भारत में आर्थिक मोर्चे पर स्थितियां सही नहीं दिख रही हैं। कुछ माह पहले ‘दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था’ माने जाने वाले भारत में जीडीपी वृद्धि दर घटकर 5.7 प्रतिशत के स्तर पर आ गई है। यह तो उन तमाम चीजों में से महज एक है जो सही प्रतीत नहीं हो रही हैं। नोटबंदी या विमुद्रीकरण निश्चित रूप से खेल बिगाड़ने वाला कदम साबित हुआ क्योंकि इसके कारण गरीब और यहां तक कि मध्यम वर्ग भी एकाएक भारी परेशानियों से घिर गए। जो लोग हर रोज मामूली नकद कमाई करके किसी तरह अपना जीवन यापन करने पर विवश थे उनके पास अचानक नकदी का भारी टोटा हो गया। ऐसे गरीब लोग जो छोटे-मोटे कारोबार में लगे हुए थे उन्हें अपना व्यवसाय बंद करना पड़ गया और वे अपने गांव वापस लौटने पर मजबूर हो गए। इस वजह से अर्थव्यवस्था को जो तगड़ा झटका लगा वह अब घटती जीडीपी वृद्धि दर के रूप में परिलक्षित हो रहा है। यहां तक कि यदि हम केवल जीडीपी वृद्धि दर के लिहाज से ही देश में आर्थिक हालात पर विचार न करें और ‘सबकी भलाई’ को एक सूचक मान कर चलें तो भी वह चीज आज निश्चित तौर पर गायब है जिसे कुछ लोग ‘फील गुड फैक्टर’ कहते हैं। घटते कारोबार वाले मौजूदा परिदृश्य में कॉलेज स्नातकों के बीच रोजगार पाने को लेकर और पहले से ही कोई नौकरी कर रहे लोगों में अपनी नौकरी गंवा देने को लेकर असुरक्षा की भावना है। आज भारत में रोजगार से बर्खास्तगी का नोटिस यानी ‘पिंक स्लिप’ कुछ ज्यादा ही आम बात होती जा रही है।
नोटबंदी (विमुद्रीकरण) के पीछे एक प्रयोजन मोदी का ‘डिजिटल इंडिया’ सपना था। सिर्फ इसलिए कि भारत के सेवा क्षेत्र ने विश्व स्तर पर अपनी एक खास पहचान बना ली है, इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि ‘आईसीटी’ शब्द से सभी लोग वाकिफ हो चुके हैं। जब हमारी साक्षरता दर ब्रिक्स के अन्य सभी सदस्य देशों के मुकाबले कम है और विशेषज्ञों द्वारा यहां शिक्षा की गुणवत्ता अत्यंत निम्नस्तरीय घोषित की जा चुकी है, तो ऐसे में हम यह अपेक्षा कैसे रख सकते हैं कि आम भारतीय तो डिजिटल लेन-देन से अवश्य ही परिचित होगा? भारत में लोगों तक इंटरनेट की पहुंच चीन और आसियान की तुलना में काफी कम है। अत: ऐसी स्थिति में, विशेष रूप से, हथकरघा एवं हस्तशिल्प क्षेत्र के गरीब छोटे कारोबारियों अथवा रिटेल क्षेत्र के छोटे कारोबारियों को जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) की बारीकियों को अच्छी तरह से समझने और सभी आवश्यक कागजी कार्रवाई करने में लंबा समय लगेगा। इस बीच, यह अनचाही स्थिति उत्पादन में परिलक्षित होगी जो गिरावट का रुख दर्शाएगा।
जब हमारी साक्षरता दर ब्रिक्स के अन्य सभी सदस्य देशों के मुकाबले कम है और विशेषज्ञों द्वारा यहां शिक्षा की गुणवत्ता अत्यंत निम्नस्तरीय घोषित की जा चुकी है, तो ऐसे में हम यह अपेक्षा कैसे रख सकते हैं कि आम भारतीय तो डिजिटल लेन-देन से अवश्य ही परिचित होगा?
