांचे को तोड़ने-मरोड़ने में ज़्यादा इच्छुक दिखाई देते हैं. इसका अर्थ ये है कि ट्रंप को संयुक्त राष्ट्र या विश्व व्यापार संगठन के बहुपक्षीय ढांचों में क़तई दिलचस्पी नहीं है. ट्रंप की नज़र में ये दोनों ही संगठन आज उन शक्तियों की गिरफ़्त में हैं, जो अमेरिकी हितों के विरुद्ध हैं. जो अमेरिका की असीम संप्रभुता को चोट पहुंचाते हैं.

पश्चिमी देशों के बीच चल रही इस उठा-पटक के बीच पूरब का अभ्युदय हो रहा है. एशिया के पुराने साम्राज्य और सभ्यताएं ख़ास तौर से चीन और भारत आज दुनिया में अपने आकार और वज़न का असर डालने लगे हैं. इसमें कोई शक नहीं कि पूर्वी ताक़तों के इस उभार की अगुवाई चीन कर रहा है. जहां, पश्चिमी देश स्थानीयता की सोच रखते हैं, वहीं चीन की दृष्टि वैश्विक है. 2017 में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग अप्रत्याशित रूप से भूमंडलीकरण के सबसे बड़े संरक्षक के रूप में उभरे. जिनपिंग ने एक बड़े विश्व नेता की तरह बयान दिया कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय को चाहिए कि वो आर्थिक भूमंडलीकरण के अनुसार ख़ुद को ढाले और उस के ही दिशा-निर्देशन में आगे बढ़े. इसके नकारात्मक प्रभाव को बर्दाश्त करे. और दुनिया के सभी देशों तक भूमंडलीकरण का लाभ पहुंचाए. इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि चीन पूरे एशिया और यूरोप में आधारभूत ढांचे के विकास के कई प्रोजेक्ट में निवेश कर रहा है. चीन एशिया और यूरोपीय महाद्वीपों को जोड़ने के लिए अभूतपूर्व रूप से प्रयासरत है. चीन का बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) अरबों डॉलर का ऐसा प्रोजेक्ट है जिसके भू-राजनीतिक और आर्थिक परिणाम देखने को मिलेंगे. इस प्रोजेक्ट की वजह से चीन यूरेशिया की राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा व्यवस्था का प्रमुख निर्धारक बनने वाला है. ऐसा करके चीन, बड़ी तेज़ी से दूसरे विश्व युद्ध के बाद बने गठबंधनों और व्यवस्थाओं की वैधानिकता को कमज़ोर कर रहा है. यूरोप में चीन की अगुवाई वाली 17+1 व्यवस्था अपनी पूर्वी सीमाओं पर स्थित देशों पर यूरोप के प्रभाव को कम कर रहा है. इसी तरह दक्षिणी चीन सागर में चीन बड़े आक्रामक ढंग से नौसैनिक शक्ति का विस्तार कर रहा है. इसका अर्थ ये हुआ कि जल्द ही चीन, प्रशांत महासागर में अमेरिकी सैन्य शक्ति की जगह लेने की स्थिति में होगा. इसके अतिरिक्त चीन आसियान के सदस्य देशों के बीच मतभेद को बढ़ावा दे रहा है. इटली जैसे जी-7 देश में चीन के निवेश की वजह से पश्चिमी ताक़तें आज विभाजित हैं. और वो चीन के इन क़दमों की उपयुक्त प्रतिक्रिया देने में असफल रहे हैं.

याद रखें कि चीन के दिल में उन देशों के प्रति शिकायत का ऐतिहासिक ग़ुबार है, जो अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की अगुवाई करने का दावा करते हैं. चीन का राजनैतिक इतिहास बाहरी लोगों द्वारा अपमान, पराधीनता और तकलीफ़ के क़िस्सों से भरा पड़ा है. अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के बारे में जो तमाम बातें लिखी जा रही हैं, उनके बीच इस बात को लेकर मतभिन्नता है कि आख़िर चीन मौजूदा व्यवस्था में किस तरह का और कितनी मात्रा में परिवर्तन चाहता है.

