Published on Aug 09, 2023 Updated 0 Hours ago

चीन हालात को जितना बदतर बनाएगा उतना ही हिंद-प्रशांत में क्वॉड की रक्षा क्षमताएं संस्थागत रूप लेती जाएंगी.

भारत, जापान और आग उगलता ड्रैगन (चीन): क्वॉड को कैसे और प्रभावी किया जाये?
भारत, जापान और आग उगलता ड्रैगन (चीन): क्वॉड को कैसे और प्रभावी किया जाये?

ये लेख रायसीना फ़ाइल्स 2022 सीरीज़ का हिस्सा है.


जापान की मौजूदा सामरिक नीति की एक अहम ख़ासियत हिंद-प्रशांत में क्वॉड्रिलैटरल सिक्योरिटी डायलॉग (क्वॉड) को लेकर उसकी परिकल्पना से जुड़ी है. क्वॉड और हिंद-प्रशांत क्षेत्र- दोनों ही विचारों के निर्माण में जापान की अग्रणी भूमिका रही है. जापानी प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे द्वारा भारतीय संसद में 2007 में दिए गए संबोधन (जिसे “2 समुद्रों के समागम” का नाम दिया गया था) में इस विचार को सामने रखा गया था (हालांकि उन्होंने स्पष्ट रूप से “क्वॉड” शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था).[i]

इस लेख में तीन मसलों पर ज़ोर दिया गया है: चीन की विस्तारवादी नीतियों के ख़ास तत्व क्या-क्या हैं? क्वॉड को कैसे जवाब देना चाहिए? और आख़िरकार क्वॉड को किन-किन समस्याओं की आशंका रहनी चाहिए?

सवाल उठता है कि जापान को क्वॉड की क्या ज़रूरत है? दरअसल 2000 के शुरुआत से ही जापान के इर्द-गिर्द सुरक्षा से जुड़े हालात बदल गए हैं. ख़ासतौर से चीन द्वारा समूचे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी हरकतों के विस्तार से ये बदलाव आया है. नतीजतन इस मसले के निपटारे में क्वॉड की एक अहम भूमिका हो गई है. इस लेख में तीन मसलों पर ज़ोर दिया गया है: चीन की विस्तारवादी नीतियों के ख़ास तत्व क्या-क्या हैं? क्वॉड को कैसे जवाब देना चाहिए? और आख़िरकार क्वॉड को किन-किन समस्याओं की आशंका रहनी चाहिए?

चीन के भूक्षेत्रीय विस्तार के ख़ास तत्व क्या हैं?

जापान और भारत एक-जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं

जापान और भारत जैसे क्वॉड के देश एक-जैसी समस्याओं से रुबरु हैं: उनकी सरहदों के पास चीनी मौजूदगी और हरकतों में लगातार बढ़ोतरी. मिसाल के तौर पर जापान के सेनकाकू द्वीप के पास के समुद्री इलाक़े में चीन ने अपने तटरक्षक तैनात करते हुए अपनी गतिविधियां बढ़ा दी हैं. 2011 में जापान में सेनकाकू द्वीप के इर्द-गिर्द और साथ लगे इलाक़ों में पहचानी गई चीनी नौकाओं की तादाद सिर्फ़ 12 थी. 2012 में ये संख्या बढ़कर 428, 2013 में 819, 2014 में 729, 2015 में 707, 2016 में 752, 2017 में 696 और 2018 में 615 हो गई. 2019 में ये तादाद 1097 तक पहुंच गई थी.[ii]

भारत-चीन सीमा क्षेत्र में चीनी घुसपैठ की तादाद और सेनकाकू द्वीप के आसपास चीनी गतिविधियों से ये साफ़ हो जाता है कि चीन ने दोनों ही इलाक़ों में 2012 और 2019 में अपनी आक्रामकता बढ़ा दी

भारत-चीन सरहद पर भी चीन ने अपनी गतिविधियां बढ़ा दी हैं. 2011 में भारत-चीन सीमा पर भारतीय इलाक़ों में घुसपैठ की 213 घटनाएं दर्ज की थीं. बाद के सालों में ये तादाद बढ़ती चली गई: 2012 में 426, 2013 में 411, 2014 में 460, 2015 में 428, 2016 में 296, 2017 में 473, 2018 में 404 और 2019 में 663. भारत-चीन सीमा क्षेत्र में चीनी घुसपैठ की तादाद और सेनकाकू द्वीप के आसपास चीनी गतिविधियों से ये साफ़ हो जाता है कि चीन ने दोनों ही इलाक़ों में 2012 और 2019 में अपनी आक्रामकता बढ़ा दी. (चित्र 1 देखें)

