Published on Apr 02, 2019 Updated 0 Hours ago

युद्ध को छोड़ कोई भी मुद्दा विभिन्‍न देशों और आर्थिक समूहों के बीच होने वाली व्यापार वार्ताओं की तुलना में कहीं अधिक राजनीतिक एवं रणनीतिक नहीं है जो न केवल यह तय करती हैं कि आप क्या खाते हैं, पहनते हैं और कैसे आप प्रतिदिन यात्रा करते हैं, बल्कि आपके देश के विकास पथ को भी तय करती हैं।

सटीक व्यापार कूटनीति पर फोकस करे भारत

भारत को अपने लोगों के लिए, अपने लोगों के द्वारा और अपने लोगों के साथ निश्चित रूप से व्यापार पर खुलकर चर्चाएं करनी चाहिए। आज भारत को आदर्श बदलाव, एक नवीन रूपरेखा और रणनीति की जरूरत नहीं है, बल्कि कड़ी मेहनत, फोकस एवं प्रतिबद्धता की सख्‍त आवश्‍यकता है जिसका लक्ष्‍य लगभग 20 मिलियन नौकरियों का सृजन करना हो जिन्‍हें अर्थव्यवस्था साल दर साल खपा लेगी।

यदि आपको ऐसा प्रतीत होता है कि वैश्विक व्यापार वार्ताएं तकनीकी मुद्दे हैं, तो आप अवश्‍य ही फिर से चिंतन-मनन करें। युद्ध को छोड़ कोई भी मुद्दा विभिन्‍न देशों और आर्थिक समूहों के बीच होने वाली व्यापार वार्ताओं की तुलना में कहीं अधिक राजनीतिक एवं रणनीतिक नहीं है जो न केवल यह तय करती हैं कि आप क्या खाते हैं, पहनते हैं और कैसे आप प्रतिदिन यात्रा करते हैं, बल्कि आपके देश के विकास पथ को भी तय करती हैं। भाषा और हाव-भाव से परे जाकर विश्‍व के सबसे बड़े लोकतंत्र के वास्तविक आयामों को ठीक इसी क्रम में भारतीयों और दुनिया के लिए बिल्‍कुल स्पष्ट रखना होगा। जो देश खुद पर विश्वास नहीं करता है वह दुनिया का विश्वास कभी भी नहीं जीत सकता है। भारत अंग्रेजी में उतना नहीं सोचता है जितना फ्रांस या जर्मनी, ब्राजील या रूस सोचते हैं।

इसके दो पहलू हैं। जहां एक पहलू इस बात पर केंद्रित है कि भारत के लिए सात प्रतिशत से अधिक की विकास दर को निरंतर लक्षित करने हेतु क्या आवश्यक है, वहीं दूसरा पहलू ऐसे समय में प्रथम पहलू के मजबूत विस्तार पर अपनी निगाहें जमाए हुए है जब भारत अपने पड़ोस और उससे परे समस्‍त सेक्‍टरों एवं मार्गों में अपने और अपने लोगों के बारे में एक अंतरराष्ट्रीय वार्तालाप को निर्बाध या सुस्पष्ट एवं सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहा है। इन दोनों में अवश्‍य ही तालमेल होना चाहिए। इसका मतलब यही है कि देश को यदि युद्ध या अकाल का सामना करना पड़ जाए, तो भी विभिन्न मंत्रालयों के बीच सतत एवं अबाधित रूप से तालमेल बना रहना चाहिए। इसके मूल में अत्‍यंत काबिलियत एवं प्रतिबद्धता वाले लोग हैं। इन सभी को मजबूत आधार देने वाला सवाल यह है — आखिरकार कोई भी देश राष्ट्रीय संवाद कैसे सुनिश्चित करता है?

