Published on Dec 13, 2018 Updated 0 Hours ago

हाल की ये घटनाएं एक ऐसे अफगानिस्तान की ओर इशारा करती हैं, जो रूस और अमेरिका के प्रतिस्पर्धी हितों का बंधक बन चुका है।

अफगानिस्तान में रूसी और अमेरिकी गतिरोधों के बीच भारत

अफगानिस्तान में अमेरिका के विशेष राजनयिक जालमे खलीलजाद ने वहां जारी युद्ध समाप्त करने मसले पर चर्चा करने के लिए 14 नवम्बर को दोहा में तालिबान से दूसरी बार मुलाकात की। तालिबान ने इस बैठक को “प्रारंभिक वार्ता” के तौर पर लिया, जिसमें “किसी भी मामले पर कोई समझौता नहीं हो सका।”

हाल ही में, स्पेशल इंस्पैक्टर जनरल फॉर अफगान रिकंस्ट्रक्शन (एसआईजीएआर) ने अमेरिकी कांग्रेस के सामने अपनी तिमाही रिपोर्ट पेश की। इस रिपोर्ट में भयावह तस्वीर प्रस्तुत करते हुए कहा गया है, “2001 के बाद के किसी भी दौर की तुलना में इस समय तालिबान का अफगानिस्तान के सबसे ज्यादा हिस्से पर कब्जा है।” हाल ही में ज्वाइंट चीफ्स के अध्यक्ष जनरल जोसेफ डनफोर्ड ने तो यहां तक कह दिया कि तालिबान “इस समय हार नहीं रहे हैं.. हमने एक साल पहले गतिरोध श​ब्द का इस्तेमाल किया था और तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो उस स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है।”

इस बीच, रूस ने 9 नवम्बर 2018 को अफगानिस्तान के बारे में “रूस के प्रारूप” पर विचार विमर्श के लिए दूसरी बैठक बुलाई। इस बैठक में अफगान सरकार के किसी भी आधिकारिक प्रतिनिधि ने हिस्सा नहीं लिया, हालांकि इसमें गैर-सरकारी संस्था अफगानिस्तान हाई पीस काउंसिल के सदस्य मौजूद थे। इसमें अफगानों द्वारा अफगानिस्तान के नेतृत्व वाले दृष्टिकोण पर बल देना बरकरार रखा। उदाहरण के लिए, इस साल के आरंभ में, रूस की बातचीत का प्रायोजन करने की पेशकश अफगान सरकार ने सीधे तौर पर यह कहकर ठुकरा दी थी कि “सरकार अब और ऐसी बैठकों में हिस्सा नहीं लेगी, जिनकी अगुवाई अफगान सरकार नहीं कर रही होगी।”

हाल की ये घटनाएं एक ऐसे अफगानिस्तान की ओर इशारा करती हैं, जो रूस और अमेरिका के प्रतिस्पर्धी हितों का बंधक बन चुका है।

रूस लम्बे अर्से से इस बात पर बल देता आया है कि अफगानिस्तान के संकट को सुलझाने में ताकत का इस्तेमाल निर्थरक रहेगा। अफगानिस्तान के बारे में ताशकंद सम्मेलन (मई 2018),में रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने कहा, “संघर्ष का समाधान ताकत के बल पर नहीं हो सकता, भले ही दूसरे देश कैसी ही रणनीतियों को मंजूरी दें।” उन्होंने मध्य एशियाई देशों की सीमाओं से सटे अफगानिस्तान के इलाकों में इस्लामिक स्टेट की बढ़ती मौजूदगी के बारे में भी चिंता जाहिर की। हालांकि 10,000 इस्लामिक स्टेट लड़ाकों की अनुमानित मौजूदगी के रूस के दावों को ज्यादा विश्वसनीय नहीं माना गया — जो अफगानिस्तान पर ​तालिबान के नियंत्रण की तुलना में बहुत मामूली है। यहां तक कि अगस्त 2018 में, तुर्कमेनिस्तान की सीमा से सटे उत्तरी जोज़जान सूबे में इस्लामिक स्टेट के 150 लड़ाकों ने अफगान सुरक्षा बलों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और इस तरह वे अपने इलाकों पर से नियंत्रण भी खो बैठे।

