Published on Apr 17, 2017 Updated 0 Hours ago

भारत जब तक मानव विकास के मोर्चे पर अपनी धाक नहीं जमा पाएगा तब तक भारत एक ‘असमान समाज’ ही बना रहेगा।

भारत जीडीपी में आगे, पर मानव विकास में पीछे

लोगों को यह जानकर गहरा सदमा लग सकता है कि मानव विकास सूचकांक में शामिल 188 देशों की सूची में भारत ऊपर चढ़ने के बजाय 130वें पायदान से फि‍सलकर 131वें पायदान पर आ गया है। जी हां, यूएनडीपी की मानव विकास रिपोर्ट (2016) से यही निराशजन‍क तथ्‍य उभर कर सामने आया है। नॉर्वे इस सूची में पहले पायदान पर है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्‍या यह तथ्‍य वाकई चौंकाने वाला है? बेशक, क्‍योंकि नोटबंदी (विमुद्रीकरण) से उपजी तमाम समस्‍याओं एवं इस वजह से आर्थिक गतिविधियों के बुरी तरह प्रभावित होने के बावजूद भारत बीते वित्‍त वर्ष की अंतिम तिमाही में 7.1 प्रतिशत की अद्भुत जीडीपी वृद्धि दर हासिल करने में कामयाब रहा है। यही नहीं, दुनिया में सबसे तेजी से विकास करने वाले देशों में भारत को भी शुमार किया जाता है। एक और बात। वर्ष 2016 में भारत कारोबार में आसानी सुनिश्चित करने (ईज ऑफ डूइंग बिजनेस) वाले देशों के सूचकांक में चार पायदान ऊपर चढ़ने में सफल रहा है। इससे साफ जाहिर है कि कहीं न कहीं कुछ तो गलत है। भारत ज‍हां एक ओर जीडीपी वृद्धि दर के मामले में निरंतर आगे बढ़ता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर वह मानव विकास के मोर्चे पर निराशाजनक प्रदर्शन कर रहा है। इसका मतलब यही है कि करोड़ों भारतीयों को ज्‍यादा विकसित देशों और यहां तक कि ब्रिक्स जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के निवासियों की तुलना में भी अपेक्षाकृत कम स्वास्थ्य सेवाएं और शिक्षा मयस्‍सर होती हैं। यदि ब्रिक्‍स के अन्‍य सदस्‍य देशों से तुलना करें, तो इन सभी से भी भारत काफी पीछे है। दरअसल, उपर्युक्‍त सूची में चीन 90वें पायदान, ब्राजील 79वें स्‍थान, रूस 49वें पायदान और दक्षिण अफ्रीका 119वें स्थान पर हैं।

यहां तक कि सार्क के अन्‍य सदस्य देशों से तुलना करने पर भी हम यही पाते हैं कि भारत की एचडीआई (मानव विकास सूचकांक) रैंकिंग श्रीलंका एवं मालदीव से भी कम है। गनीमत यही है कि भारत की एचडीआई रैंकिंग भूटान, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और नेपाल से कुछ अधिक है। भारत, हालांकि, निम्न मानव विकास श्रेणी से ऊपर उठकर मध्यम श्रेणी में शामिल हो गया है। बेशक यह अत्‍यंत प्रभावशाली छलांग है, लेकिन ऐसे समय में जब भारत बिजनेस से जुड़े कई संकेतकों में अपनी चमक बिखेर रहा है, एचडीआई सूचकांक में रैंकिंग फि‍सलने से इसकी छवि को लगे झटके को कम नहीं किया जा सकता है।

एचडीआई की गणना यूएनडीपी द्वारा की जाती है और इसका आगाज वर्ष 1990 में हुआ था। एचडीआई दरअसल किसी भी देश में मानव विकास से जुड़ी बुनियादी उपलब्धियों का औसत माप है। यह जीवन प्रत्याशा, शिक्षा और प्रति व्यक्ति आय के संकेतकों के आधार पर मानव विकास के चार स्तरों पर विभिन्‍न देशों की रैंकिंग करता है। अत: किसी देश के निवासियों का जीवन काल, शिक्षा का स्तर और प्रति व्यक्ति जीडीपी के अपेक्षाकृत अधिक रहने पर उस देश का एचडीआई भी बढ़ जाता है।

