Author : Rakesh Sood

Published on Jun 02, 2020 Updated 0 Hours ago

सरकार के लिए दीर्घकालीन चुनौती महामारी का सामना करने वाला ढांचा बनाना है जिससे कि स्वास्थ्य सुरक्षा और आर्थिक सुरक्षा के बीच कृत्रिम दूरी से परहेज किया जा सके और हम भविष्य के लिए बेहतरीन ढंग से तैयार हों.

कोरोना महामारी के ख़िलाफ़ भारत की लड़ाई: अभी लंबा रास्ता तय करना बाकी
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24 मार्च को घोषित 21 दिन के पहले लॉकडाउन के ख़त्म होने की तारीख़ 14 अप्रैल क़रीब आने के साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने बहुप्रतिक्षित संबोधन दिया था. उम्मीद के मुताबिक़ उन्होंने लॉकडाउन को 19 और दिनों के लिए बढ़ाकर 3 मई तक कर दिया था. जिन ज़िलों में बीमारी काबू में है, वहां एक हफ़्ते के बाद सीमित मात्रा में छूट दी गई थी .

लॉकडाउन को बढ़ाना ज़रूरी था. 21 दिन के लॉकडाउन के बाद भी कोविड-19 का फैलना जारी था. 24 मार्च को देश के 729 में से 128 ज़िलों में कन्फर्म केस से बढ़कर ये 375 ज़िलों में फैल चुका  था. चार दिनों में दोगुनी होने की इसकी रफ़्तार बनी हुई थी. ये रफ़्तार 14 मार्च से है जब भारत में कोरोना के केस ने 100 की संख्या पार की थी. आख़िरी दोगुने केस पांच अप्रैल को 3,200 से बढ़कर 6,400 तक होने में पांच दिन लगे थे और इस रफ़्तार से लॉकडाउन-4 ख़त्म होने तक कोरोना के केस दो लाख के पार हो जाएंगे. सबसे बड़ी कमी टेस्टिंग है जिसमें पिछले 10 दिनों के दौरान ही तेज़ी आई है और अब रोज़ाना 18,000 टेस्ट होने लगे हैं. लेकिन वायरस की रफ़्तार और इसकी संभावित दिशा की बेहतर तस्वीर के लिए अब तक जितने टेस्ट होने चाहिए थे, उसका पांचवां हिस्सा ही हुआ है (10,000 से ज़्यादा पॉज़िटिव केस में 2.3 लाख टेस्ट).

मोदी के दृष्टिकोण में बदलाव

पहले लॉकडाउन के ऐलान के मोदी के संबोधन से इस बार के संबोधन में दो महत्वपूर्ण अंतर थे. पहला अंतर ये था कि संबोधन से पहले उन्होंने मुख्यमंत्रियों से व्यापक विचार-विमर्श किया था. इससे भारत के संघीय चरित्र की स्वीकार्यता और इस तथ्य का पता चलता है कि प्रशासन की मूल इकाई ज़िले हैं. देश में किसी भी योजना को ज़मीन पर असरदार तरीक़े से लागू करने के लिए सुव्यवस्थित प्रणाली के ज़रिए दो तरफ़ा सूचनाओं के आदान-प्रदान की ज़रूरत होती है.

प्रत्येक राज्य सरकार को हर ज़िले के हालात को देखते हुए लॉकडाउन में छूट देने की ज़रूरत है. आने वाले दिनों में नये दिशा-निर्देश के तहत लॉकडाउन में छूट की ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों को देनी शुरू हो जाएगी

दूसरा अंतर था “जान है जहान है” की भावना का “जान भी और जहान भी” के मक़सद में बदलना जिसका ऐलान 11 अप्रैल को राज्यों के मुख्यमंत्रियों से बैठक के बाद किया गया था. एक बार फिर ये स्वीकार्यता दिखाता है कि राष्ट्रीय लॉकडाउन भले ही बिना मशवरे और महज़ चार घंटे के नोटिस पर लागू किया गया लेकिन ये समाधान नहीं है. प्रत्येक राज्य सरकार को हर ज़िले के हालात को देखते हुए लॉकडाउन में छूट देने की ज़रूरत है. आने वाले दिनों में नये दिशा-निर्देश के तहत लॉकडाउन में छूट की ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों को देनी शुरू हो जाएगी. मोदी को विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों से सलाह करने के बाद एहसास हुआ कि लॉकडाउन को बढ़ाना ठीक है.