अनौपचारिक क्षेत्र की नौकरियों को औपचारिक क्षेत्र की नौकरियों में तब्दील करने संबंधी मोदी के सपने के साकार होने में भी लंबा समय लगेगा। इसका कारण बस यही है कि औपचारिक या संगठित क्षेत्र में बड़ी संख्या में नौकरियां सृजित नहीं हो रही हैं। अपनी नौकरी गंवा बैठने वाले किसी फैक्टरी कामगार अथवा किसी बेरोजगार युवा के लिए कोई छोटा-मोटा व्यवसाय शुरू करना आसान है, लेकिन जीएसटी में निहित समस्त डिजिटल कागजी कार्रवाई के चलते अब से छोटे व्यवसायों में प्रवेश करना और उसका संचालन करना कठिन हो जाएगा।
अत: सबसे पहले लोगों की शिक्षा और कौशल प्रशिक्षण पर ध्यान दें, ताकि वे अपने करियर पथ पर आगे बढ़ सकें। हाल ही में द न्यूयॉर्क टाइम्स में एक लेख छपा था जिसमें 35 वर्षों के अंतराल वाली दो समयावधियों में दो दरबानों (जेनिटर) के विरोधाभासी करियर की तुलना की गई है। इनमें से एक दरबान या चौकीदार ने रोचेस्टर में अस्सी के दशक में कोडक में काम किया था और दूसरा दरबान मौजूदा समय में एपल, सिलिकॉन वैली में कार्यरत है। यह कहानी चौंकाने वाली है क्योंकि आज इस नौकरी में तरक्की की संभावना बहुत कम है, जबकि अतीत में चौकीदार कौशल प्रशिक्षण पा सकता था और इसके साथ ही वह अपनी नौकरी में तरक्की पाकर प्रमुख प्रौद्योगिकी अधिकारी भी बन सकता था। यही नहीं, पहले उसके पास अधिक खाली समय होता था और छुट्टियां भी ज्यादा मिलती थीं। आज नौकरियां अनुबंध या ठेके पर मिलती हैं, जैसा कि भारत में देखा जा रहा है। इतना ही नहीं, एक तीसरा या अन्य पक्ष जिसे नौकरियां आउटसोर्स की जाती हैं वही कर्मचारियों को भुगतान करता है। कर्मचारियों को अल्पकालिक नोटिस देकर ही नौकरी से निकाल दिया जाता है। और तो और, संबंधित कर्मचारी को कोई कल्याणकारी लाभ भी नहीं दिया जाता है क्योंकि इसके पीछे मुख्य मंशा कंपनी की लागत को कम से कम करना है। लागत घटाने के लिए प्रौद्योगिकी का निरंतर उन्नयन किया जा रहा है और इसके चलते अमेरिका में लोगों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ रहा है। इसी तरह भारत में भी प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए प्रौद्योगिकी का उन्नयन अत्यंत जरूरी है और ज्यादातर कंपनियां इस पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही हैं एवं इसके मद्देनजर पहले के मुकाबले कम लोगों को रोजगार दे रही हैं। कर्मचारियों के स्थान पर मशीनें और कंप्यूटर काम कर रहे हैं। इस तरह के परिदृश्य में कौशल विविधीकरण अत्यंत आवश्यक है।
अत: मोदी सरकार में नौकरियां आगे भी समस्या की जड़ बनी रहेंगी और उच्च शिक्षा में भारी-भरकम निवेश करने के बाद भी कई युवाओं के सपने बिखर सकते हैं। ऐसी स्थिति में विनिर्माण क्षेत्र में तेज गति से विकास अत्यंत आवश्यक है, लेकिन सब इस तथ्य से वाकिफ हैं कि नए निवेश में ठहराव देखा जा रहा है और उद्यमी अपने अधिशेष या अतिरिक्त तैयार माल की समस्या से निपटने में सक्षम नहीं हैं तथा वे मांग बढ़ने का इंतजार कर रहे हैं। दुर्भाग्यवश, ऐसे समय में जब अर्थव्यवस्था को इतनी सारी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, तो वैसे में मांग बढ़ने की संभावना नजर नहीं आ रही है।
