Author : Shashi Tharoor

Published on Feb 12, 2020 Updated 0 Hours ago

आज राजनीतिक विचारधाराएं लोगों को अर्थपूर्ण मक़सद उपलब्ध करा पाने में नाकाम हैं. ऐसे में जनता धर्म और जातीय पहचान में अपना आसरा तलाश रही है. सरकार और धार्मिक संगठनों के बीच का फ़ासला बड़ी तेज़ी से मिट रहा है.

चरमराती विश्व व्यवस्था में भारत को सोच-समझकर तय करनी होगी अपनी रणनीति

वर्ष 2020 के साथ ही अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने  21वीं सदी के तीसरे दशक में प्रवेश कर लिया है. इस समय पूरी दुनिया में भविष्य को लेकर अनिश्चितता एवं फ़िक्र का माहौल है. आज लोगों के बीच ऐसी भावना घर कर रही है कि पिछली एक सदी में दुनिया ने जो उपलब्धियां हासिल की थीं, उन्हें नई सदी में धीरे-धीरे गंवाया जा रहा है. लोग ये मानते हैं कि विश्व के ताक़तवर नेता आज वास्तविक अथवा आभासी ख़तरों को अपने फ़ायदे के लिए भुना रहे हैं. दुनिया में ऐसे ही मज़बूत छवि वाले नेताओं का बोल-बाला बढ़ रहा है. जानकार मानते हैं कि इसका बुरा नतीजा होगा. हमारी आने वाली पीढ़ियां, अपने पुरखों के मुक़ाबले ज़्यादा बुरी स्थिति में होंगी. बहुत से लोग, अपनी मौजूदा दुविधा के लिए इन्हीं नेताओं को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं. क्योंकि जनता को ऐसा लगता है कि नेतृत्व की मौजूदा पीढ़ी उन नियमों और संस्थाओं को नुक़सान पहुंचा रही है, जिन्हें पिछली पीढ़ी के नेताओं ने बड़ी मशक़्क़त के बाद खड़ा किया था. फिर भी, ये कहना ज़्यादा ठीक होगा कि ये जनवादी नेता असल में परिवर्तन लाने के कारक नहीं, बल्कि, दुनिया में आ रहे बदलाव की नुमाइंदगी करते हैं.

हम इस मुकाम तक कैसे पहुंच गए? अब ये बात बड़ी तेज़ी से स्पष्ट होती जा रही है कि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में सभी देशों और समुदायों को बराबरी के अधिकार नहीं मिले हुए हैं. सत्ता का ये असमान वितरण, मौजूदा हक़ीक़तों से मुंह मोड़ लेने जैसा है. सत्ता के इस असमान वितरण और भूमंडलीकरण के प्रति निराशा और ये ग़ुस्सा ही दुनिया के तमाम देशों में ताक़तवर नेताओं और नेत्रियों के उभार की प्रमुख वजह बना है.

हालांकि, आर्थिक एकीककरण के प्रोजेक्ट की वजह से तमाम देशों के बीच असमानता को काफ़ी हद तक दूर किया जा सका है. लेकिन, दुनिया की पुरानी आर्थिक व्यवस्था को बदल कर ये नई व्यवस्था खड़ी करने वाले अलंबरदारों ने इस बात पर अपर्याप्त रूप से ही ध्यान दिया कि विश्व की आर्थिक व्यवस्था में बदलाव का घरेलू राजनीतिक माहौल पर क्या असर होगा. आज दुनिया की केवल दस प्रतिशत वैश्विक आबादी, संसार की 84 प्रतिशत धन-संपदा पर क़ाबिज़ है. ऐसे में अगर दुनिया में आर्थिक अलगाव और राष्ट्रवादी जज़्बातों का उभार देखने को मिल रहा है, तो फिर अचरज किस बात का है? आज चौथी औद्योगिक क्रांति की वजह से उत्पादन क्षेत्र मरणासन्न होता जा रहा है. संगठित मज़दूर वर्ग का दायरा छीजता जा रहा है. इन सबका नतीजा ये हुआ है कि आर्थिक असुरक्षा का भाव कामकाजी तबक़े के ज़हन में गहरी पैठ बना रहा है. दुनिया भर में आ रहे सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन इसी असुरक्षा का परिणाम हैं.

