Author : Kabir Taneja

Published on Aug 19, 2020 Updated 0 Hours ago

ऐसी ख़बरें हैं कि इज़राइल ने क़तर से भी नज़दीकी बढ़ाने की कोशिशें की हैं. लेकिन, खाड़ी सहयोग परिषद् के आपसी झगड़ों ने संयुक्त अरब अमीरात और इज़राइल के सामान्य होते रिश्तों के लिए भी चुनौती खड़ी कर दी है.

इज़राइल-संयुक्त अरब अमीरात का संबंध सामान्य होना, कई बड़े संकेतों की तरफ़ इशारा

13 अगस्त को अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एलान किया कि इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) आपसी संबंधों को सामान्य बनाने जा रहे हैं. ये यहूदी देश इज़राइल और उसके मुस्लिम अरब पड़ोसियों के बीच दशकों पुराने संकट के समाधान की दिशा में बढ़ा हुआ बहुत बड़ा क़दम कहा जा रहा है. हालांकि, संयुक्त अरब अमीरात कोई पहला अरब देश नहीं है, जो इज़राइल के साथ सामान्य कूटनीतिक संबंध स्थापित करने जा रहा है. उससे पहले मिस्र और जॉर्डन ये क़दम उठा चुके हैं. 1979 में इजिप्ट ने इज़राइल के साथ औपचारिक संबंधों की शुरुआत की थी. तो जॉर्डन ने 1994 में इस दिशा में क़दम बढ़ाया था.

इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात लंबे समय से गुप्त रूप से आपस में सहयोग करते रहे हैं. दोनों ही देशों के बीच कई वर्षों से तमाम विषयों पर परिचर्चा और राजनीतिक वार्ताएं होती आ रही थीं. 2018 में इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू ने ओमान का दौरा किया था. दोनों देशों को क़रीब लाने में इज़राइल की ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद के प्रमुख योसी कोहेन ने बड़ी भूमिका निभाई थी. बेंजामिन नेतान्याहू के ओमान दौरे से ये बात बिल्कुल साफ़ हो गई थी कि इज़राइल और उसके अरब पड़ोसी देशों के बीच संबंध सुधार की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. हाल ही में कोविड-19 की महामारी के दौरान, इज़राइल ने एलान किया था कि वो संयुक्त अरब अमीरात के साथ मिल कर इस बीमारी की वैक्सीन विकसित करने में लगा हुआ है. हालांकि, तब UAE ने इज़राइल के इस बयान से पल्ला झाड़ लिया था. क्योंकि, इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू, फिलिस्तीन के वेस्ट बैंक इलाक़े को इज़राइल में मिलाने की कोशिश कर रहे थे. और उस समय इज़राइल में चुनाव भी होने वाले थे. लेकिन, अब जबकि इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात से खुलकर संबंध सामान्य बनाने की घोषणा कर दी है. तो, इससे साफ़ है कि दोनों देशों के बीच गुप्त रूप से लंबे वक़्त से वार्ता चल रही थी.

ओबामा ने 2010 में अरब देशों में क्रांतिकारी आंदोलनों के दौरान ही, इनके शासकों को इज़राइल के साथ संबंध सामान्य बनाने के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया था. ये वही समय था, जब इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात के संबंध सबसे ख़राब स्तर पर थे.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि मध्य पूर्व की उठा-पटक भरी राजनीति में संयुक्त अरब अमीरात और इज़राइल का क़रीब आना एक स्वागत योग्य क़दम है. लेकिन, दोनों देशों ने संबंध सामान्य बनाने की घोषणा जिस समय की है, वो भी बहुत महत्वपूर्ण है. इस साल नवंबर महीने में होने जा रहे अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव न केवल निर्णायक होंगे, बल्कि बेहद विभाजनकारी भी होंगे. खाड़ी के शाही शासकों के लिए ट्रंप एक वरदान साबित हुए हैं. ऐसा इज़राइल के बारे में भी कहा जा सकता है. ईरान के प्रति बेहद सख़्त रुख़ अपनाकर ट्रंप ने तमाम अरब शासकों को अपना मुरीद बना लिया है. इसे देखते हुए ही अरब देशों और इज़राइल ने आपसी संबंधों को सामान्य बनाने की दिशा में भी क़दम उठाए हैं. और अब जो संवाद वो गुप-चुप कर रहे थे, उसे खुलकर करने में इज़राइल और अरब देशों को कोई परहेज़ नहीं रहा. भले ही आज इज़राइल और अरब देशों के क़रीब आने का श्रेय ट्रंप और उनकी ईरान के ख़िलाफ़ सख़्त नीति को दिया जाए. लेकिन, हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि यहूदी देश इज़राइल और अरब मुल्कों को क़रीब लाने का काम पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के शासन काल में ही शुरू हो गया था. ओबामा ने 2010 में अरब देशों में क्रांतिकारी आंदोलनों के दौरान ही, इनके शासकों को इज़राइल के साथ संबंध सामान्य बनाने के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया था. ये वही समय था, जब इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात के संबंध सबसे ख़राब स्तर पर थे. क्योंकि, इज़राइल की ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद ने हमास की सैनिक शाखा के सह संस्थापक महमूद अल-मबूह की दुबई के एक होटल में हत्या कर दी थी.

