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भारतीय रेलवे नेटवर्क पर हर साल “दुर्भाग्यशाली घटनाओं” में लगभग 10,000 लोगों की ज़िंदगियों का ख़त्म हो जाना अब ईयरबुक के आंकड़े नहीं बने रहने देना चाहिए.
भारतीय रेलवे (आईआर) के वित्त वर्ष 2019-20 के उत्तरार्ध में “शून्य मौतों” के दावे की हक़ीकत पर सवाल उठाते हुए नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत द्वारा हाल ही में लिखे गए पत्र ने एक बार फिर भारत में लाखों रेल यात्रियों की सुरक्षा का मुद्दा सुर्ख़ियों में ला दिया है. रेलवे बोर्ड के चेयरमैन को संबोधित पत्र में, ख़ासकर मुंबई में उपनगरीय रेलवे सेवाओं पर बड़ी संख्या में मौतों के लिए संदर्भित– और जोर देकर कहा कि इस तरह की जानलेवा घटनाओं को रेलवे के दायरे से बाहर नहीं रखा जाना चाहिए. उन्होंने कहा “अगर इसे नज़रअंदाज़ किया जाता है, तो हम कभी सुधार का मैकेनिज़्म नहीं बना पाएंगे.”
मौतों पर हमेशा इसी तरह का विरोधाभासी रुख़ रहता है, लेकिन लचर तकनीकी आधार पर इनकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया जाता है, जो लंबे समय से चली आ रही अनसुलझी समस्या की गहराई से और उद्देश्यपूर्ण विश्लेषण की मांग करता है.
रेलवे बोर्ड ने “शून्य मौतों” के अपने दावे को दोहराते हुए जवाब दिया, लेकिन यह भी स्वीकार किया कि पिछले तीन वर्षों में 30,000 लोग, “दुर्भाग्यशाली घटनाओं” (जैसा कि उसने दावा किया) में मारे गए. इसने बताया कि रेलवे की दुर्घटनाओं में ट्रेन पटरी से उतर जाने और टकराने जैसे मामलों में होने वाली मौतों का ही हिसाब रखा जाता है. जो लोग रेलवे के नियंत्रण से परे वजहों से मारे जाते हैं जैसे भीड़ भरी ट्रेनों से गिरने और पटरी पार करते समय कुचले जाने से, उनके लिए भारतीय रेलवे को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. रेलवे बोर्ड चेयरमैन वीआर यादव ने दावा किया कि ये मौतें मुख्यतः “यात्रियों/जनता की लापरवाही या बेध्यानी के कारण” हुईं हैं.
मौतों पर हमेशा इसी तरह का विरोधाभासी रुख़ रहता है, लेकिन लचर तकनीकी आधार पर इनकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया जाता है, जो लंबे समय से चली आ रही अनसुलझी समस्या की गहराई से और उद्देश्यपूर्ण विश्लेषण की मांग करता है.
भारतीय रेलवे के बेहतर सुरक्षा रिकॉर्ड में आए उल्लेखनीय सुधार को स्वीकार किए बिना इस मुद्दे का कोई भी उद्देश्यपूर्ण विश्लेषण संभव नहीं है. भारतीय रेलवे द्वारा किए गए परिणामी दुर्घटना-संबंधी घटनाओं के कारण “शून्य मौतों” का स्वागतयोग्य दावा सुरक्षा उपायों के लिए इसके अथक प्रयासों को रेखांकित करता है, ख़ासतौर से पिछले पांच वर्षों में. सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार, 2003-2015 में रेल हादसों में 3,486 लोगों की मौत हुई. साल 2015 में सबसे ज़्यादा 710 मौतें दर्ज की गईं. हालांकि अगले पांच साल की अवधि में नाटकीय बदलाव देखा गया. वित्त वर्ष 2015-16 में 148 मौतों के साथ तेज़ गिरावट दर्ज की गई, जो 2016-17 में मामूली रूप से बढ़कर 192 हो गई. लेकिन 2017-18 में 97 तक घट गई. 2018-19 में 18 और 2019-20 में शून्य हो गई.
यह बदलाव कैसे आया? पिछले पांच वर्षों में रेलवे ने बेहतर रेल पटरियों की खरीद की है, बड़े पैमाने पर पुराने कोचों की जगह लिंके हॉफमैन बुश (एलएचबी) कोच लगाए गए हैं, जो ज़्यादा स्थिरता, ज़्यादा रफ़्तार और स्थान वाले हैं, रखरखाव का स्तर ऊंचा किया गया, स्टाफ प्रशिक्षण और सुरक्षा ऑडिट के दोहराव और नियमितता में बढ़ोत्तरी की गई. रेलवे की सबसे बड़ी उपलब्धि देशभर में हजारों मानवरहित रोड-रेलवे क्रॉसिंग को ख़त्म करना है, जिन पर सबसे ज़्यादा मौतें होती थीं.