आज शक्ति और संपत्ति उन गिने-चुने लोगों की मुठ्ठी में बंद होती जा रही है, जो इन तकनीकों को डिज़ाइन कर सकते हैं. उनका अपने हक़ में इस्तेमाल कर सकते हैं. इन तकनीकी माध्यमों के चलते आने वाले दशक में ये तय है कि हम सत्ता और नियंत्रण के बीच एक नया संघर्ष होते देखेंगे

इस आर्थिक परिवर्तन का परिणाम भुगत रहे लोगों को डिजिटल तकनीकों के रूप में एक नया साथी मिल गया है. आज आम लोगों के पास भी अपनी आवाज़ को बुलंदी से पहुंचाने का एक लाउडस्पीकर मिल गया है. इसके माध्यम से आम जनता आपस में परिचर्चा करती है. कई बार ये मौजूदा हुक़ूमत का समर्थन करती है. और अक्सर वो सरकार को नुक़सान भी पहुंचाते हैं. पिछले दशक के आग़ाज़ के साथ आई अरब क्रांति से लेकर हॉन्गकॉन्ग में हुए विरोध प्रदर्शनों तक डिजिटल तकनीकों ने सत्ता पर क़ाबिज़ लोगों की आवाज़ और शासित वर्ग की आवाज़ के बीच का फ़र्क़ मिटा दिया है. डिजिटल तकनीक को लेकर बढ़ रही समझ की भी आज फिर से समीक्षा हो रही है. जिन तकनीकी औज़ारों की मदद तमाम समुदायों के पास ये अवसर आया कि वो अपने आप को संगठित कर सकें. अब उन्हीं तकनीकी माध्यमों की मदद से उन्हें नियंत्रित करने और उनकी आवाज़ दबाने का प्रयास भी किया जा रहा है. आज की डिजिटल तकनीकें, जो सर्वव्यापक निगरानी और एल्गोरिद्म की मदद से फ़ैसले लेने के लिए जानी जाती हैं. इन तकनीकी संसाधनों की वजह से आज शक्ति और संपत्ति उन गिने-चुने लोगों की मुठ्ठी में बंद होती जा रही है, जो इन तकनीकों को डिज़ाइन कर सकते हैं. उनका अपने हक़ में इस्तेमाल कर सकते हैं. इन तकनीकी माध्यमों के चलते आने वाले दशक में ये तय है कि हम सत्ता और नियंत्रण के बीच एक नया संघर्ष होते देखेंगे.

तकनीक, भूमंडलीकरण और प्रतिनिधित्व को लेकर जो चिंताएं हैं, वो सब मिल कर दुनिया भर में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के समक्ष चुनौती के एक विशाल बवंडर के रूप में खड़े हुए हैं. इनकी वजह से आज लोकतांत्रिक शक्तियों को असंतोष और मतभेदों से निपटने में मुश्किलें आ रही हैं. एक वक़्त ऐसा था, जब लोकतांत्रिक व्यवस्था का मतलब, तयशुदा सिद्धांतों और उच्च कोटि के संस्थानों के इर्द-गिर्द स्थापित की गई शासन व्यवस्था था. लेकिन, आज लोकतंत्र का भविष्य नए सिरे से परिभाषित किया जा रहा है. और इस परिभाषा को बदलने में सड़कों पर उतरे लोगों के जज़्बातों का महत्वपूर्ण योगदान है. क्योंकि आज नाख़ुश जनता लोकतांत्रिक व्यवस्था के पुराने नियमों और मूल्यों को चुनौती दे रही है. हम इस आंदोलन को परिभाषित करने में भी संघर्ष कर रहे हैं. विद्वान और वैज्ञानिक निश्चित रूप से इस दिशा में प्रयास कर रहे हैं. वो लोकतांत्रिक देशों के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य को अनुदारवादी, तानाशाही, अधूरा या ख़ाली कह कर व्याख्या कर रहे हैं. लेकिन, अभी भी ये चर्चा सैद्धांतिक स्तर पर ही है. और इसमें कोई दो राय नहीं है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्वरूप में आने वाले वक़्त में नाटकीय परिवर्तन होता दिखेगा. और मौजूदा राजनीतिक प्रयोगों की सीमाओं को पूरी तरह समझ पाने में हमें अभी और वक़्त लगेगा.

आज राजनीतिक विचारधाराएं आम लोगों को अर्थपूर्ण लक्ष्य उपलब्ध करा पाने में असमर्थ दिख रही हैं. यही वजह है कि आम जनता अपनी जातीय और धार्मिक पहचान में पनाह ले रही है. आज  हुक़ूमत और धार्मिक संगठनों के बीच का झीना सा आवरण भी तेज़ी से गिरता जा रहा है. अपने कारख़ानों  से निकाल दिए गए ये लोग सत्ता के गलियारों से बहुत दूर हैं. ऐसे में ये कामगार वर्ग, जो कभी ख़ुद को विश्व बंधुत्व वाले काल्पनिक देश के सांचे में संगठित करता था. वही वर्ग आज ख़ुद को बेहद संकुचित, आदिवासी और व्यक्तिगत पहचान के दायरे में संगठित कर रहा है. ये दायरे कभी किसी स्थान, तो किसी जाति या धार्मिक पहचान तक ही सीमित होते हैं.