हालांकि, इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात अब संबंध सामान्य बनाने का एलान कर चुके हैं. लेकिन, क्षेत्रीय राजनीति और कूटनीतिक समीकरणों को देखते हुए अभी भी बहुत से अनसुलझे सवाल हैं, जिनका जवाब मिलना बाक़ी है. ये बात किसी से छुपी नहीं है कि संयुक्त अरब अमीरात और इसके नेता शेख मोहम्मद बिन ज़ायद (MbZ) ने बड़ी तेज़ी से तरक़्क़ी करते हुए, अपने देश को पूरे मध्य पूर्व का सबसे प्रभावशाली देश बना दिया है. आज संयुक्त अरब अमीरात की अर्थव्यवस्था और नेतृत्व का लोहा तमाम अरब देश मानते हैं. कई मामलों में तो संयुक्त अरब अमीरात ने अपने से कई गुना बड़े और पारंपरिक रूप से शक्तिशाली देश, सऊदी अरब को भी पीछे छोड़ दिया है, जबकि सऊदी अरब के मक्का और मदीना में ही मुसलमानों की दो सबसे पवित्र मस्जिदें हैं. और, जिनके कारण सऊदी अरब को सुन्नी मुसलमानों का अगुवा देश माना जाता रहा है. इसी वजह से सऊदी अरब के युवराज मुहम्मद बिन सलमान (MbS) अरब देशों में काफ़ी ताक़तवर स्थान रखते हैं. लेकिन, मुहम्मद बिन ज़ायद का इज़राइल से दोस्ती का हाथ बढ़ाने को अन्य देशों के मुक़ाबले, केवल नफ़ा-नुक़सान के दृष्टिकोण से नहीं देखा जाना चाहिए. संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब के दुश्मन ईरान से भी सीधा संबंध रखता है. ये मध्य पूर्व के एक अन्य देश ओमान के रवैये से काफ़ी मिलता जुलता है. ओमान भी मध्य पूर्व के कूटनीतिक समीकरणों में ख़ुद को किसी एक खेमे से जोड़ने से बचता रहा है. इसी साल जून में संयुक्त अरब अमीरात ने कोविड-19 से लड़ने के लिए ईरान को विमानों से राहत सामग्री की कई खेपें भेजी थीं. जबकि, ईरान शिया बहुल देश है और संयुक्त अरब अमीरात सुन्नी मुसलमानों का मुल्क माना जाता है. 2 अगस्त को ही ईरान और संयुक्त अरब अमीरात के विदेश मंत्रियों ने आपस में वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिए बातचीत की थी. और इस वैश्विक महामारी से निपटने के तौर तरीक़ों पर चर्चा की थी. हालांकि, दोनों देशों के विदेश मंत्रियों की बातचीत का मुद्दा कोविड-19 ही बताया गया था. लेकिन, इसमें भी कोई शक नहीं है कि ईरान और संयुक्त अरब अमीरात के विदेश मंत्रियों ने क्षेत्रीय राजनीतिक हालात पर भी चर्चा की होगी. ये भी हो सकता है कि, शायद दोनों विदेश मंत्रियों ने संयुक्त अरब अमीरात और इज़राइल के बीच होने वाले समझौते पर भी बात की हो.

