Author : Mark Linscott

Published on Aug 12, 2019 Updated 0 Hours ago

अभी बड़े मतभेदों पर दोनों देशों के बीच सहमति आसान नहीं होगी, लेकिन अगर दोनों देश खुले मन से बातचीत करें और कुछ समझौते के लिए तैयार हो जाएं तो बात बन सकती है.

नाज़ुक दौर से गुज़रते भारत-अमेरिका व्यापार संबंध

भारत और अमेरिका के बीच व्यापार और निवेश (व्यावसायिक) कई वर्षों से नियमित तौर पर बढ़ रहा है. इसका भविष्य रोमांचक और परिवर्तनकारी हो सकता है, लेकिन दशकों से दोनों देशों की तरफ से व्यापारिक रिश्ते की अनदेखी होती आई है. कभी-कभी इसमें तल्खी भी आ जाती है तो कभी विवाद पैदा हो जाते हैं.

विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में भारत और अमेरिका एक दूसरे को ऐसे खेमे के नेता के तौर पर देखते रहे हैं, जो मल्टीलेटरल सिस्टम (बहुउद्देश्यीय व्यवस्था) के भविष्य को लेकर संघर्षरत है. इसकी तुलना मध्ययुगीन इंग्लैंड में सत्ता के उस संघर्ष से की जा सकती है, जिसे ‘वॉर ऑफ रोजेज’ कहा जाता है. यह युद्ध टुडॉर राज परिवार के उभार से खत्म हुआ, जो लैंकास्टर और यॉर्क को 15वीं सदी में साथ लाने में सफल रहा. इसी तरह भारत और अमेरिका के व्यापारिक रिश्तों में नए युग की शुरुआत नहीं होती, तब तक यह अनबन और मन-मुटाव जारी रहेगा. दोनों के बीच द्विपक्षीय व्यापार का भी यही हाल है. कई वर्षों तक दोनों में से किसी ने भी इसे बढ़ाने पर ध्यान नहीं दिया. उनके बीच नियमित अंतराल पर बैठकें होती रहीं, जिनमें एक दूसरे की वजह से होने वाली परेशानियों का जिक्र किया जाता रहा. साल में कभी-कभार मंत्रिस्तर की बातचीत भी होती है तो उसके बाद जारी होने वाले बयानों में एक दूसरे को उलाहना ही दिया जाता है.

भारत और अमेरिका के व्यापारिक संबंध आज दोराहे पर हैं. दोनों के बीच तनाव अप्रत्याशित स्तर तक बढ़ गया है. दोनों ने एक दूसरे पर ऐसी पाबंदियां लगाई हैं, जिनसे व्यापारिक हितों को नुकसान पहुंच रहा है.

यह दोनों देशों के बीच रक्षा क्षेत्र में बढ़ते सहयोग का उलटा है, जिसमें पिछले दो दशकों में ज़बरदस्त सुधार हुआ है. क्लिंटन और जॉर्ज डब्ल्यू. बुश की सरकारों के वक्त से भारत के साथ अमेरिका के रक्षा संबंध काफी मज़बूत हुए हैं. कई लोगों का कहना है कि व्यापारिक संबंध भी इससे निर्देशित होने चाहिए, लेकिन ये लोग भारत और अमेरिका के बीच ऐसे मजबूत व्यापारिक रिश्ते की अहमियत नहीं समझते, जो अपने पांव पर खड़ा रहे. सच है कि व्यापारिक रिश्तों को रक्षा संबंधों से ऊपर नहीं रखा जा सकता, लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं होना चाहिए कि रक्षा संबंधों को व्यापारिक रिश्तों के ऊपर नहीं रखना जाना चाहिए. दोनों ही क्षेत्रों में स्वतंत्र लेकिन एक दूसरे को सहारा देने वाले संबंध बनाने के लिए काफी जतन करने पड़ते हैं. उसे मजबूत बनाने की काफी कोशिश करनी पड़ती है. डोनल्ड ट्रंप सरकार से पहले इसकी कई मिसालें थीं. अमेरिका के यूरोपीय संघ, जापान, दक्षिण कोरिया, कनाडा आदि के साथ ऐसे ही रिश्ते थे और यह लिस्ट बहुत लंबी है. भारत और अमेरिका के व्यापारिक संबंध आज दोराहे पर हैं. दोनों के बीच तनाव अप्रत्याशित स्तर तक बढ़ गया है. दोनों ने एक दूसरे पर ऐसी पाबंदियां लगाई हैं, जिनसे व्यापारिक हितों को नुकसान पहुंच रहा है. दोनों मुल्कों ने संरक्षणवादी कदम उठाए हैं. इससे ऐसी आवाजें मजबूत हुई हैं, जो व्यापारिक मामलों के रत्ती भर की छूट दूसरे पक्ष को देने के लिए तैयार नहीं हैं. जो आंख के बदले आंख की सोच को सही मानती हैं. इस दोराहे से एक तरफ ज़रा सा आगे बढ़े तो टकराव और बढ़ेगा और सुलह काफी मुश्किल हो जाएगी. दूसरे रास्ते पर कदम बढ़ाने पर सुलह हो सकती है और आपसी भरोसे और सहयोग का नया दौर शुरू हो सकता है. शायद यह रास्ता साफ न दिख रहा हो और टकराव की आशंका कहीं ज्यादा दिख रही हो, लेकिन इस मसले का हल निकल सकता है. इसके लिए क्या करना होगा? मैं यह नहीं कह रहा कि काम आसान है, लेकिन इसे पूरा किया जा सकता है. इसके लिए नीचे दिए गए कदम उठाने होंगे –

