Published on May 31, 2018 Updated 0 Hours ago

गि‍ग अर्थव्यवस्था में युवाओं द्वारा ‘इसका नाश करने’ जैसी रिपोर्ट अब भी मुश्किल से ही मिल रही हैं। ऐसे में अकेली और तथाकथित लचीली कंपनियां कठिन शर्तें रखती हैं।

फर्म के अंदर कहां फिट बैठता है गिग वर्कर?

बॉट यानी रोबोट रोजगार अनुबंधों पर हस्ताक्षर नहीं करते हैं। लेकिन हम इंसान इन पर अवश्‍य ही दस्‍तखत कर देते हैं।

कामकाज या आजीविका के भविष्य पर अधिकांश ज्ञान पूल को चमकदार नए शब्दों यथा आर्टिफि‍शियल इंटेलिजेंस (कृत्रिम बुद्धिमत्‍ता), बॉट्स और एल्गोरिदम्‍स द्वारा दर्शाया जाता है, लेकिन ये कभी भी एक-दूसरे से अलग-थलग नहीं रहते हैं।

ऑफिस के कोने वाले कमरे की ओर देखो जहां सफेद कपड़े पहने सज्जन यानी बॉस आपके रोजगार या नियुक्ति पत्र को काफी गौर से देख रहे हैं? उनकी टीम सभी प्रकार के कर्मचारियों, चाहे पूर्णकालिक हों या अंशकालिक, से जुड़े कागजी कार्यों की देखरेख करती है। यही वे लोग हैं जिन्‍हें कानूनी बारीकियों में निहित खामियों को सामने पेश करने का अधिकार दिया गया है। जब तक आप नौकरी छोड़ने की धमकी नहीं देते हैं तब तक ये लोग ही आप पर हुक्म चलाते रहते हैं।

ज्‍यादातर रोजगार अनुबंध वास्‍तव में अधूरे होते हैं। यह एक ऐसी बड़ी खामी है जो दोनों ही पक्षों को प्रभावित करती है (भले ही असमान रूप से)। रोजगार अनुबंध आपको यह बताता है कि आप कितना कमाएंगे और आपको कितनी जल्दी नौकरी से निकाला जा सकता है, लेकिन यह शायद ही आपको इस बारे में बताता है कि आपको अलग-अलग परिस्थितियों में आखिरकार क्या करना है।

संबंधित कार्यकलापों का भविष्य बॉट्स के बारे में ठीक उतना ही है जितना कि इस बारे में है कि एक ऐसी दुनिया में अनुबंधों का अर्थ किस तरह से लिया जाता है जहां डिजिटल उपकरण या साधन समय को लचीला बना देते हैं और दूरियों को कम कर देते हैं। यह इस बारे में है कि ‘गिग अर्थव्यवस्था’ से जुड़ा कामगार या वर्कर अपनी फर्म के अंदर आखिरकार कहां फिट बैठता है।

इस अनौपचारिक अर्थव्यवस्था से जुड़ी समस्‍त विशिष्ट घुमावदार शब्दावली की बातें यदि करें तो हम पाते हैं कि फ्रीलांसरों की अनुत्तरित ईमेल और बकाया भुगतानों से उत्‍पन्‍न अनवरत कष्‍ट यहां तक कि अत्‍याधुनिक कार्यस्थलों में भी कंपनी स्‍तर की प्रक्रियाओं और अनुबंधों से पड़ने वाले व्‍यापक असर को रेखांकित करते हैं।

संबंधित कार्यकलापों का भविष्य बॉट्स के बारे में ठीक उतना ही है जितना कि इस बारे में है कि एक ऐसी दुनिया में अनुबंधों का अर्थ किस तरह से लिया जाता है जहां डिजिटल उपकरण या साधन समय को लचीला बना देते हैं और दूरियों को कम कर देते हैं। यह इस बारे में है कि ‘गिग अर्थव्यवस्था’ से जुड़ा कामगार या वर्कर अपनी फर्म के अंदर आखिरकार कहां फिट बैठता है।

वर्ष 1937 में लिखा गया अर्थशास्त्र से जुड़ा एक शोध पत्र, जो लगभग 60 साल बाद वर्ष 1991 में नोबेल पुरस्‍कार पाने में कामयाब रहा, कामकाज या आजीविका के भविष्य पर हमारी सोच को एक ऐसे अतीत से जोड़ता है जो लंबे समय तक कायम रहेगा।

कंपनियों का अस्तित्‍व क्‍यों बना रहता है? निरंतर स्थानांतरित होते बाजार में अनुबंधों को कैसे लागू किया जाता है और उनकी व्याख्या कैसे की जाती है? विस्तृत नियमों के अभाव में कंपनियों और लोगों के बीच हुए समझौतों का नियमन आखिरकार कैसे किया जाता है?

