Author : Sunjoy Joshi

Published on Aug 10, 2020 Updated 0 Hours ago

वास्तव में अगर हम चाहते हैं कि यह जो ओपन डेमोक्रेटिक वर्ल्ड ऑर्डर है वो दुनिया के सभी प्रजातांत्रिक देशों के बीच में यदि कायम रहे तो हमें उन प्रजातांत्रिक देशों के बीच एक नई ट्रेडिंग व्यवस्था की नींव रखनी चाहिए.

नये ग्लोबल ऑर्डर में जगह बनाने के लिए भारत करे व्यापार और निवेश में नए प्रयोग

“हम जो यह कोल्ड वॉर शब्द प्रयोग कर रहे हैं यह वास्तव में उपयुक्त शब्दावली नहीं.” © Sean Gallup/Getty

इस लेख में हम कारोबारी युद्ध के बारे में विश्लेषण करेंगे जिससे दुनिया के देश किसी ना किसी रूप में उलझे हुए हैं. और इसका एक प्रमुख हिस्सा टेक्नोलॉजी है. जब टेक्नोलॉजी की बात आती है तो 5G की बात अहम हो जाती है. और 5G को लेकर अमेरिका और चीन के बीच में वर्चस्व की लड़ाई चल रही है. डोनाल्ड ट्रंप ने कह दिया है कि यह एक ऐसी लड़ाई है जिसे अमेरिका को जीतना है. इन तमाम चीजों के बीच में अमेरिका ने हुवावे के सप्लाई चेन पर रोक लगाने की कोशिश भी की है. यूरोप में इस बात को लेकर दुविधा भी है. कुछ देशों में हुवावे पर प्रतिबंध भी लगाए हैं. इस लेख में हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि चीन-अमेरिका, चीन-भारत और चीन का यूरोप के संबंधों पर कैसा प्रभाव पड़ता है? साथ ही साथ तकनीकी की जियो पॉलिटिक्स ख़ासतौर से 5G की, कि कैसे दुनियाभर में इसका खेल चल रहा है?

चीन-अमेरिका-यूरोप

चीन 2016 में ही अमेरिका से आगे निकलकर जर्मनी का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर बन गया है. जर्मनी यूरोप के कई देशों के मुकाबले चीन के साथ व्यापार के मामले में ज़्यादा जुड़ गया है. इसका प्रमुख कारण यह है कि जैसे-जैसे चीन की अर्थव्यवस्था आगे बढ़ती गयी, वैसे-वैसे चीन में जर्मनी गाड़ियों का व्यापार बढ़ता चला गया. और इस तरह से दोनों देशों के बीच रिश्ता गहराता गया. जर्मनी की कंपनियों ने बड़ी मात्रा में चीन की मैन्युफैक्चरिंग में, वहां की सप्लाई चेन में और मोटर में इन्वेस्ट किया. दूसरी तरफ चीन से भी जर्मनी में, फ्रांस में और अन्य यूरोपीय देशों में निवेश आए. इस तरह फिर चीन शनै-शनै यूरोप में अपना प्रभाव बढ़ाता गया है.

चीन को देखते हुए यूरोप के देशों को यह लग रहा है कि चीन का बाज़ार हमें पनाह दे सकता है. अमेरिका की अर्थव्यवस्था कोविड-19 से जूझ रही है और यह पता नहीं है कि कब इस मुसीबत से बाहर आएगी. तो ऐसे समय में दुनिया के देशों के लिए चीन का महत्व और बढ़ जाता है.