  • तनाव और न बढ़े: इसकी पहल तुरंत की जानी चाहिए: अमेरिका ने भारत से जनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ़ प्रेफरेंसेज़ (जीएसपी) बेनेफिट्स यानी कई चीजों का निर्यात बढ़ाने की रियायतें वापस ले ली हैं, बदले में भारत ने अमेरिकी स्टील और एल्युमीनियम पर सीमा शुल्क बढ़ा दिया है. अगर अमेरिका धारा 301 की समीक्षा शुरू करता है तो यह झगड़ा, व्यापार युद्ध में बदल सकता है. अभी बड़े मतभेदों पर दोनों देशों के बीच सहमति आसान नहीं होगी, लेकिन अगर दोनों देश खुले मन से बातचीत करें और कुछ समझौते के लिए तैयार हो जाएं तो बात बन सकती है.
  • संस्थाओं को मज़बूत बनाया जाए: इस विवाद को खत्म करने में यूएस ट्रेड रिप्रजेंटेटिव (यूएसटीआर यानी अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि) और भारत के वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय (एमओसीआई यानी मिनिस्ट्री ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री) की केंद्रीय भूमिका होगी. इन दोनों को ही शीर्ष नेताओं से समस्या खत्म करने और संबंधित मंत्रालयों व विभागों के साथ तालमेल करने का निर्देश दिया जाना चाहिए. यह काम भारत के लिए अधिक चुनौतीपूर्ण है क्योंकि कुछ साल के अंतराल पर अधिकारी बदलते रहते हैं. इसका हल यह हो सकता है कि भारत एक व्यापार संस्था बनाए, जिसमें बातचीत के लिए यूएसटीआर की तरह स्थायी अधिकारी हों. यूरोपीय संघ में भी डीजी ट्रेड ऐसी ही संस्था है.
  • ट्रेड पॉलिसी फोरम (टीपीएफ) के प्रति प्रतिबद्धता जताई जाए: कुछ लोग कहते हैं कि व्यापार को रक्षा सहयोग के तहत रखना चाहिए, लेकिन यह सोच ठीक नहीं है. इससे मुश्किलें और बढ़ेंगी. इसके बजाय अगर टीपीएफ की मीटिंग समय-समय पर हो, इसमें मंत्रिस्तर और दूसरे सीनियर अफसर शामिल हों. व्यापार वार्ता करने वाले अफसरों को एक हाथ दे, एक हाथ ले के निर्देश के साथ अधिकार दिए जाएं तो भविष्य में सफलता मिल सकती है.
  • पिछले सहयोग को आगे बढ़ाया जाए: हाल के वर्षों में डब्ल्यूटीओ ट्रेड फैसिलिटेशन एग्रीमेंट (टीएफए) को लागू करने में दोनों देशों के अधिकारियों के बीच सहयोग दिखा था, जबकि इस पर जब 2013 में बाली में बातचीत शुरू हुई थी तो दोनों के बीच मतभेद थे. इस मॉडल का इस्तेमाल दूसरे क्षेत्रों, मसलन- इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स (बौद्धिक संपदा अधिकार), डिजिटल ट्रेड और रेगुलेटरी सहयोग में भी हो सकता है.
  • मुक्त बाजार पर सहमति की संभावना तलाशी जाए: यह काम मुश्किल है, लेकिन ऊपर जो सुझाव दिए गए हैं, अगर उन पर अमल किया जाए तो आने वाले वर्षों में इसकी भी सूरत बन सकती है. जब तल्खी दूर हो जाएगी, वार्ताकारों के पास फैसले लेने का अधिकार होगा, मंत्रियों के बीच नियमित तौर पर बैठकें होंगी और परस्पर सहयोग के फायदे दिखने लगेंगे, तब भारत और अमेरिका के बीच मार्केट एक्सेस एग्रीमेंट यानी मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) भी हो सकता है. इसमें सरकार की खरीदारी, एक दूसरे के नियामकों (रेगुलेटर्स) के फैसलों को मान्यता देना या ट्रेड इन सर्विसेज जैसे विकल्प शामिल हो सकते हैं.
