Author : Prasanna Karthik

Published on Jul 28, 2020 Updated 0 Hours ago

सरकार संयुक्त उपक्रम में 74% से ज़्यादा विदेशी निवेश को ज़रूर इजाज़त दे. सामान्य रूट (74%) के ज़रिए विदेशी निवेश से कम विदेशी निवेश (49%) के साथ रणनीतिक साझेदारी कार्यक्रम मौजूदा स्वरूप में पूरी तरह नुक़सानदेह है.

भारत की रणनीतिक साझेदारी नीति: नीतिगत प्रोत्साहन की ज़रूरत

रक्षा ख़रीद प्रक्रिया- 2016 (DPP-2016) के तहत भारत की रक्षा ख़रीद के मामले में कई महत्वपूर्ण नीतिगत बदलाव किए गए. लेकिन DPP-2016 के तहत सुधार का सबसे महत्वपूर्ण क़दम है रणनीतिक साझेदारी में फ़ेरबदल. इसकी अहमियत का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि रणनीतिक साझेदारी से जुड़ा अध्याय इकलौता अध्याय है जिसकी प्रस्तावना लिखी गई है. प्रस्तावना में इस बात को माना गया है कि भारत में प्राइवेट सेक्टर की रक्षा कंपनियों और सरकारी रक्षा कंपनियों के बीच समानता मौजूद नहीं है. इसमें ये भी माना गया है कि प्राइवेट सेक्टर के लिए अच्छा माहौल बनाने की ज़रूरत है ताकि वो उत्पादन का बुनियादी ढांचा तैयार करने में दीर्घकालीन निवेश करें. साथ ही सप्लायर, कुशल कामगारों, शोध और विकास की क्षमता के लिए बेहतरीन हालात बन सकें. DPP-2020 के मसौदे में रणनीतिक साझेदारी पर अध्याय को जस का तस रखा गया है.

रक्षा क्षेत्र में इकलौती ख़रीदार सरकार होती है. ऐसे में आधुनिक रक्षा उत्पादन क्षमता के निर्माण के लिए सरकार के साथ साझेदारी की ज़रूरत है. इस सिद्धांत के तहत प्राइवेट रक्षा उत्पादन कंपनी और सरकार के बीच रणनीतिक साझेदारी विकसित करने के लिए नीतिगत प्रोत्साहन की बहुत ज़रूरत थी. लेकिन सरकार के रक्षा में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) की सीमा बढ़ाकर 74% करने के बाद ख़रीद का रणनीतिक साझेदारी मॉडल मौजूदा स्वरूप में नुक़सानदेह है.

शोध और विकास में विशाल निवेश और इस उद्योग में प्रवेश के लिए दिक़्क़तों को देखते हुए वैश्विक हथियार उत्पादकों के लिए इस बात का कोई मतलब नहीं रह जाता कि किसी कंपनी में बिना बहुमत हिस्सेदारी के वो अपनी ख़ास तकनीक को बांटे. ऐसे में रक्षा उत्पादन के ज़्यादातर क्षेत्रों के लिए FDI में 49% की सीमा के कारण स्वदेशी रक्षा उत्पादन की अच्छी शुरुआत नहीं हो सकी

DPP-2016 की अधिसूचना जारी होते समय भारत में ऑटोमेटिक रूट के तहत रक्षा में FDI की सीमा 49% थी. 51% मालिकाना हक़ किसी भारतीय रक्षा उत्पादक के हाथ में होने के बाद भी सरकार को उम्मीद थी कि वैश्विक रक्षा कंपनियां निवेश करेंगी और उच्च-स्तर की तकनीक अपने भारतीय साझेदार को ट्रांसफर करेंगी. शोध और विकास में विशाल निवेश और इस उद्योग में प्रवेश के लिए दिक़्क़तों को देखते हुए वैश्विक हथियार उत्पादकों के लिए इस बात का कोई मतलब नहीं रह जाता कि किसी कंपनी में बिना बहुमत हिस्सेदारी के वो अपनी ख़ास तकनीक को बांटे. ऐसे में रक्षा उत्पादन के ज़्यादातर क्षेत्रों के लिए FDI में 49% की सीमा के कारण स्वदेशी रक्षा उत्पादन की अच्छी शुरुआत नहीं हो सकी.

