Author : Manoj Joshi

Published on Jul 06, 2018 Updated 0 Hours ago

प्रतिभाओं की कमी से जूझती मोदी सरकार ने पिछले चार सालों में राजनियक और नीतिगत मोर्चे पर अनाड़ीपन दिखाया है और कई मौकों पर तो सरकार बिल्कुल ही अक्षम नजर आई है। इन हालात में कोई सुधार होता भी नजर नहीं आ रहा है।

बरसों से लड़खड़ाती भारतीय विदेश नीति

इसकी एक बानगी फिर नजर आई है। ये कहानी है किसी की भी बात न सुनने की जिद पाले हुए भारतीय अधिकारियों औऱ राजनयिकों की जिन्हें मलक्का जलडमरू मध्य के तटों से जुड़े देशों की गतिविधियों और नियमों के बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी और यह तब स्पष्ट हुआ जब अधिकारी इसी महीने हुई विशेषज्ञों की बैठक में शामिल हुए जिसमें भारत के मलक्का स्ट्रेट्स पैट्रोल यानी एमएसपी और आईज इन द स्काई यानी ईआईएस अभियान के प्रस्ताव पर चर्चा होनी थी।

भारतीय खेमे ने जरा सा भी होमवर्क नहीं किया था और साफ तौर पर उन्हें समझ नहीं आया था कि इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर और थाइलैंड के बीच ये चतुष्कोणीय समझौता किस तरह से काम करता है। मलक्का स्ट्रेट्स पैट्रोल यानी एमएसपी के तहत तटीय इलाकों के राज्य अपने-अपने क्षेत्रों में पेट्रोलिंग करते हैं। इसका मतलब ये होता है कि ये पेट्रोलिंग संयुक्त तौर पर होने की बजाय समन्वित तरीके से की जाती है। इसके साथ ही ‘आईज इन द स्काई’ (ईआईएस) के तहत भी सभी चारों देशों के प्रतिनिधि उस एयक्राफ्ट मे होते हैं जिससे पेट्रोलिंग की जाती है।

पूरे मामले से जो बात उभर कर सामने आई वो थी भारत की महात्वाकांक्षा जिसके तहत उसने अपनी नौसेना के युद्धपोतों और समुद्री निगरानी करने वाले एयरक्राफ्ट को मलक्का जलडमरूमध्य की निगरानी के लिए भेज दिया। इंडोनेशिया को भी भारतीय विशेषज्ञों को जानकारी देनी पड़ी की संयुक्त राष्ट्र के समुद्री नियमों (यूएनसीएलओएस) के मुताबिक किसी भी जलडमरू मध्य से जुड़े देश ही उसकी निगरानी में शामिल हो सकते हैं। इससे भी बड़ी असफलता थी आसियान देशों की संस्कृति को न समझ पाने की, जिसमें आपसी सहमति के व्यवहार और बिना किसी दिखावे के संबंधों को मजूबत करने पर जोर रहता है।

सवाल सामर्थ्य का

पिछले कुछ समय से नरेन्द्र मोदी सरकार की काबिलियत पर सवाल उठने लगे हैं। विमुद्रीकरण का विनाशकारी कदम, जिससे असंगठित क्षेत्र में बड़ी संख्या में नौकरियां खत्म हो गईं, इसका एक ज्वलंत उदाहरण है। आज भी कोई नहीं जानता कि आखिर प्रधानमंत्री को ये कदम उठाने की सलाह किसने दी थी जिसकी वजह से आम आदमी को इतनी तकलीफ झेलनी पड़ी और जिसका उसे फायदा भी नहीं हुआ।

इसके बाद ढीले ढाले तरीके से जीएसटी यानी गुड्स एंड सर्विसेस टैक्स लागू किया गया। बाद के महीनों में यह स्पष्ट हो गया कि जीएसटी के चलते राजस्व में कमी आई। एक बड़ी मुसीबत 1 फरवरी 2018 को आई जब ई-वे बिलिंग सिस्टम बुरी तरह से ध्वस्त हो गया जिसे देशभर में सामानों के आवागमन पर इलेक्ट्रॉनिक निगरानी के लिए लागू किया गया था। इसके पीछे नेटवर्क की समस्याओं के साथ ही इसको लागू करने की जटिल प्रणाली भी जिम्मेदार थी। फौरन ही जीएसटी काउंसिल ने इस सारी प्रक्रिया को रोक देने का फैसला कर दिया।

मार्च 2018 की अपनी बैठक में , जीएसटी काउंसिल ने गलतियों को स्वीकार किया और इसके बाद इस पूरी प्रणाली को चरणबद्ध तरीके से लागू करने का फैसला लिया गया।

मोदी सरकार की विफलता की ताजातरीन मिसाल दिखी एयर इंडिया के विनिवेश की प्रक्रिया के दौरान। 31 मई, यानी एयर इंडिया में 76 फीसदी हिस्सेदारी की खरीद के लिए बोली लगाने के आखिरी दिन, कोई भी निवेशक सामने नहीं आया।