इसी के बराबर जो एक अन्य महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिल रहा है, वो ये है कि चीन के उभार के साथ-साथ वैश्विक प्रशासन का एक वैकल्पिक स्वरूप भी सामने आ रहा है. याद रखें कि चीन के दिल में उन देशों के प्रति शिकायत का ऐतिहासिक ग़ुबार है, जो अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की अगुवाई करने का दावा करते हैं. चीन का राजनैतिक इतिहास बाहरी लोगों द्वारा अपमान, पराधीनता और तकलीफ़ के क़िस्सों से भरा पड़ा है. अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के बारे में जो तमाम बातें लिखी जा रही हैं, उनके बीच इस बात को लेकर मतभिन्नता है कि आख़िर चीन मौजूदा व्यवस्था में किस तरह का और कितनी मात्रा में परिवर्तन चाहता है. लेकिन, ये सोच रखने वाले एक महत्वपूर्ण तथ्य की अनदेखी कर रहे हैं. चीन इतना विशाल देश है कि इसकी घरेलू व्यवस्था का असर दुनिया के अन्य देशों पर भी पड़ना सुनिश्चित है. राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन घरेलू मोर्चे पर और तानाशाही व्यवस्था की तरफ़ बढ़ा है. तो, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन लगातार अपना प्रभुत्व बढ़ाने का प्रयास कर रहा है. और चीन निश्चित रूप से अपने विकास और राजनीतिक व्यवस्था के इस मॉडल के कल-पुर्ज़ों का निर्यात दूसरे देशों को कर रहा है. इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण निगरानी के वो तकनीकी संसाधन हैं, जिनका चीन की विशाल तकनीकी कंपनियां, पूरी दुनिया के विकासशील देशों को निर्यात कर रही हैं. नई व्यवस्था को लेकर चीन के प्रस्ताव निश्चित रूप से अंतरराष्ट्रीय हैं. लेकिन, उन्हें चीन की विशेषता के साथ उड़ेला जा रहा है. चीन आज भूमंडलीकरण का सबसे बड़ा प्रचारक है. लेकिन, चीन का लक्ष्य भूमंडलीकरण का परिवर्तित रूप है. जहां पर सरकार के नेतृत्व में पूंजीवादी व्यवस्था हो. और इसका नेतृत्व चीन का कम्युनिस्ट प्रशासन करे. चीन अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को तरज़ीह देता है. लेकिन, वो इन संस्थाओं के वास्तविक मक़सद को नुक़सान पहुंचाता है. उदाहरण के लिए, संयुक्त राष्ट्र में चीन, मानवाधिकारों के लिए ऐसी भाषा इस्तेमाल करना चाहता है, जो राज्य की व्याख्याओं और विशेषाधिकारों का संरक्षण करें. न कि वो ज़्यादा सार्वभौमिक अंतरराष्ट्रीय मूल्यों का समर्थक है. उन्हें चीन पश्चिमी जीवन मूल्य कह कर ख़ारिज करता है.