चित्र 1: दो इलाक़ों में चीनी हरकतों की तुलना

 

चीन के भूक्षेत्रीय विस्तार की तीन अहम समानताएं

चीन के भूक्षेत्रीय विस्तार की तीन विशेषताएं हैं. ग़ौर करने वाली पहली बात है मौजूदा अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के प्रति चीन का लगातार हिक़ारत भरा रवैया. नए इलाक़ों पर अपने दावों का इज़हार करते वक़्त चीन अक्सर ऐसा ही बर्ताव दिखाता है. मसलन पूर्वी चीन सागर में सेनकाकू द्वीप पर चीन ने 1971 से पहले किसी तरह का कोई दावा नहीं किया था. उसके बाद से चीन का रवैया बदलता चला गया. दरअसल सेनकाकू द्वीप सामरिक रूप से बेहद अहम स्थान पर है. यहां से ताइवान पर दबाव डालना आसान है और यहां तेल के संभावित भंडार मौजूद हैं. भारत-चीन सीमा की बात करें तो तिब्बत की निर्वासित सरकार ने कहा है कि वो तमाम इलाक़े भारत के हैं.[iii] चीन ने मौजूदा अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों की अनदेखी करते हुए अपने भूक्षेत्रीय दावों का विस्तार किया है.

चीन के विस्तारवाद का दूसरा तत्व अपनी हरकतों के लिए माक़ूल वक़्त चुनने से जुड़ा है. दरअसल सत्ता और ताक़त के स्तर पर खालीपन देखते ही चीन उसका पूरा फ़ायदा उठाने में जुट जाता है. 1950 के दशक में पारासेल द्वीप से फ़्रांस की वापसी के तत्काल बाद चीन ने उसे हड़प लिया था. आगे चलकर 1974 में उसने इसका बाक़ी का आधा हिस्सा भी अपने क़ब्ज़े में कर लिया. दरअसल इस घटना से ठीक एक साल पहले अमेरिकी फ़ौज दक्षिणी वियतनाम से वापस लौट गई थी. 1980 के दशक में वियतनाम में सोवियत संघ द्वारा अपनी फ़ौजी मौजूदगी घटाने के तत्काल बाद चीन ने स्पार्टली द्वीप में अपनी हरकतें बढ़ा दी थीं. 1988 में उसने वहां के 6 इलाक़ों पर क़ब्ज़ा जमा लिया. इसी तरह 1995 में चीन ने मिसचीफ़ रीफ़ को भी अपने क़ब्ज़े में कर लिया. फिलीपींस से अमेरिकी सैन्य टुकड़ियों की वापसी के तीन सालों के बाद ये घटना सामने आई थी.[iv] इन हरकतों से ज़ाहिर है कि सैन्य संतुलनों में बदलाव आने और ताक़त के स्तर पर ख़ालीपन आने पर चीन अपनी भूक्षेत्रीय पहुंच का विस्तार करने में जुट जाता है.  पिछले दशक में सैन्य संतुलन बदलते रहे हैं. स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट मिलिट्री एक्सपेंडिचर डेटाबेस के मुताबिक 2011 से 2020 तक चीन ने अपने सैन्य ख़र्च में 76 प्रतिशत की बढ़ोतरी की. इसी कालखंड में भारत ने अपने सैन्य ख़र्च में 34 प्रतिशत, ऑस्ट्रेलिया ने 33 प्रतिशत और जापान ने महज़ 2.4 प्रतिशत का इज़ाफ़ा किया. इसी दौरान अमेरिका के फ़ौजी ख़र्च में 10 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई.[v] चीन ने दक्षिण चीन सागर, पूर्वी चीन सागर, ताइवान, भारत-चीन सीमा और हिंद महासागर- इन तमाम इलाक़ों में अपने भूक्षेत्रीय दावों का विस्तार करने की कोशिश की है. दरअसल चीन इन तमाम क्षेत्रों में सत्ता और शक्ति से जुड़ा ख़ालीपन देख रहा है.

भारी-भरकम चीनी निवेश और कर्ज़ हासिल कर चुके देश चीन की आलोचना करने से हिचकते हैं. चीन द्वारा अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का उल्लंघन किए जाने के बावजूद ऐसे मुल्क उसके ख़िलाफ़ कुछ भी बोलने से परहेज़ करते हैं. चीन कोविड-19 से जूझ रही दुनिया में “वैक्सीन कूटनीति” के इस्तेमाल से भी देशों के बीच अपना रसूख़ बनाने की कोशिशें करता आ रहा है.