    • तनाव और न बढ़े: इसकी पहल तुरंत की जानी चाहिए: अमेरिका ने भारत से जनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ़ प्रेफरेंसेज़ (जीएसपी) बेनेफिट्स यानी कई चीजों का निर्यात बढ़ाने की रियायतें वापस ले ली हैं, बदले में भारत ने अमेरिकी स्टील और एल्युमीनियम पर सीमा शुल्क बढ़ा दिया है. अगर अमेरिका धारा 301 की समीक्षा शुरू करता है तो यह झगड़ा, व्यापार युद्ध में बदल सकता है. अभी बड़े मतभेदों पर दोनों देशों के बीच सहमति आसान नहीं होगी, लेकिन अगर दोनों देश खुले मन से बातचीत करें और कुछ समझौते के लिए तैयार हो जाएं तो बात बन सकती है.
    • संस्थाओं को मज़बूत बनाया जाए: इस विवाद को खत्म करने में यूएस ट्रेड रिप्रजेंटेटिव (यूएसटीआर यानी अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि) और भारत के वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय (एमओसीआई यानी मिनिस्ट्री ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री) की केंद्रीय भूमिका होगी. इन दोनों को ही शीर्ष नेताओं से समस्या खत्म करने और संबंधित मंत्रालयों व विभागों के साथ तालमेल करने का निर्देश दिया जाना चाहिए. यह काम भारत के लिए अधिक चुनौतीपूर्ण है क्योंकि कुछ साल के अंतराल पर अधिकारी बदलते रहते हैं. इसका हल यह हो सकता है कि भारत एक व्यापार संस्था बनाए, जिसमें बातचीत के लिए यूएसटीआर की तरह स्थायी अधिकारी हों. यूरोपीय संघ में भी डीजी ट्रेड ऐसी ही संस्था है.
    • ट्रेड पॉलिसी फोरम (टीपीएफ) के प्रति प्रतिबद्धता जताई जाए: कुछ लोग कहते हैं कि व्यापार को रक्षा सहयोग के तहत रखना चाहिए, लेकिन यह सोच ठीक नहीं है. इससे मुश्किलें और बढ़ेंगी. इसके बजाय अगर टीपीएफ की मीटिंग समय-समय पर हो, इसमें मंत्रिस्तर और दूसरे सीनियर अफसर शामिल हों. व्यापार वार्ता करने वाले अफसरों को एक हाथ दे, एक हाथ ले के निर्देश के साथ अधिकार दिए जाएं तो भविष्य में सफलता मिल सकती है.
    • पिछले सहयोग को आगे बढ़ाया जाए: हाल के वर्षों में डब्ल्यूटीओ ट्रेड फैसिलिटेशन एग्रीमेंट (टीएफए) को लागू करने में दोनों देशों के अधिकारियों के बीच सहयोग दिखा था, जबकि इस पर जब 2013 में बाली में बातचीत शुरू हुई थी तो दोनों के बीच मतभेद थे. इस मॉडल का इस्तेमाल दूसरे क्षेत्रों, मसलन- इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स (बौद्धिक संपदा अधिकार), डिजिटल ट्रेड और रेगुलेटरी सहयोग में भी हो सकता है.
    • मुक्त बाजार पर सहमति की संभावना तलाशी जाए: यह काम मुश्किल है, लेकिन ऊपर जो सुझाव दिए गए हैं, अगर उन पर अमल किया जाए तो आने वाले वर्षों में इसकी भी सूरत बन सकती है. जब तल्खी दूर हो जाएगी, वार्ताकारों के पास फैसले लेने का अधिकार होगा, मंत्रियों के बीच नियमित तौर पर बैठकें होंगी और परस्पर सहयोग के फायदे दिखने लगेंगे, तब भारत और अमेरिका के बीच मार्केट एक्सेस एग्रीमेंट यानी मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) भी हो सकता है. इसमें सरकार की खरीदारी, एक दूसरे के नियामकों (रेगुलेटर्स) के फैसलों को मान्यता देना या ट्रेड इन सर्विसेज जैसे विकल्प शामिल हो सकते हैं.
    • अगर दोनों देश आने वाले वर्षों में व्यापार मामलों को लेकर आपसी भरोसा बना पाते हैं तो 21वीं सदी के लिए वह निर्णायक साबित हो सकता है. इस सफर में ऐसा भी वक्त आएगा, जब मुक्त व्यापार समझौता के पक्ष में अधिक और विपक्ष में कम लोग खड़े हों