यह समझने की ज़रूरत है कि भारतीय रेलवे देश के सबसे बड़े परिवहन प्रदाता के रूप में एकाधिकार का लाभ उठाता है और यह सुनिश्चित करना उसकी ज़िम्मेदारी है कि किसी भी यात्री को जीवन के लिए ख़तरा पैदा करने वाली स्थितियों में न डाला जाए.
हालांकि भारतीय रेलवे की “शून्य परिणामी मौतें” एक असाधारण उपलब्धि है, लेकिन कोई भी इस तथ्य की अनदेखी नहीं कर सकता है कि हज़ारों लोग मरते रहेंगे. रेलवे बोर्ड द्वारा नीति आयोग के सीईओ के पत्र के जवाब में 30,000 की मृत्यु की गिनती से पता चलता है कि ये मौतें पूरे भारतीय रेलवे नेटवर्क में हुईं, जो लगभग 68,500 किलोमीटर लंबा है. इनमें से 27 फ़ीसद से ज़्यादा सिर्फ़ मुंबई उपनगरीय रेलवे सिस्टम (एमएसआरएस) पर होती हैं, जो कि 300 रूट किलोमीटर में फैली है, और भारतीय रेलवे की कुल ट्रैक लंबाई का सिर्फ़ 0.5 फ़ीसद है. भारतीय रेलवे के पश्चिम रेलवे (डब्ल्यूआर) और मध्य रेलवे (सीआर) ज़ोन द्वारा संचालित, एमएसआरएस शहर की लाइफ़ लाइन है, जो मुंबई महानगर क्षेत्र में रोज़ाना लगभग 80 लाख यात्रियों को सेवा उपलब्ध कराती है.
फिर भी, महानगर में लाखों लोगों के लिए दैनिक आवागमन का सबसे सुविधाजनक और भरोसेमंद साधन होने के बावजूद, एमएसआरएस पर अस्वीकार्य रूप से भारी संख्या में होने वाली मौतें दर्ज करने का कलंक है. 2019 में एमएसआरएस पर होने वाली सभी 2,691 मौतों को दुर्भाग्यशाली घटनाओं के कारण हुई मौत करार दिया गया. मरने वालों में से 52 फ़ीसद (1,400) मौतें पटरी पार करने वालों की थीं. हताहतों की दूसरी सबसे बड़ी वजह भीड़ भरी ट्रेनों से गिरना था, जिसमें 600 लोगों की जान गई.
स्रोत: जीआरपी, सीआर और डब्ल्यूआर डेटा और एनडीटीवी, मुंबई मिरर, टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, डीएनए और हिंदुस्तान टाइम्स की समाचार रिपोर्ट.
पिछले क़रीब 10 वर्षों में सेंट्रल रेलवे और वेस्टर्न रेलवे दोनों द्वारा किए गए कई सक्रिय प्रयासों ने सुनिश्चित किया है कि एमएसआरएस हालांकि, जहां इन मौतों के लिए कोई सीधे दोषी नहीं है, फिर भी रेलवे को इन मौतों को रोकने की अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त नहीं किया जा सकता है. जहां एमएसआरएस पर रोज़ाना 8 लोगों की मौत होती है, वहीं भारतीय रेलवे के बाकी पूरे राष्ट्रीय नेटवर्क में रोज़ाना 22 मौतें होती हैं, जिनमें पटरी पार करने के कारण और भीड़ वाली ट्रेनों से गिरना दोनों सबसे बड़ा कारण है. पटरी पार करना हालांकि रेलवे के नियंत्रण से परे कारक के तौर पर स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन भीड़भाड़ वाली ट्रेनों से गिरने, प्लेटफार्म और पटरी के बीच की खाली जगह में गिरने, और ट्रेनों के फुटबोर्ड पर लटकते समय सिग्नल के खंभे से टकराने जैसी घटनाएं मुख्य रूप से बहुत ज्यादा भीड़भाड़ की वजह से होती हैं. एमएसआरएस के मामले में, दैनिक यात्रियों के पास बहुत कम विकल्प होते हैं और उन्हें ख़तरनाक तरीके से यात्रा करनी पड़ती है, क्योंकि ट्रेनों में बहुत ज़्यादा भीड़ रहती है, ख़ासकर व्यस्त घंटों के समय के दौरान. यह समझने की ज़रूरत है कि भारतीय रेलवे देश के सबसे बड़े परिवहन प्रदाता के रूप में एकाधिकार का लाभ उठाता है और यह सुनिश्चित करना उसकी ज़िम्मेदारी है कि किसी भी यात्री को जीवन के लिए ख़तरा पैदा करने वाली स्थितियों में न डाला जाए. इस तरह की मौतों को केवल विशालकाय क्षमता बढ़ाने वाली परियोजनाएं शुरू करने और उनके समय पर पूरा किए जाने को तत्काल शुरू कर कम किया जा सकता है. कीमती ज़िंदगी को बचाने के लिए उनके प्रत्यक्ष असर को देखते हुए, रेल मंत्रालय को ऐसी सभी परियोजनाओं के लिए तत्काल योजना बनाने और प्राथमिकता से अमल करना चाहिए.
