Author : Harsh V. Pant

Published on Feb 26, 2019 Updated 0 Hours ago

अफगानिस्तान में भारत के विविध प्रकार के हित हैं जिनकी उसे हिफाजत करनी है। अमेरिका की सुरक्षा प्रदाता वाली भूमिका पर लम्बे अर्से तक भारत की निर्भरता भारत की सबसे बड़ी कमजोरी रही है।

अफगानिस्तान में बदलते आयामों के लिए भारत पूरी तरह तैयार नहीं

अफगानिस्तान में 17 साल से जारी जंग को खत्म करने के लिए कतर में अमेरिका के विशेष दूत जाल्मे खलीलज़ाद और तालिबान के प्रतिनिधियों की बातचीत की रफ्तार बढ़ने के साथ ही तालिबान ने आगे बढ़ते हुए इस महीने के आखिर में होने वाली शांति वार्ता में भाग लेने के लिए 14 सदस्यीय टीम की घोषणा कर दी है। इस टीम की अगुवाई शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकजई करेंगे और इसमें हक्कानी नेटवर्क के सरगना का भाई अनस हक्कानी शामिल होगा, जो काबुल में कैद है।

बातचीत की प्रक्रिया शुरू करने के लिए तालिबान उसकी रिहाई की मांग कर रहे हैं। तालिबान इस बात पर भी बल दे रहे हैं कि अमेरिका के साथ यह वार्ता उनको कतर में “राजनीतिक कार्यालय” के लिए औपचारिक मान्यता प्रदान करने का मार्ग तैयार करेगी। इसी समय, समानांतर रूप से रूस ने भी अपनी ओर से वार्ता का आयोजन किया है और इसके लिए वह अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई और तालिबान नेताओं सहित प्रभावशाली अफगानों को एक साथ लाया है।

फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि वास्तव में अमेरिका के मन में क्या है, लेकिन खलीलज़ाद के अनुसार अमेरिका ​तालिबान के साथ एक फ्रेमवर्क पर “सैद्धांतिक सहमति पर पहुंच चुका है,” जो इस बात की गारंटी देगा कि कोई भी आतंकवादी गुट या व्यक्ति अमेरिका या उसके सहयोगियों पर हमले के लिए अफगान धरती का इस्तेमाल नहीं करेगा।

पिछले सप्ताह अमेरिकी कांग्रेस के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करते हुए ट्रम्प ने दिलचस्प रूप से इस बात की संभावना व्यक्त की कि अफगानिस्तान में वर्तमान में तैनात 11,000 अमेरिकी सैनिकों का कुछ हिस्सा आतंकवाद से निपटने पर ध्यान केंद्रित करने के लिए वहां बना रहेगा।

ट्रम्प यह साफ कर चुके हैं कि वह लगभग दो दशक से संघर्ष कर रहे अमेरिकी सैनिकों को वापस लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं, बावजूद इसके कि क्षेत्र तथा अमेरिका के रणनीतिक हलकों में इस बात को लेकर चिंता बढ़ रही है कि अफगानिस्तान में सैनिकों की तादाद में तेजी से कमी लाना फायदेमंद से ज्यादा नुकसानदायक रहेगा। पिछले सप्ताह अमेरिकी कांग्रेस के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करते हुए ट्रम्प ने दिलचस्प रूप से इस बात की संभावना व्यक्त की कि अफगानिस्तान में वर्तमान में तैनात 11,000 अमेरिकी सैनिकों का कुछ हिस्सा आतंकवाद से निपटने पर ध्यान केंद्रित करने के लिए वहां बना रहेगा।

अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव बेहद करीब आ पहुंचे हैं, ऐसे में अमेरिकी नीति ने अफगानिस्तान की ग़नी सरकार को भी अधिकारहीन कर दिया है। तालिबान के साथ सम्पर्क अमेरिकी नीति का प्रमुख पहलु बन चुका है और तो और इसका उल्लेख तक पिछले हफ्ते के कांग्रेस के संयुक्त अधिवेशन में ट्रम्प के सम्बोधन के दौरान किया गया। अपनी ओर से, तालिबान लगातार इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि वे अफगान सरकार के साथ बातचीत नहीं करेंगे, जिसे वे अब तक अमेरिका की कठपुतली के तौर पर देखते हैं और अब जबकि अमेरिका अपने सैनिकों की वापसी के कार्यक्रम की घोषणा तक चुका है।

बातचीत को लेकर उत्साह के बावजूद, इस संबंध के भविष्य की राह के बारे में मूलभूत प्रश्न यथावत बरकरार हैं।

अमेरिकी सैनिकों को मैदान-ए जंग से रवाना करने के लिए तालिबान द्वारा किए गए वायदों को निभाया जाना, उन मसलों में से एक है, जो इस प्रक्रिया पर हावी रहेंगे। अगर अमेरिका यह दिखाता रहा कि उसे अफगानिस्तान को छोड़कर जाने की जल्दी है, तो तालिबान को अमेरिकी सैनिकों की रवानगी का इंतजार करते हुए बहुत प्रसन्नता होगी। वे तमाम ऐसी अच्छी बाते कहेंगे, ताकि अमेरिकी सैनिक वहां से लौट जाएं और उसके बाद वह अमेरिका की ओर से उपलब्ध कराई गई सुरक्षा और आर्थिक मदद के बगैर अफगान सरकार को लड़खड़ाते देखे। तालिबान की सत्ता में वापसी तो तय नहीं है, लेकिन अफरा-तफरी मचने की काफी संभावना है।