इस शताब्दी की शुरुआत में भारत के व्यापार को उस समय विशि‍ष्‍ट स्‍वरूप दिया गया था जब वस्‍तुओं और सेवाओं के सीमा पार व्यापार के नियमों को जिनेवा स्थित प्रशुल्क एवं व्यापार पर सामान्य समझौता (गैट) के अंतर्गत हुए एक अव्‍यवस्थित अस्थायी समझौते से कहीं आगे बढ़कर उरुग्वे दौर की व्यापार वार्ताओं के अंतर्गत विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के तहत औपचारिक रूप दिया जा रहा था। वर्ष 1986 में शुरू की गई वार्ताएं आठ साल तक जारी रही थीं। दुनिया में एक ऐसा नया मुक्त व्यापार पुलिसकर्मी था जो समस्‍त क्षेत्रों (सेक्‍टर) में जवाबी कार्रवाई कर सकता था। गैट, जिसमें अंतर-सेक्‍टर जवाबी कार्रवाई असंभव थी, के विपरीत नए नियमों का मतलब यही है कि यदि आप संयुक्त राज्य अमेरिका से हार्ले डेविडसन नहीं खरीदते हैं, तो अमेरिका भारत के ई-कॉमर्स निर्यात पर हासिल व्यापार बढ़त पर विराम लगा सकता है।

उरुग्वे दौर पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं के लिए आसान था क्योंकि विकसित देश अस्‍सी के दशक में गहराई मंदी के दौर से उस समय भी जूझ रहे थे। उस दौर में आंकड़े आर्थिक सुस्‍ती को दर्शाते थे, विकास दरें जीवन स्तर के उच्च मानकों को बनाए रखने के लिए अपर्याप्त थीं और इसके साथ ही राजनीतिक एवं संस्थागत बाधाएं भी थीं।

हथियारों की दौड़ की बाध्यता, खपत में कमी लाने की अनिच्छा, पारिश्रमिक की संरचना में जटिलता और घरेलू लॉबी के बढ़ते प्रभाव के कारण उन नए समाधानों को नहीं ढूंढा जा सका जो आर्थिक विकास को नई गति देने के लिए आवश्यक थे। उरुग्वे दौर बाह्य प्रभाव वाला एक आदर्श उदाहरण था। भारत निशाने पर था और भारत सब कुछ समझते हुए भी इसमें शामिल हुआ था।

अपने यहां लाइसेंस राज से मुक्ति के लिए भारत ने हाल ही में उदारीकरण को अपनाया था। उरुग्वे दौर के एजेंडे में शामिल 15 मसले दरअसल पारंपरिक और नए मुद्दों का मिश्रण थे। इनमें बाजार पहुंच और प्रणालीगत मसले भी शामिल थे जिन पर नए सिरे से फोकस करने की आवश्यकता थी। हालांकि, इनमें नए मुद्दे जैसे कि व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा अधिकार (ट्रिप्स) और व्यापार संबंधी निवेश उपाय (ट्रिम्‍स) भी शामिल थे जिनके निशाने पर भारत था। उरुग्वे दौर 21वीं सदी में ठीक वही करेगा जो गनबोट (दादागिरी) कूटनीति और उपनिवेशवादियों ने 20वीं शताब्दी में किया था। यूरोपीय संघ (ईयू) से समर्थन प्राप्त अमेरिका के दबाव में भारत का आना ‘जिनेवा सरेंडर’ कहलाता है। इस पर व्यापक रूप से टिप्पणि‍यां की गईं। अमेरिका के एक व्यापार प्रतिनिधि के ये चर्चित शब्द कि ‘यदि आवश्यक हुआ तो भारत के बाजार बलपूर्वक खोले जाएंगे’ ने भारत में खतरे की घंटी बजा दी थी।

