Published on Sep 28, 2020 Updated 0 Hours ago

भारत में मुसलमानों के बीच हाशिये से बहिष्कार के साथ अपमान की भावना, जो कि मीडिया और सोशल मीडिया द्वारा बढ़ाई जा रही है, भारत के भविष्य के लिए अच्छी तस्वीर पेश नहीं करती है.

भारतीय मुसलमानों का हाशिये से भी बाहर जानाः संघर्ष शुरू होने से पहले ही रोकना होगा

9/11 के बाद से, शैक्षिक जगत और नीति निर्माता दायरे में एक बहुत बड़ा तबक़ा मुसलमानों के हिंसक चरमपंथ से संबंध का अध्ययन के लिए जगह बना चुका है. ज़्यादातर का नज़रिया जो उभर कर आया है, उसमें यह तर्क दिया जाता है कि इस्लाम और सलाफ़ी विचारधारा (जिसे कैम्ब्रिज के विद्वान टिम विंटर ने इस्लाम का ‘अस्थिर आइसोटोप’ नाम दिया है), [1]  में बुनियादी रूप से हिंसा की संभावना है. विंटर का तर्क है कि सलाफ़ी और क़ुरान व हदीस जो कि पैगंबर के कथनों का संग्रह हैं, की उनकी व्याख्या पूरी तरह पारंपरिक इस्लाम के ख़िलाफ़ है, जबकि दूसरों का तर्क है कि यही सलाफ़ी व्याख्या सटीक शाब्दिक और चरमपंथी है— यह ईमानदारी से असली इस्लाम को दर्शाती है जबकि बाकी सब कॉटन कैंडी (ख्वाहिशों की उड़ानें) हैं.[2] इस दावे के गुणों या अवगुणों को परे रखते हुए ‘इस्लामी आतंकवाद’— जिसका नामकरण ही अपने आप में ग़लत है— के बारे में सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक है— मुस्लिम सैन्यीकृत आतंकवादी के बनने में गै़र-धार्मिक कारकों के विश्लेषण का अभाव. मज़हब को आतंकवाद की बुनियादी वजह बता देने से मुद्दों से आंखें फेर लेना, राष्ट्रीय सुरक्षा की वेदी पर नागरिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों का बलिदान कर देना, यहां तक ​​कि इसे न्यायसंगत बनाना आसान हो जाता है. मिसाल के तौर पर, चीन हान के जातीय सफ़ाए के अपने एजेंडे को छिपाना चाहता है और तुर्क़ उइगर मुसलमानों के उत्पीड़न को जिहादियों से लड़ाई के रूप में पेश करता है. इस्लाम को दोष देना आसान है क्योंकि यह उस तरीके के बारे में व्यापक असहज सवालों से बचा लेता है, जिसमें सरकारें ऐसे हालात पैदा करती हैं जिनसे लोग हिंसक चरमपंथ की ओर मुड़ते हैं.

यह ध्यान देना ज़रूरी है कि कई लोग अक्सर सोचते हैं कि हिंसक चरमपंथ के मूल कारणों को समझने की मांग स्पष्टीकरण के साथ औचित्य का घालमेल कर देती है. जर्मन जनसंहार के बारे में लिखते हुए, इतिहासकार इंगा क्लेंडिनेन इसे “नैतिक संवेदनशीलता का ह्रास” बताया हैं, जिसमें यह भी समझाना शुरू हो जाता है कि कोई व्यक्ति ‘पाप’ क्यों करता है, और उसके कार्यों को तर्कसंगत बनाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है [3]. शायद यह समझ पाना नामुमकिन है कि हमले के समय या जब कोई तय करता है कि उसके लिए कार्रवाई का इकलौता रास्ता बचा है, तो आत्मघाती हमलावर के दिमाग़ में क्या चल रहा होता है. हालांकि, जिन वजहों से कोई यहां तक पहुंचता है, उनका समझना जरूरी है ताकि लोगों को उस बिंदु तक पहुंचने से रोका जा सके, जहां से वापसी का कोई रास्ता नहीं होता. हिंसा और आतंकवाद को समस्याओं की उपेक्षा के कारकों के एक समूह के उत्पाद के रूप में देखा जाना चाहिए, न कि सिर्फ़ विचारधारा में अंधभक्ति के नतीजे के रूप में.

