हाल के वर्षों में सुरक्षा से जुड़े मसलों में अपने पड़ोसियों के प्रति भारत की नीति में उपक्षेत्रीय दृष्टिकोण का महत्व बढ़ा है. समुद्री सुरक्षा सहयोग को लेकर भारत-श्रीलंका-मालदीव के बीच राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) स्तर की बातचीत बहाल होने को इस दिशा में एक बड़ा कदम माना जा रहा है. ये बातचीत हाल में कोलंबो में हुई. श्रीलंका और मालदीव दो ऐसे देश हैं जिनसे भारत की समुद्री सीमा लगती है लिहाजा तीनों देशों की सुरक्षा चिंताएं आपस में जुड़ी हुई हैं. हाल में संपन्न त्रिपक्षीय वार्ताएं यहां के समुद्री क्षेत्र में आपसी सहयोग बढ़ाने को लेकर एक वृहत उपक्षेत्रीय परियोजना का हिस्सा हैं.
वार्ताओं के बाद प्रेस को जारी साझा बयान में इस बात को रेखांकित किया गया है कि तीनों देश ‘साझा हितों’ और आतंकवाद, उग्रवाद, नशीले पदार्थों, हथियार और मानव तस्करी जैसे ‘साझा सुरक्षा खतरों’ से निपटने के लिए अपने सहयोग का ‘दायरा और बढ़ाने’ पर सहमत हुए हैं. बयान में यह भी स्पष्ट किया गया है कि त्रिपक्षीय वार्ताओं से तीनों देशों के बीच इलाके में सामुद्रिक सुरक्षा के मसले में ‘करीबी सहयोग’ बढ़ाने में मदद मिली है.
श्रीलंका और मालदीव दो ऐसे देश हैं जिनसे भारत की समुद्री सीमा लगती है लिहाजा तीनों देशों की सुरक्षा चिंताएं आपस में जुड़ी हुई हैं. हाल में संपन्न त्रिपक्षीय वार्ताएं यहां के समुद्री क्षेत्र में आपसी सहयोग बढ़ाने को लेकर एक वृहत उपक्षेत्रीय परियोजना का हिस्सा हैं.
एनएसए-स्तर की पहली त्रिपक्षीय वार्ता मालदीव की राजधानी माले में 2011 में हुई थी. 2012 में भारत और मालदीव के कोस्ट गार्ड्स के साझा अभ्यास जिसे ‘दोस्ती’ का नाम दिया गया, उसका दायरा बढ़ाकर उसमें श्रीलंका को भी शामिल किया गया. एनएसए-स्तर की दूसरी त्रिपक्षीय वार्ताएं 2013 में कोलंबो में हुईं. इसमें समुद्री सुरक्षा के मसले पर सहयोग के एक रोडमैप को स्वीकृति दी गई. एनएसए स्तर की तीसरी बातचीत 2014 में दिल्ली में हुई. इन वार्ताओं में मॉरिशस और सेशेल्स को ‘अतिथि देश’ के रूप में शामिल किया गया.
कोलंबो में हुई चौथी त्रिपक्षीय बैठक में भारत का नेतृत्व देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने किया जबकि मालदीव की ओर से आए शिष्टमंडल की अगुवाई वहां की रक्षा मंत्री मारिया दीदी ने किया. मेज़बान श्रीलंकाई दल का नेतृत्व वहां के रक्षा सचिव रिटायर्ड मेजर जनरल कमल गुनारत्ने ने किया. मॉरिशस और सेशेल्स के वरिष्ठ अधिकारियों ने इस बैठक में वर्चुअल माध्यमों के ज़रिए हिस्सा लिया.
उपक्षेत्रीय नीति पर कारकों का असर
अपने आस-पड़ोस में सुरक्षा सहयोग को लेकर भारत की उपक्षेत्रीय नीति पर कई कारकों का प्रभाव जान पड़ता है. पहला, नई दिल्ली ने इस बात की पहचान की है कि इस उपक्षेत्र की सुरक्षा गतिविधियां पड़ोसी देशों के साथ आपस में जुड़ी हुई हैं द्विपक्षीय मसलों के पार जाकर इसे समग्र रूप से देखे जाने की ज़रूरत है. क्षेत्रीय सुरक्षा हित आपस में जुड़े हुए हैं और इलाके के देशों के लिए यही चुनौती है कि वो किस तरह खुद को सुरक्षित रखते हुए आपसी सुरक्षा खतरों से निपटें.
दूसरा, अपने आस-पड़ोस की सुरक्षा सुनिश्चित करने के मामले में खुद को एक बड़ी भूमिका में देखने की इच्छा. इस हसरत के पीछे एक भूसामरिक गुणा-भाग भी है. भारत का नज़रिया ये है कि अगर वह अपने आस-पड़ोस की सुरक्षा के मामले में अपनी अहम भूमिका नहीं निभाएगा तो इससे दूसरी प्रतिस्पर्धी ताकतों के लिए भारत के पड़ोस में दखल देने के मौके खुल जाएंगे. उपक्षेत्रीय सुरक्षा सहयोग के विचार को प्रभावी बनाने के मकसद से भारत को कुछ अन्य बातों पर भी गौर फरमाना होगा.
