Author : Kanchan Gupta

Published on Feb 11, 2019 Updated 0 Hours ago

बड़े उद्योगपतियों और उद्योगों का मज़ाक उड़ाना फ़ैशन हो गया है, उन्‍हें इस तरह से पेश किया जाता है कि वो शोषण करने वाले और ताक़तवर लुटेरे हैं जो अच्‍छे कामों के लिए कम पैसा बांटते हैं और उससे बहुत ज़्यादा अपने लिए जमा करते हैं, लेकिन इस बात को नज़रंदाज़ किया जाता है कि वो छोटे कारोबारों को बनाए रखते हैं, नौकरियां और नौकरियों के मौके पैदा करते हैं और लाखों लोगों के लिए कमाई का रास्‍ता बनाते हैं।

बड़े और दौलतमंद उद्योग अच्‍छे हैं

हावड़ा ब्रिज, कोलकाता — फोटो: Kat Pie/Getty

अनिश्चितता के इस दौर में दुनिया की अर्थव्यवस्‍था पर मंदी के ख़तरे के बारे में बढ़ा चढ़ाकर बातें की जा रही हैं लेकिन अगर ये बातें यकीन करने लायक नहीं हों तो ये भारत के लिए अच्‍छी ख़बर है।

दुनिया के रुझानो को लेकर पीडब्‍ल्‍यूसी यानी प्राइसवॉटरहाउस कूपर्स का विश्‍लेषण बताता है कि भारत इस साल ब्रिटेन को पीछे छोड़कर दुनिया की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था के रुप में उभरेगा। पिछले साल भारत ने फ्रांस को 7वें नंबर पर पहुंच दिया था। पीडब्‍ल्‍यूसी का अनुमान है कि जीडीपी ग्रोथ 7 फ़ीसदी से अधिक बनी रहेगी। इससे भारत की अर्थव्‍यवस्‍था न सिर्फ़ बेहद मज़बूत हो जाएगी बल्कि 3 ट्रिलियन डॉलर से भी आगे जाएगी। 2014 से लेकर अब तक भारत का रैंक ऊपर जाता रहा है, हमने ब्राज़ील, इटली और रूस के अलावा फ़्रांस को भी पीछे छोड़ दिया है। अर्थव्‍यवस्‍था के विस्‍तार और जीडीपी ग्रोथ के तेज़ी से बढ़ने से लोगों की आय बढ़ेगी, लोग ज़्यादा धन-दौलत बना पाएंगे। हो सकता है कि ऐसा न हो। असमान आय से बढ़ने वाली असमता, जीवन का एक ऐसा तथ्‍य है जिससे इंकार नहीं किया जा सकता, ये बात भारत समेत दुनियाभर में लागू होती है। इसके साथ ही ये पूछना भी ठीक होगा कि क्‍या भारत में स्थिति उतनी डराने वाली है जितनी यूके स्थित चैरिटी ऑक्‍सफ़ैम ने पेश की है।

दावोस में हुए वर्ल्‍ड इकोनॉमिक फ़ोरम के हाल में हुए एनुअल कॉन्‍क्लेव में ये रिपोर्ट पेश की गई।

ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट में दावा किया गया कि 2018 में भारत में अमीर प्रति दिन 2,200 करोड़ रुपये से और अमीर हुए। शीर्ष पर रहने वाले एक फ़ीसदी की संपत्ति में 39 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ तो वहीं आधे से नीचे के पायदान पर रहने वालों की संपत्ति में महज़ 3 फ़ीसदी का ही इज़ाफ़ा हुआ। दुनिया में अमीर हर दिन अपनी संपत्ति में 2.5 बिलियन डॉलर जोड़ लेते हैं लेकिन पायदान में आधे से नीचे रहने वालों की संपत्ति में 11 फ़ीसदी की गिरावट आती है। इसका मतलब ये हुआ कि अमीर और अमीर हो रहे हैं और ग़रीब, पहले से ज़्यादा ग़रीब, यानी दुनिया 2017 से और ख़राब हो गई है।