कोरोना महामारी की वजह से अमेरिका की अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट देखने को मिला है. जर्मनी में भी थोड़ा बहुत गिरावट देखने को मिली है. मगर अभी पिछली तिमाही की बात की जाए तो दुनिया का एक अकेला देश चीन ही ऐसा देश है जिसकी अर्थव्यव्स्था में 3.2% की वृद्धि दर देखने को मिली. चीन को देखते हुए यूरोप के देशों को यह लग रहा है कि चीन का बाज़ार हमें पनाह दे सकता है. अमेरिका की अर्थव्यवस्था कोविड-19 से जूझ रही है और यह पता नहीं है कि कब इस मुसीबत से बाहर आएगी. तो ऐसे समय में दुनिया के देशों के लिए चीन का महत्व और बढ़ जाता है. जैसे अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के बीच ट्रेड डील की बातें चल रही है, वैसे ही चीन और यूरोपियन यूनियन के बीच भी ट्रेड डील को लेकर काफी समय से बातचीत चलती आ रहा है. अभी कुछ दिन पहले इस संधि के ज्योग्राफिकल इंडिकेटर पर भी हस्ताक्षर हो गए हैं. जो ट्रेड की दुनिया है वह बड़ा ही दिलचस्प है इसके बारे में बहुत सारी बातें की जा सकती हैं.

क्या हॉन्गकॉन्ग चीन के लिए गले की हड्डी बनता जा रहा है?

कई देशों को विशेषकर सेंट्रल एशिया के देशों को यह लग रहा है कि यूरोप एक संतुलन का काम कर सकता है लेकिन अभी स्थिति थोड़ी बदली है. क्योंकि जबसे हॉन्गकॉन्ग में चीन का नया सिक्योरिटी एक्ट आया है तबसे यूरोप के देशों ने इसकी कठोर से कठोर आलोचना की हैं. अभी तक तो सिर्फ आस्ट्रेलिया ने, ब्रिटेन ने- हॉन्गकॉन्ग के साथ जो प्रत्यर्पण संधि थी- उसे रद्द कर दिया. इसके बाद अब जर्मनी ने भी हॉन्गकॉन्ग के साथ जो प्रत्यर्पण संधि थी, रद्द कर दिया. इस तरह से हॉन्गकॉन्ग चीन के लिए गले की हड्डी बनता जा रहा है. जिस तरह से वो हॉन्गकॉन्ग में नया सिक्योरिटी लॉ लेकर आया है, उसमें सबसे चुभने वाला अंश ये है कि उसने एक्स्ट्रा टेरिटोरियल जूरिडिक्शन अपने हाथ में ले ली है। जिसके यदि कोई भी नागरिक चाहे चीन का हो, हॉन्गकॉन्ग का हो या विदेशी हो अगर वह हॉन्गकॉन्ग और चीन के ख़िलाफ आवाज़ उठाता है तो वो जहां कहीं भी हो उसके ख़िलाफ चीन कार्रवाई कर सकता है. इस तरह से चीन ने अमेरिका की तरह अपने हितों की सुरक्षा के लिए किसी भी देश की संप्रभुता की परवाह किए बिना यह क़दम उठाया है.

यदि कोई भी नागरिक चाहे चीन का हो, हॉन्गकॉन्ग का हो या विदेशी हो अगर वह हॉन्गकॉन्ग और चीन के ख़िलाफ आवाज़ उठाता है तो वो जहां कहीं भी हो उसके ख़िलाफ चीन कार्रवाई कर सकता है.

हम जो यह कोल्ड वॉर शब्द प्रयोग कर रहे हैं यह वास्तव में उपयुक्त शब्दावली नहीं है क्योंकि शीत युद्ध की दुनिया बहुत अलग थी, सिस्टम भिन्न थी, अर्थव्यवस्था भिन्न थी और एक दूसरे से कोई मतलब भी नहीं था. जबकि आज चीन, अमेरिका और यूरोप की अर्थव्यवस्था इतनी बुरी तरह से जुड़ी हुई हैं कि इन्हें अलग कर पाना संभव नहीं है.

क्या डी-कपलिंग संभव है?