मोदी सरकार में नौकरियां आगे भी समस्या की जड़ बनी रहेंगी और उच्च शिक्षा में भारी-भरकम निवेश करने के बाद भी कई युवाओं के सपने बिखर सकते हैं।
विनिर्माण क्षेत्र का विकास निर्यात वृद्धि से जुड़ा हुआ है। निर्यात में सुस्ती के दौर के बाद अप्रैल 2017 में इसकी वृद्धि दर में तेजी आई। हालांकि, इसके बाद फिर से जुलाई और अगस्त में निर्यात वृद्धि दर घटकर 3.9 प्रतिशत के स्तर पर आ गई है। यही नहीं, जिस तरह से विश्व संरक्षणवाद की ओर बढ़ रहा है और भारत को विदेशी बाजारों में चीन एवं आसियान देशों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है उसे देखते हुए निकट भविष्य में भी निर्यात के सहजतापूर्वक तेज रफ्तार पकड़ने के आसार नहीं हैं। इसके अलावा, विश्व स्तर पर मांग के रुख में आए बदलाव के कारण भी भारत से हीरे का महत्वपूर्ण निर्यात प्रभावित हो रहा है। कट और पॉलिश किए गए हीरों का ढेर जमा होता जा रहा है जिसका कारण बस यही है कि मिलेनियल (वर्ष 2000 में या उसके बाद जन्मे लोग) की पसंद अलग-अलग है और वे हीरे के दीवाने नहीं हैं। जहां तक वाणिज्यिक वस्तुओं के निर्यात का सवाल है, भारत के शीर्ष निर्यात गंतव्य यथा अमेरिका और यूरोपीय संघ कई गैर टैरिफ बाधाओं के साथ संरक्षणवादी बन गए हैं।
विशेषज्ञों के मुताबिक, प्रतिस्पर्धा में टिके रहने के लिए भारतीय वस्तुओं को ‘वैश्विक मूल्य श्रृंखला’ में अवश्य ही प्रवेश करना चाहिए। हालांकि, उत्पादन के विशिष्ट स्वरूप की वजह से भारत में निश्चित तौर पर एक बड़ी समस्या है। दरअसल, भारत में कई वस्तुओं का उत्पादन मझोले एवं छोटे उद्यमों में होता है और इनका गुणवत्ता नियंत्रण घटिया होता है। कारण यह है कि उत्पादन में शामिल कामगार या श्रमिक खराब स्वास्थ्य के कारण अक्सर अनियमित रूप से फैक्टरी आते हैं, अच्छी तरह से प्रशिक्षित नहीं होते हैं, अथवा भारत के प्रतिद्वंद्वी देशों की तुलना में कम पढ़े-लिखे और अनुशासित होते हैं। अत: ऐसे में भारत के लिए वैश्विक मूल्य श्रृंखला में प्रवेश करना अत्यंत मुश्किल है। हालांकि, भारत ने मोटर वाहनों के कलपुर्जों के साथ-साथ कुछ अन्य मदों में भी ऐसा कर दिखाया है। इसके लिए मूल रूप से उत्पादन के हर चरण में गुणवत्ता जांच की सख्त आवश्यकता है, जिसकी कमी संभवत: भारत में महसूस की जा रही है।
निर्यात-आधारित विकास के लिए बुनियादी ढांचे का उत्कृष्ट रहना और वस्तुओं का निर्बाध प्रवाह होना अत्यंत आवश्यक है। वैश्विक मूल्य श्रृंखला में बड़े पैमाने पर प्रवेश करने में असमर्थ होने के चलते हम चीन, कोरिया, जापान और आसियान को मुख्यत: कच्चे माल बेच रहे हैं, जिनमें पशु चारा, अल्युमीनियम, लोहा, धातुमल या लावा राख इत्यादि शामिल हैं, जो भारी-भरकम लेकिन कम मूल्य वाले उत्पाद हैं। उच्च निर्यात वृद्धि दर को बनाए रखने और रोजगार सृजन सुनिश्चित करने की खातिर आयात का विश्वसनीय स्रोत बनने के लिए हमें निर्यात उत्पादों की गुणवत्ता को बेहतर करना होगा।
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