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जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद, निश्चित रूप से आने वाले समय में बहुपक्षीय व्यवस्था को मज़बूत बनाने पर ज़ोर दिया जाएगा और अमेरिका उन वैश्विक साझेदारियों में नई जान फूंकने की कोशिश करेगा, जिनकी पिछले चार वर्षों के दौरान अनदेखी की गई है.
दुनिया के इतिहास में 1944-1945 के साल बेहद प्रभावशाली थे. इस दौरान विश्व व्यवस्था में बिखराव भी आया, और इसी दौरान उसने ख़ुद को नए सिरे से ढालने की कोशिश की. इसके लिए नए समझौते और संधियां की गईं. तब ब्रेटन वुड्स में हुए समझौते के बाद से अमेरिका, विश्व के अगुवा और सबसे ज़िम्मेदार देश की भूमिका निभाता आया था. उसने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) और विश्व बैंक जैसे संगठनों के माध्यम से दुनिया में बहुपक्षीय व्यवस्था को आकार देने में अहम रोल निभाया था.
नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन (NATO) जैसे महत्वपूर्ण गठबंधन, अमेरिका की विदेश नीति के लिए बेहद पवित्र सौगंध हुआ करते थे. नैटो का गठन, उस वक़्त सोवियत संघ और उसके खेमे वाले पूर्वी यूरोपीय देशों के मुक़ाबले के लिए पश्चिमी यूरोप और अमेरिका के गठबंधन के तौर पर किया गया था. दुनिया में इस बात पर आम सहमति हुआ करती थी कि मानव अधिकारों, लोकतंत्र, क़ानून के राज, जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर विश्व में अग्रणी भूमिका निभाता रहेगा, और भले ही सीधे तौर पर नहीं, मगर एक संरक्षक के रूप में वो दुनिया के तमाम क्षेत्रों की स्थिरता और शांति को बनाए रखने में मददगार बना रहेगा.
जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद एक बात तो तय है. अमेरिका दोबारा बहुपक्षीयवाद को बढ़ावा देगा. दुनिया की अन्य ताक़तों के साथ संवाद बढ़ाएगा, जिन्हें पिछले चार वर्षों के दौरान हाशिए पर धकेल दिया गया था.
अमेरिका की विदेश नीति के ये सिद्धांत और व्यवहार, दुनिया के तमाम मसलों पर हमेशा अपनी एक भूमिका देखा करते थे. अगर चुनौती साम्यवाद की हो, तो इसके दुष्प्रभावों से निपटना अमेरिका की ज़िम्मेदारी बन जाती थी; अगर कहीं लोकतंत्र नहीं था, तो अमेरिका उसकी स्थापना की कोशिशों में जुट जाता था; कहीं विरोध के सुरों को दबाने और तानाशाही का उभार होते दिखता था, तो अमेरिका उस देश के बाग़ी सुरों की मदद को पहुंचता था.
लेकिन, 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप की जीत ने, कई मामलों में अमेरिका के अपनी राह से भटकने की शुरुआत को जन्म दिया. ट्रंप के रूप में एक ऐसे उम्मीदवार ने चुनाव जीता, जो कभी भी किसी सार्वजनिक पद पर नहीं रहा था — यहां तक कि ट्रंप कभी किसी जगह के मेयर तक नहीं रहे थे. उन्होंने, राष्ट्रपति चुनाव में एक ऐसे उम्मीदवार को परास्त किया था, जो शायद अमेरिका का राष्ट्रपति चुनाव लड़ने वाली सबसे योग्य प्रत्याशी थीं. उसके बाद से तो अमेरिका के रवैये में भटकाव की बाढ़ सी आ गई. ट्रंप ने बहुपक्षीयवाद से दूरी बना ली, और अमेरिका की कई दशकों से चली आ रही उस नीति से भी किनारा कर लिया, जिसके तहत वो वैश्विक मामलों में दख़ल देने का अधिकार रखता था. इसके उलट, ट्रंप ने आर्थिक राष्ट्रवाद और बाक़ी दुनिया से अपने देश को अलग रखने की नीति पर चलना शुरू कर दिया.