मुसलमान और बीजेपी

आतंकवाद और इस्लाम के विश्लेषण में, भारतीय मुसलमानों का अक्सर ऐसे समुदाय के रूप में उदाहरण दिया जाता है, जो बड़े पैमाने पर बदलाव से दूर हैं. बदलाव की ग़ैरमौजूदगी को लेकर ढेर सारे सिद्धांत हैं, लेकिन सरकार और नीति निर्धारकों व उलेमा (धर्मगुरु) द्वारा दिए गए तर्कों में से एक यह है कि भारतीय इस्लाम के मामले में कुछ अपवाद हैं. इस तरह सबको एक वर्ग में डाल देना अपने आप में समस्या पैदा करने वाला है क्योंकि यह भारत के मुसलमानों के बीच विशाल सांस्कृतिक, भाषाई, क्षेत्रीय और सांप्रदायिक विविधता की अनदेखी करता है. यह ध्यान में रखने में नाकाम है कि यही विशाल विविधता और कुछ हद तक राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिरता का मतलब है कि मुसलमानों की राजनीतिक सोच एक समावेशी और धर्मनिरपेक्ष भारत पर यक़ीन में समाहित है. उदाहरण के लिए, नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के विरोध में संविधान को आधार बनाया गया था. यह भारतीय मुसलमानों के आर्थिक ‘पिछड़ेपन’ [4] के संदर्भ में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में बताई गई विसंगतियों के बावजूद है. याद रखें कि, मुट्ठी भर भारतीय आईएसआईएस अनुयायी केरल[5], के उसी क्षेत्र में पाए गए हैं, जहां मुस्लिम समुदाय अपेक्षाकृत ज़्यादा संपन्न है और जिनके कंधों पर अपने उत्तर भारतीय बिरादर भाइयों की तरह बंटवारे का भार नहीं है.

ध्यान देने वाली बात यह है कि, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने शुरू में कुछ मुसलमानों— सूफ़ियों और शियाओं— को ज़्यादा भारतीय बताने जबकि अन्य की आलोचना करने की कोशिश की [6]. यह न केवल ‘आतंकवाद के ख़िलाफ युद्ध’ में वैश्विक आख्यान (नैरेटिव) के साथ बड़े क़रीने से फ़िट हो जाता है, बल्कि घरेलू स्तर पर सांप्रदायिक बंटवारे को बढ़ाता है, जो अंत में मुसलमानों में अंदरूनी ध्रुवीकरण को बल देता है. दिल्ली में साल 2016 में वर्ल्ड सूफ़ी फ़ोरम के दौरान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत में इस्लाम को सूफ़ीवाद से जोड़ा, और अप्रत्यक्ष रूप से संकेत दिया कि सूफी ’स्वीकार्य’ मुसलमान हैं. इसी तरह, बीजेपी ने यह धारणा बनाने की कोशिश की है कि शिया मुसलमान अपने रूढ़िवाद से मुक्त व्यवहार के कारण स्वाभाविक रूप से भारतीय हैं. ये दोनों धारणाएं कई बीजेपी राजनेताओं के बयानों से उलट हैं, जो सभी मुसलमानों को भारत के बारे में उनके दृष्टिकोण से अलग रूप में देखते हैं. यह बाद की स्थिति, जिसे घर वापसी (हिंदू धर्म में आने के लिए पुनः धर्मपरिवर्तन) का नाम दिया गया है, विभिन्न समर्थक वर्गों की ओर इशारा है जिन्हें बीजेपी संबोधित करना चाहती है. शीर्ष नेतृत्व अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच समावेशी छवि पेश करना चाहता है, लेकिन निचले स्तर पर वोट बटोरने के लिए मुस्लिम विरोधी भावना का इस्तेमाल किया जाता है. बीजेपी एक और धारणा बनाने की कोशिश करती है कि वह मुस्लिम महिलाओं[7] [8] के उत्थान के बारे में फ़िक्रमंद है, जो उसने अपने ही समर्थकों से और राजनीतिक गलियारों में उन लोगों से ली गई थी जो ऐसी राय रखते हैं कि मुस्लिम महिलाओं को संरक्षण की ज़रूरत है. दिलचस्प बात है कि मुख्यतः महिलाओं के नेतृत्व वाले सीएए के विरोध का खास पहलू यह था कि वो  एकजुट हुईं विभाजनकारी पहचान के मुकाबले मुस्लिम पहचान पर ज़ोर दिया और इस तरह बीजेपी द्वारा फैलाई जा रही विभाजन की राजनीति को उजागर किया.