इस तथ्‍य को देखते हुए दुनिया भर के ताक़तवर लोग दावोस में इकट्ढा होते हैं, धन-दौलत के इस असमान बंटवारे के मूल्‍यांकन का सीधा मक़सद अमीरों को अपराध बोध की यात्रा पर ले जाना है लेकिन इस बारे में शिकायत करने का कोई फायदा नहीं है। परोपकारी संस्थाएं तो होती ही इसलिए हैं, उनके वजूद का मक़सद यही है। लोगों पर अपराध बोध थोप कर या जबरन कार्रवाई करके अमीरों की दौलत ग़रीबों में बांटने की दुहाई देना नई बात नहीं है।

ये पहली बार नहीं है कि हमें कहा जाए कि ये नैतिक रुप से अपमानजनक है कि ग़रीबों को नुकसान उठाना पड़े और वहीं अमीर, देश की बढ़ती संपत्ति का बड़ा हिस्‍सा अपने पास जमा कर लें। हमें यही सिखाया जाता है कि ये नैतिक रुप से अच्छा नहीं है लेकिन जब इसकी समीक्षा की बारी आती है तो इसे गंभीरता से नहीं लिया जाता। अमीरों की किस्‍मत में बड़े पैमाने पर उनके बिज़नेस की मार्केट कैप शामिल है।

हालांकि ये निजी दौलत नहीं है पर ये व्यक्ति की हैसियत के आकलन में काम आती है।

अरबों डॉलर की कंपनी बैठ सकती है और उसका दिवालिया पिट सकता है और ऐसा भारत और विदेश में कई बार हो भी चुका है। कंपनी के मालिकों की भले भीख मांगने की नौबत न आई हो लेकिन उनकी दौलत उसी हिसाब से कम होगी क्योंकि उनके शेयर के दाम कौड़ियों के हो गए होंगे। बहुत से ऐसे भी हैं काग़ज़ पर जिनकी संपत्ति बहुत थी लेकिन फिर भी वो सड़क पर आ गए। सत्यजीत राय की जलसाघर याद कीजिए और कल के ज़मींदार की जगह आज के उद्योगपति, उद्यमी या व्यापारी को रख दीजिए।

आजकल बड़े उद्योगों और बड़े उद्योगपतियों को कोसने का चलन है। उन्हें मौक़ापरस्त से लेकर माफिया और लुटेरे सब कुछ कहा जाता है जो धन दौलत बटोरते हैं और समाज की भलाई के लिए कुछ नहीं करते। ये नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है कि वो छोटे कारोबारों का सहारा बनते हैं, नौकरियां देते हैं रोज़गार के मौक़े बढ़ाते हैं और करोड़ों लोगों के लिए पैसा कमाने की राह बनाते हैं। भारत की 3 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था अमीरों की दौलत का जोड़ नहीं, इसमें सारे भारतीयों की आमदनी और दौलत शामिल है।

एक तरह से कॉरपोरेट की काग़ज़ी दौलत (इसमें उन अरबपतियों की बात नहीं हो रही जिन्होंने शेयर बाज़ार में जोड़तोड़ करके बेहिसाब पैसे कमाए हैं) जो शेयर पर आधारित है, उसकी तुलना आम जनता की आमदनी से करना चीनी और नमक की तुलना करने जैसा है। इसका न तो कोई आर्थिक तुक है और न ही ऐसा करना समझदारी है। कहने का ये मतलब बिल्कुल नहीं है कि आय में असमानता नहीं है। ऐसा कहना तो बेवक़ूफ़ी होगी लेकिन सक्षमता, योग्यता और नौकरी की क़िस्म के आधार पर होने वाली असमानता का जानबूझ कर भेदभाव वाली असमता से दूर-दूर का वास्ता नहीं है।

अब आते है धन की असमानता के सवाल पर। ये बात तो मान लेनी चाहिए कि अमीर ग़रीबों से ज़्यादा दौलतमंद हैं वरना अमीर और ग़रीब का भेद ही न रह जाए और हम सब ख़ुशी-ख़ुशी समाजवादी स्वर्ग में वास करें। ग़रीब और अमीर के बीच की खाई न तो स्थिर है और न ही बढ़ रही है, कम से कम भारत में जहां 2005-2006 से लेकर अगले दशक तक संयुक्त राष्ट्र के वैश्विक बहुआयामी ग़रीबी सूचकांक के तहत 27 करोड़ लोग बेहद ग़रीबी से बाहर निकले।