ट्रंप ने अमेरिका को पेरिस जलवायु समझौते से अलग कर लिया. उन्होंने बराक ओबामा और जॉन केरी की विदेश नीति की महत्वपूर्ण उपलब्धि यानी ईरान परमाणु संधि से भी पल्ला झाड़ लिया. ये समझौता (जिसे जॉइंट कॉम्प्रिहेंसिव प्लान ऑफ़ एक्शन (JCPOA) कहा जाता है), ईरान को वार्ता की मेज पर लाने के लिए हुआ था और इससे उम्मीद जगी थी कि ईरान और अमेरिका के बीच पिछले चार दशकों से चली आ रही दुश्मनी ख़त्म होगी. ट्रंप की ये सभी करतूतें, तब अपने शीर्ष पर पहुंच गईं, जब उन्होंने दुनिया में तबाही लाने वाली कोविड-19 की महामारी के दौरान, बार बार विश्व स्वास्थ्य संगठन पर आरोप लगाए और ख़ुद को WHO से औपचारिक रूप से अलग करने का एलान किया.
यहां तक कि अमेरिका में रूढ़िवादी विचारधारा की समर्थक पत्रिका अमेरिकन कंज़र्वेटिव ने भी अपने एक लेख में कहा कि, ‘ट्रंप प्रशासन ने विश्व में अमेरिका की छवि को ऐसा नुक़सान पहुंचाया है जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती. ‘ट्रंप और उनके राष्ट्रवादी बयानों ने अमेरिका के गठबंधनों को तोड़ने का काम किया है. अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय साझेदारियों को क्षति पहुंचाई है और दुनिया की अन्य ताक़तों के साथ मिलकर काम करने की अमेरिका की संभावनाओं को ख़त्म कर दिया है.’
अमेरिका के अपनी भूमिका से पीछे हटने और विदेश नीति की राह से भटकने से हुए नुक़सान का आकलन करना भी संभव नहीं है. ट्रंप के देश के सबसे पड़े पद पर पहुंचने के पीछे अमेरिका के वो लोग थे, जिनका ये मानना था कि उन्हें भूमंडलीकरण से कोई लाभ नहीं हुआ है. मुक्त व्यापार और अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दुनिया भर में विस्तार के अमेरिकी आदर्शों का, ट्रंप समर्थक इस तबक़े ने ख़ूब मज़ाक उड़ाया. ट्रंप समर्थकों को ग्लोबलाइज़ेशन से नफ़रत है और वो उन अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कट्टर विरोधी हैं, जिन्होंने अपने यहां के रोज़गार को विदेशों में स्थापित किया है और घरेलू स्तर पर सस्ते श्रम को बढ़ावा देते हैं.
अमेरिका में ट्रंप के समर्थक वर्ग, जिसे वहां रस्ट बेल्ट और बाइबिल बेल्ट कहा जाता है, ने हमेशा ही इसके तटीय इलाक़ों में रहने वाले कुलीन वर्ग और राजनीतिक तंत्र को नफ़रत भरी नज़र से देखा है. डॉनल्ड ट्रंप जो ख़ुद एक अरबपति हैं, वो जब बाक़ी अमेरिकी अरबपतियों से जुड़ाव नहीं महसूस करते हैं, तो फिर वो पेंसिल्वेनिया के स्टील कारखाने के कामगार, या आयोवा के मक्का किसान से क्या लगाव महसूस करेंगे. लेकिन, उन्हीं ट्रंप के लोक–लुभावन बयानों को जनता ने हाथों–हाथ लिया.