इसके पीछे सरकार की शर्ते सबसे बड़ा कारण थीं। सबसे पहली बात कि सरकार चाहती थी कि जो भी खरीददार आये वो सिर्फ एयर इंडिया को ही नहीं बल्कि इसकी दो सब्सिडियरी संस्थाओं यानी एयर इंडिया एक्सप्रेस और एयर इंडिया एयरपोर्ट सर्विसेज को भी खरीदे। इसके साथ ही निवेशक को एयरइंडिया का 24,576 करोड़ का कर्ज भी झेलना पड़ता। इतना ही नहीं 24 फीसदी हिस्सेदारी सरकार के पास रहती और अगले एक साल तक एय़रलाइन्स के भारी भरकम स्टाफ में से किसी को भी नौकरी से नहीं निकाला जा सकता था। बहुत से निवेशकों को ऐसा लगा कि सरकार की हिस्सेदारी रहने की वजह से ऑपरेशन संबंधी कार्यों में बार-बार हस्तक्षेप होने की आशंका बनी रहेगी और नये प्रबंधन को ज्यादा स्टाफ से निपटने में पूरी तरह से आजादी नहीं मिलेगी।

इस मुद्दे पर लगभग सभी विशेषज्ञों ने यही भविष्यवाणी की थी कि ऐसी अजीबोगरीब शर्तों के साथ निवेशकों को खोज पाना लगभग नामुमकिन होगा, लेकिन किसी की भी न सुनने वाली इस सरकार ने इन बातों को तवज्जो नहीं दी।

मामला नाकारेपन का है

भले ही सरकार लाख दावे कर ले और शोर मचा ले, लेकिन विदेश नीति के मामले में मोदी सरकार का प्रदर्शन काफी बुरा रहा है। अब तो यह पहले से भी बुरे हालात में पहुंच चुकी है। एक तरफ मोदी पाकिस्तान को लुभाने के लिए नवाज शरीफ के जन्मदिन पर खुद लाहौर पहुंच गये तो दूसरी तरफ बिल्कुल विपरीत कदम उठाते हुए सीमा पर जवाबी गोलीबारी करने और हर वैश्विक मोर्च पर पाकिस्तान की आलोचना करने लगे। अब जबकि बड़ी संख्या में नागरिकों और सुरक्षा बलों की जान चली गई, तब जाकर भारत सीजफायर पर राजी हो गया।

नेपाल के मामले में तो नौकरशाही इतनी नाकारा निकली कि वो काठमांडू से उस संविधान में संशोधन करवाना चाहती थी जो चार दिन बार लागू होना था। इसके बाद खीझ मिटाने के क्रम में इस पड़ोसी देश की नाकाबंदी करवा दी गई। इन सारी वजहों से नेपाल में भारत विरोधी भावनाओं को ही बढावा मिला जिसके चलते केपी शर्मा ओली प्रधानमंत्री बने।

चीन के साथ भी यही हुआ। एक बार जब झी जिनपिंग औऱ मोदी ने एक दूसरे के देशों का 2014 औऱ 2015 में दौरा किया औऱ संबंधों में गर्मजोशी दिखने लगी तो फिर से सरकार ने हालात खराब कर दिये। इस बार सरकार ने तिब्बत कार्ड खेला और राजनयिक भाषा में कहें तो मेगाफोन डिप्लोमेसी का सहारा लेते हुए चीन से एनएसजी ग्रुप में भारत का समर्थन करने और संयुक्त राष्ट्र परिषद में मसूद अजहर को आतंकवादी घोषित करने के प्रस्ताव पर समर्थन की सार्वजनिक तौर पर मांग कर डाली। हाल के दिनों में फिर से भारत को अपने कदम खींचने पड़े और सार्वजनिक तौर पर तिब्बत कार्ड औऱ बयानबाजी को खत्म करना पड़ा।

जम्मू-कश्मीर के मसले को ठीक से न संभाल पाना एक अलग मुद्दा है। मोदी के कुछ सलाहकारों ने उन्हें यह राय दे डाली कि लगातार सख्त कार्रवाइयों से इस मुद्दे को हमेशा के लिए हल किया जा सकता है। इसका नतीजा ये हुआ कि सुरक्षाबलों ने जबरदस्त अभियान चलाया जिसमें बड़ी संख्या में आतंकवादी मारे गये। लेकिन बंदूक थामने वाले युवाओं की संख्या कम होने की बजाय बढ़ गई। इसके साथ ही सुरक्षाबलों को बड़ी संख्या में लोगों के विरोध प्रदर्शनों का सामना करना पड़ा क्योंकि वो आतंकवादियों के खिलाफ अभियान चला रहे थे। इसके बाद सरकार ने दिनेश्वर शर्मा को वार्ताकार नियुक्त कर दिया और माहौल को शांत करने की कोशिश की लेकिन शर्मा महज कठपुतली बनकर रह गये

शुरुआत से ही ये साफ था कि मोदी की टीम में प्रतिभा और काबिलियत की कमी थी। अपनी प्राथमिकताओं को पूरा करने के क्रम में उन्होंने अनुभवी भाजपा नेताओं जैसे कि यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी औऱ बीसी खंडूरी आदि को मंत्रिमंडल से बाहर रखा। इतना ही नहीं नौसिखिये लोगों जैसे कि स्मृति ईरानी और निर्मला सीतारमण को उनके अनुभव और प्रतिभा से कही ज्यादा ऊंचे स्तर के मंत्रालय दे दिये गये।

सुरेश प्रभु जिन्हें स्टार परफॉर्मर कहा जा रहा था, वो अपना रेलवे मंत्रालय ठीक से नहीं संभाल पाये और उन्हें वाणिज्य मंत्रालय देना पड़ा। जुलाई 2016 के बड़े मंत्रिमंडल फेरबदल में इन गलतियों को ठीक करने और प्रतिभाओं को सामने लाने का मौका था, लेकिन मोदी ने सिर्फ मंत्रालय फेंट डाले और कुछ जूनियर मंत्रियों की कुर्सी छीनने के अलावा और कुछ नहीं किया।


ये लेख मूल रूप से द वायर में पब्लिश हुई थी।

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