तालिबान लगातार इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि वे अफगान सरकार के साथ बातचीत नहीं करेंगे।

इसका भी कोई सबूत नहीं है कि अफगानिस्तान से सैनिकों को वापस बुलाने की ट्रम्प की इच्छा से पूरी अमेरिकी सरकार राजी है। अमेरिका में हाल ही में सभी सीनेटर्स ने दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर सीरिया और अफगानिस्तान से सैनिकों को वापस बुलाने की राष्ट्रपति की योजना का विरोध करने वाले एक संशोधन का निर्णायक बहुमत के साथ समर्थन किया है। उन्होंने इस बात पर बल दिया है कि सैनिकों की वापसी से इस्लामिक स्टेट (आई एस आई एस) और अल कायदा जैसे गुटों को फिर से पनपने और दोनों देशों को अस्थिर करने का मौका मिल सकता है।

भारत लम्बे अरसे से ‘अफगान-नेतृत्व, अफगान-स्वामित्व’ और अफगान-नियंत्रण वाली शान्ति प्रक्रिया का समर्थन करता रहा है। यहां तक कि वह हाल के दौर में तालिबान सहित अफगानिस्तान में कई हितधारकों के साथ सम्पर्क में है।

आधिकारिक तौर पर खुद को तालिबान से अलग रखना जारी रखे जाने के बावजूद, भारत ने इस बात पर बल दिया है कि “वह बातचीत के ऐसे सभी स्वरूपों में भाग लेगा, जो क्षेत्र में शान्ति और स्थायित्व लाएं।” भारत ने नवम्बर 2018 में रूस के नेतृत्व वाली शान्ति वार्ता में भाग लेने के लिए सेवानिवृत्त अधिकारियों को भेजा था। इस वार्ता में तालिबान के प्रतिनिधि भी मौजूद थे।

अगर अफगानिस्तान भारत के सुरक्षा हितों के लिए गैर जरूरी होता, तो भारत ने वहां बहुत कम निवेश किया होता। अगर यह आकलन रहा होता कि अफगानिस्तान, क्षेत्र में और उससे परे भारतीय हितों के लिए महत्वपूर्ण होने वाला है, तो भारत वहां अपने महत्वपूर्ण निवेश की हिफाजत के लिए अब तक ज्यादा बेहतर तैयारी कर चुका होता।

अफगानिस्तान में भारत के विविध प्रकार के हित हैं जिनकी उसे हिफाजत करनी है। अमेरिका की सुरक्षा प्रदाता वाली भूमिका पर लम्बे अर्से तक भारत की निर्भरता उसकी सबसे बड़ी कमजोरी रही है। भारत के लिए यह वास्तव में तर्कसंगत है कि वह अमेरिका की मौजूदा स्थिति के बारे में अपनी असहजता से उसको अवगत कराए। हालांकि यह काफी अजीब शिकायत है कि अमेरिका भारत को मुश्किल स्थिति में छोड़कर वहां से निकल रहा है।

अमेरिकी नीति के बारे में भारत के रणनीतिक समुदाय का धौंस देना पाखंड भर है, क्योंकि काफी अर्सा पहले इसी समुदाय ने सर्वसम्मति से यह निष्कर्ष निकाला था कि अफगानिस्तान में भारत की सशक्त सैन्य भूमिका नहीं होनी चाहिए। यह हमेशा से जगजाहिर था कि किसी मोड़ पर आकर अफगानिस्तान में अमेरिका की इस जंग को लड़ने की इच्छा कम हो जाएगी।

अगर अफगानिस्तान भारत के सुरक्षा हितों के लिए गैर जरूरी होता, तो भारत ने वहां बहुत कम निवेश किया होता। अगर यह आकलन रहा होता कि अफगानिस्तान, क्षेत्र में और उससे परे भारतीय हितों के लिए महत्वपूर्ण होने वाला है, तो भारत वहां अपने महत्वपूर्ण निवेश की हिफाजत के लिए अब तक ज्यादा बेहतर तैयारी कर चुका होता। अफगानिस्तान में अपनी अंतिम अवस्था के बारे में ठोस रूप से न सोचकर अब आखिर में भारत अन्य देशों के कार्यों की प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है। जिसे आसानी से टाला जा सकता था।

अब जबकि भारत, अफगानिस्तान में नए तरह के समीकरणों की तैयारी कर रहा है,ऐसे में उसको पाकिस्तान को अफगानिस्तान में हो रहे परिवर्तन को मैनेज करने की खुली छूट न मिलना सुनिश्चित करने के लिए अमेरिका के साथ मिलकर कार्य करना होगा साथ ही अफगानिस्तान की हुकूमत में संतुलन बरकरार रखने के लिए चीन, रूस और ईरान जैसे अन्य क्षेत्रीय हितधारकों के साथ भी​ मिलकर कार्य करना होगा। यह स्वतंत्र और सुरक्षित देश के रूप में अफगानिस्तान के वजूद साथ ही साथ क्षेत्रीय सुरक्षा को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण होगा।


ये लेख मूल रूप से Money Control में प्रकाशित हो चुका है।

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