डॉनल्ड ट्रंप ने बेहद संकुचित नीति को अपनाया और भले ही ये माहौल बना हो कि वो व्यापार समझौते करना पसंद नहीं करते, हक़ीक़त तो ये है कि ट्रंप को ऐसे समझौतों से कोई ऐतराज़ नहीं था. आख़िरकार, वो दावा तो यही करते थे कि उन्होंने समझौतों के बारे में ‘सबसे अच्छी क़िताब’ लिखी थी. असल में ट्रंप तो बहुपक्षीय समझौतों के विरोधी हैं. ट्रंप को हमेशा ही इस हाथ ले, उस हाथ दे, के विचार पर भरोसा रहा. उन्हें लगता है कि कूटनीति भी रियल एस्टेट के कारोबार जैसी है या फिर उनके अपने टीवी शो ‘द अप्रेंटिस’ जैसा कोई तमाशा है, जिसमें एक तरह का वैभवशाली दिखावा है. डॉनल्ड ट्रंप के शासनकाल में हमने देखा कि उनमें परतदार और पेचीदा कूटनीतिक दांव–पेंचों को आज़माने के धैर्य का बेहद अभाव था
मोटे तौर पर किसी को भी लगेगा कि ट्रंप का शासनकाल एक राजनीतिक अपवाद का दौर था, क्योंकि लंबी अवधि की दृष्टि से अमेरिका और आसियान देशों के संबंध मज़बूत बने रहेंगे, फिर चाहे को डेमोक्रेट राष्ट्रपति हो या रिपब्लिकन प्रेसीडेंट. लेकिन, ट्रंप कोई साधारण रिपब्लिकन नेता नहीं हैं. कुछ लोग तो ये कहते हैं कि ट्रंप रिपब्लिकन ही नहीं हैं. जब डॉनल्ड ट्रंप और शी जिनपिंग उस जियोपॉलिटिकल बहस में उलझे हुए थे, जिसका नतीजा हमें अमेरिका और चीन के बीच व्यापारिक विवाद के रूप में दिखा था, तो सिंगापुर जैसे छोटे देश ख़ुद को इस संघर्ष में पिसते हुए महसूस कर रहे थे. शहरनुमा देश सिंगापुर, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से ख़ुद को चीन के क़रीब महसूस करता है, और मुक्त व्यापार के ठिकाने के रूप में उसके अमेरिका के साथ भी बेहद मज़बूत संबंध हैं. लेकिन, जब अमेरिका और चीन जैसे विशाल देश व्यापार युद्ध में उलझ पड़े, तो सिंगापुर जैसा छोटा सा देश उनके बीच चींटी की तरह पिस रहा था.
लेकिन, जैसा कि मैंने पहले भी कहा था कि, जो बाइडेन ने जिस मंच पर राष्ट्रपति चुनाव का अपना पूरा अभियान चलाया, वो असल में कोई मंच था ही नहीं. जो बाइडेन निश्चित रूप से एक मध्यमार्गी डेमोक्रेट नेता हैं और उन्होंने बर्नी सैंडर्स व एलिज़ाबेथ वॉरेन के तरक़्क़ीपसंद एजेंडे से दूरी बना ली थी. पूरे अभियान के दौरान वो बराक ओबामा के सफल कार्यकाल में उप–राष्ट्रपति के रूप में अपनी भूमिका का शोर मचाते रहे थे.
जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद एक बात तो तय है. अमेरिका दोबारा बहुपक्षीयवाद को बढ़ावा देगा. दुनिया की अन्य ताक़तों के साथ संवाद बढ़ाएगा, जिन्हें पिछले चार वर्षों के दौरान हाशिए पर धकेल दिया गया था.
कई मायनों में जो बाइडेन का शासनकाल ओबामा की तीसरी पारी कहा जा सकता है. 2016 में हिलेरी क्लिंटन की उम्मीदवारी का रिपब्लिकन पार्टी ने यही कहते हुए विरोध किया था. बाइडेन से उम्मीद है कि वो नरमपंथी डेमोक्रेटिक नेता के तौर पर शासन चलाएंगे और ओबामा के दौर की कई विरासतों को आगे बढ़ाएंगे. इनमें अफोर्डेबल केयर एक्ट या ओबामाकेयर शामिल है, जिसकी ज़रूरत इस महामारी के दौर में बेहद शिद्दत से महसूस की जा रही है. संभावना यही है कि जो बाइडेन, अमेरिका के दोबारा पेरिस जलवायु समझौते में शामिल होने का फ़ैसला करेंगे. इसके लिए वो कैलिफ़ोर्निया के जंगलों में लगी आग के हवाले से जलवायु परिवर्तन के ख़तरों का हवाला देंगे. सीनेट में रिपब्लिकन पार्टी के नेता मिच मैक्कॉनेल को चिढ़ाने के लिए, जो बाइडेन ईरान के साथ परमाणु समझौते (JCPOA) पर भी दोबारा विचार कर सकते हैं. ऐसा होने पर मैक्कॉनेल निश्चित रूप रिपब्लिकन पार्टी के कट्टरपंथियों की मदद से ईरान के तुष्टिकरण की हर कोशिश का पुरज़ोर विरोध करेंगे.