 दिलचस्प बात है कि मुख्यतः महिलाओं के नेतृत्व वाले सीएए के विरोध का खास पहलू यह था कि वो  एकजुट हुईं विभाजनकारी पहचान के मुकाबले मुस्लिम पहचान पर ज़ोर दिया और इस तरह बीजेपी द्वारा फैलाई जा रही विभाजन की राजनीति को उजागर किया.

बीजेपी और भारतीय राजनीति की नई धुरी

बीजेपी के उत्थान के नतीजों में से एक यह हुआ कि इसने भारतीय राजनीति की धुरी को और दक्षिणपंथ ओर स्थानांतरित कर दिया है. धुरी के इस स्थानांतरण से ज़्यादातर तथाकथित धर्मनिरपेक्ष विपक्षी दलों की राजनीति में भी एक अंतर्निहित बदलाव आया है. चार राज्यों गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में 35 साल के कम के नौजवानों के वोटिंग रुझान का एक अप्रकाशित सर्वेक्षण— उन मुद्दों पर दिलचस्प तथ्य सामने लाता है जिन्हें बीजेपी अपने हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे [9] से जोड़ती है. उदाहरण के लिए, बीजेपी को वोट देने के ख़्वाहिशमंद 84.7 फ़ीसद मतदाता समान नागरिक संहिता लाने का समर्थन करते हैं, जबकि 74.29 फ़ीसद मतदाता जो बीजेपी को वोट देने का इरादा नहीं रखते हैं, इस मुद्दे पर उसका समर्थन करते हैं. गौरतलब है कि बीजेपी को वोट देने का इरादा नहीं रखने वाले कई नौजवानों ने इसे सीएए, तीन तलाक़ और गो रक्षा जैसे मुद्दे पर समर्थन दिया.

ध्यान देने वाली है कि जब इस साल की शुरुआत में शहर में मुस्लिम विरोधी हिंसा भड़की तो दिल्ली के मुख्य़मंत्री अरविंद केजरीवाल खामोश रहे. ज़ाहिर तौर पर सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों और जो लोग भीड़ की हिंसा के निशाने पर थे,  उन लोगों को ‘जिहादी’ और आतंकवादी के रूप में पेश किया जा रहा था जैसा कि बीजेपी द्वारा खुद को [10] बचाने के लिए कहा जाता है. इन विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लेने वाले लोगों में से कई की कोविड-19 लॉकडाउन [11] के दौरान पुलिस द्वारा धरपकड़ की गई, और कई छात्र नेताओं, एक्टिविस्ट, पत्रकारों व अन्य लोगों को विरोध करने के अपने संवैधानिक अधिकार का प्रयोग करने के लिए गिरफ़्तार किया गया. बीजेपी की स्पष्टता कि उसे मुसलमानों के वोट नहीं चाहिए और इसी के समानांतर विपक्ष की ख़ामोशी ने मुसलमानों को उनकी राजनीतिक अस्पृश्यता [12]  के बारे में साफ़ इशारा दे दिया है. फरवरी 2020 में, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा था कि “देश के बंटवारे के बाद मुसलमानों ने यहां रहकर भारत का कोई एहसान नहीं किया था.” [13] इसके अलावा पुलिस और अदालतों ने भी दिल्ली और दूसरे बीजेपी शासित राज्यों में भेदभावपूर्ण ढंग से पेश आकर संस्थागत बहिष्कार का स्पष्ट संकेत दिया. अनुराग ठाकुर और कपिल मिश्रा सहित कई बीजेपी नेताओं द्वारा हिंसा को उकसाने के लिए उन पर कोई मुकदमा नहीं हुआ. दूसरी तरफ़, मुसलमान और उनके गैर-मुस्लिम समर्थक, जो दरअसल  सीएए के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे थे, उन्हें कठोर राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानूनों के तहत गिरफ़्तार किया गया और कई मामलों में ज़मानत से भी इनकार किया गया. राजनीतिक और संस्थागत बहिष्करण के अलावा अब मुसलमानों को विधिक, आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार का भी सामना करना पड़ रहा है.