अप्रैल 2000 से दिसंबर 2019 के बीच भारत ने लगातार FDI की सीमा में बढ़ोतरी की लेकिन इसके बावजूद रक्षा क्षेत्र में 8.82 मिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश ही हुआ. 2016-17 में जब रक्षा क्षेत्र में FDI की सीमा बढ़ाकर 49% की गई उसके फ़ौरन बाद भारत कोई निवेश आकर्षित करने में नाकाम रहा. 2017-18 में भारत में 0.01 मिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश हुआ जबकि 2018-19 में भारत में 2.18 मिलियन अमेरिकी डॉलर FDI के रूप में आया. किसी भी सूरत में ये आंकड़े भारत के रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश के मामले में अपार संभावना को सही साबित नहीं करते हैं.

इस नज़रिए से देखते हुए ख़रीदारी की रणनीतिक साझेदारी श्रेणी के इर्द-गिर्द नीतिगत प्रावधान विदेशी रक्षा उत्पादकों (OEM) को किसी निवेश से पहले ऐसी चीज़ मुहैया कराते हैं जो सामान्य हालात के अंतर्गत FDI मुहैया नहीं कराते- सरकार से ख़रीद का भरोसा. हाल के दिनों में प्रोजेक्ट-75-इंडिया प्रोग्राम के तहत छह पनडुब्बी विकसित करने के लिए रणनीतिक साझेदारों के चयन की जो घोषणा की गई उसमें L&T और सरकारी स्वामित्व वाली MDL को 50,000 करोड़ रुपये की छह पनडुब्बी बनाने के लिए चुना गया. L&T और MDL को चुने गए पांच विदेशी रक्षा उत्पादकों (थाइसेनक्रुप मरीन सिस्टम्स- जर्मनी, नेवंटिया- स्पेन, नेवल ग्रुप- फ्रांस, रुबिन डिज़ाइन ब्यूरो-रूस और डेवू शिपबिल्डिंग एण्ड मरीन इंजीनियरिंग- दक्षिण कोरिया) में से किसी एक के साथ संयुक्त उपक्रम बनाना होगा. चुने जाने के बाद संयुक्त उपक्रम की एक कंपनी को ऑर्डर मिलेगा या फिर इसे L&T और MDL की तरफ़ से बनाए गए दो संयुक्त उपक्रमों के बीच भी बांटा जा सकता है. रणनीतिक साझेदारी पर अध्याय के मौजूद प्रावधानों के मुताबिक़ तीन अन्य हिस्सों के तहत होने वाली ख़रीदारी के लिए ऐसी प्रक्रिया को माना जाएगा: लड़ाकू विमान, हेलीकॉप्टर, बख्तरबंद गाड़ियां/युद्धक टैंक. भारतीय रक्षा कंपनियों के साथ संयुक्त उपक्रम बनाने का ये मॉडल विदेशी रक्षा उत्पादकों को भारत के रक्षा ऑर्डर का एक हिस्सा हासिल करने के लिए बुलाने में कामयाब हो सकता है लेकिन भारत को उत्पादन का केंद्र बनाने के लिए ये काफ़ी नहीं है.

