एशिया में 'कूटनीतिक वर्चस्व का खेल' धीरे-धीरे पूर्व में हिंद-प्रशांत क्षेत्र से फारस की खाड़ी क्षेत्र की ओर बढ़ रहा है. इस क्षेत्र (जो विश्व का ऊर्जा-केंद्र है) के देशों में भारत और चीन की बढ़ती मौजूदगी और उनके साथ आपसी साझेदारी क्षेत्र में क्षेत्रीय, महाद्वीपीय और वैश्विक अभिकर्ताओं के बीच शक्तिसंबंधों की संभावनाओं को दर्शाती है. खाड़ी में चीन द्वारा शुरू की गई नई पहल विदेश नीति के संदर्भ में देश की ऐतिहासिक परंपरा के अनुरूप है, जिसेबड़ी ख़ामोशी से लागू किया गया है और यह वर्षों बाद ईरान और सऊदी अरब के बीच कूटनीतिक संबंधों को पुनर्जीवित करने में सफ़ल रही है. यहफ़ारस की खाड़ी में एक नई क्षेत्रीय शक्ति संरचना के उभार की शुरुआत को दर्शाता है.
वर्तमान में दोनों देशों के बीच आपसी संबंधों की गहराई पहले की तुलना में कम हुई है. केवल आर्थिक संबंधों की बात करें, दोनों देशों के बीच आधिकारिक व्यापार 2017 में 17 अरब डॉलर से घटकर 2022 में लगभग 2 अरब अमेरिकी डॉलर हो गया है.
जबकि 2000 के दशक की शुरुआत में ईरान-भारत संबंध ने "रणनीतिक साझेदारी" के पड़ाव में कदम रखा था, लेकिन पिछले दो दशकों में इसमें काफ़ीगिरावट आई है. भले ही, दोनों देशों ने द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ाने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया हो लेकिन वास्तविकता तो यह हैकि वर्तमान में दोनों देशों के बीच आपसी संबंधों की गहराई पहले की तुलना में कम हुई है. केवल आर्थिक संबंधों की बात करें, दोनों देशों के बीचआधिकारिक व्यापार 2017 में 17 अरब डॉलर से घटकर 2022 में लगभग 2 अरब अमेरिकी डॉलर हो गया है. वैज्ञानिक सहयोग और सांस्कृतिक औरसामाजिक संबंधों के साथ-साथ राजनीतिक और सुरक्षा संबंधों के क्षेत्र में भी यही स्थिति देखी जा रही है.
ईरान और भारत के बीच आपसी सहयोग को बढ़ावा देने के प्रस्तावित तरीकों में से एक तरीका यह था कि भारत को पहल करने का अधिकार दिया जाएऔर वह ईरान और उसके दक्षिणी पड़ोसियों के बीच संबंधों को सुधारने के लिए एक मध्यस्थ की भूमिका निभाए. फ़ारस की खाड़ी में भारत की मौजूदगीऔर उसकी भूमिका ऐतिहासिक रही है, और साथ ही भारत के पास दोनों पक्षों (और दोनों ही पक्ष भारत से सहयोग की इच्छा शक्ति रखते हैं) के बीचराजनीतिक बातचीत को आगे ले जाने योग्य कूटनीतिक क्षमता है. यह भारत उसके पश्चिमी पड़ोसियों के बीच संबंधों के संदर्भ में नई क्षमताओं कानिर्माण कर सकता है. हालांकि, हालिया वर्षों में, भारत I2U2 (भारत, इजराइल, संयुक्त अरब अमीरात और संयुक्त राज्य अमेरिका का एक समूह), इंडो-अब्राहमिक कंस्ट्रक्ट और इंडिया मिडिल-ईस्ट फूड कॉरिडोर जैसी नई पहलों का हिस्सा बना है, ताकि फ़ारस को खाड़ी से भूमध्यसागरीय तट तकअपने आर्थिक, राजनीतिक और क्षेत्रीय सहयोग का विस्तार कर सके. इज़राइल में हाइफा में बंदरगाह सुविधाओं में निवेश और मिस्र के साथ सहयोग काविस्तार यह दर्शाता है कि भारत भूमध्यसागरीय क्षेत्र में अपनी भूमिका बढ़ाना चाहता है.
