Author : Harsha Kakar

Published on Sep 01, 2018 Updated 0 Hours ago

भविष्य में, चीन पर मध्य एशियाई अर्थव्यवस्थाओं की निर्भरता से उसे वह यथा स्थिति उपलब्ध हो सकेगी, जो भारत की स्थायी सदस्यता को रोकने के लिए जरूरी है।

भारत ने बनाई मध्य एशिया तक पहुंच

विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ताशकंद में उज्बेकिस्तान के प्रधानमंत्री अब्दुल्ला अरिपोव से मुलाकात कर रही हैं।

हाल ही में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज कजाकिस्तान,​ किर्गिस्तान और उज्बेकिस्तान की चार दिन यात्रा पर गई थीं। इसी क्रम में मध्य एशियाई देशों का उनका यह ​अभियान भारत और उसके विस्तृत पड़ोसी देशों के बीच प्रगाढ़ होते संबंधों की ओर इशारा करती कई घटनाओं में एक है।

कज्जाक,​ किर्गि और उज्बेक विदेश मंत्रियों के साथ उनकी द्विपक्षीय बैठकों के साथ, चारों प्रतिभागी देशों की महत्वाकांक्षाएं एकदम स्पष्ट हैं: ऐसे संबंधों का निर्माण करना है, जिनकी पूर्ण संभावनाओं का अब तक उपयोग नहीं किया गया है और जो इन राष्ट्रों द्वारा सोवियत संघ से नाता तोड़ने और अपनी सम्प्रभुता की घोषणा किए जाने के बाद से ही प्रसुप्तावस्था में चले गए थे।

भारत सरकार की प्रतिनिधि की यह यात्रा जून 2018 में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की हाल की बैठकों के बाद सम्पन्न की गई, जिसमें ये चारों ही देश पूर्णकालिक सदस्य हैं। एससीओ को उग्रवाद, आतंकवाद और अलगाववाद जैसी ‘तीन बुराइयों’ से निपटने की एक पहल के तौर पर 2001 में औपचारिक रूप प्रदान किया गया था। हालांकि यह संगठन अब उससे कहीं ज्यादा व्यापक भूमिका अख्तियार करते हुए वित्तीय, निवेश, परिवहन, ऊर्जा, कृषि साथ ही साथ सां​स्कृतिक और मानवीय संबंधों पर चर्चा का मंच प्रदान करता है।

संदर्भ को समझने की दृष्टि से, यह शिखर सम्मेलन प्रधानमंत्री मोदी के लिए महत्वपूर्ण था, ताकि वह चाबहार पोर्ट परियोजना और अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारा जैसी सम्पर्क से संबंधित परियोजनाओं को सुदृढ़ बनाने पर ध्यान केंद्रित कर सकें, जो पश्चिम एशिया, मध्य एशिया और भारतीय उपमहाद्वीप के क्षेत्रों के बीच व्यापारिक संबंधों को बढ़ावा देने का वादा करती हैं।

शेष एशिया के साथ संबंध प्रगाढ़ बनाने के भारतीय प्रयास ऐसी रणनीति है, जो न सिर्फ उसके लिए, बल्कि अन्य देशों के लिए भी प्रसांगिक हैं। जहां एक ओर अमेरिका सरकार “प्रतिबंधों के अधिनियम के जरिए अमेरिकी विरोधियों का मुकाबला” का इस्तेमाल ईरान और उसके सहयोगियों पर व्यापारिक प्रतिबंध लगाने के लिए कर रही है, वहीं दूसरी ओर, भारत पर इन परियोजनाओं पर निवेश न करने का दबाव भी बढ़ता जा रहा है। इसलिए, भारत को अमेरिका से मंजूरी लेने और खुद को ब्लैकलिस्ट न करने का अनुरोध करने के लिए लीक से हटकर रास्ता अपनाना होगा।

भारत के इस साहसी कदम का कारण यह है कि उसकी नजर निकट भविष्य पर लगी है, जिसमें ये मध्य एशियाई देश महत्वपूर्ण ऊर्जा आयातों के लिए साथ ही साथ वस्तुओं और सेवाओं के लिए बाजार उपलब्ध कराने की दृष्टि से बहुमूल्य साबित होंगे। साथ ही भारत, चीन की ओर से भी चौकन्ना है, जो सीमावर्ती देशों के साथ अपने पहले से स्थापित संबंधों के साथ पूरे क्षेत्र पर अधिपत्य जमाने की दौड़ में शामिल हैं।

चीन सरकार के ऐसे देशों के साथ द्विपक्षीय संबंध हैं, जो उसे मध्य एशियाई क्षेत्र के ऊर्जा संसाधनों का उपयोग करने में समर्थ बनाते हैं, जबकि दूसरी ओर वह उन देशों को इसके लिए सुविधाएं तैयार करने में सहायता करता है। हाल ही में, चीन के अधिकारियों ने कजाकिस्तान और उज्बेकिस्तान के साथ प्रमुख ऊर्जा समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं, ‘चीन-किर्गिस्तान-उज्बेकिस्तान’ को जोड़ने वाले रेलवे मार्ग की घोषणा की गई है।