आज जब दुनिया अपने अस्तित्व के लिए संकट बने सबसे बड़ी ख़तरे से जूझ रही है. तो, क्या ये बात किसी को चौंकाती है कि अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भी अपनी अपनी तरह के संकट की शिकार हैं. व्यापार, संपर्क, आविष्कार, शांति और सुरक्षा के मामले में बीसवीं सदी के नियम और क़ायदे आज सरकारों के इकरफ़ा बर्ताव और हठी नीतियों के मंच बन गए हैं

एक समय के राजनीतिक-आर्थिक आम सहमति में आए इस विभेद ने सामूहिक क़दम उठाने की अंतरराष्ट्रीय समुदाय की क्षमता को घटा दिया है. इस नाकामी की शायद सबसे ख़तरनाक मिसाल, जलवायु परिवर्तन को कम करने में दुनिया की नाकामी है. 2020 का दशक जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने और इस पर हो रही राजनीति के लिहाज़ से बेहद अहम है. एक वक़्त ऐसा था जब जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरण से जुड़े कार्यकर्ताओं और वैज्ञानिकों के लिए ही प्राथमिकता था. लेकिन, आज जलवायु परिवर्तन के असर ज़्यादा स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहे हैं. मानवता के इतिहास में इतनी भयानक तबाही के संकेत हम ने पहले नहीं देखे थे. इस बात को इस मिसाल से समझिए, कि, आज जलवायु परिवर्तन की वजह से अपना घर-बार छोड़ने को मजबूर लोगों की संख्या, पहली बार उन लोगों से कहीं ज़्यादा है, जो हिंसक संघर्ष की वजह से, या फिर रोज़गार की तलाश में अपना घर-बार छोड़ कर भाग रहे हैं. आज आम जनता, कारोबारी और सरकारें अपने पर्यावरण से युद्धरत हैं. और इस संघर्ष को ख़त्म करने की राह में उनकी संकुचित दृष्टि और सीमित प्रयास ही आड़े आ रहे हैं.

आज जब दुनिया अपने अस्तित्व के लिए संकट बने सबसे बड़ी ख़तरे से जूझ रही है. तो, क्या ये बात किसी को चौंकाती है कि अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भी अपनी अपनी तरह के संकट की शिकार हैं. व्यापार, संपर्क, आविष्कार, शांति और सुरक्षा के मामले में बीसवीं सदी के नियम और क़ायदे आज सरकारों के इकरफ़ा बर्ताव और हठी नीतियों के मंच बन गए हैं. आज इक्कीसवीं सदी के उन साझा हितों की तलाश करने, जो देशों के अस्तित्व को नई सदी में सुदृढ़ करें, के बजाय तमाम सरकारें दुनिया के ख़ात्मे की तेज़ी से बढ़ती आपसी होड़ में तल्लीन मालूम होती हैं.

ऐसे चुनौती भरे दौर को हम ने अपनी नई किताब में ‘न्यू वर्ल्ड डिसऑर्डर’ नाम दिया है. इस माहौल में हम ज़ोर देकर ये कहना चाहते हैं कि, भारत में हमें उन चुनौतियों के बारे में नए सिरे से सोचना होगा, जो नई विश्व व्यवस्था  की वजह से हमारे समक्ष खड़ी हो रही हैं. आज ज़रूरत इस बात की है कि भारत को चाहिए कि वो इन चुनौतियों को पहले से समझ कर उनके प्रति अपनी प्रतिक्रिया को सावधानीपूर्वक पहले ही तैयार कर ले. ताकि भारत अपने जैसे ख्य़ालात  वाले देशों के साथ एक गठबंधन बना सके. जो अपनी निजी और संस्थागत क्षमताओं के साथ इक्कसवीं सदी के वैश्विक प्रशासन की चुनौतियों की मांग को पूरा कर सकें.

ये सदी मज़बूत नेताओं के युग में रंग-रूप धर रही है. आज का दौर बड़ी कंपनियों और ताक़तवर समुदायों का भी है. ये ऐसा युग है, जहां आपसी सहयोग के उदाहरण बेहद कम होंगे. जहां संघर्ष ही सर्वव्यापी होगा और सहमति हाथ से निकलती मालूम होगी. हम ये उम्मीद करते हैं कि भारत वो साहस जुटा सकेगा, जिसकी मदद से नए प्रयास होंगे, और हमारी दुनिया में आम सहमति के नए पथ खुलने का मार्ग प्रशस्त होगा.

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