हालांकि, एचडीआई से यह पता नहीं चल पाता है कि किसी देश के समस्‍त निवासियों का मानव विकास किस हद तक असमान है। क्षेत्रीय विषमता के चलते मानव विकास को होने वाली क्षति को एचडीआई और आईएचडीआई (विषमता समायोजित एचडीआई) के बीच के अंतर के रूप में व्यक्त किया जाता है। अत: विषमता बढ़ने पर मानव विकास को क्षति भी बढ़ जाती है। वैसे तो वर्ष 2015 में भारत का एचडीआई स्कोर 0.624 रहा है, लेकिन जब विषमता को भी आकलन में शामिल किया जाता है तो यह स्‍कोर घटकर 0.454 पर आ जाता है, जो 27.2 प्रतिशत के नुकसान को दर्शाता है। मध्यम श्रेणी वाले एचडीआई देशों में विषमता के कारण नुकसान औसतन 25.7 प्रतिशत रहा है, लेकिन पूरे दक्षिण एशिया में यह क्षति 27.7 प्रतिशत आंकी गई है।

भारत जैसे एक बेहद पितृसत्तात्मक देश में कोई भी यह उम्मीद नहीं कर सकता है कि भारत में महिला-पुरुष समानता के मोर्चे पर बड़ी अच्‍छी स्थिति देखने को मिलेगी। यही कारण है कि भारतीय महिला-पुरुष विकास सूचकांक 0.810 अंक ही है, जो औसत से कम है। स्विट्जरलैंड 0.040 अंक के महिला-पुरुष विषमता सूचकांक के साथ नंबर 1 है। दक्षिण एशिया का महिला-पुरुष विकास सूचकांक हर लिहाज से पूरी दुनिया में सबसे कम है। भारत में मातृ मृत्यु अनुपात अब भी प्रति 10,000 जीवित जन्मों पर 174 के उच्‍च स्‍तर पर बरकरार है (2015)। वहीं, स्विट्जरलैंड का ‘आईएमआर’ महज 5 ही है। भारत का लक्ष्य 140 के स्‍तर पर आना था, जो वर्ष 2016 तक के लिए सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य भी था। हालांकि, यह संभव नहीं हो पाया। स्कूली शिक्षा के वर्षों की औसत संख्या के लिहाज से महिलाओं का सशक्तिकरण केवल 4.8 साल ही है, जबकि पुरुषों के मामले में यह आंकड़ा 8.2 साल है। प्रति वर्ष महिलाओं के लिए प्रति व्यक्ति आय 2184 डॉलर (2011 में खरीद क्षमता समतुल्‍यता के लिहाज से) और प्रति वर्ष पुरुषों के लिए प्रति व्यक्ति आय 8897 डॉलर थी। श्रम बल में महिलाओं की हिस्‍सेदारी केवल 26.8 प्रतिशत ही है। इसी तरह महिलाओं के कब्‍जे वाली संसदीय सीटें केवल 12.2 प्रतिशत ही हैं, जो विकासशील देशों में इनके औसत स्‍तर से कम है।

नि:संदेह भारत में गरीबों की संख्या घट गई है, लेकिन यह भी सच है कि देश में 200 मिलियन या 21.2 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। ये ऐसे बेहद निर्धन लोग हैं जिनकी दैनिक आय 1.90 डॉलर से कम है।

भारत वर्ष 1990 और वर्ष 2015 के बीच समग्र जीवन प्रत्याशा में 10.4 साल की वृद्धि हासिल करने में सफल रहा है। इसी तरह भारत में शिशु मृत्यु दर के साथ-साथ 5 साल से कम उम्र की बाल मृत्यु दर में भी कुछ हद तक कमी दर्ज की गई है। हालांकि, सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय जब जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के महज 1.4 प्रतिशत के निम्‍न स्‍तर पर ही टिका हुआ हो, तो ऐसी स्थिति में सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा से जुड़े लक्ष्य को हासिल करना मुश्किल है। यदि इस व्‍यय को बढ़ाकर जीडीपी के 2.5 प्रतिशत के स्‍तर पर ले जाने का लक्ष्‍य हासिल कर लिया जाए तो मोदी सरकार की नई स्वास्थ्य नीति इस कमी को कुछ हद तक पूरा करने में सक्षम साबित हो सकती है। हालांकि, यदि ऐसा नहीं हुआ तो शहरी और ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं के बीच भारी असमानता रहेगी। आज ग्रामीण भारत में डॉक्टरों, नर्सों, दवाओं और अस्पतालों की भारी कमी देखने को मिल रही है। जब तक इस खाई को तेजी से पाटने पर ध्‍यान केंद्रित नहीं किया जाएगा तब तक एचडीआई में क्षेत्रीय विषमता को कम नहीं किया जा सकता।