चीन के भूक्षेत्रीय विस्तार का तीसरा घटक है- ग़ैर-फ़ौजी नियंत्रण. चीन ने विदेशी धरती पर बुनियादी ढांचा परियोजनाओं (जिसे बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के नाम से जाना जाता है) के ज़रिए अपने प्रभाव का दायरा बढ़ाने की कोशिश की है. भारी-भरकम चीनी निवेश और कर्ज़ हासिल कर चुके देश चीन की आलोचना करने से हिचकते हैं. चीन द्वारा अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का उल्लंघन किए जाने के बावजूद ऐसे मुल्क उसके ख़िलाफ़ कुछ भी बोलने से परहेज़ करते हैं. चीन कोविड-19 से जूझ रही दुनिया में “वैक्सीन कूटनीति” के इस्तेमाल से भी देशों के बीच अपना रसूख़ बनाने की कोशिशें करता आ रहा है. ज़ाहिर है चीन के लिए बुनियादी ढांचा परियोजनाएं, आपूर्ति श्रृंखला की निर्भरता और वैक्सीन अपने प्रभाव और ताक़त का विस्तार करने का ग़ैर-फ़ौजी ज़रिया बन गए हैं. जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों में भी चीन आर्थिक नियंत्रण के लिए इसी तरह के हथकंडे का इस्तेमाल करता है. मिसाल के तौर पर जब ऑस्ट्रेलिया ने कोविड-19 के स्रोत का पता लगाने के लिए अंतरराष्ट्रीय तफ़्तीश किए जाने की ज़िद पकड़ ली तो चीन की ओर से ऑस्ट्रेलिया से वाइन और झींगा मछलियों के आयात की प्रक्रिया में देरी की जाने लगी.[vi] चीनी बाज़ार पर विदेशी विक्रेताओं की निर्भरता बीजिंग के लिए एक शक्तिशाली हथियार है. वो अपना प्रभाव बढ़ाने और आख़िरकार अपने भूक्षेत्रों का विस्तार करने के लिए अपने बाज़ार का इस्तेमाल करता है.

क्वॉड की प्रतिक्रिया क्या होनी चाहिए?

नियम-आधारित व्यवस्था का सम्मान

सबसे पहली बात, क्वॉड को मौजूदा अंतरराष्ट्रीय क़ानून पर टिकी नियम-आधारित व्यवस्था  का सम्मान करते हुए उसपर ज़ोर देते रहना चाहिए. पिछले साल मार्च और सितंबर में 2 बार क्वॉड शिखर सम्मेलन का आयोजन किया गया था. दोनों सम्मेलनों के साझा बयानों में मुक्त, खुले और नियमों पर आधारित व्यवस्था का ज़िक्र करते हुए “पूर्वी और दक्षिण चीन सागरों में नियम-आधारित सामुद्रिक व्यवस्था के सामने खड़ी चुनौतियों का सामना करने” पर ज़ोर दिया गया.[vii] दरअसल चीन लगातार अंतरराष्ट्रीय मानकों को चुनौती देता आ रहा है. उसने ताक़त के ज़रिए यथास्थिति बदलने की कोशिश की है. लिहाज़ा क्वॉड के ये शब्द भारी अहमियत रखते हैं.

सैन्य संतुलन बरक़रार रखना

दूसरे, क्वॉड देशों को सैन्य संतुलन बरक़रार रखने की क़वायद करनी होगी. उन्हें शक्ति में ख़ालीपन से जुड़ी धारणाओं को दूर करना होगा. इसके लिए उन्हें अपने रक्षा बजट में बढ़ोतरी करनी होगी. ये क़वायद आसान नहीं है. लिहाज़ा रक्षा व्यवस्था का पुनर्गठन अपने-आप में अहम हो जाता है. एक लंबे अर्से तक “केंद्र और शाखा” प्रणाली हिंद-प्रशांत में व्यवस्था बनाकर रखने में मददगार रही है. इस व्यवस्था में केंद्र अमेरिका है और जापान, ऑस्ट्रेलिया, ताइवान, फिलीपींस, थाईलैंड और दक्षिण कोरिया जैसे देश हिंद-प्रशांत में उसकी अनेक शाखाओं के तौर पर काम करते हैं. मौजूदा व्यवस्था की एक ख़ास बात ये है कि ये अमेरिका पर बहुत ज़्यादा निर्भर है. मिसाल के तौर पर भले ही जापान और ऑस्ट्रेलिया दोनों ही अमेरिका के साथी हैं, लेकिन जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच कोई आपसी गठजोड़ नहीं है. बहरहाल चीन द्वारा हाल में की गई भड़काने वाली हरकतों से ज़ाहिर है कि मौजूदा प्रणाली उसके विस्तारवादी रुख़ को हतोत्साहित कर पाने में कारगर नहीं रही है. जैसा कि ऊपर बताया गया है 2011-20 के दौरान चीन ने अपने सैन्य ख़र्च में 76 फ़ीसदी की बढ़ोतरी कर दी जबकि अमेरिका का सैन्य बजट 10 फ़ीसदी घट गया. भले ही अमेरिका का फ़ौजी ख़र्च चीन के मुक़ाबले तीन गुणा ज़्यादा हो, लेकिन इसके बावजूद “केंद्र और शाखा” वाली मौजूदा व्यवस्था पर्याप्त नहीं है.