अंतिम मूल पाठ में सार्वजनिक रूप से की गई सौदेबाजी के अलावा कई अन्‍य अप्रत्‍याशित बिंदुओं का भी उल्‍लेख किया गया था। सख्‍त रुख वाले भारतीय वार्ताकारों को हटाकर उन्‍हें नरम रुख वाले ऐसे वार्ताकारों से प्रतिस्थापित किया गया जिन्‍हें डोजियर की सीमित जानकारी थी। एक यूरोपीय वार्ताकार ने पत्रकारों को बताया कि वार्ता मूल रूप से अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान के बीच प्राथमिकताओं के पुन: समायोजन के लिए आयोजित की गई थी। अमेरिका और यूरोपीय संघ ने दावोस में मैत्रीपूर्ण उत्‍साह का आदान-प्रदान किया। दावोस में प्रदर्शनकारियों को पुलिस की व्‍यापक मौजूदगी वाले एक स्‍थान पर घेरा गया और यूरोप की सड़कों पर घास की गांठें जला दी गईं एवं यातायात को बाधित किया गया।

यह मई 1968 और डैनी ले रूज जैसा प्रतीत होता था। दिल्ली में अंग्रेजी बोलने वाले भारतीय और बेंगलुरू में अंग्रेजी बोलने वाले उनके समकक्ष खुश थे। उनके वार्ताकार गुटों ने कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्‍व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की अगुवाई में काम किया, जिन्होंने समूह बनाए थे। यहां तक कि यूरोपीय भी नाखुश रहे, उन्होंने सुर्खियों और टेलीविजन की ओर इशारा करते हुए कहा कि सभी देशों को समायोजन करना होगा। दोनों ही अनजान थे। चीन के साथ-साथ कई अन्‍य दिग्‍गजों ने भी अभी तक अपने-अपने पत्‍ते नहीं खोले थे। भारतीयों ने सोचा कि भारत के हित बंटे हुए थे जो आंशिक रूप से औपनिवेशिक, आंशिक रूप से महत्वाकांक्षी और पूरी तरह से दृढ़ विश्वास के बिना थे।

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने सामान्यीकृत तरजीही प्रणाली (जीएसपी) के तहत भारत को मिल रही वरीयता को समाप्‍त करने का जो निर्णय हाल ही में लिया है वह पहले से ही जाहिर था। दोनों देशों के बीच व्यापार संबंध मुश्किलों भरे रहे हैं। ऐसा न सिर्फ असंतुलन की वजह से, बल्कि इसलिए भी देखा गया है क्‍योंकि भारत के व्यापार गुरुओं के पैर जमीन पर नहीं हैं। भारत के साथ अमेरिका का व्यापार घाटा 27.3 अरब डॉलर आंका गया है। उधर, भारत द्वारा हार्ले डेविडसन पर लगाए गए भारी-भरकम शुल्क के कारण ट्रम्‍प काफी नाराज चल रहे हैं। भारत अमेरिका की स्‍पेशल 301 रिपोर्ट की ‘प्राथमिकता वॉच लिस्ट’ में भी है, जिसमें नियमित रूप से ऐसे देशों को शामिल किया जाता है जहां बौद्धिक संपदा संरक्षण सही ढंग से नहीं हो रहा है। ई-कॉमर्स नियमों और आवश्यकताओं के बारे में भारत के हालिया बाजार-प्रतिकूल निर्णयों से परिचालन लागत बढ़ जाएगी क्‍योंकि इनके तहत डेटा को स्थानीय स्तर पर स्‍टोर करना होगा। जिनेवा सरेंडर की नौबत भी प्राथमिकता वॉच लिस्ट की धमकी के तहत आई

संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के साथ-साथ यूरोपीय संघ के सदस्‍य देश भी ऐसी दुनिया में प्रमुख व्यापार एवं सैन्य राष्ट्र हैं, जहां भारत की वैश्विक व्यापार में हिस्‍सेदारी महज लगभग दो प्रतिशत ही है। चीन पूरी तरह से एक अलग पथ पर अग्रसर है और अन्‍य सीमा की अनदेखी करने का जोखिम उठाकर भारत द्वारा पाकिस्तान पर ध्यान केंद्रित करना नासमझी है।