मुस्लिम पशुपालक किसानों की मॉब लिंचिंग, बूचड़खानों को बंद करना, मुस्लिम इलाकों को छोड़ शहरों में रहने की जगह नहीं मिलना, स्कूलों की किताबों का पुनर्लेखन, पिछले हज़ार सालों में मुस्लिम शासकों के अपराधों (वास्तविक या काल्पनिक) के लिए जवाबदेही की लगातार मांग, लव जिहाद के आरोपों से मुसलमानों ने राजनीतिक और सामाजिक रूप से लांक्षित और अपमानित महसूस किया है.

पिछले साल, क़ानूनों का एक पूरा जत्था लाया गया, जिसे सही या ग़लत, खासकर मुसलमानों को निशाना बनाने वाला माना गया. तीन तलाक़ कानून, गैरक़ानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम संशोधन, अनुच्छेद 370 का ख़ात्मा, बाबरी मस्जिद पर फैसला, सीएए और नागरिकों के एक राष्ट्रीय रजिस्टर की घोषणा सभी ने इस धारणा को मज़बूत किया कि बीजेपी मुसलमानों के अधिकार ख़त्म करने पर आमादा है. मुस्लिम पशुपालक किसानों की मॉब लिंचिंग, बूचड़खानों को बंद करना, मुस्लिम इलाकों को छोड़ शहरों में रहने की जगह नहीं मिलना, स्कूलों की किताबों का पुनर्लेखन, पिछले हज़ार सालों में मुस्लिम शासकों के अपराधों (वास्तविक या काल्पनिक) के लिए जवाबदेही की लगातार मांग, लव जिहाद के आरोपों से मुसलमानों ने राजनीतिक और सामाजिक रूप से लांक्षित और अपमानित महसूस किया है.

यहां तक कि कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान, तब्लीग़ी जमात की ग़लती के लिए पूरे समुदाय को #IslamicVirus और #CoronaJihad जैसे हैशटैग के साथ ट्विटर पर निशाना बनाया गया.[14] बीजेपी के मंत्रिमंडल में इकलौते अनिर्वाचित मुसलमान मुख़्तार अब्बास नक़वी ने तबलीगी जमात की बैठक की तुलना “तालिबानी अपराध” [15] से की. खाने पर पेशाब करने या थूकने वाले मुसलमानों पुरुषों के फेक वीडियो सोशल मीडिया और यहां तक ​​कि मुख्यधारा के समाचार चैनलों पर प्रसारित किए गए, जो इसके बदले में मुसलमानों के सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार की मांग करते थे. हालांकि, गहरे धार्मिक मतभेदों और असल में खुले विद्वेष के बीच, सभी समुदायों के लोग तबलीगी [16] जमात से जुड़े लोगों पर हमलों का बचाव करने के लिए आगे आए.

 

मुसलमान: हाशिए से बहिष्कार की ओर

राजनीतिक, संस्थागत, विधिक, आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार का यह घातक संयोजन एक संघर्ष के बीज रोपण का वादा करता है, जो आने वाले वर्षों में भारत को अस्थिर कर देगा. राजनीतिक आख्यान को बनाए रखने के लिए संघर्ष का इस्तेमाल न केवल अप्रत्याशित नतीजे वाला हो सकता है, बल्कि जिस दानव को पैदा किया गया है, वो उन लोगों को तलाशने वापस आ सकता है जिन्होंने उन्हें जन्म दिया था. आज, भारत के लगभग 50 फ़ीसद मुसलमान 19 साल से कम उम्र के हैं. ये नौजवान हैं जो नफ़रत और असहिष्णुता के माहौल में बड़े हो रहे हैं. यह एक ऐसी पीढ़ी है जो बहिष्कार और अलगाव महसूस कर रही है. भारतीय राजनीति की राजनीतिक धुरी में बदलाव के चलते, नौजवान मुसलमान बीजेपी के साथ ही सेकुलर विपक्ष से भी उतना ही निराश है.