मसलन प्रशांत महासागर की तरफ़ अमेरिका और जापान के  ख़िलाफ़ और भारत-चीन सीमा पर भारत के ख़िलाफ़. भले ही चीन का सैन्य व्यय तेज़ी से बढ़ रहा है लेकिन चीन की काट ढूंढ रहे देशों में इस तरह के सहयोग से सैन्य संतुलन बनाने का एक रास्ता निकल सकता है. इस सिलसिले में आक्रामक क्षमताएं बेहद अहम हैं.

चित्र 2: “केंद्र और शाखा” और नेटवर्क आधारित रक्षा प्रणालियां

नतीजतन एक नई नेटवर्क आधारित रक्षा प्रणाली उभर रही है. अमेरिका के साथी और भागीदार एक-दूसरे के साथ सहयोग करते हुए अमेरिका के साथ और आपस में रक्षा ज़िम्मेदारियां साझा करते हैं. आपसी सहयोग के द्विपक्षीय, त्रिपक्षीय, चतुर्पक्षीय (quadrilateral) या दूसरे बहुपक्षीय इंतज़ामों से रक्षा सहयोग का जाल तैयार किया जा रहा है. इनमें अमेरिका-जापान-भारत, जापान-भारत-ऑस्ट्रेलिया, ऑस्ट्रेलिया-यूके-अमेरिका, भारत-ऑस्ट्रेलिया-इंडोनेशिया, भारत-ऑस्ट्रेलिया-फ़्रांस, अमेरिका-भारत-इज़राइल-यूईए जैसे गठजोड़ शामिल हैं. इस सिलसिले में देशों के बीच आपसी सहयोग और क्षेत्रीय रक्षा ज़िम्मेदारियां साझा किए जाने की क़वायद की क्वॉड एक मिसाल है.

अगर क्वॉड के देशों में आपसी तालमेल अच्छा रहता है तो वो चीन को एक ही समय में कई मोर्चों पर रक्षात्मक नीतियां अपनाने पर मजबूर कर सकते हैं. इससे चीन की विस्तारवादी फ़ितरत को हतोत्साहित किया जा सकेगा. ऐसे माहौल में चीन को एक साथ कई मोर्चों पर अपना रक्षा ख़र्च बढ़ाना होगा. मसलन प्रशांत महासागर की तरफ़ अमेरिका और जापान के  ख़िलाफ़ और भारत-चीन सीमा पर भारत के ख़िलाफ़. भले ही चीन का सैन्य व्यय तेज़ी से बढ़ रहा है लेकिन चीन की काट ढूंढ रहे देशों में इस तरह के सहयोग से सैन्य संतुलन बनाने का एक रास्ता निकल सकता है.

इस सिलसिले में आक्रामक क्षमताएं बेहद अहम हैं. एक लंबे अर्से से अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत को छोड़कर किसी और देश के पास चीन के ख़िलाफ़ आक्रामक रुख़ अपनाने की क़ाबिलियत नहीं रही है. अगर अमेरिका, जापान और भारत- सभी के पास लंबी दूरी तक मार करने की क़ाबिलियत हो तो उनकी सामूहिक क्षमता से चीन को अनेक मोर्चों पर अपना बचाव करने पर मजबूर होना पड़ेगा. अगर भारत के साथ लगती अपनी सीमा पर चीन अपने भूक्षेत्र का विस्तार करने का फ़ैसला कर भी लेता है तो उसे अमेरिका और जापान से संभावित हमलों से अपनी रक्षा करने के लिए अपने बजट और फ़ौजी ताक़त में एक निश्चित इज़ाफ़ा करने की ज़रूरत पड़ेगी. फ़िलहाल जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया सभी 1000-2000 किमी लंबी रेंज वाली मारक क्षमता हासिल करने की योजना पर काम कर रहे हैं. इनमें क्रूज़ मिसाइलों के अलावा ग्लाइड बमों और क्रूज़ मिसाइलों से लैस एफ़-35 लड़ाकू विमान शामिल हैं.[viii] सतह से सतह पर मार करने वाली मिसाइलों के ज़रिए ताइवान, वियतनाम, फिलीपींस और दक्षिण कोरिया भी अपनी मारक क्षमता का विस्तार कर रहे हैं. फिलीपींस की बात करें तो उसने भारत से ब्रम्होस क्रूज़ मिसाइल आयात करने का फ़ैसला किया है.[ix] ऐसे क़दम चीन को मौजूदा विस्तारवादी रास्ते पर चलने से हतोत्साहित करने में कारगर साबित हो सकते हैं.