वर्ष 1999 से वर्ष 2019 तक क्‍या भारत ने खुद को जिनेवा सरेंडर की मुश्किलों से बाहर निकाल लिया है और क्‍या वह स्‍वस्‍थ प्रतिस्‍पर्धा के मैदान में प्रवेश कर गया है? दुर्भाग्यवश नहीं। इसकी एक वजह यह है — ऐसा नहीं हो सकता है कि कोई देश बाईं ओर अपनी जेब रखे और वह दाईं ओर कोई आर्थिक पथ या उपाय प्रस्तावित करे। फोकस, डोमेन ज्ञान और स्‍व-नियंत्रण आर्थिक नीति के आधार हैं। विभिन्‍न मंत्रालयों में यह स्थिति हासिल करने में कई साल लग जाते हैं। भारत के मामले में यह व्यापार एवं वित्त, विदेश, पर्यावरण, शिक्षा और स्वास्थ्य होगा। उधर, भारत के रक्षा हितों को हर कदम पर सही ढंग से गढ़ा और संवारा गया।

पुलवामा हमले के बाद भारत की प्राथमिकताओं का आकलन करने वाले ज्‍यादातर टिप्पणीकारों और विश्लेषकों ने इस पर समग्र रूप से मंथन नहीं किया है। पाकिस्तान से सबसे तरजीही राष्ट्र (एमएफएन) का दर्जा, जो एक डब्ल्यूटीओ पैकेज है, वापस लेना सुर्खियों में हो सकता है, लेकिन यह भारत की आर्थिक ताकत को रेखांकित नहीं करता है। यदि ऐसा होता, तो लोग फ्रांस द्वारा मसूद अजहर की संपत्ति को फ्रीज करने या उस पर रोक लगाने का जश्न क्यों मना रहे हैं, यह ध्‍यान में रखते हुए कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था फ्रांस की तुलना में बेहतर प्रदर्शन कर रही है और भारत जल्द ही ब्रिटेन की जगह ले लेगा? पाकिस्तान में कार्यरत अमेरिकी कंपनियों या चीन के सामान पर प्रतिबंध लगाने का आह्वान बेमानी है।

नए पैटर्न या स्‍वरूप उभर रहे हैं। यूरोप और एशिया भूमि, जल एवं रेल से जुड़े विषयों पर एकजुट हो रहे हैं। यूरोप के भीतर टकराव और पुनर्निर्धारण हो रहे हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग वर्ष 1989 में बर्लिन की दीवार गिराए जाने, जिसने शीत युद्ध के दो मोर्चों यानी पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी को एकजुट कर दिया, से पहले की स्थिति बहाल करना चाहते हैं, जबकि अन्‍य लोग इसके पक्ष में नहीं हैं। शांति यूरोपीय संघ का सबसे अहम योगदान है और दृढ़ विश्‍वास के साथ कई वर्षों तक वार्ताएं निरंतर जारी रहने के बाद ही शांति संभव हो पाई। दरअसल, लोगों में विश्वास कायम होने पर संस्थानों के निर्माण में भी दृढ़ विश्वास सुनिश्चित होता है। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि भारत किस मुकाम पर है?

भारत हर समय विभिन्‍न देशों के साथ टकराव की स्थिति में नहीं रह सकता है। बेशक कूटनीति में उतार-चढ़ाव हो सकते हैं, लेकिन व्यापार कूटनीति निश्चित तौर पर ऐसी होनी चाहिए जो सभी स्थितियों में कारगर साबित हो सके। उनका फोकस देश में नौकरियां सृजित करने और भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत एवं जीवंत बनाने पर है जिसकी बदौलत आगे चलकर देश राजनीतिक दृष्टि से मजबूत बन जाएगा। सैन्य संबंधी आकलन कुछ अलग हटकर कार्य है और इस काम को उन लोगों के भरोसे छोड़ देना चाहिए जो इसमें माहिर हैं।

हम काबिल एवं सक्षम हैं। हमें दृढ़ विश्वास एवं दृढ़ संकल्‍प की जरूरत है। राजनीतिक दलों और चुनावी नारों से परे हटकर पूरी व्‍यवस्‍था ऐसी होनी चाहिए जो भारत के लिए अत्‍यंत कारगर एवं लाभप्रद साबित हो।

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