इसीलिए, आज उदारवादी विश्व व्यवस्था का मिथक, घरेलू राजनीतिक परिवर्तनों और वैश्विक शक्ति संतुलन के बीच उलझ कर रह गया है. और वो इनके दबाव में बिखर रहा है. क्योंकि उदारवादी विश्व व्यवस्था आज किसी राष्ट्र की संप्रभुता और अंतरराष्ट्रीयवाद के बीच में संतुलन साधने के लिए अनुपयुक्त साबित हो रहा है. ये उदारवादी विश्व व्यवस्था बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था के प्रबंधन में भी अक्षम साबित हुआ है. बहुत से लोग अंतरराष्ट्रीय उदारवादी व्यवस्था की ख़ूबसूरत तस्वीर पेश करते हैं. पुरानी यादें ताज़ा करके जज़्बाती होते हैं. लेकिन, ये सत्य से बहुत परे है. असल में इसे हम बमुश्किल ही अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था कह सकते हैं. वास्तव में ये दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात अमेरिका के गठबंधनों की व्यवस्था थी. हालांकि, इस व्यवस्था में किसी भी देश को बराबरी की संप्रभुता हासिल थी. लेकिन, आज ये कहना मुश्किल है कि इस में निर्णय लेने की व्यवस्था पर्याप्त रूप से बराबरी पर आधारित थी. इसके बजाय, महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को सबसे ताक़तवर देश चला रहे थे. जबकि बहुचर्चित मगर काल्पनिक ‘वॉशिंगटन सहमति’, असल में कुछ गिने चुने देशों के कारोबारी हितों की संरक्षक बन गई थी. जो अक्सर उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के हितों, पर्यावरण और अर्धप्रशिक्षित कामगारों को क्षति पहुंचाती थी. न ही ये व्यवस्था पूरी तरह से व्यवस्थित थी. अगर तमाम संस्थान वास्तविक तौर पर कुछ देशों के एकतरफ़ा व्यवहार को सीमित कर सकते, तो हम मध्य-पूर्व में पश्चिमी देशों की लगातार दख़लंदाज़ी नहीं देखते. अगर अंतरराष्ट्रीय उदारवादी व्यवस्था का कोई एक वास्तविक दावा वैध माना जा सकता है, तो वो स्वयं उदारवाद है. इस व्यवस्था में दूसरे विश्व युद्ध के विजेता देश, निश्चित रूप से मुक्त लोकतांत्रिक समाज थे. हालांकि, तब ज़्यादातर विश्व इन ख़ूबियों से लैस नहीं था. आज इस व्यवस्था की प्रतिभूति देने वाले सदस्य देश आज ख़ुद उठा-पटक के शिकार हैं. ऐसे में हम समझ सकते हैं कि इस विश्व व्यवस्था की ताक़त क्यों क्षीण हो रही है. असल में वैश्विक प्रशासन का विचार अंतत: एक आम सहमति बनाने का फ्रेमवर्क था, जो वैश्विक राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा के कुलीन वर्ग के हित साधता था. जैसा कि भारत के एक लोकप्रिय दक्षिणपंथी टिप्पणीकार ने ट्वीट किया, ‘दुनिया के शक्ति संपन्न कुलीन वर्ग का विश्वास योग्यतम की उत्तरजीविता में नहीं है. बल्कि वो मूर्ख, चंचल और निस्ते व्यवस्था की उत्तरजीविता में विश्वास रखते हैं.’ दूसरे शब्दों में कहें, तो ख़ानदान, विशेषाधिकार और निजी संबंधों ने ये निर्धारित किया है कि ऊंचे तख़्त पर कौन बैठेगा. और इससे भी महत्वपूर्ण ये है कि कौन वहां तक नहीं पहुंचेगा. हो सकता है कि सुनने में ये ट्रंप का बयान लगे. लेकिन, जैसा कि विकास और साइबरस्पेस पर हमारे अध्याय बताते हैं, बीसवीं हो या इक्कीसवीं सदी, दोनों ही शताब्दियों की परिचर्चाओं पर एक छोटे से मगर मुखर और प्रभावशाली समुदायों का नियंत्रण रहा है. आज हम उसके प्रति जो ज्वार देख रहे हैं, वो असल में ज़मीनी स्तर से उठे विपक्षी समुदायों का है, जो पुरानी विश्व व्यवस्था के केंद्रीभूत सिद्धांतों के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए हैं.