हालांकि 10,000 इस्लामिक स्टेट लड़ाकों की अनुमानित मौजूदगी के रूस के दावों को ज्यादा विश्वसनीय नहीं माना गया — जो अफगानिस्तान पर तालिबान के नियंत्रण की तुलना में बहुत मामूली है।

अफगानिस्तान और उससे बाहर आई एस के बढ़ते प्रभाव पर बल देने के जरिए रूस, तालिबान के साथ बातचीत शुरु करने तथा अमेरिकी सेना की किसी भी तरह की मौजूदगी को कमजोर बनाने के लिए मध्य एशियाई देशों का समर्थन जुटाना चाहता है।

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के नेतृत्व में अमेरिका को उसके “निरंतर युद्ध” में ज्यादा कामयाबी नहीं मिली है। अपने प्रशासन की नई दक्षिण ​एशिया रणनीति की घोषणा करते हुए ट्रम्प ने अमेरिका के प्रयासों को “लड़ने और जीतने” की तैयारी के समान बताया था। आज हालांकि अफगान सरकार का देश के 407 जिलों में से महज 229 जिलों पर ही नियंत्रण है। शेष जिलों में से 59 पर तालिबान का नियंत्रण है और बाकी 119 जिलों पर तालिबान और गठबंधन सेना के समर्थन वाले अफगान सुरक्षा बलों के बीच संघर्ष चलता रहता है।

अफगानिस्तान में ओबामा के कार्यकाल से विरासत में मिले प्रशिक्षण और परामर्श मिशन की जिम्मेदारियों को ग्रहण करते हुए ट्रम्प ने बेमन से अमेरिकी प्रयास जारी रखने पर सहमति दी। वहां से सैनिकों को वापस बुलाने की अपनी मौलिक इच्छा के विपरीत, ट्रम्प के इस रुख के कारण अफगानिस्तान में और अमेरिकी सैनिक भेजे गए हैं, युद्धभूमि में मौजूद रहने वाले कमांडरों को व्यापक कार्रवाई करने की छूट मिली है तथा अमेरिकी हवाई बमबारी में तेजी आई है। ट्रम्प के नेतृत्व में अमेरिकी प्रयासों के सैन्यीकरण में निक्सन युग जैसी विशेषताएं हैं।

वियतनाम में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के रुख के समान लगातार सैन्य हमलों में बढ़ोत्तरी करने, जमीनी कार्रवाई में लाभ हासिल करने तथा विरोधी को राजनयिक बातचीत से बहलाने के जरिए ट्रम्प प्रशासन मनमाने टाइम टेबल्स को नहीं, बल्कि जमीनी हकीकत को अपना मार्गदर्शक मानना चाहता है। सबसे पहले तो, यह ओबामा प्रशासन के रुख से हटना है — जिसके तहत अमेरिकी सैनिकों की संख्या में वृद्धि तो की गई, लेकिन वापसी की पूर्व निर्धारित समय-सीमा के साथ उनकी मौजूदगी सीमित भी कर दी गई।

यूं तो ट्रम्प की नई दक्षिण एशिया रणनीति लागू हुए साल भर से ज्यादा अर्सा बीत चुका है, लेकिन उसके नतीजे बहुत मामूली रहे हैं। उदाहरण के लिए, अकेले अगस्त और सितम्बर में ही हताहत होने वाले अफगान सैनिकों की संख्या 1,000 तक पहुंच गई और तालिबान द्वारा समय-समय पर सरकारी नियंत्रण वाले शहरों पर कब्जा करना जारी रहा। इसने अमेरिका द्वारा प्रशिक्षित अफगान सुरक्षा बलों की क्षमताओं पर गंभीर सवाल खड़े किए।