अपनी अनुकूल आर्थिक परिस्थितियों के चलते चीन इन परियोजनाओं पर भारी भरकम निवेश कर सकता है. इसके ज़रिए वो मेज़बान मुल्क पर कर्ज़ का भारी दबाव बनाकर उन्हें अपने एहसानों तले दबा सकता है. आगे चलकर ये देश विश्व व्यापार संगठन जैसे अंतरराष्ट्रीय निकायों में चीन के पिछलग्गू बन जाते हैं. लिहाज़ा चीन के विशाल बजट और उसके प्रभाव को कम करना किसी भी रणनीति की अहम प्राथमिकता बन जाती है. 

सितंबर 2021 में ऑस्ट्रेलिया, यूके और अमेरिका ने ऑकस (हिंद-प्रशांत में त्रिपक्षीय रक्षा व्यवस्था) के गठन का एलान किया था. इस गठजोड़ के तहत अमेरिका और यूके अपने तीसरे साथी ऑस्ट्रेलिया को 8 परमाणु पनडुब्बियां हासिल करने और उनका रखरखाव करने में मदद करेंगे. अगर ऑस्ट्रेलिया के पास लंबी दूरी की मारक क्षमता वाली परमाणु पनडुब्बियां हो जाएंगी तो ऑस्ट्रेलियाई नौसेना हिंद-प्रशांत के एक व्यापक इलाक़े में सक्रिय हो सकती हैं. इससे इस क्षेत्र में चीन के संभावित ख़तरों की काट करने में मदद मिल सकती है.

सैन्य और ग़ैर-फ़ौजी नीति को एक व्यापक रणनीति के तौर पर एकीकृत करना

तीसरे, क्वॉड को अपनी व्यापक रणनीति में ग़ैर-फ़ौजी क़वायदों को भी शामिल करना होगा. चीन की काट करने वाली किसी रणनीति का ये एक अहम हिस्सा होगा. दरअसल चीन का ख़तरा उसके बजट से जुड़ा हुआ है. दूसरों के मुक़ाबले अपनी सैन्य शक्ति मज़बूत होने पर वो ताक़त के ज़रिए यथास्थिति बदल सकता है. ऐसे में सैन्य संतुलन बनाकर रखना बेहद अहम है.  बहरहाल, मज़बूत अर्थव्यवस्था और पर्याप्त बजट की बदौलत चीन में सेना के आधुनिकीकरण का काम दूसरे देशों के मुक़ाबले तेज़ी से आगे बढ़ा है. यही वजह है कि चीन की आर्थिक बढ़त को कम करने के लिए ग़ैर-फ़ौजी क़वायदों की दरकार है.

विदेशों में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के मामले में भी ऐसे ही हालात हैं. अपनी अनुकूल आर्थिक परिस्थितियों के चलते चीन इन परियोजनाओं पर भारी भरकम निवेश कर सकता है. इसके ज़रिए वो मेज़बान मुल्क पर कर्ज़ का भारी दबाव बनाकर उन्हें अपने एहसानों तले दबा सकता है. आगे चलकर ये देश विश्व व्यापार संगठन जैसे अंतरराष्ट्रीय निकायों में चीन के पिछलग्गू बन जाते हैं. लिहाज़ा चीन के विशाल बजट और उसके प्रभाव को कम करना किसी भी रणनीति की अहम प्राथमिकता बन जाती है.