रोनाल्ड कोज द्वारा वर्ष 1937 में लिखा गया निबंध ‘द नेचर ऑफ द फर्म’ जब पहली बार प्रकाशित हुआ था तो उससे सभी ने किनारा कर लिया था। वैसे तो यह निबंध काफी आगे चलकर वर्ष 1991 में नोबेल पुरस्‍कार जीतने में कामयाब रहा, लेकिन जब कोज को इस पुरस्‍कार से नवाजा गया तो उनकी उम्र 80 साल हो चुकी थी। वर्ष 1932 में रोनाल्ड कोज द्वारा पहली बार यह आइडिया दुनिया के सामने रखने के 59 साल बाद उन्‍हें यह सम्मान मिला, जबकि उस समय उनकी उम्र महज 21 साल ही थी।

लंबे अर्से बाद मान्यता मिलने के कारण रोनाल्‍ड कोज के कामकाज की बुद्धिमत्ता ने कार्यस्थल में हुए सांस्कृतिक बदलावों की कई पीढ़ियों का सामना किया है और यह एक उल्लेखनीय दौर ‘चौथी औद्योगिक क्रांति’ के दौरान भी एक प्रभावशाली आइडिया बना रहा है।

डिजिटल अर्थव्यवस्था के किसी भी भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले गि‍ग वर्कर के लिए ‘द नेचर ऑफ द फर्म’ में कोज द्वारा उल्लिखित अंतर्दृष्टि और कुछ अन्य अर्थशास्त्रियों की नीचे सूचीबद्ध की गई कृतियां आपूर्तिकर्ता की ओर से रोजगार बाजार में प्रवेश करने या वहां से बाहर निकलने की वास्तविकता को संदर्भित करती हैं। यह उनके अंदर सही और गलत के हमारे सिद्धांत की समझ को मजबूत करता है।

रोनाल्‍ड कोज ने यह विस्‍तार से बताया है कि कंपनियों का अस्तित्‍व क्‍यों बना रहता है और हमारे यानी गिग कामगारों के लिए यह जानकारी एक बेहतर समझ है कि हम संभवत: बाहर के बजाय इन कंपनियों के अंदर ही क्यों मौजूद रहना चाहते हैं।

यदि सबसे आसान शब्दों में गौर करें, तो रोनाल्‍ड कोज की सोच कुछ इस तरह की है:

कंपनियों का अस्तित्‍व इसलिए बना रहता है क्‍योंकि एक ही तरह की नौकरियों के लिए खुले बाजारों (टुकड़ों-टुकड़ों में अनुबंध) पर निर्भर रहने की स्थिति में लागत ज्‍यादा बैठती है। यह संगठन के हर स्तर पर लागू होता है। तिमाही परिणामों के सीजन के लिए कंपनी के बही-खातों को दुरुस्‍त करने में मदद करने वाले मध्य स्तर के प्रबंधक लगभग हमेशा निश्चित लागत को कम करने और परिवर्तनशील खर्चों को अंकुश में रखने की उम्‍मीद करते रहते हैं, ताकि बिक्री और परिवर्तनशील खर्चों के बीच का अंतर आकर्षक रेंज में रह सके। कर्मचारियों पर आने वाली लागत को सीमित रखना और 12 माह की अवधि में इसमें होने वाले बदलाव की गहरी समझ रखना स्‍वयं इन प्रबंधकों के सैलरी चेक और प्रदर्शन से जुड़े प्रोत्‍साहन या धन वर्षा की दृष्टि से विशेष मायने रखता है।

लंबे अर्से बाद मान्यता मिलने के कारण रोनाल्‍ड कोज के कामकाज की बुद्धिमत्ता ने कार्यस्थल में हुए सांस्कृतिक बदलावों की कई पीढ़ियों का सामना किया है और यह एक उल्लेखनीय दौर ‘चौथी औद्योगिक क्रांति’ के दौरान भी एक प्रभावशाली आइडिया बना रहा है।

अगले तार्किक चरण के रूप में एक बार कंपनी में नियुक्त्‍िा हो जाने पर एक अलग परियोजना के रूप में कामकाज के प्रत्येक टुकड़े को अनुबंध पर देने, जिसमें समय एवं माल की लागत शामिल है, के बजाय ऊपर से नीचे की ओर क्रम से कार्य बांटना लागत की दृष्टि से किफायती साबित होता है।

हम यह जानते हैं कि भारत में कुल उत्पादन के प्रतिशत के रूप में अनुबंधि‍त कामगारों से जुड़े वेतन बिल का अनुपात बढ़ रहा है। उपलब्ध आंकड़े इसकी पुष्टि करते हैं। फिर भी, उत्पादकता पर पड़ रहे असर काफी हद तक अस्पष्ट हैं। यह बात अर्थशास्त्री रितम चौरी ने न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय में ‘भारत में श्रम विनियम और कंपनी उत्पादकता’ विषय पर अपनी एक प्रस्‍तुति देते हुए कही। चौरी ने कहा, ‘अल्‍पकालिक अनुबंधों, जिन पर हर 6 से 9 माह या उससे भी कम अवधि में फिर से सौदेबाजी या बातचीत करने की आवश्यकता है, में प्रेरणा की बेहद कम गुंजाइश रहती है।’