भारत की भूमिका
भारत ने अपनी विदेश नीति के तहत मध्य एशिया में ईरान की स्थिति को परिभाषित करने की कोशिश की है और उत्तर (जिसमें अफगानिस्तान, मध्यएशिया, ककासस और रूस शामिल है) तक विशेष पहुंच के लिए चाबहार बंदरगाह को मार्ग के रूप में चिन्हित किया है. यहां यह नोट किया जानाचाहिए कि इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर (INSTC) में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के साथ-साथ ईरान कई सदियों से पूर्व और पश्चिम केबीच एक पुल की भांति काम करता रहा है. ईरान एक ओर से हिंद महासागर से जुड़ा हुआ है, और वहीं दूसरी तरफ़ उसकी सीमाएं इराक़ और तुर्की सेमिलती है. इसके अलावा क्षेत्र के कुछ देशों जैसे सीरिया और लेबनान के साथ उसके ऐतिहासिक संबंध रहे हैं, जो ईरान को एक पुल की तरह काम करनेमें सक्षम बनाते है.
भारत I2U2 (भारत, इजराइल, संयुक्त अरब अमीरात और संयुक्त राज्य अमेरिका का एक समूह), इंडो-अब्राहमिक कंस्ट्रक्ट और इंडिया मिडिल-ईस्ट फूड कॉरिडोर जैसी नई पहलों का हिस्सा बना है, ताकि फ़ारस को खाड़ी से भूमध्यसागरीय तट तक अपने आर्थिक, राजनीतिक और क्षेत्रीय सहयोग का विस्तार कर सके.
इसमें कोई शक नहीं है कि चीन फ़ारस की खाड़ी में अपनी जगह पक्की करना चाहता है ताकि वह क्षेत्रीय बाजारों में अपनी आर्थिक पहुंच को बरकराररख सके और ऊर्जा तक सुरक्षित पहुंच बना सके. इन दो मुद्दों के अलावा, चीन पूर्व से पश्चिम तक अपने परिवहन मार्गों का भी विस्तार करना चाहता है. जिस तरह से चीन ने फ़ारस की खाड़ी में नया दृष्टिकोण अपनाया है और जिस तरह से वह ईरान और सऊदी अरब के टूटे हुए संबंधों को फिर से जोड़ने कीकोशिश कर रहा है, वह कुछ हद तक अमेरिका के "टू पिलर्स" सिद्धांत से मेल खाता है, जो 1970 के दशक में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के शासनकी याद दिलाता है. इस दृष्टिकोण से यह स्पष्ट है कि दक्षिण-पूर्व एशिया में संसाधनों, बाजारों और मार्गों तक सुरक्षित पहुंच और क्षेत्र में अपनी स्थिरमौजूदगी के लिए, विशिष्ट नीतिगत उपायों को अपनाने और क्षेत्र में मौजूद सभी ताकतवर अभिकर्ताओं को पहचानने की ज़रूरत है.
हालिया वर्षों में, भारत ने वैश्विक दक्षिण के देशों के बीच आपसी सहयोग के मसले पर केंद्रीय भूमिका निभाने की कोशिश की है. इसके अतिरिक्त, भारतजैसी महाशक्ति यह क्षमता रखती है कि वह विभिन्न मुद्दों पर वैश्विक उत्तर और दक्षिण के बीच बातचीत की राह तलाशने और एक साझा समाधान ढूंढ़नेके लिए प्रयास कर सके. फ़ारस की खाड़ी में स्थित देशों के साथ भारत के संबंधों का समकालीन इतिहास यही बताता है कि 1980 के दशक में जारी 8 वर्षीय युद्ध के दौरान भी नई दिल्ली के ईरान और इराक़ के प्रति एक संतुलित नीति अपनाई थी. फ़ारस की खाड़ी के दोनों तरफ़ लंबे अरसे से लाखोंभारतीय रह रहे हैं, जहां 1900 और 1980 के दशक के बीच ईरान में खुज़ेस्तान, बुशहर और होर्मोज़्गान प्रांतों और 1970 के दशक के बाद से क्षेत्र केदक्षिणी देशों में भारतीयों की मौजूदगी है, जो पश्चिम एशियाई समाज के साथ भारत के सामाजिक संबंधों को ही उजागर करती है. इसलिए, ऐसा लगताहै कि भारत में वह क्षमता है कि वह नए और व्यापक कार्यक्रमों के ज़रिए अपने पड़ोस में एक बार फिर से एक स्थिर भूमिका निभा सके.
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