      भारत और अमेरिका के बीच व्यापार और निवेश (व्यावसायिक) कई वर्षों से नियमित तौर पर बढ़ रहा है. इसका भविष्य रोमांचक और परिवर्तनकारी हो सकता है, लेकिन दशकों से दोनों देशों की तरफ से व्यापारिक रिश्ते की अनदेखी होती आई है. कभी-कभी इसमें तल्खी भी आ जाती है तो कभी विवाद पैदा हो जाते हैं.

      विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में भारत और अमेरिका एक दूसरे को ऐसे खेमे के नेता के तौर पर देखते रहे हैं, जो मल्टीलेटरल सिस्टम (बहुउद्देश्यीय व्यवस्था) के भविष्य को लेकर संघर्षरत है. इसकी तुलना मध्ययुगीन इंग्लैंड में सत्ता के उस संघर्ष से की जा सकती है, जिसे ‘वॉर ऑफ रोजेज’ कहा जाता है. यह युद्ध टुडॉर राज परिवार के उभार से खत्म हुआ, जो लैंकास्टर और यॉर्क को 15वीं सदी में साथ लाने में सफल रहा. इसी तरह भारत और अमेरिका के व्यापारिक रिश्तों में नए युग की शुरुआत नहीं होती, तब तक यह अनबन और मन-मुटाव जारी रहेगा. दोनों के बीच द्विपक्षीय व्यापार का भी यही हाल है. कई वर्षों तक दोनों में से किसी ने भी इसे बढ़ाने पर ध्यान नहीं दिया. उनके बीच नियमित अंतराल पर बैठकें होती रहीं, जिनमें एक दूसरे की वजह से होने वाली परेशानियों का जिक्र किया जाता रहा. साल में कभी-कभार मंत्रिस्तर की बातचीत भी होती है तो उसके बाद जारी होने वाले बयानों में एक दूसरे को उलाहना ही दिया जाता है.

      भारत और अमेरिका के व्यापारिक संबंध आज दोराहे पर हैं. दोनों के बीच तनाव अप्रत्याशित स्तर तक बढ़ गया है. दोनों ने एक दूसरे पर ऐसी पाबंदियां लगाई हैं, जिनसे व्यापारिक हितों को नुकसान पहुंच रहा है.

      यह दोनों देशों के बीच रक्षा क्षेत्र में बढ़ते सहयोग का उलटा है, जिसमें पिछले दो दशकों में ज़बरदस्त सुधार हुआ है. क्लिंटन और जॉर्ज डब्ल्यू. बुश की सरकारों के वक्त से भारत के साथ अमेरिका के रक्षा संबंध काफी मज़बूत हुए हैं. कई लोगों का कहना है कि व्यापारिक संबंध भी इससे निर्देशित होने चाहिए, लेकिन ये लोग भारत और अमेरिका के बीच ऐसे मजबूत व्यापारिक रिश्ते की अहमियत नहीं समझते, जो अपने पांव पर खड़ा रहे. सच है कि व्यापारिक रिश्तों को रक्षा संबंधों से ऊपर नहीं रखा जा सकता, लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं होना चाहिए कि रक्षा संबंधों को व्यापारिक रिश्तों के ऊपर नहीं रखना जाना चाहिए. दोनों ही क्षेत्रों में स्वतंत्र लेकिन एक दूसरे को सहारा देने वाले संबंध बनाने के लिए काफी जतन करने पड़ते हैं. उसे मजबूत बनाने की काफी कोशिश करनी पड़ती है. डोनल्ड ट्रंप सरकार से पहले इसकी कई मिसालें थीं. अमेरिका के यूरोपीय संघ, जापान, दक्षिण कोरिया, कनाडा आदि के साथ ऐसे ही रिश्ते थे और यह लिस्ट बहुत लंबी है. भारत और अमेरिका के व्यापारिक संबंध आज दोराहे पर हैं. दोनों के बीच तनाव अप्रत्याशित स्तर तक बढ़ गया है. दोनों ने एक दूसरे पर ऐसी पाबंदियां लगाई हैं, जिनसे व्यापारिक हितों को नुकसान पहुंच रहा है. दोनों मुल्कों ने संरक्षणवादी कदम उठाए हैं. इससे ऐसी आवाजें मजबूत हुई हैं, जो व्यापारिक मामलों के रत्ती भर की छूट दूसरे पक्ष को देने के लिए तैयार नहीं हैं. जो आंख के बदले आंख की सोच को सही मानती हैं. इस दोराहे से एक तरफ ज़रा सा आगे बढ़े तो टकराव और बढ़ेगा और सुलह काफी मुश्किल हो जाएगी. दूसरे रास्ते पर कदम बढ़ाने पर सुलह हो सकती है और आपसी भरोसे और सहयोग का नया दौर शुरू हो सकता है. शायद यह रास्ता साफ न दिख रहा हो और टकराव की आशंका कहीं ज्यादा दिख रही हो, लेकिन इस मसले का हल निकल सकता है. इसके लिए क्या करना होगा? मैं यह नहीं कह रहा कि काम आसान है, लेकिन इसे पूरा किया जा सकता है. इसके लिए नीचे दिए गए कदम उठाने होंगे –