मध्य एशिया के साथ भारत के पहले से मौजूद संबंधों में विस्तार का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। ये तीनों देश तेल संसाधनों, साथ ही साथ अन्य रासायनिक जरूरतें पूरी करने की दृष्टि से बेहतरीन स्रोत हैं। विशेषतौर पर, कजाकिस्तान ने भारत के परमाणु संयंत्रों के लिए यूरेनियम मुहैया कराने के लिए भारत के साथ असैन्य परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर कर रखे हैं। दोनों देशों के बीच इस समझौते पर 2009 में हस्ताक्षर किए गए थे और यह समझौता प्रत्यर्पण, अंतरिक्ष सहयोग, तेल और प्राकृतिक गैस तथा कजाकिस्तान को डब्ल्यूटीओ का सदस्य बनने में सहायता करने से संबंधित चार अन्य समझौतों के अतिरिक्त था। वह इस क्षेत्र में भारत का सबसे बड़ा व्यापार साझेदार भी है। दोनों देश तुर्कमेनिस्तान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान-भारत पाइपलाइन (तापी) परियोजना से भी जुड़े हैं। हाल ही में, दोनों देशों के सैनिक, संयुक्त शांतिरक्षक अभियानों में भी शामिल हुए थे।

इसी तरह, किर्गिस्तान के साथ भारत के ​तेल और पे​ट्रोलियम संसाधनों से संबंधित संबंध भी हैं। उसने 2014 में इस मध्य एशियाई गणराज्य को खाद्य प्रसंस्करण इकाई लगाने में सहायता की थी और अन्य प्रकार की वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई थी। भारत ने किर्गिस्तान को आईटी क्षेत्र में मानव संसाधनों का विकास करने में भी सहायता प्रदान की थी, जिसके लिए दोनों देशों ने 2006 में एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। 2017 ​के आंकड़ों के अनुसार, लगभग 4,500 भारतीय छात्र किर्गिस्तान में मेडिसिन की पढ़ाई कर रहे हैं। हाल ही में, भारत की यात्रा पर आने वाले किर्गि नागरिकों के लिए वीजा देने की प्रक्रिया को सुगम और आसान बनाया गया है।

प्रौद्योगिकीय अनुसंधान और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की हाल की उन्नति उज्बेकिस्तान के लिए लाभदायक है, जो औषधीय उत्पादों, मैकेनिकल उपकरणों, ऑटोमोटिव पार्ट्स, ऑप्टिकल उपकरणों का नियमित रूप से आयात करता है। प्रभावी सम्पर्क बढ़ाने के बदले में भारत सरकार को रक्षा विनिर्माण इकाई का निर्माण करने की इजाजत देने के बारे में बातचीत होने की भी ऐसी खबरें थीं।

साइबर तथा उग्रवाद की शक्ल में बढ़ते आतंकवाद के मामलों पर भारत और तीनों विस्तृत पड़ोसियों के बीच विस्तार से चर्चा हुई, जैसा कि अफगानिस्तान पर ध्यान केंद्रित करते हुए क्षेत्र में शांति कायम रखी जाती रही है। स्थायित्व कायम करने के अफगानिस्तान के प्रयास एशिया में सबके लिए फायदेमंद हैं।

भूराजनीतिक मंच पर भारत का बढ़ता प्रभाव मध्य एशियाई गणराज्यों के लिए अनुकूल है, जो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का लगातार समर्थन करते और उसके लिए वोट देते आए हैं। इन देशों का मानना है कि व्यापक समृद्धि हासिल करने में भारत एक सहयोगी के रूप में उनकी मदद कर सकता है, वह भी उनके कुछ ऊर्जा संसाधनों की एवज में,जो मोलभाव में अहम साबित हो सकते हैं। इतना ही नहीं, निकट भविष्य में, इन देशों के समर्थन से अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत की प्रासंगिकता भी बढ़ सकती है। जिसे स्वीकार कर पाना चीन के लिए मुश्किल होगा, जिसने सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता पाने के भारत के प्रयासों को नाकाम करने की कोशिश की है। दरअसल, भविष्य में, चीन पर मध्य एशियाई अर्थव्यवस्थाओं की निर्भरता से उसे वह यथा स्थिति उपलब्ध हो सकेगी, जो भारत की स्थायी सदस्यता को रोकने के लिए जरूरी है।

हाल ही में, दशक बदलने के साथ ही, चीन, मध्य एशिया में अपनी मौजूदगी बढ़ाता आया है। अफगानिस्तान से नेटो सेनाओं के हटने का आशय मध्य एशिया पर दिए जा रहे ध्यान में कमी आना होगा। यह चीन के लिए लाभ की स्थिति उत्पन्न करता है, जो सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस का महत्व कम करने का अवसर तलाश रहा है और पूर्व सिल्क रोड जैसे बाजारों पर कब्जा करने की कोशिश कर रहा है। इसके अलावा, अपनी भूराजनीतिक स्थिति की बदौलत क्षेत्र पर अपना प्रभाव डालने से चीन का यूरेशिया और यूरोप से परे पुल बांधने का उद्देश्य पूरा होगा।

जहां एक ओर, चीन बीआरआई के अंतर्गत अपनी विशाल विकास परियोजनाओं और साथ ही साथ शंघाई शिखर सम्मेलन के साथ इस महाद्वीप पर पकड़ बनाने का प्रयास कर रहा है, वहीं भारत के लिए अपने दोस्तों से निकटता बनाए रखना सुनिश्चित कर पाना आवश्यक होगा।


लेखक ORF नई दिल्ली में रिसर्च इंटर्न हैं।

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