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हमें कहा जा रहा है कि भारत के रणनीतिक हितों के लिए ईरान कितना महत्वपूर्ण है और हमें “सभ्यताओं के संबंध” जैसी बेहद दुरुपयोग की गई धारणा की याद दिलाई जाती है.
जैसा कि हर कुछ वर्षों के बाद होता है, ईरान का सवाल एक बार फिर भारतीय विदेश नीति को परेशान करने के लिए आ गया है. ऐसी आवाज़ें तेज़ हो रही हैं जो मानती हैं कि भारत और ईरान के बीच दूरी बढ़ रही है. हमें कहा जा रहा है कि भारत के रणनीतिक हितों के लिए ईरान कितना महत्वपूर्ण है और हमें “सभ्यताओं के संबंध” जैसी बेहद दुरुपयोग की गई धारणा की याद दिलाई जाती है. फिर हमें चेतावनी दी जाती है कि अमेरिकी दबाव की वजह से ईरान के साथ अपने संबंधों को भारत नज़रअंदाज़ कर रहा है. हमें बताया जाता है कि ये कितना बड़ा नुक़सान होगा और भारतीय विदेश नीति की पूरी इमारत ढह सकती है क्योंकि ईरान के साथ संबंधों को विकसित करने में हम नाकाम रहे हैं. वास्तव में पिछले दो दशक के दौरान ईरान के अलावा किसी दूसरे देश का भारतीय विदेश नीति पर इतना ज़्यादा असर नहीं रहा है.
भारत-ईरान संबंधों को ताज़ा झटका इस ख़ुलासे से लगा है कि भारत को शायद चाबहार बंदरगाह से ज़ाहेदान तक की रेल लाइन के निर्माण की परियोजना से बाहर कर दिया गया है. ये रेल लाइन परियोजना 2016 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के तेहरान दौरे में त्रिपक्षीय समझौते के तहत तय की गई थी. इसके तहत अफ़ग़ानिस्तान और ईरान ने अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया के लिए वैकल्पिक व्यापार मार्ग के निर्माण का वादा भारत से किया था. क़रीब 1.6 अरब अमेरिकी डॉलर की इस परियोजना का ज़िम्मा इंडियन रेलवे कंस्ट्रक्शन लिमिटेड (IRCON) को सौंपा गया था. इस साल की शुरुआत में फ़रज़ाद-बी गैस फील्ड के विकास का काम भी ईरान ने एक घरेलू कंपनी को सौंप दिया. पहले इस परियोजना को पूरा करने का काम ईरान और ONGC विदेश लिमिटेड (OVL) के संयुक्त उपक्रम को दिया गया था. ईरान ने फ़ैसला लिया कि “नज़दीकी भविष्य में ईरान गैस फील्ड को विकसित करने का काम ख़ुद करेगा और बाद के चरण में उचित समय पर भारत को इसमें शामिल करना चाहता है.”
भारत-ईरान संबंधों को ताज़ा झटका इस ख़ुलासे से लगा है कि भारत को शायद चाबहार बंदरगाह से ज़ाहेदान तक की रेल लाइन के निर्माण की परियोजना से बाहर कर दिया गया है. ये रेल लाइन परियोजना 2016 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के तेहरान दौरे में त्रिपक्षीय समझौते के तहत तय की गई थी.
ईरान के इन फ़ैसलों की वजह से भारत में भारतीय विदेश नीति की नाकामी को लेकर ज़ोरदार बहस शुरू हो गई है. लेकिन विदेश नीति कोई ऐसी चीज़ नहीं है कि जिसको लेकर कोई देश ख़ुद को घेरे. इसकी परिभाषा के मुताबिक़ ये ऐसी प्रक्रिया है जिसमें एक से ज़्यादा सत्ता शामिल होती है. ये न सिर्फ़ एक देश दूसरे देश के साथ क्या करता है पर निर्भर है बल्कि दूसरी सत्ता उस देश के साथ क्या करती है, वो भी इसमें शामिल है. इस तरह भारत का अपना एजेंडा और प्राथमिकता हो सकती है लेकिन ईरान का अपना एजेंडा और प्राथमिकता बिल्कुल अलग हो सकती है.