“जान है, जहान है” की भावना ने दो तरह के दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया. जिन लोगों ने लॉकडाउन का समर्थन किया वो स्वास्थ्य सुरक्षा के समर्थक करार दिए गए जबकि जिन लोगों ने कहा कि लॉकडाउन कोरोना वायरस से बचे ग़रीबों को मार डालेगा क्योंकि आर्थिक बदहाली से भुखमरी बढ़ेगी, वो आर्थिक सुरक्षा को मानने वाले कहे गए. दो तरह का विकल्प भ्रामक है क्योंकि इससे आलोचनात्मक सोच कुंद होती है. ये केंद्र सरकार के लिए आसान था क्योंकि आंकड़ों पर आधारित विश्लेषण के दृष्टिकोण को अपनाने के बदले लोगों को ये कहकर अपने पक्ष में करना आसान था कि भारत एक युद्ध लड़ रहा है और इसमें जीत हासिल करने के लिए सभी लोगों को एकजुट होना चाहिए. ये मोदी के सरकार चलाने के तरीक़े से मेल खाता था. इसकी खामी ये थी कि इसने दहशत के वायरस को भी सक्रिय कर दिया जो कोरोना वायरस से भी तेज़ी से फैला और जिसकी वजह से बेहिसाब चुनौतियां (ज़रूरी सेवाओं को चलते रहने देना, पलायन, कमज़ोर तबकों को आर्थिक दिक़्क़तें) और उसका अनिश्चित सरकारी जवाब आया.

सच्चाई ये है कि भारत ने जवाब धीमी रफ़्तार से दिया. भारत के लिए मिसाल पेश करने का वक़्त फरवरी में था जब केरल में सिर्फ़ तीन केस थे और वो भी सभी ठीक हो गए थे. लेकिन उस मौक़े को गंवा दिया गया क्योंकि केंद्र और राज्य दोनों जगह सरकारों में समन्वय नहीं था

सच्चाई ये है कि भारत ने जवाब धीमी रफ़्तार से दिया. भारत के लिए मिसाल पेश करने का वक़्त फरवरी में था जब केरल में सिर्फ़ तीन केस थे और वो भी सभी ठीक हो गए थे. लेकिन उस मौक़े को गंवा दिया गया क्योंकि केंद्र और राज्य दोनों जगह सरकारों में समन्वय नहीं था, ICMR की तरफ़ से मिले-जुले संकेत दिए गए, राष्ट्रीय नीति और टास्क फोर्स की कमी थी. इसका मतलब ये है कि प्राथमिकताएं और कार्य-योजनाएं साफ़ नहीं थीं. 21 दिन के लॉकडाउन का मक़सद था कि स्वास्थ्य तैयारियों के लिए समय मिल जाए क्योंकि मोदी को ये पूरी तरह पता था कि भारत में स्वास्थ्य ढांचे की ख़राब हालत होने की वजह से हालात जल्द ही बिगड़ जाएंगे. ये हालात तब तक रहेंगे जब तक कि वायरस पर रोक के लिए युद्ध जैसी तैयारी नहीं होती.

14 अप्रैल को ये साफ़ हो गया कि सख़्ती अभी तक हालात काबू में नहीं कर पाई है. स्वास्थ्य ढांचा और डाटाबेस तैयार करने के लिए और ज़्यादा समय की ज़रूरत थी ताकि योजना बनाने वाले आगे बढ़ सकें. और इस वजह से लॉकडाउन को बढ़ाने की ज़रूरत थी.