अफगानिस्तान में ओबामा के कार्यकाल से विरासत में मिले प्रशिक्षण और परामर्श मिशन की जिम्मेदारियों को ग्रहण करते हुए ट्रम्प ने बेमन से अमेरिकी प्रयास जारी रखने पर सहमति दी… ट्रम्प के नेतृत्व में अमेरिकी प्रयासों के सैन्यीकरण में निक्सन युग जैसी विशेषताएं हैं।

इसके अलावा, रूस और अमेरिका दोनों के ही दृष्टिकोण भारतीय हितों के अनुकूल नहीं हैं, क्योंकि वे दोनों ही राजनीतिक समाधान में तालिबान को शामिल कर रहे हैं।

रूस के दृष्टिकोण का लक्ष्य बातचीत की प्रक्रिया में लाभ हासिल करने के लिए तालिबान के साथ सम्पर्क बनाए रखना है। ऐसा लगता है कि रूस संघर्ष समाप्त होने के बाद अफगानिस्तान में किसी भी तरह की सैन्य मौजूदगी के अमेरिकी प्रयासों को अवरूद्ध करना चाहता है। बातचीत की प्रक्रिया में लाभ प्राप्त करने के लिए रूस ने पाकिस्तान के साथ भी संबंध कायम किए हैं। हाल ही में, दोनों देशों ने तीसरी बार संयुक्त सैन्य अभ्यास किया। दोनों देशों में इस तरह के सैन्य अभ्यास 2016 में शुरु हुए ​थे। इस तरह, तालिबान के साथ संवाद और पाकिस्तान के साथ रिश्ते बनाना — रूस को बातचीत की प्रक्रिया और संघर्ष समाप्त होने के बाद के परिदृश्य में उसकी मौजूदगी का भरोसा दिलाते हैं।

बातचीत की प्रक्रिया के प्रति रूस का रुख, अफगानिस्तान में अमेरिका की निरंतर सैन्य मौजूदगी के बारे में भारत के हितों के विरुद्ध है। तालिबान के बढ़ते प्रभाव की पृष्ठभूमि में अफगानिस्तान में अमेरिका की मौजूदगी को भारत विशुद्ध सुरक्षा प्रदाता के तौर पर देखता है। भारत द्वारा अफगानिस्तान में नेटो की लगातार मौजूदगी के लिए की जा रही लॉबिंग को देखते हुए आपात स्थिति बनने पर रूस द्वारा एस सी ओ के जरिए अपने रुख के पक्ष में समर्थन जुटाए जाने की सम्भावना है। ऐसा कदम भारत को क्षेत्रीय स्तर पर अलग थलग कर देगा, क्योंकि वह अकेला देश है, जो किसी न किसी तरह की अमेरिकी मौजूदगी के पक्ष में है।

इसलिए रूस के नेतृत्व वाली वार्ता की सफलता के बावजूद अफगानिस्तान में किए गए निवेश को लेकर भारत की चिंता दूर नहीं होगी।

दूसरी ओर, अमेरिका का दृष्टिकोण राष्ट्रपति ट्रम्प की युद्ध खत्म करने की बेताबी पर केंद्रित दिखाई देता है, जिसे शुरू हुए 17 साल हो चुके हैं। गत जुलाई में, ट्रम्प प्रशासन ने तुरत फुरत अफगान वार्ता शुरू करने के लिए अपने राजनयिकों को तालिबान के साथ सीधे संवाद शुरू करने का आदेश दिया और सितम्बर में जाने-माने अमेरिकी राजनयिक जालमे ख़लीलजाद को अफगानिस्तान का विशेष सलाहकार नियुक्त कर दिया।

तालिबान के बढ़ते प्रभाव की पृष्ठभूमि में अफगानिस्तान में अमेरिका की मौजूदगी को भारत विशुद्ध सुरक्षा प्रदाता के तौर पर देखता है। भारत द्वारा अफगानिस्तान में नेटो की लगातार मौजूदगी के लिए की जा रही लॉबिंग को देखते हुए आपात स्थिति बनने पर रूस द्वारा एस सी ओ के जरिए अपने रुख के पक्ष में समर्थन जुटाए जाने की सम्भावना है।