सप्लाई चेन का मुद्दा वास्तव में बड़ा जटिल है. पहली बात सप्लाई चेन इस तरह से फैली है कि जो काम सबसे कम कीमत पर जो देश कर सकता है उसके पास वह चला गया है. इस तरह से जिस देश के पास क्षमता थी उसके पास वह काम चला गया और इस तरह से सारे देश इस प्रक्रिया के तहत आपस में जुड़ गए. इसके अलावा अमेरिका ने जब 2019 में पहली बार व्यापार युद्ध छेड़ा तो उसमें उसे नुक़सान ज़्यादा हुआ और चीन को कम. क्योंकि अमेरिका ने जब चीन पर टैरिफ लगाएं तो उसका ट्रेड बैलेंस सुधरा नहीं बल्कि और बिगड़ गया. और सप्लाई चेन के जो कॉम्पोनेंट होते हैं वो और महंगे होकर अमेरिकीयों को मिलने लगा. इस तरह से जिस डी-कपलिंग की बात हम करते हैं वह संभव हो नहीं सका.

दूसरी बात चीन ने अपने यहां से सप्लाई चेन को छिन्न-भिन्न करके दूसरे देशों में पहले से ही भेजना शुरू कर दिया था और यह चीन की सोची समझी रणनीति थी कि वह ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग चेन से बाहर निकलकर हाई मैन्युफैक्चरिंग चेन में प्रवेश करें. जो काम आज अमेरिका कर रहा है- हाई वैल्यू चेन की – उसमें चीन का भी हस्तक्षेप हो और जो छोटा-मोटा काम है जैसे मैन्युफैक्चरिंग की, असेंबली की और जोड़-तोड़ वाला काम दूसरे देशों में चलता रहे. इसलिए जब भी हम डी-कपलिंग की बात करते है तो हमें इन दोनों चीजों को ध्यान में रखना चाहिए. सप्लाई चेन की ये कुछ कंपलेक्सिटी है और इन्हें समझना बहुत आवश्यक हो जाता है. और जब हम डी-कपलिंग की बात करते हैं तो हमें या ख़्याल रखना चाहिए की डी-कपलिंग की प्रोसेस तो चीन ख़ुद ही कर रहा था और वही प्रोसेस करने में शायद हम उसकी सहायता ही करेंगे.

जो काम आज अमेरिका कर रहा है- हाई वैल्यू चेन की – उसमें चीन का भी हस्तक्षेप हो और जो छोटा-मोटा काम है जैसे मैन्युफैक्चरिंग की, असेंबली की और जोड़-तोड़ वाला काम दूसरे देशों में चलता रहे.

व्यापार की दुनिया बहुत अंजानी है. और इसमें कब क्या कुछ हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता. हम अक्सर न्यूज़ चैनलों में सुना करते हैं कि चीन-अमेरिका के बीच में ट्रेड युद्ध चल रहा है और कब यह व्यापार युद्ध तीसरी विश्व युद्ध में बदल जाए, कोई कह नहीं सकता. और दूसरी तरफ यह ख़बर भी आती है की पिछले तिमाही में चीन की अर्थव्यवस्था में काफ़ी सुधार हुआ है. और इसका फ़ायदा उठाते हुए हुवावे ने 56 मिलियन स्मार्टफोन बेचे हैं जिसके बाद से अब वह सैमसंग को भी पीछे छोड़ दुनिया का सबसे बड़ा फोन सप्लायर कंपनी बन गया है.

दूसरी बात ट्रंप और शी भले ही हमेशा से एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते हैं लेकिन अमेरिका की वर्ल्ड-कॉम कंपनी ने हुवावे की सभी ग़लतियों को माफ कर उसके साथ 2 बिलीयन डॉलर का एक लाइसेंसिंग डील किया है. जिससे की उसको जितना नुक़सान हुआ है उसकी भरपाई की जा सके. और इस तरह से अगले कई सालों तक वर्ल्ड कॉम कंपनी के द्वारा पेटेंट इस्तेमाल करने के लिए लाइसेंस प्रदान कर दिया जाता है. तो इस प्रकार हम कह सकते हैं कि व्यापार की दुनिया बड़ा ही असमंजस भरी है.