शासन के मॉडल को बदलना

राष्ट्रीय स्तर पर कोरोना की रफ़्तार को कम करने से पहले हर राज्य को अपने यहां रफ़्तार कम करनी होगी और इसका श्रेय उन राज्यों को जाएगा जो प्रभावशाली शासन, तकनीकी औजारों का इस्तेमाल, निचले स्तर पर पहुंच और प्रेरित प्रशासनिक मशीनरी के ज़रिए ज़्यादा लोगों तक सूचना पहुंचाएंगे. केन्द्र की भूमिका वित्तीय मदद और बहुत अच्छी हालत में दुर्लभ उपकरणों जैसे PPE और मास्क पहुंचाने की रहेगी. मोदी शायद अब ये समझते हैं (शायद बिना इच्छा के) कि अगर सफलतापूर्वक कोविड-19 को रोकने का श्रेय दिया जाएगा तो वो सभी मुख्यमंत्रियों से बांटना होगा चाहे वो बीजेपी के हों या दूसरी पार्टी के. ध्यान रहे कि वायरस की निगरानी और नियंत्रण में इन दिनों भीलवाड़ा मॉल (राजस्थान) पथानमथिट्टा मॉडल (केरल) और आगरा मॉडल (उत्तर प्रदेश) की चर्चा हो रही है. ऐसा नहीं है कि दिल्ली में जो मॉडल बना है, वो हर जगह के लिए सही है.

ये साफ़ है कि देश का आर्थिक इंजन उतनी आसानी से स्टार्ट नहीं किया जा सकता है जितनी आसानी से बंद किया गया था. इसलिए आर्थिक लॉकडाउन से धीरे-धीरे और पूरी तैयारी के साथ बाहर निकलना होगा. इसमें केंद्र और राज्यों के बीच उच्च स्तर के समन्वय की ज़रूरत होगी

ये लॉकडाउन से बाहर निकलने के लिए भी इसी तरह सच है. राज्यों की आर्थिक गतिविधि 24-25 मार्च की आधी रात को रोक दी गई. नतीजतन वित्तीय सेक्टर में पैसे का लेन-देन धीमा हो गया है. अनौपचारिक सेक्टर को कल्याण, खाद्यान्न और डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर जैसी मदद संगठित सेक्टर को प्रोत्साहन पैकेज और टैक्स छूट जैसी मदद की ज़रूरत से पूरी तरह अलग है. ये साफ़ है कि देश का आर्थिक इंजन उतनी आसानी से स्टार्ट नहीं किया जा सकता है जितनी आसानी से बंद किया गया था. इसलिए आर्थिक लॉकडाउन से धीरे-धीरे और पूरी तैयारी के साथ बाहर निकलना होगा. इसमें केंद्र और राज्यों के बीच उच्च स्तर के समन्वय की ज़रूरत होगी. राज्यों को मैनेजमेंट की बड़ी ज़िम्मेदारी निभानी होगी.

कोविड-19 के ख़िलाफ़ लड़ाई अभी शुरू ही हुई है. यह लगातार जारी रहेगी. ये संभव है कि कुछ इलाक़ों में धीरे-धीरे छूट की वजह से संक्रमण में अचानकर बढ़ोतरी हो और इसकी वजह से रोक-टोक फिर से लागू हो जाए. ये प्रक्रिया अगले कई महीनों या साल भर तक भी जारी रह सकती है जब तक कि असरदार वैक्सीन और दवाइयां उपलब्ध नहीं होतीं. इसके बाद भी ये कहानी ख़त्म नहीं होती. वायरस की आदत होती है रूप बदलने की और कई बार कुछ समाज में स्थानीय बन जाने की. हम ये H1N1 के साथ देख चुके हैं जो क़रीब 10 साल के बाद भी भारत को परेशान कर रहा है. हर साल हताहतों की संख्या एक हज़ार के पार पहुंच जाती है और कुछ साल तो मुश्किल रहे हैं. सबसे ख़राब साल 2015 था जब भारत में 42,000 संक्रामक केस सामने आए और क़रीब 3,000 लोग मारे गए. पिछले जनवरी में सुप्रीम कोर्ट के 6 जज H1N1 के लिए पॉज़िटिव निकले.

जहां भारत मौजूदा संकट का सामना कर रहा है, सरकार के लिए दीर्घकालीन चुनौती महामारी का सामना करने वाला ढांचा बनाना है जिससे कि स्वास्थ्य सुरक्षा और आर्थिक सुरक्षा के बीच कृत्रिम दूरी से परहेज किया जा सके और हम भविष्य के लिए बेहतरीन ढंग से तैयार हों.

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