और ये लंबे समय से ऐसा रहा है. ईरान की विदेश नीति को गढ़ने के लिए लिए भारत महत्वपूर्ण तो है लेकिन बेहद ज़रूरी नहीं. अमेरिका वो देश है जिसके हिसाब से ईरान की विदेश नीति तय होती है. भारत में आलोचक अक्सर ये दलील देते हैं कि भारत ने अमेरिका के दबाव में ईरान को नज़रअंदाज़ कर दिया है लेकिन हक़ीक़त ठीक इसके उलट है. ईरान ने न सिर्फ़ भारत को नज़रअंदाज़ किया बल्कि भारत के घरेलू मामलों में दखल देकर भारत-ईरान संबंधों को बिगाड़ने की पूरी कोशिश की. ईरान की कूटनीति के लिए अमेरिकी आर्थिक पाबंदियों से निपटना पहली प्राथमिकता है.
ईरान पर ट्रंप प्रशासन की सख़्ती और यूरोप की तरफ़ से वादों को पूरा करने में नाकामी की वजह से ईरान के लिए स्वाभाविक है कि वो चीन की तरफ़ बढ़े. पिछले कई दशकों से ईरान में चीन की मौजूदगी बढ़ती जा रही है और भविष्य में ये और बढ़ेगी क्योंकि ईरान के पास और कोई चारा नहीं है. ख़बरों के मुताबिक़ चीन के साथ ईरान 25 वर्षों के लिए 400 अरब अमेरिकी डॉलर की आर्थिक और सुरक्षा साझेदारी को अंतिम रूप दे रहा है. ये ईरान के शासन की हताशा को बताता है जिसने शुरुआत में मदद के लिए पश्चिमी देशों की तरफ़ हाथ बढ़ाया था.
ये बंदरगाह वास्तव में भारत का रणनीतिक निवेश है क्योंकि इसके ज़रिए पाकिस्तान के रास्ते का इस्तेमाल किए बिना अफ़ग़ानिस्तान और व्यापक मध्य एशियाई क्षेत्र के लिए वैकल्पिक रास्ता खुल गया है. भारत ने इस महत्वपूर्ण निवेश को जिसमें रेल लाइन परियोजना शामिल है, अमेरिकी आर्थिक पाबंदियों से बचाने में कामयाबी हासिल की है
यहां पर ये महत्वपूर्ण है कि ईरान में भारत की भूमिका का परीक्षण निष्पक्ष तरीक़े से किया जाए. अगर किसी एक देश ने अमेरिका की बढ़ती पाबंदियों के समय ईरान में असली नतीजे देने में कामयाबी हासिल की तो वो भारत है. उदाहरण के तौर पर, शुरुआती देरी के बावजूद चाबहार परियोजना के पहले चरण का उद्घाटन दिसंबर 2017 में किया गया और तब से भारत शाहिद बेहेस्ती टर्मिनल चला रहा है. ये बंदरगाह वास्तव में भारत का रणनीतिक निवेश है क्योंकि इसके ज़रिए पाकिस्तान के रास्ते का इस्तेमाल किए बिना अफ़ग़ानिस्तान और व्यापक मध्य एशियाई क्षेत्र के लिए वैकल्पिक रास्ता खुल गया है. भारत ने इस महत्वपूर्ण निवेश को जिसमें रेल लाइन परियोजना शामिल है, अमेरिकी आर्थिक पाबंदियों से बचाने में कामयाबी हासिल की है. अगर भारत-ईरान एकता को लेकर खोखली राय होती तो ऐसा नहीं हो पाता. भारत ऐसा इसलिए कर पाया क्योंकि परियोजना के पीछे स्पष्ट रणनीतिक बुद्धिमानी थी जिसकी वजह से भारत-ईरान एक-दूसरे के साथ आए.
