Author : Annapurna Mitra

Published on Aug 19, 2020 Updated 0 Hours ago

न्यू डेवलपमेंट बैंक और एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक जैसे वैकल्पिक बहुपक्षीय संस्थानों के गठन के पिछले प्रयासों को चीन द्वारा बाधित कर दिया गया था.

आईएमएफ़ में भारत का रहस्यमय यू-टर्न. क्या इसकी वजह चीन है?

अप्रैल में कोविड ख़बरों की भीड़ में खो गई एक आश्चर्यजनक ख़बर हाल ही में सामने आई है- अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) के विशेष आहरण अधिकार (एसडीआर) के विस्तार का विरोध करने के लिए भारत ने अमेरिका से हाथ मिला लिया है. एसडीआर अंतरराष्ट्रीय रिज़र्व मुद्रा का एक रूप है, जिसे आईएमएफ़ द्वारा जारी किया गया है. इसमें यूएस डॉलर, यूरो, स्टर्लिंग, येन और रेनमिनबी (युआन) शामिल हैं. हर देश एसडीआर में एक कोटा रखता है, जो आईएमएफ़ बोर्ड में उसका मतदान का अधिकार भी तय करता है. सदस्य राष्ट्र ज़रूरत पड़ने पर इन आरक्षित मुद्राओं के लिए अपने एसडीआर का आदान-प्रदान कर सकते हैं. इसलिए, एसडीआर के विस्तार का मतलब है संकट के समय में बड़े संसाधन आधार की उपलब्धता. यह आमतौर पर वित्तीय बाजार में अस्थिरता के ख़िलाफ बाहरी स्थिरता और सुरक्षा का एक ज़रिया माना जाता है, जिससे बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा भंडार रखने की ज़रूरत कम हो जाती है.

भारत लंबे समय से उभरते बाजारों को ज़्यादा प्रतिनिधित्व देने के लिए आईएमएफ़ के संसाधनों के विस्तार और कोटा प्रणाली में सुधार पर ज़ोर देता रहा है. अंतिम बार ऐसा 2008 के वित्तीय संकट का सामना करने के लिए 2010 में हुआ था, हालांकि अमेरिकी कांग्रेस द्वारा अनुसमर्थन में देरी के चलते इसे 2015 में ही लागू किया जा सका. सुधारों से भारत के मतदान अधिकारों में कुछ वृद्धि हुई और अमेरिका और यूरोपीय संघ की एकतरफ़ा नीतिगत परिवर्तनों की क्षमता में कमी आई. हालांकि, अमेरिका ने प्रमुख फ़ैसलों पर वीटो बरकरार रखा है. भारत ने 2016 के बाद से हर साल कोटा सुधारों की मांग की है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने हाल तक पिछले साल अक्टूबर में यह कहते हुए यथास्थिति पर निराशा जताई है, “यह संकट के समय में आईएमएफ़ की भूमिका की प्रभावशीलता को गंभीर रूप से बाधित कर सकता है, क्योंकि आईएमएफ़ जिस इकलौते स्रोत पर निश्चितता के साथ भरोसा कर सकता है वह है इसका स्थायी संसाधन, यानी कोटा.”

ऐसे में, यह समझना मुश्किल है कि भारत महामंदी के बाद के सबसे बड़े वैश्विक संकट के दौरान इसने 500 अरब डॉलर के नए एसडीआर जारी करने के आईएमएफ़ के प्रस्ताव का विरोध करने का फैसला क्यों किया. आईएमएफ़ समिति की बैठक के बाद वित्त मंत्रालय की प्रेस विज्ञप्ति में जबकि इस स्थिति का कोई ज़िक्र नहीं किया गया था, मई में जारी एक रिपोर्ट में कहा गया कि भारत ने एसडीआर जारी करने का समर्थन नहीं किया क्योंकि “इलिक्विडिटी (शेयर, बांड या अन्य परिसंपत्तियों के बिक्री-विनिमय के लिए माहौल अनुकूल ना होना) और फ्लाइट टू कैश (नक़दी का रुझान) के मौजूदा संदर्भ में एसडीआर आवंटन की प्रभावशीलता पक्की नहीं है” और यह कि राष्ट्रीय आरक्षित सुरक्षा की पहली पंक्ति होनी चाहिए.

पहली नज़र में, यह कई कारणों से तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है. सबसे पहली बात, भारत सरकार 2013 के टेपर टैंट्रम की घटना के बाद से अमेरिका और यूरोप में मात्रात्मक रियायतों के कारण वित्तीय बाजार में ज़बरदस्त उतार-चढ़ाव को देखते हुए एक मज़बूत वैश्विक वित्तीय सुरक्षा व्यवस्था की मांग करती रही है, आईएमएफ़ में समर्थन और प्रमुख केंद्रीय बैंकों से मुद्रा विनियम प्राप्त करने में असफल रहने पर तब इन्होंने ब्रिक्स कंटिनजेंसी रिज़र्व अरेंजमेंट (सीआरए) की स्थापना की. इस बार विकसित अर्थव्यवस्थाओं के केंद्रीय बैंकों द्वारा मुहैया कराई गई पूंजी 2008 के वित्तीय संकट के मुकाबले बहुत मामूली रही. बीजिंग के साथ बिगड़ते संबंधों का सीआरए पर असर पड़ना स्वाभाविक था. वित्तीय बाजार की अस्थिरता के ख़िलाफ मज़बूत सुरक्षा का स्वागत किया जाना चाहिए.

इस बार विकसित अर्थव्यवस्थाओं के केंद्रीय बैंकों द्वारा मुहैया कराई गई पूंजी 2008 के वित्तीय संकट के मुकाबले बहुत मामूली रही.

