Author : Ayjaz Wani

Published on Feb 18, 2019 Updated 0 Hours ago

अफगानिस्तान में चीन के राजनीतिक, सैन्य और आर्थिक संबंध उसके घरेलू सुरक्षा कारणों से प्रेरित हैं।

अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी से चीन पर अंकुश

अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी इस युद्धग्रस्त क्षेत्र में शांति और स्थायित्व के लिए चिंतित दक्षिण एशियाई और एशियाई देशों के लिए समस्याओं का पिटारा खोल देगी। भारत के लिए यह अमेरिकी वापसी एक अवसर भी उपलब्ध कराएगी, क्योंकि अब चीन अपने संकुचित दृष्टिकोण को व्यापक बनाते हुए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के साथ ज्यादा एकजुटता के साथ काम करने के लिए प्रोत्साहित होगा, जो अब तक अपने निहित स्वार्थों की खातिर क्षेत्र के कुछ आतंकी गुटों को संतुष्ट करता आया है।

अफगानिस्तान में चीन के राजनीतिक, सैन्य और आर्थिक संबंध उसके अशांत शिनजिंयांग प्रांत के सुरक्षा कारणों से प्रेरित हैं, जहां दबे-कुचले उइगुर जातीय अल्पसंख्यकों का वर्चस्व है। चीन के सामरिक रूप से महत्वपूर्ण पश्चिमोत्तर क्षेत्र में स्थित शिनजियांग चीन की बहुचर्चित बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) परियोजनाओं का आरंभिक स्थान है, खासतौर पर बीआरआई की प्रमुख इकाई विवादास्पद चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी), जिसका विस्तार पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर तक फैला है, जो इस क्षेत्र में भारत की सम्प्रभुता का सीधे तौर पर उल्लंघन है। अफगानिस्तान से सटा शिनजियांग प्रांत ईस्टर्न तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम) या तुर्किस्तान इस्लामिक पार्टी (टीआईपी) का गढ़ है, जिसका नाम अमेरिकी वित्त मंत्रालय ने 2002 में आतंकवादी संगठनों की सूची में शामिल किया था।

अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की जल्द वापसी के बारे में चीन अपनी चिंता प्रकट कर चुका है। पाकिस्तान में चीन के उप राजदूत लाइजियान झाओ की ओर से पाकिस्तान के समाचार चैनल जीटीवी को दिए गए साक्षात्कार में ​चीन का दृष्टिकोण बिल्कुल स्पष्ट तरीके से रखा गया है । उन्होंने कहा, “वे (अमेरिकी) अफगानिस्तान में 17 वर्षों से हैं। यदि वे अफगानिस्तान को छोड़कर जा रहे हैं, तो उन्हें यह कदम क्रमिक रूप से और पूरी जिम्मेदारी से उठाना चाहिए।” उन्होंने चेतावनी दी है, “अगर अमेरिका के अफगानिस्तान से हटते ही वहां गृह युद्ध भड़क गया, तो सबसे पहले प्रभावित होने वाले देशों में पाकिस्तान, चीन और उसके बिल्कुल करीबी पड़ोसी शामिल होंगे।” चीन द्वारा व्यक्त की जा रही ये भावनाएं, अमेरिका पर 9/11 के हमलों के बाद अमेरिकी नेतृत्व वाली नेटो सेनाओं के अफगानिस्तान में अभियान शुरू किए जाने पर चीनी नेताओं द्वारा किए गए दावों से बिल्कुल उलट हैं। “आतंक के खिलाफ युद्ध” पर टिप्पणी करते हुए चीनी राजनयिक ने कहा था, “मध्य एशिया में अमेरिकी पैंठ न केवल चीन को अपना प्रभाव बढ़ाने से रोकेगी, बल्कि पूर्व से पश्चिम तक चीन को दबा देगी, और आगे बढ़ते चीन पर असरदार ढंग से अंकुश भी लगाएगी।” यदि 2001 में अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य कार्रवाई का आशय चीन को नियंत्रित करना समझा गया था, तो ऐसे में अमेरिकी सैनिकों की अफगानिस्तान से वापसी के कदम का चीन द्वारा स्वागत किया जाना चाहिए था। लेकिन इन 17 वर्षों में, चीन अपने हाथों बुने अनिश्चितता के जाल में खुद ही उलझ गया है।

अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की जल्द वापसी के बारे में चीन अपनी चिंता प्रकट कर चुका है।

वर्ष 2000 से, चीन आतंकवाद के प्रति संकुचित दृष्टिकोण अपना रहा है और बीआरआई के तहत अपने आर्थिक निवेश को सुरक्षित रखने तथा अस्थिर शिनजियांग प्रांत की सुरक्षा के बदले चीन के आतंकवादी गुटों के साथ रूमानी रिश्ते रहे हैं। चाहे वर्ष 2000 में उइगुर आतंकवादियों के लिए तालिबान की सहायता बंद करवाने का मामला हो या फरवरी 2018 में सीपीईसी की सुरक्षा के लिए बलूच आतंकवादी गुट के साथ किया गया समझौता हो, चीन आतंकवाद के बारे में दोहरे मापदंड अपनाने वाली अपनी नीति पर अडिग रहा है। अपने फायदे के लिए आतंकवाद और आतंकवादी गुटों का चयनात्मक रूप से इस्तेमाल करने की नीति चीन की कूटनीति से भी जाहिर होती है। अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र के आतंकी गुटों को खुश करने के लक्ष्य के साथ चीन ने भारत द्वारा वांछित कुख्यात आतंकवादियों में से एक — मसूद अजहर पर अपना “तकनीकी नियंत्रण” कायम रखा है और जैश-ए-मोहम्मद के सरगना को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) द्वारा आतंकवादी नामित कराने के भारत के प्रयासों में बार-बार रोड़े अटकाता रहा है। अब, जबकि अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी तय है, ऐसे में क्षेत्र में आतंकवाद के मामले पर चीन को अपनी इस चयनात्मक रणनीति में बदलाव लाना होगा, विडम्बना ही है कि उसे यह बदलाव उन्हीं कारणों से — यानी अपने शिनजियांग प्रांत की सुरक्षा और स्थायित्व सुनिश्चित करने के लिए — लाना होगा,जिनकी वजह से उसने यह ‘संकुचित दृष्टिकोण’ अपनाया था।

ईटीआईएम या टीआईपी एक मुस्लिम अलगाववादी गुट है, जिसकी स्थापना उइगुर आतंकवादियों ने की है,जो शिनजियांग में रहने वाले तुर्की भाषी जातीय बहुसंख्यक समुदाय के सदस्य हैं। इस आतंकी गुट की स्थापना से पहले उइगुर मध्य एशिया में हिज्ब-उ-ताहिर और इस्लामिक मूवमेंट आफ उज्बेकिस्तान (आईएमयू) में सक्रिय थे। शिनजियांग के काशगर क्षेत्र से संबंध रखने वाले उइगुर हसन महसूम द्वारा स्थापित गुट-ईटीआईएम ओसामा बिन लादेन की ओर से चीन के खिलाफ युद्ध में वित्तीय सहायता देने का संकल्प लिए जाने और 2000 में स्वतंत्रता की मांग किए जाने के समय समय सामने आया था। हसन महसूम कथित तौर पर दक्षिण वजीरिस्तान में पाकिस्तानी सुरक्षा बलों के हाथों मारा गया था, क्योंकि वह क्षेत्र में हर परिस्थिति में पाकिस्तान के दोस्त रहे देश के हितों के लिए खतरा बन गया था। महसूम के मारे जाने के बाद, 2003 में अब्दुल हक तुर्किस्तानी ईटीआईएम का सरगना बन गया। तुर्किस्तानी तालिबान और अल-कायदा दोनों में कट्टर इस्लाम की ‘आक्रामक-रक्षात्मक जिहाद’ शब्दावलियों का प्रभावशाली वक्ता था। उसकी भाषण देने की कला से प्रभावित होकर अल-कायदा ने उसे 2005 में अपनी एक्जीक्यूटिव लीडरशिप काउंसिल-शुरा-म​जलिस में नियुक्त किया था। उसने प्रतिद्वंद्वी तालिबान गुटों के बीच मध्यस्थता की और 2009 में पाकिस्तानी तालिबान के तत्कालीन कमांडर बैतुल्लाह महसूद से भी मुलाकात ​की। तुर्किस्तानी के नेतृत्व में ईटीआईएम को अल-कायदा से धन और प्रशिक्षण मिला और उसके सदस्यों ने अफगानिस्तान में ऑपरेशन एनड्यूरिंग फ्रीडम के दौरान नेटो सेनाओं के खिलाफ कार्रवाई में भाग लिया। पाकिस्तान में 2010 में ड्रोन हमले में गंभीर रूप से घायल होने के बाद तुर्किस्तानी स्वस्थ हो जाने पर 2014 में एक बार फिर से सामने आया और उसने गुट की कमान संभाल ली। जून 2014 को जारी एक वीडियो संदेश में उसने शिनजियांग प्रांत के खोटान क्षेत्र में हुए हमले की प्रशंसा की थी।