विकल्प क्या हैं

जितने भी व्यापार को सुधारने के लिए कोशिशें चल रही हैं उसमें एक बहुत बड़ा विरोधाभास है क्योंकि एक तरफ अमेरिका कहता है- अमेरिका फ़र्स्ट और दूसरी तरफ अमेरिका कई मायनों में बहुत ज़्यादा प्रोटेक्शनिस्ट होता जा रहा है कि हम अपनी कंपनी को प्रोटेक्ट करेंगे, उन्हें वापस लाएंगे और यहां पर जॉब क्रिएट करेंगे. क्योंकि चीन ने भी ऐसा ही किया है. वास्तव में अगर हम चाहते हैं कि यह जो ओपन डेमोक्रेटिक वर्ल्ड ऑर्डर है वो दुनिया के सभी प्रजातांत्रिक देशों के बीच में कायम रहे तो हमें उन प्रजातांत्रिक देशों के बीच एक नई ट्रेडिंग व्यवस्था की नींव रखनी चाहिए. जहां सुरक्षा की बात आती है वहां हम सब कहते हैं कि जितने भी प्रजातांत्रिक देश हैं वह चीन को नियंत्रित करने के लिए एक सुरक्षात्मक तंत्र विकसित करें लेकिन जहां व्यापार की बात आती है तो वहां हम दूसरी तरह से बातें करने लगते हैं कि कहां हमें सबसे सस्ता सामान मिलेगा, कहां रिटर्न सबसे ज़्यादा मिलेंगे. लेकिन अगर वास्तव में हमें चीन के सिस्टम से प्रॉब्लम है तो जब तक चीन सही ढंग से ग्लोबल ट्रेडिंग सिस्टम में शामिल नहीं होता है तब तक हमें सभी देशों से डिसीजन ले करके इससे बाहर रखना होगा और वैकल्पिक व्यवस्था डेमोक्रेटिक प्रिंसिपल पर, ओपन प्रिंसिपल्स पर ग्लोबलाइजेशन के प्रिंसिपल पर आपस में बनाना आवश्यक हो जाता है. तब हम वास्तव में कहेंगे कि यह आईडियोलॉजिकल बैटल है और हम इसमें चीन से लड़ रहे हैं. इसके नियम बड़े ही साफ हैं. और हम इस नियम का पालन करते रहेंगे. तब मेरे विचार में भारत ज़रूर एक बैलेंसिंग रोल अदा कर सकता है.

जहां सुरक्षा की बात आती है वहां हम सब कहते हैं कि जितने भी प्रजातांत्रिक देश हैं वह चीन को नियंत्रित करने के लिए एक सुरक्षात्मक तंत्र विकसित करें लेकिन जहां व्यापार की बात आती है तो वहां हम दूसरी तरह से बातें करने लगते हैं कि कहां हमें सबसे सस्ता सामान मिले.

भारत अगर ख़ुद एक ग्लोबलाइज्ड आर्डर की बात करें जिसमें इसी प्रकार के देश शामिल हो जिनके सिस्टम ओपन, इन्वेस्टमेंट ओपन हो और ट्रेड ओपन हो. अगर इसकी पहल ले करके वो आता है और और यह कहे कि हम खुद भी इसमें शामिल होंगे. इसमें चीन इसका हिस्सा नहीं है इसलिए उसे बाहर रखिए. जो-जो देश व्यापार और निवेश के मामले में अपना स्ट्रक्चरल चेंजेज़ नहीं करना चाहते हैं उन्हें इससे बाहर रखिए. तो तब एक व्यवस्था ऐसी हो सकती है. लेकिन इसके लिए जितने भी देश नियम आधारित व्यवस्था की बात करते हैं उनकी स्पष्ट सहमति होनी चाहिए कि रूल बेस्ड ऑर्डर क्या है? और कौन से देश इसका हिस्सा नहीं है जिनके साथ वे ना ट्रेड की बात करेंगे, ना निवेश की बात करेंगे और ना ही ग्लोबलाइज़ेशन की बात करेंगे और ना ही इस प्रकार की व्यवस्था की बात करेंगे. जब तक इस पर सहमति नहीं बनेगी तब तक इस तरह की जटिलताएं बनी रहेंगी.

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