लेकिन, जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद एक बात तो तय है. अमेरिका दोबारा बहुपक्षीयवाद को बढ़ावा देगा. दुनिया की अन्य ताक़तों के साथ संवाद बढ़ाएगा, जिन्हें पिछले चार वर्षों के दौरान हाशिए पर धकेल दिया गया था. हाल ही में टिमोथी मैक्लॉलिन ने कहा था कि, ‘बराक ओबामा की तुलना में ट्रंप प्रशासन ने इस क्षेत्र की अनदेखी की थी. उन्होंने 10 देशों वाले संगठन आसियान के लिए अमेरिकी राजदूत की नियुक्ति नहीं की, न ही उन्होंने सिंगापुर में कोई राजदूत नियुक्त किया. क्षेत्रीय बैठकों की उपेक्षा की गई और अमेरिका में दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों के नेताओं के साथ होने वाली एक बैठक, जैसी बराक ओबामा ने भी की थी, वो महामारी के कारण नहीं हो सकी.’ जो बाइडेन के आसियान देशों के साथ संपर्क बढ़ाने और इस क्षेत्र में अधिक दिलचस्पी लेने की संभावना है. इसके संकेत, विदेशी मामलों में उनके प्रमुख सलाहकार और ओबामा के शासनकाल में अधिकारी रहे टोनी ब्लिंकेन ने अपने ट्वीट के ज़रिए भी दिए थे. माना जा रहा है कि टोनी ब्लिंकेन, जो बाइडेन के विदेश मंत्री होंगे.
अमेरिका के नीतिगत मामलों के जानकारों के बीच इस मामले पर मोटे तौर पर आम सहमति है कि, जो बाइडेन भी चीन को लेकर कड़ा रुख़ ही अपनाए रहेंगे. भले ही वो ट्रंप की तरह शोशेबाज़ी और तल्ख़ बयान न दें और चीन के ख़िलाफ़ पर ट्वीट युद्ध न छेड़ें. लेकिन, ये तय है कि बाइडेन भी दक्षिणी चीन सागर, पूर्वी चीन सागर, ताइवान से टकराव, लोकतंत्र समर्थकों पर कार्रवाई और भारत के साथ सीमा विवाद के रूप में चीन के बढ़ते आक्रामक रुख़ की अनदेखी नहीं करेंगे.
अमेरिका और आसियान देशों के संबंधों को बढ़ावा देने में बराक ओबामा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. अपनी पिवोट टू एशिया नीति के तहत उन्होंने ख़ास तौर से दक्षिणी पूर्वी एशिया पर ध्यान केंद्रित किया था. उदाहरण के लिए ओबामा ने 2013 के आस–पास ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (TTP) की शुरुआत तब की थी, जब चीन इस क्षेत्र में अपनी दादागीरी बढ़ाने की शुरुआत कर रहा था. TTP के ज़रिए, ओबामा ने आसियान देशों के साथ अमेरिका के संबंध मज़बूत बनाने का प्रयास किया था. लेकिन, ट्रंप ने TTP से अमेरिका को अलग करके अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली थी, या यूं कहें कि उन्होंने इस क्षेत्र में चीन के लिए अपने प्रभाव का विस्तार करने का मैदान, बिना चुनौती दिए ही खुला छोड़ दिया था.
आसियान के साथ बहुपक्षीयवाद के अलावा, नीतिगत मामलों के जानकारों का आकलन ये है कि अमेरिका इस क्षेत्र में, ख़ास तौर से अपनी हिंद–प्रशांत रणनीति के ज़रिए, चीन के ख़िलाफ़ गठबंधनों की एक मज़बूत दीवार बनाएगा. चीन बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) प्रोजेक्ट के ज़रिए पश्चिम में अपना विस्तार कर रहा है, और चीन–पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) और श्रीलंका के हंबनतोता बंदरगाह जैसे प्रोजेक्ट के माध्यम से नए देशों को अपने पाले में लाने में जुटा है. ऐसे में अमेरिका अपनी हिंद–प्रशांत रणनीति के तहत चीन को मानो ये संदेश दे रहा है कि, ‘हम तुम्हारी BRI वाली चाल देख रहे हैं और इसीलिए हिंद–प्रशांत में तुम्हारी घेरेबंदी करेंगे.’