रक्षा उत्पादन केंद्र बनने के लिए भारत को विदेशी रक्षा उत्पादन कंपनियों का वित्तीय निवेश, तकनीक हस्तांतरण और दीर्घकालीन परिचालन संबंधी भागीदारी की ज़रूरत है. विदेशी रक्षा उत्पादन कंपनियों को ये महसूस होना चाहिए कि निवेश के बाद उनके पास उत्पादन और महत्वपूर्ण तकनीक से जुड़े उच्च-स्तर के रक्षा उपकरणों की सप्लाई के लिए सरकारी ठेका हासिल करने का मौक़ा मिल सकता है. नये FDI नियम, जिसके तहत 74% विदेशी निवेश को मंज़ूरी दी गई है, और रणनीतिक साझेदारी कार्यक्रम, जिसमें विदेशी निवेश की सीमा 49% है, के बीच विसंगति ये भरोसा मुहैया नहीं कराती है. उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि भारत में अटैक हेलीकॉप्टर बनाने के लिए बोइंग टाटा समूह के साथ संयुक्त उपक्रम में शामिल होने का फ़ैसला लेती है जिसमें बोइंग की हिस्सेदारी 74% है. इसके बाद सरकार रणनीतिक साझेदारी के ज़रिए 100 अटैक हेलीकॉप्टर ख़रीदने का फ़ैसला लेती है तो बोइंग और टाटा के बीच का संयुक्त उपक्रम इस ठेके में बोली लगाने के लिए अयोग्य हो जाएगा. इसलिए रणनीतिक साझेदारी पर मौजूदा नीतिगत प्रावधान हाल में घोषित FDI नियमों के जवाब में वैश्विक रक्षा कंपनियों को निवेश के लिए हतोत्साहित करता है.

रक्षा ख़रीदारी में रणनीतिक साझेदारी कार्यक्रम का मनचाहा नतीजा पाने के लिए इसमें हर हाल में ऑटोमेटिक रूट के तहत मंज़ूर सीमा से ज़्यादा FDI सीमा होनी चाहिए. जब रणनीतिक साझेदारी के तहत FDI सीमा सामान्य रूट के अंतर्गत मंज़ूर सीमा से कम होगी तो ये न सिर्फ़ असरहीन ख़रीदारी मॉडल को प्रोत्साहित करती है बल्कि सामान्य रूट के ज़रिए ज़्यादा FDI आकर्षित करने की संभावना को भी कमज़ोर करती है

नये FDI नियमों को देखते हुए रणनीतिक साझेदारी का रास्ता रक्षा मंत्रालय या सशस्त्र सेना के हित में नहीं है. जब ख़रीदारी DPP-2020 में सूचीबद्ध अन्य ख़रीदारी श्रेणी में से एक के तहत होती है तो दिलचस्पी रखने वाली कंपनी, जो विदेशी और भारतीय रक्षा उत्पादक कंपनी के बीच 74-26 का संयुक्त उपक्रम हो सकता है, उन क्षमताओं के आधार पर प्रतिस्पर्धा करती है जो पहले से विकसित हो चुकी है और जो परीक्षण के लिए तैयार है. लेकिन रणनीतिक साझेदारी श्रेणी के तहत ख़रीदारी में उन रक्षा उपकरणों की ख़रीदारी का भरोसा शामिल है जिनका अभी निर्माण और परीक्षण होना बाक़ी है. इसकी वजह से न सिर्फ़ अनिश्चितता का तत्व आता है बल्कि डिलीवरी का समय और लागत भी बढ़ती है.

रक्षा ख़रीदारी में रणनीतिक साझेदारी कार्यक्रम का मनचाहा नतीजा पाने के लिए इसमें हर हाल में ऑटोमेटिक रूट के तहत मंज़ूर सीमा से ज़्यादा FDI सीमा होनी चाहिए. जब रणनीतिक साझेदारी के तहत FDI सीमा सामान्य रूट के अंतर्गत मंज़ूर सीमा से कम होगी तो ये न सिर्फ़ असरहीन ख़रीदारी मॉडल को प्रोत्साहित करती है बल्कि सामान्य रूट के ज़रिए ज़्यादा FDI आकर्षित करने की संभावना को भी कमज़ोर करती है. इसलिए रणनीतिक कार्यक्रम के तहत ख़रीदारी तभी होनी चाहिए जब दूसरी श्रेणियों के तहत ख़रीदारी (वैश्विक ख़रीदारी को छोड़कर) संभव नहीं हो. इन हालात में सरकार संयुक्त उपक्रम में 74% से ज़्यादा विदेशी निवेश को ज़रूर इजाज़त दे. सामान्य रूट (74%) के ज़रिए विदेशी निवेश से कम विदेशी निवेश (49%) के साथ रणनीतिक साझेदारी कार्यक्रम मौजूदा स्वरूप में पूरी तरह नुक़सानदेह है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.