दूसरे मसले भी इसी प्रकार के हैं: चूंकि चीन समृद्ध है लिहाज़ा वो अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए कोविड-19 वैक्सीन बांट सकता है, वो दुनिया में रेयर अर्थ खदानों के मामले में अपना दबदबा क़ायम कर सकता है और अहम प्रौद्योगिकी से जुड़ी आपूर्ति श्रृंखला को प्रभावित कर सकता है. वो सोलर पैनल के उत्पादन पर भी अपना प्रभाव जमाने में कामयाब रहा है. ग़ौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन के चलते इस क्षेत्र में नए और बेहद कड़े क़ानून लागू किए जा रहे हैं. ऐसे में चीन इस क्षेत्र में भी अपनी मौजूदगी का विस्तार बनाने में कामयाब हो रहा है.

ऐसे में क्वॉड देशों को अपनी आर्थिक क़वायदों को एकजुट कर चीन पर अपनी निर्भरता को कम करना होगा. आपूर्ति श्रृंखलाओं और बाज़ारों को अलग-अलग करना और उनसे जुड़े जोख़िमों में विविधता लाना निहायत ज़रूरी है. जापान अपने स्तर से ऐसा करने भी लगा है. उसने अपनी फ़ैक्ट्रियों को चीन से हटाकर दक्षिण पूर्व एशिया और दक्षिण एशिया में स्थापित कर लिया है. इसके साथ ही चीन में रहने वाले जापानी नागरिकों की तादाद भी 2012 के 150,399 से घटकर 2020 में 111,769 रह गई. इसी कालखंड में अमेरिका में रहने वाले जापानियों की तादाद 2012 के 410,973 से बढ़कर 2020 में 426,354 हो गई.[x] जापान ने 2020 के अपने आर्थिक प्रोत्साहन पैकेज में स्थानीय निर्माताओं के लिए अपने उत्पादन को चीन से बाहर ले जाने में मदद के तौर पर 2.2 अरब अमेरिकी डॉलर का प्रावधान किया था.[xi]

क्वॉड के सामने कैसी समस्याएं आने की आशंका है?

रूस सबसे बड़ा संकट है

फ़िलहाल क्वॉड के सामने सबसे बड़ी चुनौती रूस के साथ संबंधों से जुड़ी है. जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया था तब जापान अपने रुख़ को लेकर बिल्कुल साफ़ था. जापान का मानना था कि उसे तीन वजहों से यूक्रेन का समर्थन करना चाहिए. पहला, रूस अपनी फ़ौजी कार्रवाई को संयुक्त राष्ट्र (UN) में विश्वास के साथ जायज़ नहीं ठहरा सकेगा. इसके मायने यही हैं कि वो यथास्थिति बदलने के लिए जबरन एकतरफ़ा कार्रवाई कर रहा है. अगर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी (जिसमें जापान भी शामिल है) रूस को इस जंग में फ़तह हासिल करने देती है तो जल्द ही चीन भी रूस के नक़्शेक़दम पर चलना शुरू कर देगा. वो ताइवान, भारत और शायद दूसरों के ख़िलाफ़ भी इसी तरह की आक्रमणकारी हरकतें शुरू कर देगा. ऐसे हालात जापान को मंज़ूर नहीं हैं. दूसरे, अगर यूक्रेन के ख़िलाफ़ जंग में रूस की जीत हो जाती है तो अमेरिका को यूरोप में रूस से बचाव के उपायों को प्राथमिकता देनी होगी. ऐसे में अमेरिका यूरोप से अपनी फ़ौजी टुकड़ियां नहीं हटा सकेगा. लिहाज़ा चीन की रोकथाम के लिए हिंद-प्रशांत में इन टुकड़ियों की तैनाती की योजना नाकाम हो जाएगी. जापान को मालूम है कि एक ही वक़्त पर रूस और चीन के साथ निपटने की ज़रूरत आ पड़ने पर उसके लिए विकट परिस्थितियां पैदा हो जाएंगी. तीसरा, रूस के साथ जापान की सीमा लगती है, और अतीत में वो रूस के ख़िलाफ़ जंग भी लड़ चुका है. हाल के वर्षों में रूस लगातार जापान के ख़िलाफ़ भड़काने वाली कार्रवाइयां करता रहा है. मिसाल के तौर पर 2020 में रूसी फ़ौजी विमान 258 बार जापान की हवाई सरहदों में घुसने की कोशिश कर चुके हैं. नतीजतन जापान के हवाई आत्मरक्षा लड़ाकू विमानों को उनसे बार-बार “लड़ना-भिड़ना” पड़ा है. 2021 में चीन और रूस के 5-5 युद्धपोतों ने साझा रूप से जापान को घेर लिया था.[xii] इन घुसपैठों से ज़ाहिर है कि जापान के लिए रूस एक बड़ा ख़तरा है. रूस को लेकर अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के हित भी जापान से मेल खाते हैं.