अब, जबकि अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी तय है, ऐसे में क्षेत्र में आतंकवाद के मामले पर चीन को अपनी इस चयनात्मक रणनीति में बदलाव लाना होगा, विडम्बना ही है कि उसे यह बदलाव उन्हीं कारणों से — यानी अपने शिनजियांग प्रांत की सुरक्षा और स्थायित्व सुनिश्चित करने के लिए लाना होगा, जिनकी वजह से उसने यह ‘संकुचित दृष्टिकोण’ अपनाया था।

अफगान सूत्रों के अनुसार, ईटीआईएम बदख्शान से गतिविधियां चलाता है और तालिबान तथा अल-कायदा के साथ मिलकर काम करता है। सीरिया से 10,000 से ज्यादा उइगुरों की वापसी के बाद समझा जाता है कि अब ईटीआईएम फिर से अपने लड़ाई के कौशल जुटा रहा है। सीरिया में ये उइगुर “आईएसआईएल के अच्छे लड़ाकों” के तौर पर जाने जाते थे। चीन की आशंका है कि वे अल-कायदा की मदद से वाखान गलियारे के जरिए शिनजियांग में दाखिल होने को तैयार बैठे हैं।

30 मई 2016 को एक ऑडियो संदेश में तुर्किस्तानी ने घोषणा की कि ईटीआईएम “इस्लाम के दुश्मनों” के खिलाफ जंग छेड़ेगा। उसने सीरिया में गुट के सदस्यों से चीन लौटने और पश्चिमी ​तुर्किस्तान में संघर्ष के लिए तैयार रहने को कहा। रिपोर्ट्स के अनुसार, उइगुर आतंकवादियों ने ईटीआईएम के सदस्यों के साथ जुड़ने तथा चीन और उसकी रणनीतिक परियोजनाओं के खिलाफ नए सिरे से कार्रवाई करने के लिए मध्य एशिया और अफगानिस्तान की ओर बढ़ना शुरू कर दिया है। ऐसे में कोई भी अमेरिका-तालिबान संधि ईटीआईएम को पहले से कहीं ज्यादा ताकतवर बनाएगी। यह गुट, अमेरिका-तालिबान संघर्षविराम और अमेरिकी वापसी का इस्तेमाल मध्य एशिया, अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र तथा तुर्की और सीरिया के बीच के सीमावर्ती क्षेत्रों में पुनर्गठित हो रहे दुर्दांत आतंकवादियों का रुख चीन के खिलाफ विशेषकर शिनजियांग की ओर मोड़ सकता है।