अगर सरकार घरेलू विदेशी मुद्रा भंडार को वित्तीय बाजारों के प्रबंधन के लिए पर्याप्त मानती है, तो भी भारत की राजकोषीय स्थिति दबाव में है- जैसा कि अधिकांश उभरती और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में है. यह याद रखना चाहिए कि जब कुछ साल पहले यूरोप को इसी तरह की स्थिति का सामना करना पड़ा था, तो आयरलैंड, पुर्तगाल और ग्रीस जैसे देशों के लिए आईएमएफ़ संसाधनों की विशिष्ट पहुंच की अनुमति दी गई थी. ख़ासकर ग्रीस के लिए आईएमएफ़ के तीन कार्यक्रम थे, जिसने इसे अस्थिर ऋण स्तरों के बावज़ूद अपने कोटे के 3,200% तक कर्ज़ लेने की अनुमति दी. ऋण स्थिरता नियमों में छूट, जो कि इस कर्ज़ को अनुमति देने के लिए दी गई थी, को अमेरिकी कांग्रेस द्वारा कोटा सुधारों को मंजूरी देने से एक हफ्ते पहले हटा दिया गया था, इसके बावज़ूद कि दुनिया के किसी अन्य देश को ऐसी सुविधा नहीं है.

अब जबकि देश लॉकडाउन से बाहर निकल रहे हैं, नागरिकों को वित्तीय सहायता और बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थानों दोनों की ज़रूरत होगी, ख़ासकर विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए यह कठिन है. भारत अलग नहीं है, 10 करोड़ नौकरियों के नुकसान और लाखों को काम से हटाए जाने की आशंका के बावज़ूद सरकार की तरफ से राजकोषीय व्यय जीडीपी के 2% से कम है. भारत सरकार आईएमएफ़ के सामने इसके सदस्यों की मदद करने के लिए नए उपाय किए जाने की मांग उठाकर विकासशील देशों का नेतृत्व कर सकती थी. जीवन और आजीविका के लिए बड़े ख़तरों का सामना कर रहे देशों की असाधारण तरीकों से मदद करने का इससे बेहतर समय नहीं हो सकता. इसके बजाय संकट की भयावहता के बावज़ूद आईएमएफ़ के लगभग आधे संसाधन इस्तेमाल ही नहीं किए गए हैं. यह मांग की कमी के कारण नहीं है, बल्कि इसका कारण कठोर योग्यता मानदंड और शर्तें हैं. आईएमएफ़ के दख़ल वाली वाली एक अर्ध-स्वैप लाइन (केंद्रीय बैंकों के बीच मुद्रा विनिमय) शार्ट टर्म लिक्विडिटी लाइन (एसएलएल) की घोषणा अप्रैल में की गई थी. अभी तक किसी भी देश ने इसका इस्तेमाल नहीं किया है.

संकट की भयावहता के बावज़ूद आईएमएफ़ के लगभग आधे संसाधन इस्तेमाल ही नहीं किए गए हैं. यह मांग की कमी के कारण नहीं है, बल्कि इसका कारण कठोर योग्यता मानदंड और शर्तें हैं.

अंततः संकट सुधारों में तेजी लाने का एक मौक़ा है. एसडीआर में विस्तार के साथ मतदान के अधिकारों का 2010 जैसा पुनःआवंदन किया जा सकता है, जिससे आईएमएफ़ के प्रशासन में उभरते बाजारों की आवाज बढ़ सकती है. ज़ाहिर है कि ‘अमेरिका फ़र्स्ट’ की नीति का पालन करने वाला अमेरिका इससे बचना चाहेगा- ख़ासकर इसलिए क्योंकि इससे उसका वीटो खोने का जोख़िम है. यह बहुत साफ़ नहीं है कि भारत ने इस मौके को क्यों गंवा दिया? न्यू डेवलपमेंट बैंक और एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक जैसे वैकल्पिक बहुपक्षीय संस्थानों के गठन के पिछले प्रयासों को चीन द्वारा बाधित कर दिया गया था. यह वैश्विक शासन प्रणाली मज़बूत करने और इसमें भारत के प्रभाव बनाने का एक उपयोगी मौक़ा था.

हालांकि, यहां भारत सरकार के तर्क से एक सुराग मिलता है. कोटा की समीक्षा का मतलब निश्चित रूप से अमेरिका के वीटो शक्ति के ख़ात्मे के साथ चीन के लिए मतदान के अधिकार में बड़ी वृद्धि होगी, जो कि अपनी आर्थिक क्षमता से काफी कम प्रतिनिधित्व रखता है. चीनी सरकार का अंतरराष्ट्रीय संस्थानों को नष्ट करने का इतिहास रहा है, और तथ्य यह है कि वर्तमान में सिर्फ़ अमेरिका इसके ख़िलाफ खड़ा होने में सक्षम लगता है, इसी कारण भारत ने यह विकल्प चुना होगा. वैसे यह निर्णय उचित प्रतीत होता है, लेकिन यह ना भूलें कि इसकी एक कीमत भी है. भारतीय रिज़र्व बैंक का जीडीपी का लगभग 18% विदेशी मुद्रा भंडार में फंसा है, इसका एक हिस्सा भी राजकोषीय स्थिरता को जोख़िम में डाले बिना अर्थव्यवस्था में भारी बदलाव ला सकता है. दूसरे देशों को भी राजकोषीय समर्थन की भारत के मुकाबले ज़्यादा ज़रूरत है. वैश्विक प्रशासन में चीन के प्रभाव को सीमित करना एक बड़ा मक़सद हो सकता है- क्या भारत सरकार इसे हासिल करने का कोई बेहतर तरीका खोज सकती है?

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.