राजनीतिक आख्यान को बनाए रखने के लिए संघर्ष का इस्तेमाल न केवल अप्रत्याशित नतीजे वाला हो सकता है, बल्कि जिस दानव को पैदा किया गया है, वो उन लोगों को तलाशने वापस आ सकता है जिन्होंने उन्हें जन्म दिया था.

उदाहरण के लिए, जेएनयू के छात्र एक्टिविस्ट शरजील इमाम को जनवरी 2020 में ‘राष्ट्र-विरोधी’ भाषण देने के लिए गिरफ़्तार किया गया, लेकिन उनका भाषण असल में देशद्रोही  होने के बजाय, बीजेपी की विपक्ष की आलोचना और विभाजन के बाद की राजनीति [17] पर ही केंद्रित था. शरजील के विचारों को बड़ी संख्या में नौजवान मुसलमानों के बीच समर्थन मिला, जो अपनी मज़हबी पहचान को स्वीकार करने के बारे में शर्मिंदा नहीं हैं. हालांकि, इस बढ़ते असंतोष और हाशिए से हटकर एकदम बहिष्कार की ओर बढ़ने के साथ, यह संभावना है कि आज नहीं तो कल कुछ लोग जो सोचते हैं कि अपनी आवाज़ मुखर करने का एकमात्र तरीका हिंसा हो सकती है, तो वो ऐसा कर भी सकते हैं. निश्चित रूप से इस हिंसा को इस्लामी चरमपंथ के रूप में पेश किया जाएगा, न कि ढांचागत और व्यवस्थागत असमानता और असमानताओं का नतीजा, जिसका वो सामना करते हैं. यह ठीक वही कहानी है जो धीरे-धीरे कश्मीर में बनी थी, और जो एक संघर्ष का निर्माण करेगी जो आने वाले वर्षों के लिए बीजेपी की राजनीति को जिंदा रखेगा. केरल में आईएसआईएस विचारधारा के प्रचारक अब्दुल रादीद अब्दुल्ला ने कहा था कि बीजेपी का उत्थान “छिपा हुआ वरदान”[18]  है.

आईएसआईएस ने दिल्ली हिंसा[19] के एक दिन बाद भारतीय मुसलमानों की जनजागृति के दस पेज की बुकलेट जारी की. राष्ट्रवाद को एक बीमारी करार देते हुए, एक लेख ने मुसलमानों को इस्लाम के रास्ते से भटक जाने को उनके अपमान का मुख्य कारण बताया. निजी तौर पर मज़हबपरस्ती में कमी को बुनियादी वजह के तौर पर देखने की ख़्वाहिश कुछ वैसी ही है जैसी 18वीं और 19वीं सदी के तमाम मुस्लिम सुधारवादियों के लेखन में दिखती थी. लेख में बीजेपी की निंदा की गई थी, लेकिन इसने देवबंदी विचारधारा की अहम शख्सियत मौलाना अरशद मदनी और उनके भतीजे महमूद मदनी को “इस्लाम के शैतानी आलिम” करार दिया. संयोग से दोनों ने हाल के महीनों में आरएसएस और बीजेपी से उनकी नज़दीकी के लिए नौजवान मुसलमानों की तीखी आलोचना झेली है. लेख में असदुद्दीन ओवैसी और कन्हैया कुमार के चित्र भी प्रकाशित किए गए हैं, और उन्हें “नौजवान मुसलमानों को भ्रमित करने वाला” बताया गया है. यह लेख “अल्लाह के नाम पर लड़ो.. क़लम उठा ली गई है और पन्ने सूख गए हैं” के आह्वान के साथ ख़त्म होता है .