चीन को आशंका है कि अमेरिकी सैनिकों की वापसी के परिणामस्वरूप अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र में ऐसे आतंकवादी गुट फिर से सिर उठाने लगेंगे। और तो और अमेरिका तक को इस तरह के परिणाम का अंदेशा है। अफगानिस्तान में पूर्व अमेरिकी कमांडर जनरल जॉन एफ कैम्बेल का कहना है, “शुरूआत अच्छी है.. लेकिन हमारा प्राथमिक रणनीतिक हित इस बात में है कि अफगानिस्तान आतंकवादियों की एक अन्य सुरक्षित पनाहगाह न बन जाए, हमें कुछ उपाय करने होंगे, ताकि ऐसा न हो सके।” हालांकि तालिबान ने प्रतिबद्धता व्यक्त की है कि वह अल-कायदा और दाएश को आश्रय उपलब्ध नहीं कराएगा तथा किसी को भी अफगान धरती का इस्तेमाल अमेरिका और उसके दूतावासों के खिलाफ नहीं करने देगा, लेकिन सवाल यही उठता है कि चीन, पाकिस्तान को अनुचित लाभ उपलब्ध कराते हुए पर्दे के पीछे का खेल खेलने के लिए कितनी दूर तक जाएगा। अमेरिका और तालिबान के बीच जारी बातचीत और शांति प्रक्रिया में पाकिस्तान महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, लेकिन चीन की चिंताएं इस बात को लेकर है कि अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र में चीन विरोधी आतंकवादियों का मुकाबला करने के लिए पाकिस्तान किस हद तक संघर्ष करेगा।

चीन को आशंका है कि अमेरिकी सैनिकों की वापसी के परिणामस्वरूप अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र में ऐसे आतंकवादी गुट फिर से सिर उठाने लगेंगे। और तो और अमेरिका तक को इस तरह के परिणाम का अंदेशा है।

भारत भी अफगानिस्तान में अपने भू-सामरिक और आर्थिक हितों को लेकर चिंतित है, क्योंकि इस उभरते परिदृश्य का प्रभाव जम्मू-कश्मीर क्षेत्र पर पड़ सकता है। जम्मू-कश्मीर के पुलिस महानिदेशक के. राजेंद्र कुमार ने पुणे में ललितादित्य मेमोरियल लेक्चर के दौरान भारत की इन चिंताओं पर रोशनी डाली। उन्होंने कहा, “अब अमेरिका, अफगानिस्तान छोड़कर जा रहा है। कश्मीर पर इस प्रभाव पड़ेगा। यह बिल्कुल निश्चित है कि हम भविष्य में घाटी पर इसका प्रभाव देखेंगे। अमेरिकी सुरक्षा बलों की वापसी के बाद, आतंकवादी संगठन खुद को जोश से भरपूर और साहसी महसूस करेंगे।” इतना नहीं नहीं, अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र के आतंकवादी गुटों का इस्तेमाल पाकिस्तान द्वारा घाटी में असंतोष फैलाने में किया जा सकता है, जैसा उसने सोवियत युद्ध समाप्त होने के बाद किया था।

क्षेत्र से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के फौरन बाद कम्युनिस्ट पार्टी की रणनीति में आतंकवादियों के साथ चीन का रूमानी रिश्तों के कोई मायने नहीं रहेंगे। चीन के लिए बेहतर यही होगा कि वह अफगानिस्तान में आतंकवादी संगठनों को लक्षित करने तथा पाकिस्तान को छद्म युद्ध के लिए प्रोत्साहित करने के अपने दशकों पुराने ‘संकुचित दृष्टिकोण’ वाली नीति त्याग दे। चीन के लिए बेहतर यही होगा कि वह अपनी आर्थिक और सुरक्षा चिंताओं के लिए सामान्य तौर पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के साथ और खास तौर पर भारत के साथ मिलकर कार्य करे, ताकि आतंकवाद की बुराई से दक्षिण एशिया की रक्षा की जा सके।

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