उत्तर कोरिया के साथ उसके परमाणु कार्यक्रम के बारे में बिना किसी पूर्व शर्त के शांति सन्धि पर हस्ताक्षर करने की राष्ट्रपति ट्रम्प की इच्छा की ही तरह तालिबान के साथ सीधे बातचीत “अफगान नेतृत्व, अफगान स्वामित्व” वाली राजनयिक प्रक्रिया की अहमियत को कम करती है, जिस पर अमेरिका और अफगानिस्तान लम्बे अर्से से बल देते आए हैं।

इसके अलावा, विदेशी और स्थानीय सुरक्षा बलों को जमीनी स्तर पर आगे बढ़ने से रोकने के लिए तालिबान उनके समक्ष लगातार गम्भीर सामरिक चुनौतियाँ पेश कर रहा है, जिससे बातचीत की प्रक्रिया उलझ कर रह गई है । तालिबान का 100 से ज्यादा जिलों पर संघर्ष जारी है तथा और ज्यादा क्षेत्रों पर कब्जा करने के लिए तालिबान को अभी संघर्ष करना होगा। तालिबान द्वारा ऑपरेशन रेजुलेट कमांडर जनरल ऑस्टिन स्कॉट मिलर पर हमले और कन्धार के पुलिस प्रमुख अब्दुल राजिक की हत्या का दावा करने जैसी घटनाओं के कारण इस प्रवृत्ति को महत्व मिल रहा है। ऐसी घटनाएं आत्मनिर्भर अफगान सुरक्षा बल तैयार करने के गठबंधन सेनाओं के प्रयासों में रूकावट डालती हैं और शांति वार्ता की संभावनाओं को भी प्रभावित करती है।

अंत में, “सामरिक पहल फिर से हासिल करने” के लिए जनरल मिलर के ज्यादा आक्रामक नीति बनाने के हाल में संकल्प का अनुसरण करते हुए, यदि तालिबान को फुसलाकर बातचीत की मेज तक ले भी आया जाए, तो भी संघर्ष जल्द समाप्त होने के कोई आसार नहीं हैं। दीर्घकालिक अमेरिकी सामरिक चिंतन के तहत अमेरिकी सेना की निरंतर मौजूदगी तालिबान के साथ बातचीत में विवाद की जड़ साबित हुई है। अमेरिका राजनीतिक समझौते के अलावा कम से कम दो ठिकानों — बगराम और शोराबाक — को अपने नियंत्रण में रखने पर बल देता आ रहा है। तालिबान ने अमेरिका की इस मांग पर गौर करने से भी इंकार कर दिया है, क्योंकि तालिबान विदेशी कब्जे को “अपने उग्रवाद की वाजिब वजह” बताता आया है। इसलिए, “अफगान-नेतृत्व, अफगान स्वामित्व” के स्थान पर अमेरिका द्वारा तालिबान के साथ बातचीत करना भारत के हितों की पूर्ति नहीं करेगा, जो आत्मनिर्भर और स्थिर अफगान सरकार चाहता है। खासकर, अफगानिस्तान में अमेरिका के पूर्व राजदूत रेयान क्रॉकर ने इस विचार से सहमति जताते हुए कहा है कि अमेरिका और तालिबान के बीच सीधी बातचीत “अफगान सरकार की विश्वसनीयता को खोखला बनाएगा।”

आखिर में, भारत को भावी खतरे को भांपते हुए सीधे तौर पर यह समझना होगा कि तालिबान “अफगान समाज की मूलभूत ताकत, उसके राजनीतिक तानेबाने का अंग है।” 9/11 के तत्काल बाद बेदखल किए जाने के बाद से, ज्यादातर वार्ताकार पक्षों ने तालिबान को संघर्ष के समाधान का महत्वपूर्ण भाग माना है। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय तालिबान के साथ बातचीत पर जोर दे रहा है, ऐसे में भारत को भी इस प्रक्रिया का अंग बनने का प्रयास करना चाहिए और अपने हितों के साथ किसी तरह का कपट नहीं होने देना चाहिए।