रिपोर्ट में सामाजिक समावेश बढ़ाने के लिए भारत सरकार द्वारा अपनाई गई आरक्षण नीति की सराहना की गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि वैसे तो जाति के आधार पर लोगों को वंचित रखने की प्रवृत्ति को समाप्‍त करने का उपाय इस कार्यक्रम में नहीं किया गया है, लेकिन फि‍र भी इसका सकारात्‍क असर पड़ा है। वर्ष 1965 में 2 फीसदी से भी कम वरिष्ठ सेवा पद दलितों के कब्‍जे में थे, लेकिन वर्ष 2011 तक यह हिस्‍सेदारी बढ़कर 11 फीसदी के स्‍तर पर पहुंच गई। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के उन सामाजिक अंकेक्षणों (ऑडिट) से पारदर्शिता लाने में मदद मिल रही है, जिनके तहत सामाजिक कार्यक्रमों से जुड़ी प्रक्रियाओं एवं कार्यान्वयन की समस्याओं को एकत्रित किया जाता है और फिर उन्‍हें एक सार्वजनिक बैठक में विचार-विमर्श के लिए पेश किया जाता है। ये भारत के जमीनी स्तर के समूह ‘मजदूर किसान शक्ति संघटन’ के कामकाज की बदौलत लोकप्रिय बन गए हैं।

नि:संदेह भारत में गरीबों की संख्या घट गई है, लेकिन यह भी सच है कि देश में 200 मिलियन या 21.2 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। ये ऐसे बेहद निर्धन लोग हैं जिनकी दैनिक आय 1.90 डॉलर से कम है। रिपोर्ट में ऐसे कार्यों के सृजन के लिए ‘मनरेगा’ की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है, जो गरीबी कम करने के साथ-साथ संभावित झटकों से गरीबों को बचाने में मददगार भौतिक परिसंपत्तियों तथा बुनियादी ढांचे का निर्माण भी कर सकते हैं। रिपोर्ट में वर्ष 2005 से ही भारत में विकास के लिए अधिकार आधारित दृष्टिकोण अपनाने की भी सराहना की गई है जिसके तहत सूचना, काम, शिक्षा, वन संरक्षण, भोजन और सार्वजनिक सेवा सहित सामाजिक-आर्थिक पात्रता के अधिकार के लिए प्रगतिशील अधिनियम बनाए गए। इनका उद्देश्‍य सुशासन के लिए ऐसी अभिनव व्‍यवस्‍थाएं लागू करना है, जिससे कि सरकार कहीं ज्‍यादा पारदर्शी, संवेदनशील और जवाबदेह बन सके।

नि:संदेह भारत में गरीबों की संख्या घट गई है, लेकिन यह भी सच है कि देश में 200 मिलियन या 21.2 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। ये ऐसे बेहद निर्धन लोग हैं जिनकी दैनिक आय 1.90 डॉलर से कम है।

दुनिया भर में, खासकर विकासशील देशों में 1.5 अरब लोग ‘बहुआयामी गरीबी’ में जीवन यापन करने पर विवश हैं, जिनमें से 54 प्रतिशत या 800 मिलियन लोग दक्षिण एशिया में और 34 प्रतिशत लोग उप सहारा अफ्रीका में किसी तरह गुजर-बसर कर रहे हैं। बहु आयामी गरीबी के तहत दरअसल ऐसे परिवारों की पहचान की जाती है जिनके यहां अच्‍छे स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर का घोर अभाव रहता है। भारत में बहु आयामी गरीबी से जूझने वालों का आंकड़ा 55.3 प्रतिशत होने का अनुमान लगाया गया है। हालांकि, यह आंकड़ा काफी पुराना है (2005/2006)।

रिपोर्ट में भारत द्वारा चलाए गए ‘दक्षिण-दक्षिण’ सहयोग प्रशिक्षण कार्यक्रम’ के लिए हमारे देश की काफी सराहना की गई है। इस कार्यक्रम के तहत अल्‍प विकसित देशों से 10,000 प्रतिभागी वर्ष 2014-15 में आईटी, दूरसंचार, नवीकरणीय ऊर्जा, एसएमई, ग्रामीण विकास और प्रबंधन में भारत की विशेषज्ञता को साझा करने के लिए यहां आए थे।

हालांकि, भारत जब तक मानव विकास के मोर्चे पर अपनी धाक नहीं जमा पाएगा तब तक भारत एक ‘असमान समाज’ ही बना रहेगा। वैसे तो भारत में आय विषमता का सूचक ‘गिनी गुणांक’ 35.2 प्रतिशत है, लेकिन इसके बावजूद यह चीन में आंके गए 42.2 प्रतिशत के बेहद उच्‍च स्‍तर से कम है। भारत जैसे देश में जहां सरकार का नारा ‘सबका साथ, सबका विकास’ है, वहां बढ़ती विषमता और अपेक्षाकृत कम मानव विकास किसी भी सूरत में ‘सामंजस्यपूर्ण एवं शांतिपूर्ण समाज’ सुनिश्चित नहीं कर सकता है।

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