पश्चिम में अमेरिका के बहुत से सहयोगी देश और महत्वपूर्ण साझीदार ये चाहते हैं कि अमेरिका ख़ुद को अपने ऊपर लगाई गई बंदिशों से आज़ाद करके अग्रणी भूमिका निभाए, भले ही वो दादागीरी वाले रोल में न हो. हिंद–प्रशांत रणनीति, अमेरिका की विदेश नीति का मुख्य पहलू है. इसके ज़रिए दक्षिणी एशिया से दक्षिणी पूर्वी एशिया तक, ऑस्ट्रेलिया से लेकर जापान तक, अमेरिका तमाम देशों के साथ आर्थिक संबंधों को मज़बूत करेगा और सैन्य अभ्यासों को बढ़ावा देगा. इसमें भारत ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ इस क्षेत्र में होने वाली चतुर्भुज अभ्यास (QUAD) शामिल है.
पश्चिम में अमेरिका के बहुत से सहयोगी देश और महत्वपूर्ण साझीदार ये चाहते हैं कि अमेरिका ख़ुद को अपने ऊपर लगाई गई बंदिशों से आज़ाद करके अग्रणी भूमिका निभाए, भले ही वो दादागीरी वाले रोल में न हो. हिंद-प्रशांत रणनीति, अमेरिका की विदेश नीति का मुख्य पहलू है.
ये बात तो सभी जानकार मानते हैं कि ट्रंप के उलट जो बाइडेन, किम जोंग उन या व्लादिमीर पुतिन जैसे तानाशाहों के साथ कोई लगाव नहीं महसूस करेंगे. जब भी बात ऐसे नेताओं से निपटने की आएगी तो जो बाइडेन रूस और उत्तर कोरिया, दोनों के ख़िलाफ़ सख़्ती से ही काम लेंगे.
पर, ऐसा नहीं है कि एशिया में सभी देश बड़ी उम्मीदों से बाइडेन के सत्ता संभालने का इंतज़ार कर रहे हैं. हाल ही में आसियान के एक बड़े कूटनीतिज्ञ ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि, एशिया को केंद्र बिंदु बनाने का ओबामा का विचार बहुत अच्छा था, लेकिन इसे कभी भी सही तरीक़े से लागू नहीं किया गया.’ जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद बहुपक्षीयवाद और विश्व स्तर पर संवाद बढ़ाने की कोशिशों का स्वागत किया जाएगा. लेकिन चिंता इस बात की भी है कि जब बात चीन की आएगी, तो बाइडेन भी ओबामा के दौर की ही नीतियों पर चलेंगे और अधिक आक्रामक रुख़ नहीं अपनाएंगे. यहां तक कि एक बड़े कूटनीतिज्ञ ने तो ये तक कह दिया कि, ‘हमें ट्रंप बहुत याद आएंगे’. बहुत से लोगों को ये बात भले ही अविश्वसनीय लगती हो कि एशिया के बहुत से कूटनीतिज्ञ, ट्रंप के चार साल के उठा–पटक भरे कार्यकाल की कमी महसूस करेंगे. जबकि इस दौरान न तो ट्रंप ने इस क्षेत्र के साथ आर्थिक संपर्क बढ़ाया और न ही सामरिक संवाद को तरज़ीह देकर कोई लगाव जताया था.
अब ये देखना होगा कि जो बाइडेन, ओबामा के दौर की अपने उप–नेता की भूमिका से किस हद तक आगे बढ़कर, अमेरिका के राष्ट्रपति के रोल में ढल पाते हैं. किसी भी सूरत में जो बाइडेन, अमेरिका के सहयोगियों को यही संदेश देंगे कि उनका देश विदेश नीति पर फिर से संवाद करने को तैयार है.
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Akshobh Giridharadas was a Visiting Fellow based out of Washington DC. A journalist by profession Akshobh Giridharadas was based out of Singapore as a reporter ...
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