इस नैरेटिव को शायद ही कोई गंभीरता से लेने वाला होगा, क्योंकि मुसलमान खुद को भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान को मानने वाले शख्स के रूप में स्थापित करना चाहते हैं. फिर भी यह चंद मुट्ठी भर निराश, हताश और नाराज़ युवाओं को हथियार उठाने के लिए प्रेरित करेगा और बीजेपी के नैरेटिव को आगे ले जाएगा कि अंततः भारतीय मुस्लिम छिपे हुए जिहादी हैं. यह अर्थव्यवस्था की गिरावट से पैदा हुए राजनीतिक और सामाजिक विनाश के कारण नौजवान गै़र-मुस्लिमों के बीच हताशा को और बढ़ा देगा. बीजेपी इस गुस्से को भुनाने और इसका रुख़ मुसलमानों की ओर मोड़ कर उनकी परेशानियों के लिए मुख्य दोषी बताएगी, जैसा कि उसने पिछले छह सालों में किया है. ठीक यही नैरेटिव है जिसने कश्मीर के लॉकडाउन को सही ठहराया और इसकी स्पष्ट बानगी है कि बीजेपी अपना एजेंडा आगे बढ़ाने के लिए इरादतन क्या करेगी. अब तक, कश्मीरी उग्रवाद काफी हद तक राज्य के भीतर सीमित रहा है, लेकिन आने वाले वर्षों में, जैसा कि बीजेपी अपने इज़रायल-फिलिस्तीनी संघर्ष का निर्माण करती है तो देखना बाकी है कि भारतीय राजनीति किस करवट बैठती है. दुनिया भर में लोगों ने तब हिंसा का सहारा लिया है, जब उन्हें एहसास हुआ कि उनकी राजनीति या समाज में हिस्सेदारी नहीं रह गई है. भारत में मुसलमानों के बीच हाशिये से बहिष्कार के साथ अपमान की भावना, जो कि मीडिया और सोशल मीडिया द्वारा बढ़ाई जा रही है, भारत के भविष्य के लिए अच्छी तस्वीर पेश नहीं करती है. अभी भी इस राजनीतिक और नैतिक रसातल की ओर पतन को थाम लेने का समय है. हालांकि एक बार जब हिंसा का चक्र शुरू हो जाता है, तब कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकता है कि यह हमें कहां ले जाएगी.

Endnotes

[1] Paul Vallely, “Wahhabism: a deadly scripture,” The Independent, November 1, 2007.

[2] Graeme Wood, “What ISIS Really Wants,” The Atlantic, March 2015.

[3] Inga Clendinnen, Reading the Holocaust, Cambridge University Press, 1999, p. 88.

[4] Rajindar Sachar, “Social, Economic and Educational Status of the Muslim Community in India,” November 2006.

[5] Kabir Taneja and Mohammed Sinan Siyech, “The Islamic State in India’s Kerala: a primer,” ORF Occasional Paper No. 216, October 2019.

[6] Ali Khan Mahmudabad, “War on Terror and the Quest for The Acceptable Muslim,” News18, March 11, 2018.

[7] Poulomi Saha, “BJP to mark one year since abolition of Triple Talaq as “Muslim Mahila Adhikar Diwas””, India Today, July 30, 2020.

[8] Manish Chandra Pandey, “Muslim Women key to BJP’s Minority Outreach program in UP,” Hindustan Times, July 19, 2019.

[9] S. Bhupathiraju, N. Hussain, A. U. Khan and N. M. Matthews, Voting Behaviour Among Young Urban Indian Voters: A study from across three states, Centre for Development of Policy and Practice, 2020.

[10] Kapil Mishra holds rally against Jihadi violence”, New Indian Express, February 28, 2020.

[11] Staff Report, “Unending Witch-hunt of Muslims: Eminent Citizens Condemn Targeted Arrests of Anti-CAA Protestors,” The Wire, April 18, 2020.

[12] Following the 2019 parliamentary elections only 27 Muslims were elected out of which none were from the BJP. This was four more than the number elected in 2014.

[13] Yogi Adityanath: Muslims did no favour to India by staying here,” BBC Online, February 5, 2020.

[14] Jayshree Bajoria, “Corona Jihad is only the latest Manifestation, Islamophobia in India has been years in the making,” Polis Project, May 1, 2020.

[15] Vasudha Venugopal, “Tablighi Jamaat is a Talibani Crime, not negligence: Mukhtar Abbas Naqvi,” Economic Times, April 2, 2020.

[16] Fahad Zuberi, “A Wine Drinking ex-Muslim’s Defence of the Tablighi Jamaat,” Outlook, April 7, 2020.

[17] Mohammad Asim, “What Sharjeel Imam’s seditious speech has in common with the BJP,” The Wire, January 28, 2020.

[18] Kabir Taneja, “God’s own Khilafat. Why Kerala is a hotspot for ISIS in India?,” The Print, November 21, 2019.

[19] Voice of Hind, vol. 1, Al Qitaal Media Centre, February 24, 2020.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.