भले ही इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात के पास आने की बड़ी वजह ईरान के साथ अरब देशों की तनातनी लग रही हो. लेकिन, इज़राइल और UAE के क़रीब आने के पीछे और भी कई कारण हैं, जिनकी समीक्षा की जानी चाहिए. आज की तारीख़ में खाड़ी सहयोग परिषद् (Gulf Co-operation Council) पूरी तरह बंटी हुई है. वहीं, क़तर ने फिलिस्तीन में अपना दांव और बढ़ा दिया है. जबकि, क़तर पर सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात दोनों ने प्रतिबंध लगाए हुए हैं. लेकिन, फिलिस्तीन पर अपनी पकड़ बढ़ाकर क़तर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात, दोनों को ये संदेश दे रहा है कि उसके विकल्प खुले हुए हैं. क़तर एक छोटा सा देश है. मगर है बहुत समृद्ध. और उसने ईरान से भी नज़दीकी बढ़ा ली है. ऐसा करके क़तर ने सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात को बता दिया है कि वो सिर्फ़ अपने इन दो बड़े पड़ोसी देशों के ही भरोसे नहीं है. इसके अलावा, सुन्नी मुसलमानों के नेतृत्व के मामले में सऊदी अरब को चुनौती देने वाले तुर्की से भी क़तर ने अच्छे संबंध क़ायम कर लिए हैं. यानी, ईरान और तुर्की के साथ मिलकर अब क़तर ऐसी स्थिति में पहुंच गया है कि वो फिलिस्तीन के राजनीतिक और सैन्य बलों को मदद कर सके. क्योंकि, बाक़ी अरब देशों ने तो फिलिस्तीनी संगठनों को उनके हाल पर ही छोड़ दिया है. ऐसी ख़बरें हैं कि इज़राइल ने क़तर से भी नज़दीकी बढ़ाने की कोशिशें की हैं. लेकिन, खाड़ी सहयोग परिषद् के आपसी झगड़ों ने संयुक्त अरब अमीरात और इज़राइल के सामान्य होते रिश्तों के लिए भी चुनौती खड़ी कर दी है. शायद, UAE के शासक शेख मोहम्मद बिन-ज़ायद के लिए अगली बड़ी चुनौती इसी समस्या से निपटने की होगी.

इन सभी समीकरणों के बीच, आख़िरी में एक बात जो फिर से सही साबित हुई है, वो है फिलिस्तीन का मसला. फिलिस्तीन को मध्य पूर्व के शतरंज की बिसात में बादशाह कहा जाता है. लेकिन, संयुक्त अरब अमीरात के इज़राइल से समझौते से साफ़ है कि तमाम अरब देश वक़्त और ज़रूरत के हिसाब से फिलिस्तीन के हितों को एक अदना से प्यादे की तरह क़ुर्बान करके अपने हित साधते रहे हैं. यही कारण है कि संयुक्त अरब अमीरात और इज़राइल के समझौते पर अफसोस जताते हुए फिलिस्तीन ने कहा कि, ‘इज़राइल, फिलिस्तीन पर क़ब्ज़े के समय से ही लगातार ज़ुल्म ढाता रहा है. उसे UAE के साथ संबंध सामान्य करके इसी बात का इनाम दिया गया है.’ फिलिस्तीन के प्रमुख विधायक और फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन के कार्यकारी सदस्य डॉक्टर हन्ना अशरावी ने ट्वीट किया कि, ‘संयुक्त अरब अमीरात लंबे समय से इज़राइल के साथ चोरी-छुपे बात कर रहा था. अब ये राज़ खुलकर बाहर आ गया है. अब ये कोरी कल्पना नहीं, एक कड़वी हक़ीक़त है!’ वहीं, फिलिस्तीन के कट्टरपंथी कहे जाने वाले संगठन हमास ने कहा कि संयुक्त अरब अमीरात और इज़राइल के बीच इस समझौते से यहूदी देश को फिलिस्तीन पर क़ब्ज़ा करने और अपना यहूदी एजेंडा चलाने की खुली छूट मिल गई है.