तो, अब हम यहां से आगे कहां जाएंगे? इन सवालों के जवाब और विकल्पों के लिए हमें भारत की ओर देखना होगा. हमें ये अच्छे से समझ पता है कि अगर हम दो भारतीय, विश्व व्यवस्था के नेतृत्व के लिए भारत की तरफ़ देखते हैं, तो इसे मौक़ापरस्ती कहा जाएगा. लेकिन, ये विचार इतना दिलकश है कि इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती. भारत एक लोकतांत्रिक व्यवस्था है और बहुलता वाली संस्कृति का प्रतीक है. वो एक बहुपक्षीय और नियमों पर चलने वाली विश्व व्यवस्था का समर्थक है. भारत जल्द ही पर्याप्त रूप से एक धनी देश बनने वाला है. ऐसे में भारत के रूप में विश्व राजनीति का एकतरफ़ा मूड तय करने वाले संकुचित दृष्टिकोण का सटीक इलाज मिल सकता है. नियमों पर आधारित विश्व व्यवस्था के प्रति सभी देश प्रतिबद्धता जताते हैं. जिसमें सभी देश कुछ तय नियमों के तहत अपनी गतिविधियां चलाते हैं. जैसे कि अंतरराष्ट्रीय क़ानून, क्षेत्रीय सुरक्षा व्यवस्थाएं, व्यापारिक समझौते, अप्रवास के नियम-क़ायदे और सांस्कृतिक समझौते. इनमें समय आने पर आवश्यक रूप से परिवर्तन किया जा सकता है. एक एशियाई शक्ति के रूप में भारत की पहचान इसे एक उत्तरदायित्व का एहसास कराती है. जिसके तहत भारत समानता पर आधारित वैश्विक नियमों के आदर्शों को प्रस्तुत कर सके और उन्हें व्यवहारिक धरातल पर उतार सके. ताकि हाशिए पर पड़े देशों और समुदायों के हितों की रक्षा हो सके. भारत की सभ्यता का वसुधैव कुटुम्बकम का दर्शन, जो पूरी दुनिया को एक परिवार मानता है. इसी वजह से अपने हितों और राजनीतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए भारत सैन्य शक्ति का प्रयोग करने से बचता है. लेकिन, इस बात से हमारा ये अर्थ नहीं है कि इस वक़्त दुनिया में जो उठा-पटक चल रही है, भारत उससे अछूता है. आज हम देख रहे हैं कि भारत के राजनीतिक धरातल की दशा-दिशा कट्टर राष्ट्रवाद ही तय कर रहा है. ये भी तय नहीं है कि भारत एक विश्व शक्ति के तौर पर उभरेगा ही. आज भी भारत में असमानता व्यापक रूप से फैली हुई है. इसके अलावा आर्थिक कुप्रबंधन और सामाजिक जोखिमों के साथ-साथ विभाजनकारी राजनीति, भारत के सामने बड़ी चुनौती बने हुए हैं. लेकिन, दुनिया को रास्ता दिखाना और समस्याओं का हल मुहैया कराने में सक्षम होना, भारत के लोगों के लिए अपना घर दुरुस्त करने के पर्याप्त प्रेरक हैं. और पिछले सात दशकों में भारत में आई क्रांतिकारी तब्दीलियां हमें इसकी उम्मीद करने का हौसला देती हैं. हां, हमें इस बात का बख़ूबी एहसास है कि भारत का नेतृत्व करना अपने आप में कोई लक्ष्य नहीं है. इक्कीसवीं सदी को विश्व व्यवस्था में एक ऐसी नैतिकता की आवश्यकता है जो वैश्विक प्रशासन में एक नैतिकता, विश्वसनीयता और सक्षमता का समावेश करें. हमें ये अपेक्षा करनी चाहिए कि विश्व मंच पर भारत का उद्भव वैश्विक प्रशासन को एक नई धार देगा. ताकि वो ज़्यादा समावेशी, लोकतांत्रिक एवं पहले से अधिक समानता पर आधारित हो. और भारत का अपना राष्ट्रीय अनुभव आज के दौर के व्यापारवाद को मद्धम करे. वो व्यापारवाद जो आज दुनिया पर हावी है, जहां पर बाज़ार के नेतृत्व वाला विकास और तरक़्क़ी का मॉडल ही आदर्श माना जाता है. उसकी जगह बाज़ारों को मानवता की सेवा के लिए उपयोग किया जाएगा. शायद अब वक़्त आ गया है जब नई दिल्ली सहमति, वॉशिंगटन कनसेंस की जगह ले. ये भारत के अपवाद का प्रतीक नहीं होगा. बल्कि असल में ज़्यादा समावेशी और भागीदारी वाली विश्व व्यवस्था के लिए उठने वाली आवाज़ का प्रतीक है. यह भारत की सबसे अधिक आनिवार्यता वाला लक्ष्य है.

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