अपनी अनुकूल आर्थिक परिस्थितियों के चलते चीन इन परियोजनाओं पर भारी भरकम निवेश कर सकता है. इसके ज़रिए वो मेज़बान मुल्क पर कर्ज़ का भारी दबाव बनाकर उन्हें अपने एहसानों तले दबा सकता है. आगे चलकर ये देश विश्व व्यापार संगठन जैसे अंतरराष्ट्रीय निकायों में चीन के पिछलग्गू बन जाते हैं. लिहाज़ा चीन के विशाल बजट और उसके प्रभाव को कम करना किसी भी रणनीति की अहम प्राथमिकता बन जाती है. 

बहरहाल, भारत के लिए रूस अहम है. भारत के सैन्य साज़ोसामान मरम्मती कलपुर्ज़ों और गोले बारूद के लिए रूसी आपूर्ति पर निर्भर हैं. भारत के हथियार अत्याधुनिक और मशीनें संवेदनशील हैं. हालांकि भारतीय सैनिकों को उन्हें मुश्किल हालातों में इस्तेमाल करना होता है. ऐसे में मरम्मत और कलपुर्ज़ों तक पहुंच से जुड़ी पूरी क़वायद भारत के लिए बेहद अहम हो जाती है. इसके अलावा पाकिस्तानी सरहदों से संचालित आतंकी कैंपों के ख़िलाफ़ भारत की लड़ाई का रूस समर्थन करता रहा है. मुमकिन है कि आगे चलकर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी भारत से पाकिस्तान में अपनी फ़ौजी कार्रवाइयां रोकने को कह दे, लेकिन तब भी रूस संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत के पक्ष में ही मतदान करेगा. दरअसल शीत युद्ध के ज़माने में भारत पूर्ववर्ती सोवियत संघ पर निर्भर रहता था, लिहाज़ा दोनों देशों के बीच मानवीय संपर्क आज भी बेहद गहरे और प्रभावी हैं. यही वजह है कि रूस को लेकर जापान-अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया का रुख़ भारत के रुख़ से बिल्कुल अलग है. इससे क्वॉड के भीतर की एकजुटता को ख़तरा पैदा हो गया है.

क्या भारत को रूस की ज़रूरत पड़ेगी?

क्या ये हालात भविष्य में भी जारी रहेंगे? निश्चित रूप से हालात बदल रहे हैं. चित्र 3 से भारत के हथियार आपूर्तिकर्ताओं के तुलनात्मक हिस्सों की झलक मिलती है. अमेरिका, यूके, फ़्रांस और इज़राइल से हथियारों के आयात को नीले रंग में जबकि सोवियत संघ या रूस से हथियारों के आयात को लाल रंग में दिखाया गया है. 1962 से पहले हथियारों के ज़्यादातर आपूर्तिकर्ता नीले रंग वाले देशों से थे. बहरहाल 1962 के बाद से सोवियत संघ या रूस ही भारत को हथियारों की आपूर्ति करने वाला मुख्य देश रहा है. हालांकि, हाल ही में भारत ने रूस की बजाए अमेरिका, यूके, फ़्रांस और इज़राइल से ज़्यादा हथियार ख़रीदे हैं. भले ही अबतक भारत के मौजूदा सैन्य साज़ोसामान की देखरेख के लिए रूस सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता रहा है लेकिन ये हालात अब बदल रहे हैं.

मुमकिन है कि आगे चलकर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी भारत से पाकिस्तान में अपनी फ़ौजी कार्रवाइयां रोकने को कह दे, लेकिन तब भी रूस संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत के पक्ष में ही मतदान करेगा. दरअसल शीत युद्ध के ज़माने में भारत पूर्ववर्ती सोवियत संघ पर निर्भर रहता था, लिहाज़ा दोनों देशों के बीच मानवीय संपर्क आज भी बेहद गहरे और प्रभावी हैं. यही वजह है कि रूस को लेकर जापान-अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया का रुख़ भारत के रुख़ से बिल्कुल अलग है.

चित्र 3: भारत को हथियारों की आपूर्ति करने वालों का हिस्सा

*स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (SIPRI) आर्म्स ट्रांसफ़र डेटाबेस (https://www.sipri.org/databases/armstransfers )

इसके अलावा पाकिस्तान में सत्ता द्वारा प्रायोजित आतंकवाद से भारत की लड़ाई में अमेरिका भी भारत का पक्ष लेने लगा है. भारत ने 2016 और 2019 में पाकिस्तान में मौजूद आतंकी कैंपों पर हमले किए थे. उस दौरान भारत-अमेरिका, भारत-जापान और क्वॉड के साझा बयानों में आतंकवाद से मुक़ाबला करने की भारत की क़वायदों में मदद की पेशकश की गई थी.