भारत का नज़रिया ये है कि अगर वह अपने आस-पड़ोस की सुरक्षा के मामले में अपनी अहम भूमिका नहीं निभाएगा तो इससे दूसरी प्रतिस्पर्धी ताकतों के लिए भारत के पड़ोस में दखल देने के मौके खुल जाएंगे
उपक्षेत्रीय सुरक्षा सहयोग के रास्ते में एक मसला भारत के लिए चुनौती भरा रहा है और आगे भी रहेगा. वो मसला है- भारत के आस-पड़ोस के छोटे देशों का विदेश नीति को लेकर बर्ताव. मिसाल के तौर पर, जिस समय राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन के नेतृत्व वाली मालदीव की सरकार के साथ भारत के रिश्तों में खटास आ गई थी उस वक्त एनएसए-स्तर की त्रिपक्षीय बातचीत पर भी उसका असर हुआ था.
उपक्षेत्रीय सहयोग को द्विपक्षीय राजनीतिक संबंधों से पूरी तरह से अलग नहीं किया जा सकता. ऐसे में पड़ोस के देशों से बेहतर द्विपक्षीय रिश्ते बरकरार रखना बेहद ज़रूरी हो जाता है. साथ ही साथ भारत को अपने छोटे पड़ोसियों की आकांक्षाओं के प्रति भी सजग रहना होगा.
सुरक्षा सहयोग के पारंपरिक और गैर-पारंपरिक तरीकों के प्रति इन देशों के रुख में थोडा अंतर देखने को मिलता है. ज़्यादातर छोटे पड़ोसी देशों को उपक्षेत्रीय स्तर पर भारत के साथ ठोस सैन्य सहयोग का रास्ता चुनने की बजाए सुरक्षा के गैर-परंपरागत सहयोग वाले रास्ते पर चलना ज़्यादा सुविधाजनक लगता है. इन देशों की चिंताओं के प्रति संवेदनशीलता दिखाकर और उन्हें उनका उचित स्थान देकर भारत आपसी विश्वास के माहौल में और गर्मजोशी भरने में कामयाब होगा. बड़े और छोटे पड़ोसी देशों के बीच के संबंधों में इस प्रकार की समझदारी दिखाना लाजिमी हो जाता है.
सेशेल्स-मॉरिशस को लेकर अंतर्विरोध
त्रिपक्षीय सामुद्रिक सुरक्षा व्यवस्थाओं में सेशेल्स और मॉरिशस को शामिल करने की भारत की कोशिशों में एक प्रकार का अंतर्विरोध नज़र आता है. एक तरफ तो इन कोशिशों से इस बात की पुष्टि होती है कि उपक्षेत्रीय आयामों वाली सुरक्षा गतिविधियों के रास्ते में कुछ खास चुनौतियां और चिंताएं होती हैं वहीं दूसरी ओर सुरक्षा सहयोग का भौगोलिक दायरा बढ़ाने की इच्छाएं भी सामने आती हैं. इन अंतर्विरोधों से उपक्षेत्रीय सहयोग स्थापना के मुख्य़ उद्देश्यों पर असर पड़ने की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता
उपक्षेत्र की एक स्पष्ट सीमारेखा तय करने को लेकर आगे भी चुनौती बनी रहेगी क्योंकि आपसी सहयोग सदैव भौगोलिक निकटता पर ही निर्भर नहीं होगा बल्कि अक्सर ये मुद्दों पर आधारित होंगे.
उपक्षेत्र की एक स्पष्ट सीमारेखा तय करने को लेकर आगे भी चुनौती बनी रहेगी क्योंकि आपसी सहयोग सदैव भौगोलिक निकटता पर ही निर्भर नहीं होगा बल्कि अक्सर ये मुद्दों पर आधारित होंगे. हालांकि सीमाओं को लेकर स्पष्टता होने पर उपक्षेत्र में सुरक्षा सहयोग के उद्देश्यों की संरचना में मदद मिलेगी, जिससे सदस्यों के बीच किसी भी किस्म के असमंजस और उनकी गतिविधियों में दोहराव की संभावनाओं से बचा जा सकेगा. सुरक्षा सहयोग के दूसरे प्रारूपों के साथ-साथ उपक्षेत्रीय दृष्टिकोण से आस-पड़ोस में सुरक्षा सहयोग को मज़बूत करने में मदद मिलती है. इसके ज़रिए उन पहलुओं को भी छुआ जाता है जिनपर आमतौर पर उतना ध्यान नहीं जाता. सहयोग की इस क्षेत्रीय अवधारणा के ज़रिए वृहत स्तर पर सुरक्षा सहयोग में भी मदद मिलती है.
सुरक्षा के मामलों में उपक्षेत्रीय दृष्टिकोण से नई दिल्ली को अपने पड़ोसियों के साथ बेहतर सुरक्षा सहयोग बनाने को लेकर नए प्रयोग करने का अवसर मिल रहा है. कोलंबो में हाल ही में हुई त्रिपक्षीय वार्ताओं से साफ है कि सुरक्षा पर ये उपक्षेत्रीय रुख आगे भी जारी रहेगा और आने वाले सालों में इसके महत्व में और बढ़ोतरी देखने को मिलेगी.
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