क़तर एक छोटा सा देश है. मगर है बहुत समृद्ध. और उसने ईरान से भी नज़दीकी बढ़ा ली है. ऐसा करके क़तर ने सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात को बता दिया है कि वो सिर्फ़ अपने इन दो बड़े पड़ोसी देशों के ही भरोसे नहीं है.

संयुक्त अरब अमीरात के साथ इस समझौते से पहले इज़राइल भी राजनीतिक उठा-पटक के दौर से गुज़र रहा था. दो बार के चुनावों में भी किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था. जिसके बाद बेंजामिन नेतान्याहू और बेनी गैंट्ज़ के बीच सत्ता की साझेदारी का समझौता हुआ. इससे पहले नेतान्याहू, पश्चिमी तट को पूरी तरह से इज़राइल में मिलाने के लिए तैयार थे. लेकिन, गैंट्ज़ और नेतान्याहू के बीच समझौता हो गया. और अब संयुक्त अरब अमीरात के साथ समझौते के बाद इज़राइल के अधिकारी ये कह रहे हैं कि वेस्ट बैंक को इज़राइल में मिलाने की योजना फिलहाल स्थगित कर दी गई है. हालांकि, अभी ये विकल्प पूरी तरह से ख़त्म नहीं हुआ है. भले ही संयुक्त अरब अमीरात कुछ भी कहे. मगर, सच तो यही है कि इज़राइल आगे चल कर ऐसा कर सकता है. संयुक्त अरब अमीरात के साथ समझौते से इज़राइल को जॉर्डन के साथ चल रही तनातनी से भी राहत मिली है. क्योंकि, दोनों देश पश्चिमी तट को इज़राइल में मिलाने की योजना को लेकर आमने सामने थे. कुल मिलाकर कहें, तो संयुक्त अरब अमीरात और इज़राइल के इस समझौते से आगे चलकर अन्य अरब देशों के इज़राइल से दोस्ती करने का रास्ता खुल गया है. हालांकि, इससे फिलिस्तीन संकट पर कोई असर नहीं पड़ेगा. वो समस्या जस की तस बनी हुई है. इसी कारण से संयुक्त अरब अमीरात और इज़राइल के बीच हुए समझौते के टिकाऊ होने को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं.

जब कोविड-19 की महामारी के दौरान पहली बार संयुक्त अरब अमीरात ने फिलिस्तीन को राहत सामग्री से भरा विमान भेजा था, तो फिलिस्तीन ने उसे लेने से ये कहकर इनकार कर दिया था कि ये राहत सामग्री तेल अवीव से होकर आ रही है.

इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात के बीच संबंध कितने सामान्य होते हैं, ये आने वाले दो से तीन महीनों में गौर करने वाली बात होगी. ख़ासतौर से अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव तक तो ये देखना ही होगा कि दोनों देशों के संबंध किस हद तक सामान्य होते हैं. और हमें ये भी देखना होगा कि संबंध सामान्य होने को दोनों देश किस तरह से परिभाषित करते हैं. क्या दोनों देश एक दूसरे के यहां अपने दूतावास खोलेंगे? क्या संयुक्त अरब अमीरात अपना दूतावास येरूशलम में खोलेगा या फिर तेल अवीव में? दोनों देशों के बीच संबंध सामान्य होने की बुनियादी शर्त के तहत दोनों देशों के बीच सीधी उड़ान के लिए भी सऊदी अरब की वायु सीमा का इस्तेमाल करना होगा. ये अपने आप में एक अलग ही पेचीदा मसला है. क्या सऊदी अरब, इज़राइल के विमानों को अपने ऊपर से गुज़रने की इजाज़त देगा? जब कोविड-19 की महामारी के दौरान पहली बार संयुक्त अरब अमीरात ने फिलिस्तीन को राहत सामग्री से भरा विमान भेजा था, तो फिलिस्तीन ने उसे लेने से ये कहकर इनकार कर दिया था कि ये राहत सामग्री तेल अवीव से होकर आ रही है. जिसका मतलब है कि संयुक्त अरब अमीरात और इज़राइल के संबंध सामान्य हो रहे हैं. और इसीलिए फिलिस्तीन ये मदद स्वीकार नहीं कर सकता. और दो महीने बाद फिलिस्तीनी अधिकारियों की ये भविष्यवाणी बिल्कुल सच साबित हुई है.

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