रूस के साथ भारत का गठजोड़ बदल गया है. दरअसल रूस अब उस चीन का समर्थन करने लगा है जो भारत के लिए सुरक्षा के मोर्चे पर गंभीर ख़तरा है. इतना ही नहीं रूस तो भारत के प्रतिद्वंदी पाकिस्तान तक को हथियारों का निर्यात कर रहा है. मिसाल के तौर पर चीन और पाकिस्तान की साझा क़वायदों से तैयार लड़ाकू विमान जेएफ-17 (और जे-10 भी) का इंजन एक रूसी उत्पाद है.[xiii] रूस ने पाकिस्तान को Mi-35 अटैक हेलिकॉप्टर भी बेचे हैं.[xiv] ऐसे में आसार यही हैं कि निकट भविष्य में क्वॉड में तालमेल से जुड़ी क़वायदों के रास्ते में रूस रोड़ा नहीं रह जाएगा.

हाल ही में भारत ने रूस की बजाए अमेरिका, यूके, फ़्रांस और इज़राइल से ज़्यादा हथियार ख़रीदे हैं. भले ही अबतक भारत के मौजूदा सैन्य साज़ोसामान की देखरेख के लिए रूस सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता रहा है लेकिन ये हालात अब बदल रहे हैं. 

चीन के आक्रामक विस्तारवाद ने हिंद-प्रशांत में क्वॉड के उभार में मदद की है. चूंकि चीन ने अपनी हरकतें तेज़ कर दी हैं लिहाज़ा क्वॉड देशों को भी मज़बूती दिखानी होगी. चीन हालात को जितना बदतर बनाएगा उतना ही हिंद-प्रशांत में क्वॉड की रक्षा क्षमताएं संस्थागत रूप लेती जाएंगी.


[i] Shinzo Abe, “Confluence of the Two Seas (speech, New Delhi, August 22, 2007).

[ii] Trends in Chinese Government and Other Vessels in the Waters Surrounding the Senkaku Islands, and Japan’s Response,” Ministry of Foreign Affairs of Japan.

[iii] ‘Ladakh belongs to India’: Tibet sides with India, exposes China’s expansionist tactics,” Central Tibetan Administration.

[iv] Japan Ministry of Defense, China’s Activities in the South China SeaChina’s development activities on the features and trends in related countries), Tokyo, 2021.

[v] Diego Lopes da Silva, Nan Tian, Alexandra Marksteiner, “Trends in World Military Expenditure, 2020,” Stockholm International Peace Research Institute.

[vi] Bloomberg, “China to halt key Australian imports in sweeping retaliation, Hindustan Times, November 3, 2020.

[vii] Ministry of Foreign Affairs of Japan, Quad Leaders’ Joint Statement: The Spirit of the Quad, March 2021; Ministry of Foreign Affairs of Japan, Joint Statement from Quad Leaders, September 24, 2021.

[viii] Satoru Nagao, “Strike capabilities of Japan, India, Australia key for US-led counter-China strategy, Sunday Guardian Live, February 27, 2021.

[ix] Dinakar Peri, “Philippines inks deal worth $375 million for BrahMos missiles, The Hindu, January 28, 2022.

[x] Statistics on the number of Japanese residents abroad,” Ministry of Foreign Affairs of Japan.

[xi] Reynolds Isabel and Urabe Emi, “Japan to Fund Firms to Shift Production Out of China, Bloomberg, April 8, 2020.

[xii] Mari Yamaguchi, “Tokyo concerned over China-Russia naval drills near Japan, AP, October 25, 2021.

[xiii] Russia confirms progress on new jet engine. Is it for Pak JF-17 fighter? The Week, July 9, 2020.

[xiv] Franz-Stefan Gady, “Pakistan Begins Receiving Advanced Attack Helicopters From Russia, The Diplomat, April 12, 2018.

ओआरएफ हिन्दी के साथ अब आप FacebookTwitter के माध्यम से भी जुड़ सकते हैं. नए अपडेट के लिए ट्विटर और फेसबुक पर हमें फॉलो करें और हमारे YouTube चैनल को सब्सक्राइब करना न भूलें. हमारी आधिकारिक मेल आईडी [email protected] के माध्यम से आप संपर्क कर सकते हैं.


The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.