यह आम अनुभव है, ख़ासतौर से देश भर के छोटे रूट के स्टेशनों पर आने वाली ट्रेन अंतिम समय में पहले से घोषित प्लेटफार्म से दूसरे पर स्थानांतरित हो जाती है. इस तरह के अंतिम-मिनट के बदलाव से ट्रेन का इंतज़ार कर यात्रियों में भगदड़ मच जाती और वे फुटओवर-ब्रिज (एफ़ओबी) का इस्तेमाल कर लंबी और थकाऊ दूरी तय करने के बजाय, भारी सामान के साथ पटरियों से कूद कर दूसरे प्लेटफ़ॉर्म पर जाते हैं. अक्सर, ऐसे टाले जा सकने वाले बदलावों के नतीजे में एफ़ओबी पर भी जानलेवा हादसे हो जाते हैं. एमएसआरएस पर, जब व्यस्त घंटों के दौरान उपनगरीय ट्रेनों पर निर्भर जीवन में एक मिनट भी कीमती है, तो भी इस तरह जबरन रेलवे लाइन पार कराना रोज़मर्रा की बात है. इस तरह के टाले जा सकने वाले कारणों से होने वाली मौतों को मौजूदा समय-सारणी को, जिसमें यह सुनिश्चित किया जाए कि हर आने वाली ट्रेन को रास्ते के सभी स्टेशनों पर खड़े होने के लिए एक तयशुदा प्लेटफार्म मिल सके, नए तरीके अपनाकर टाला जा सकता है.
यह मुमकिन होगा पर्याप्त संख्या में एस्केलेटर से लैस एफ़ओबी और सबवे का निर्माण करके. मुंबई में, स्टेशनों के बीच पटरियों पर सबसे अधिक रेलवे लाइन पार करने की घटनाएं एफ़ओबी और अंडरपास, जो सुरक्षित रास्ता तय करने का मौका देते हैं, की कमी के चलते होती हैं.
इसके साथ ही राज्य सरकारों, स्थानीय प्रशासन और संबंधित सार्वजनिक संस्थाओं को रेलवे लाइन पार करने से होने वाली मौतों के लिए सामूहिक रूप से जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए. राज्य/ स्थानीय सरकारों को रेलवे के साथ सहयोग (और ऐसा दूसरे पक्ष की तरफ़ से भी होना चाहिए) करना चाहिए और उन सभी स्टेशन इलाकों में अवैध घुसपैठ को खत्म करना चाहिए, जहां बीते करीब 15 वर्षों में रेलवे लाइनों के दोनों ओर इंसानी बस्तियों की भारी बढ़ोत्तरी हुई है. यह मुमकिन होगा पर्याप्त संख्या में एस्केलेटर से लैस एफ़ओबी और सबवे का निर्माण करके. मुंबई में, स्टेशनों के बीच पटरियों पर सबसे अधिक रेलवे लाइन पार करने की घटनाएं एफ़ओबी और अंडरपास, जो सुरक्षित रास्ता तय करने का मौका देते हैं, की कमी के चलते होती हैं. अगर ऐसी जरूरी सुविधाओं का युद्धस्तर पर समुचित प्रावधान किया जाए तो ऐसी मौतों में कमी आ सकती है. इस तरह की सुविधाओं के प्रावधान के बाद भी अपराध करने वाले अनाधिकार प्रवेश करने वालों को कानून के कठोर प्रावधानों से दंडित किया जाना चाहिए.
फरवरी 2012 में डॉ. अनिल काकोदकर की अध्यक्षता में गठित उच्च-स्तरीय सुरक्षा समीक्षा समिति द्वारा पेश रिपोर्ट ने एमएसआरएस पर हुई मौतों को “नरसंहार जिसे कोई भी सभ्य समाज स्वीकार नहीं कर सकता” कहा है. इसने साफ तौर से कहा था कि “इन मौतों, जो ट्रेन दुर्घटनाओं के दायरे में नहीं आती हैं मगर ट्रेन दुर्घटनाएं हैं, का जिम्मा लेने की भारतीय रेलवे अनिच्छुक है, मगर इसकी कतई अनदेखी नहीं कि जा सकती है.” आठ साल बाद, रेलवे बोर्ड को लिखे अपने पत्र में नीति आयोग सीईओ ने इसी मुद्दे को नए सिरे से उठाया है. लेकिन शर्मनाक हकीकत यह है कि हजारों लोग मरते रहे और किसी को जवाबदेह नहीं ठहराया गया, यहां तक कि भारतीय रेलवे शून्य मृत्यु का दावा भी कर सकता है.
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Dhaval is Senior Fellow and Vice President at Observer Research Foundation, Mumbai. His spectrum of work covers diverse topics ranging from urban renewal to international ...
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