भारत में तमाम चर्चाओं के बावजूद ईरान भारतीय योगदान को लेकर संवेदनशील बना हुआ है. जब भारत में विवाद बढ़ा तब ईरान के रेल मंत्री ने फ़ौरन इस बात पर ज़ोर दिया कि ईरान और भारत रेल लाइन में सहयोग जारी रखने को लेकर दृढ़ हैं. उन्होंने ईरान के द्वारा चाबहार-ज़ाहेदान रेलवे से भारत को बाहर करने की ख़बरों के पीछे “निहित स्वार्थ” को ज़िम्मेदार बताया.
ये सच्चाई है कि अमेरिकी आर्थिक पाबंदियों की वजह से भारत समेत दुनिया के दूसरे देशों के साथ संबंध बनाने की ईरान की कोशिशों पर असर बरकरार है. परियोजना के लिए ईरान इस्लामिक रेवोल्यूशनरी गार्ड कोर (IRGC) की कंपनी ख़तम अल-अनबिया कंस्ट्रक्शन को रखने की ज़िद कर रहा है जबकि भारत नहीं चाहता कि उसकी कोई कंपनी इस वजह से अमेरिकी आर्थिक पाबंदियों की जद में आए. इसी वजह से ये मौजूदा गतिरोध बन गया है. यहां तक कि चीन भी अमेरिकी आर्थिक पाबंदियों को लेकर अत्यंत सावधान है. एक तरफ़ जहां चीन-ईरान समझौता इस वक़्त चर्चा में है वहीं दूसरी तरफ़ ये साफ़ नहीं है कि चीन ने जिस 400 अरब अमेरिकी डॉलर का वादा किया है उसमें से कितना बिना किसी दिक़्क़त के ईरान को मिलेगा.
ईरान का नेतृत्व हाल के महीनों में भारत के घरेलू मामलों को लेकर मुखर होता जा रहा है. चाहे अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने का भारत का फ़ैसला हो या नये नागरिकता क़ानून को लेकर इस साल सांप्रदायिक दंगा हो- भारत के साथ संबंधों को लेकर अरब विश्व की बड़ी ताक़तों के रुख़ में बड़ा बदलाव हुआ है
जहां ईरान की विदेश नीति में अमेरिका के साथ ख़राब संबंध सबसे ऊपर है, वहीं भारत के लिए अमेरिका और अरब देशों के साथ संबंध मायने रखता है. ईरान के साथ संबंध बेहतर बनाने के लिए इसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. ईरान का नेतृत्व हाल के महीनों में भारत के घरेलू मामलों को लेकर मुखर होता जा रहा है. चाहे अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने का भारत का फ़ैसला हो या नये नागरिकता क़ानून को लेकर इस साल सांप्रदायिक दंगा हो- भारत के साथ संबंधों को लेकर अरब विश्व की बड़ी ताक़तों के रुख़ में बड़ा बदलाव हुआ है. वो ज़्यादा व्यावहारिक ढंग से भारत के साथ संबंधों को निभा रही हैं.
ऐसे में अब ये ईरान को पता होना चाहिए कि इस क्षेत्र में और इसके आगे भारत के कई साझेदार हैं जिनके साथ दांव पर बहुत कुछ है. लेकिन इसके बावजूद ईरान और उसकी महत्वाकांक्षाओं का भारत लगातार समर्थन करता रहा है. द्विपक्षीय संबंधों को बनाये रखना अकेले भारत की ज़िम्मेदारी नहीं है. अगर ईरान ये फ़ैसला लेता है कि भारत गैर-ज़रूरी है तो भारत भी आसानी से ये तय कर सकता है. निश्चित तौर पर भारत को इसकी क़ीमत चुकानी होगी लेकिन ईरान को जो क़ीमत चुकानी होगी वो भारत से काफ़ी ज़्यादा हो सकती है.
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Professor Harsh V. Pant is Vice President – Studies and Foreign Policy at Observer Research Foundation, New Delhi. He is a Professor of International Relations ...
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