कंपनी की रणनीति या तो विकसित हो रही हो अथवा हास्यास्पद हो, कोज के सिद्धांत से पता चलता है कि अनुबंध पर कामगार रखने के बजाय निश्चित वेतन पर स्‍व–उपयोग के लिए कर्मचारियों को रखना बहुत सस्ता पड़ता है जिन्‍हें अक्‍सर एक विभाग से दूसरे विभाग में भेजा जा सकता है।

कोज के प्रशंसक अर्थशास्त्रियों ने इस आइडिया को आगे बढ़ाया। ओलिवर विलियमसन (अर्थशास्‍त्र के नोबेल पुरस्‍कार विजेता, 2009) और ओलिवर हार्ट एवं बेंट होल्मस्ट्रॉम (अर्थशास्‍त्र के नोबेल पुरस्‍कार विजेता, 2016) ने दीर्घकालिक और लचीले अनुबंधों के संदर्भ में अतिरिक्त ब्योरा जोड़ा है।

विलियमसन का तर्क है कि बाजार और कंपनियां हितों के टकराव को कैसे सुलझाती हैं वह भिन्न बात है। जब अनुबंध टूट जाते हैं, तो कंपनियां इन अनुबंधों के अवर्णित टुकड़ों को नियंत्रित करने में बाजार बलों की तुलना में कहीं अधिक शक्तिशाली साबित होती हैं।

ये एक साथ सजग करने वाली गाथाएं और पथ प्रदर्शक भी हैं। वे प्रवेश करने के बाद ऐसे कार्यस्थल की वास्तविकता से जुड़ जाते हैं, जहां सहस्त्राब्दी पीढ़ी के युवाओं (मिलेनियल्स) की अच्‍छी मांग तो है, लेकिन उनके बारे में मालिकों (बॉस) का यह मानना है कि ‘उन्हें पर्याप्‍त समझ नहीं है।’ वहीं, दूसरी ओर इन युवाओं का मानना है कि उनके मालिक ‘अस्पष्ट’ हैं, जबकि इनसे जुड़ी कार्यात्मक टीमें अक्सर निष्क्रिय होती हैं।

गि‍ग अर्थव्यवस्था में युवाओं द्वारा ‘इसका नाश करने’ जैसी रिपोर्ट अब भी मुश्किल से ही मिल रही हैं। ऐसे में अकेली और तथाकथित लचीली कंपनियां कठिन शर्तें रखती हैं।

जहां तक सूचीबद्ध कंपनियों का सवाल है, कच्‍चे तेल की बढ़ती कीमतें और बढ़ती ब्याज दरें उनका मुनाफा कम कर रही हैं। इसे ध्‍यान में रखते हुए धनवान प्रबंधक हर जगह चार अक्षरों वाले शब्द ‘लागत’ का जिक्र कर उस पर भारी चिंता जता रहे हैं।

गिग अर्थव्यवस्था की ओर से युवा एवं बेचैन कामगारों, जो इसका ‘नाश कर रहे हैं’ के लिए वादों और इस तरह के माहौल यानी ‘भरोसेमंद रोजगार के अभाव’ को संकटमय बनाने वाले हालातों के बीच एक गहरी खाई है जिसे लड़खड़ाती आर्थिक प्रणालियों ने सृजित किया है।

इस तरह के हालात में रोनाल्‍ड कोज का यह सिद्धांत अजीबोगरीब या विचित्र कदम उठाने की मंशा को काफी गहराई तक उजागर कर देता है। यह ठीक वैसा ही है जैसा कि हम अक्‍सर किसी फर्म के कामकाज के अंदर देखते हैं। कंपनियों या फर्मों की ‘फि‍तरत’ और ‘कंपनियों का अस्तित्‍व क्‍यों बना रहता है’ से जुड़े अंदरूनी दृष्टिकोण के तहत इस बिंदु पर विशेष जोर दिया गया है कि गिग वर्कर या कामगार को अनुबंध पर रखने के शुरुआती चरणों में ही इसकी बारीकियों पर निश्चित रूप से खुलकर चर्चा करनी चाहिए। यह न केवल अनुबंध या ठेके पर रखे जाने वाले कामगारों के लिए अच्छा है, बल्कि संबंधित फर्म के लिए भी अच्‍छा है। हालांकि, कंपनी के कर्ता-धर्ता या अधिकारी इस बारे में अपनी राय से आपको कभी भी अवगत नहीं कराएंगे।


संदर्भ

Ronald Coase, The Nature of the Firm.

Oliver Williamson, Transaction Cost Economics: The Natural Progression, Noble Prize Lecture, 8 December 2009.

Oliver Hart and Bengt Holmström, Contract Theory.

Klaus Schwab, Fourth Industrial Revolution, World Economic Forum, 14 January 2016.

Ritam Chaurey, Regulations and Contract Labor Use: Evidence from Indian Firms, Journal of Development Economics, 6 January 2015.

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