रूस और अमेरिका के प्रतिस्पर्धी हितों के परिदृश्य में, उज्बेकिस्तान का रुख भारत का मार्गदर्शक साबित हो सकता है। किसी भी अन्य मध्य एशियाई देश ने तालिबान के साथ सम्पर्क नहीं स्थापित किया है, ऐसे में उज्बेकिस्तान का रुख नया प्रतीत होता है।

शौकत मिर्जियोयेव के राष्ट्रपति बनने के बाद से ही तालिबान के साथ उज्बेकिस्तान के रिश्तों में गरमाहट आई है। उज्बेक-अफगान सीमा पर मुक्त व्यापार क्षेत्र, मजार-ए-शरीफ को हेरात से जोड़ने वाली रेलवे परियोजना तथा उज्बेक कम्पनियों द्वारा कपड़े की 6 फैक्टरियां लगाने जैसी अनेक निवेश परियोजनाओं पर बातचीत के बाद उनके रिश्तों में मजबूती आई है।

आखिर में, भारत को भावी खतरे को भांपते हुए सीधे तौर पर यह समझना होगा कि तालिबान ‘अफगान समाज की मूलभूत ताकत, उसके राजनीतिक तानेबाने का अंग है।’ 9/11 के तत्काल बाद बेदखल किए जाने के बाद से, ज्यादातर वार्ताकार पक्षों ने तालिबान को संघर्ष के समाधान का महत्वपूर्ण भाग माना है।

इसके अलावा, उज्बेकिस्तान ने मई 2018 में तालिबान के प्रतिनिधिमंडल को ताशकंद आमंत्रित करते समय अफगानिस्तान को अपने पक्ष में रखा। उज्बेकिस्तान ने मुख्य रूप से तालिबान के साथ रेलवे और बिजली की तारों जैसी मौजूदा और भावी निवेश परियोजनाओं की सुरक्षा के बारे में चर्चा की। निवेश की सुरक्षा पर केंद्रित यह दृष्टिकोण संभवत: भारत के लिए अच्छा लक्षण हो सकता है।

भारत के लिए, अफगानिस्तान मध्य एशिया के साथ सम्पर्क की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। उज्बेकिस्तान,अफगान सरकार के साथ अपने सौहार्दपूर्ण संबंधों और तालिबान के साथ तालमेल के जरिए अफगानिस्तान में भारतीय निवेशों की सुरक्षा का आश्वासन दे सकता है। अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के प्रयासों में भारत के महत्वपूर्ण योगदान और “जिम्मेदार सहायता प्रदाता” के रूप में उसके रिकॉर्ड को देखते हुए, भावी निवेशों और उनकी सुरक्षा के लिए उज्बेकिस्तान के साथ संघटित होने पर विचार करना चाहिए।

शुरूआती सहयोगपूर्ण परियोजना के रूप में, भारत, 650 किलोमीटर लम्बी मजार-ए-शरीफ-हेरात रेलवे परियोजना में भाग लेने के उज्बेकिस्तान के निमंत्रण को स्वीकार करने पर विचार कर सकता है। इसके अलावा, इस तरह का सहयोग, यूरेशियाई स्थानों पर भारत की अंतर्राष्ट्रीय परिवहन और पारगमन गलियारे तथा अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे जैसी अपनी कनेक्टिविटी परियोजनाओं के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण साबित हो सकता है।

यकीनन, ऐसा विचार नहीं है कि संघर्ष समाप्ति के बाद अफगानिस्तान में भारत के हितों के बारे में वह केवल उज्बेकिस्तान के दृष्टिकोण पर ही निर्भर रहा जाए।

हालांकि अमेरिका और रूस के प्रतिस्पर्धी हितों के कारण बार-बार उत्पन्न हो रहे गतिरोधों को देखते हुए, भारत द्वारा एक नए क्षेत्रीय पक्ष पर गौर करना शायद उसके लिए सबसे बेहतर कदम हो सकता है।

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