    • भविष्य की तरफ देखिए — भारत-अमेरिका एफटीए:
    •  अभी दोनों देशों के बीच एफटीए का आइडिया दूर की कौड़ी लग रही है, लेकिन इसका वक्त जल्द ही आ सकता है. यह आर्थिक एकीकरण का लगभग आखिरी पड़ाव है. अगर दोनों देश आने वाले वर्षों में व्यापार मामलों को लेकर आपसी भरोसा बना पाते हैं तो 21वीं सदी के लिए वह निर्णायक साबित हो सकता है. इस सफर में ऐसा भी वक्त आएगा, जब मुक्त व्यापार समझौता के पक्ष में अधिक और विपक्ष में कम लोग खड़े होंगे. एफटीए की बातचीत आसान नहीं होती और इसमें कई जोखिम होते हैं. इसके बावजूद भारत और अमेरिका को इस रिश्ते को सातवें आसमान पर ले जाने का ख्वाब देखना चाहिए.

  • इस विषय पर और जानकारी के लिए देखें ज्वाइंट अटलांटिक काउंसिल-यूएस-इंडिया स्ट्रेटिजिक पार्टनरशिप फोरम रिपोर्ट ➝ ट्रेड ऐट ए क्रॉसरोड्सः ए विजन फॉर यूएस-इंडिया ट्रेड रिलेशनशिप.

अगर दोनों देश आने वाले वर्षों में व्यापार मामलों को लेकर आपसी भरोसा बना पाते हैं तो 21वीं सदी के लिए वह निर्णायक साबित हो सकता है. इस सफर में ऐसा भी वक्त आएगा, जब मुक्त व्यापार समझौता के पक्ष में अधिक और विपक्ष में कम लोग खड़े होंगे.

  • भविष्य की तरफ देखिए — भारत-अमेरिका एफटीए: अभी दोनों देशों के बीच एफटीए का आइडिया दूर की कौड़ी लग रही है, लेकिन इसका वक्त जल्द ही आ सकता है. यह आर्थिक एकीकरण का लगभग आखिरी पड़ाव है. अगर दोनों देश आने वाले वर्षों में व्यापार मामलों को लेकर आपसी भरोसा बना पाते हैं तो 21वीं सदी के लिए वह निर्णायक साबित हो सकता है. इस सफर में ऐसा भी वक्त आएगा, जब मुक्त व्यापार समझौता के पक्ष में अधिक और विपक्ष में कम लोग खड़े होंगे. एफटीए की बातचीत आसान नहीं होती और इसमें कई जोखिम होते हैं. इसके बावजूद भारत और अमेरिका को इस रिश्ते को सातवें आसमान पर ले जाने का ख्वाब देखना चाहिए.

इस विषय पर और जानकारी के लिए देखें ज्वाइंट अटलांटिक काउंसिल-यूएस-इंडिया स्ट्रेटिजिक पार्टनरशिप फोरम रिपोर्ट ➝ ट्रेड ऐट ए क्रॉसरोड्सः ए विजन फॉर यूएस-इंडिया ट्रेड रिलेशनशिप.

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