ब्रुकिंग्‍स इंस्‍टीट्यूट की एक रिपोर्ट का अंदाज़ा है कि हर मिनट पर 44 भारतीय ग़रीबी से ऊपर उठते हैं, जो दुनिया में सबसे तेज़ दर है। 2030 तक बस 3 फ़ीसद लोग ग़रीब रह जाएंगे। इन आंकड़ों की पुष्टि उस बढ़ते हुए तबक़े से होती है जिसने पारंपरिक नेताओं की उस बकवास पर कान धरना बन्द कर दिया है कि दरिद्रता में महानता है। ग़रीबी उदारीकरण से पहले के नेताओं का भले अब भी पसंदीदा झुनझुना हो लेकिन महत्वाकांक्षी भारतीय को अब इससे घिन आने लगी है।

लोगों की इन उम्मीदों को लड़खड़ाते डगमगाते आर्थिक सुधारों ने हवा दी। बैंकों से छोटे और मुद्रा योजना से बहुत छोटे सही पर बड़े पैमाने पर क़र्ज़े मिलने लगे हैं और टेक्नोलॉजी ने तो करोड़ों ज़िन्दगियों पर असर डाला है। स्मार्टफ़ोन, सस्ती सेवाओं के साथ एक क्रांति लाया है। भारत की आधी आबादी (56 करोड़) इंटरनेट पर है। मार्च 2016 में 34 करोड़ कनेक्शन थे, यानी 65 फ़ीसद की बढ़त हुई है। पहले एक मध्यम वर्ग था अब कई मध्यम वर्ग हो गए हैं।

फिर भी ये अपने आप में महज़ एक अच्छी शुरुआत से ज़्यादा कुछ भी नहीं। ये तो बस ग़रीबी और असमानता के चक्रव्यूह से निकलने जैसा है। बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है। नीतियों के ज़रिए ऐसा माहौल बने जो नौकरियों, बेहतर वेतन, प्रगतिशील कर प्रणाली, शहरों और देहातों में रोज़गार के लिए मददगार हो। इसी से धन दौलत आएगी और वो लोग पैसा जमा कर सकेंगे जो ग़रीब या दौलत के निचले पायदान पर हैं।

कृषि क्षेत्र में जिस तरह के क़दम उठाये जा रहे हैं या मंझोले कारोबारों को जैसे जिलाया जा रहा है उस से वोट तो मिल सकते हैं लेकिन ये समस्या का हल नहीं है। खेतों, कारख़ानों, इंफ्रास्ट्रक्चर, स्टार्ट अप या फिर रिटेल में तब तक निवेश नहीं होगा जब तक स्थिर और भरोसेमंद नीतियां नहीं बनतीं। नैतिक तौर पर भारत को भूगोलिकरण के साथ डट के खड़े रहना चाहिए और आर्थिक राष्ट्रवाद से परहेज़ करना चाहिए। हमें ख़ासतौर पर श्रम और भूमि में और कड़े सुधार लाने होंगे और ये बदलाव तेज़ गति से होना चाहिए।

एक अंतिम बात। ग़रीब और अमीर को एक दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा करने बजाए हमें ज़रूरत है बड़े उद्योगों की बड़े कारख़ानों के साथ जहां बहुत सी नौकरियां हों और लंबे चौड़े वेतन हों। उसी तरह जैसे ज़्यादा पैदावार और ज़्यादा मुनाफ़े वाले बड़े खेतों की ज़रूरत है। छोटे खेतों, टीन की छतों वाले छोटे कारख़ानों और गुमटियों के दिन लदे ज़माना हो चुका। ख़ुशहाल नेता भले छोटी चीज़ों की तारीफ़ों के पुल बांधें, ग़रीब लोग ऐसा नहीं सोचते। उनको सुनिए ऑक्‍सफ़ैम को नहीं।

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