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नेशनल अर्बन रेंटल हाउसिंग पॉलिसी की योजना को हक़ीक़त बनने के लिए समय की कसौटी का इंतजार करना होगा. उम्मीद है कि यह दूर की कौड़ी के बजाय दूरदर्शी योजना साबित होगी.
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आवास की उपलब्धता, जो किफा़यती और गरिमापूर्ण दोनों हो, विश्व स्तर पर महत्वपूर्ण चुनौतियों में से एक है और भारत में भी यही स्थिति है. बीते कुछ दशकों में भारत ने सोशल हाउसिंग (सामाजिक आवास) को लेकर विकासात्मक नीतियों पर कुछ ख़ास नहीं किया है. निर्दिष्ट नीति नियोजन की कमी और ठीक से लागू नहीं किए जाने के कारण किराये के मकान की सोच कमजोर पड़ गई. किराये के मकान की अवधारणा को एक समावेशी समाज बनाने की ज़रूरत के बजाय ‘सकारात्मक कार्रवाई’ माना गया है.
हमारे संविधान में वर्णित राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में किए गए वादे के अनुसार आवास और समुचित आश्रय का अधिकार में “सभी के लिए आवास” सुनिश्चित करने का दायित्व सरकारों पर डाला गया है. किराये के मकान को एक और समावेशी अवधारणा में रखा जा सकता है जिसे सोशल रेंटल हाउसिंग (किराए के घरों वाला समाज) कहा जाता है. इस श्रेणी में, इस हाउसिंग पूल का इस्तेमाल करने वाले लक्षित समूह ईडब्ल्यूएस और एलआईजी वासी हैं और किराए पर लिया गया शुल्क बाजार दरों से काफ़ी नीचे होता है. हाउसिंग पूल का स्वामित्व किसी भी संस्था या व्यक्ति के पास हो सकता है- सरकारी स्वामित्व से लेकर निजी स्वामित्व तक.
इस दशक के मध्य तक, पिछले 15-20 वर्षों से अचल संपत्ति की कीमतें चढ़ रही थीं. यह मुमकिन हुआ घर की ख़रीद के लिए फाइनेंस के साथ, उपलब्धता और मांग में बढ़ोत्तरी से. कुछ शहरों में एनआरआई द्वारा संपत्ति ख़रीद से भी निवेश तेज़ी आई. हालांकि, पूरे भारत में बढ़ते शहरीकरण के साथ मांग और आपूर्ति के बीच की खाई भी चौड़ी हुई. आवास की कमी की यह गंभीर स्थिति तकलीफ़देह है, ख़ासकर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) और निम्न आय वर्ग (एलआईजी) के लिए.
मौजूदा कोविड -19 संकट के दौरान हमने देखा कि इस श्रम शक्ति का एक बड़ा हिस्सा महानगरों से अपने गृहनगर/गांवों के लिए निकल गया. अगर शहरों को श्रम और सेवा कार्यों के लिए उन्हें वापस रिझाना है, तो शहरों को उनको सम्मान देना होगा.
किफ़ायती आवास बनाने के लिए ज़मीन की बढ़ी हुई लागत के साथ, उन परियोजनाओं (अगर कहीं हैं) को शहरों के बाहरी इलाकों में डाल दिया जाता है, जहां पीने योग्य पानी, जल निकासी प्रणाली और स्वच्छता सुविधाओं, बिजली, सड़क और ठोस कचरा निपटान जैसी सेवाओं की कमी होती है. शहरी आवास की कमी अनुमानः लगभग 1.9 करोड़ है और इसका बढ़ना जारी है.
भारत में शहरीकरण आर्थिक ज़रूरतों से प्रेरित है जहां लोग कमाई के अवसरों के लिए गांवों और कस्बों से निकल कर बड़े शहरों में आते हैं.
पिछले कई वर्षों में बढ़ते शहरीकरण के साथ, भारत के महानगरों ने सामाजिक हक़ीक़त के एक बदसूरत पक्ष को उजागर किया है- ‘मलिन बस्तियों’ की विस्फोटक वृद्धि. ये शहर उन झुग्गी वासियों द्वारा दिए जाने वाले श्रम और कौशल का उपयोग करते हैं लेकिन उन लोगों की दुर्दशा को लेकर चर्चा से आंखें फेर लेते हैं, जिन्होंने आजीविका की तलाश में उन महानगरों को प्रवासन (इन्हें आमतौर पर ‘अलग किस्म के स्थानीय निवासी’ कहा जाता है) किया है.
इसने शहरी इलाकों में रहने के मानक को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है और लोगों को असुरक्षित दशा में रहने के लिए भी मजबूर किया है. इस तरह अपमानजक तरीके से रहना उन लोगों के लिए मजबूरी है, जो शहरों में एक पक्के (स्थायी) मकान का भारी किराया वहन नहीं कर सकते हैं.
मौजूदा कोविड -19 संकट के दौरान हमने देखा कि इस श्रम शक्ति का एक बड़ा हिस्सा महानगरों से अपने गृहनगर/गांवों के लिए निकल गया. अगर शहरों को श्रम और सेवा कार्यों के लिए उन्हें वापस रिझाना है, तो शहरों को उनको सम्मान देना होगा.
भारत सरकार के लिए अफोर्डेबल हाउसिंग (किफायती आवास) का प्रावधान अब प्राथमिकता का क्षेत्र है; हालांकि, प्रधानमंत्री आवास योजना जैसी नीतियों के बेहतर प्रयासों के बावजूद सभी को स्वामित्व वाले घर प्रदान करना काफ़ी मुश्किल है. तथ्य यह है कि ज़्यादातर लोग भीड़ भरे इलाकों में रहते हैं, क्योंकि ठीक-ठाक घर की मौजूदा लागत काफ़ी ज़्यादा है.
पिछले कुछ दशकों में, विभिन्न राज्य सरकारों ने कुछ ख़ास मेहनत किए बिना किराये के घर मुहैया कराने की अवधारणा को आजमाया है. इसकी नाकामी की बड़ी वजह इन घरों के ढांचे के रख-रखाव के लिए पर्याप्त धन की कमी और नौकरशाही की रुचि का अभाव है. किराये के घर के लिए दूसरी रुकावट किराया नियंत्रण कानून था, जिसने किराये के मकान क्षेत्र में निजी निवेश को बाधित कर खाई चौड़ी की. किराये के घर के निवेशक को कम किराया मिलता था, और मकानों का रखरखाव ठीक नहीं होता था क्योंकि किरायेदार रखरखाव का ख़र्चा नहीं उठा सकते थे. इसलिए औपचारिक किराया बाजार पर नीतिगत ध्यान देने की ज़रूरत है क्योंकि यह सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए किफायती घर को बढ़ावा देने में मददगार हो सकता है.
वर्ष 2015 में नेशनल अर्बन रेंटल हाउसिंग पॉलिसी (एनयूआरएचपी) को ‘भारत में एक जीवंत, टिकाऊ और समावेशी किराए के घरों का बाजार बनाने’ के विचार के साथ शुरू किया गया था. एनयूआरएचपी, 2015 के व्यापक उद्देश्यों में सरकार (राज्य) से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन द्वारा सोशल रेंटल हाउसिंग (एसआरएच) या सामाजिक किराएदारी वाले घर को बढ़ावा देकर पर्याप्त किराये के घरों का भंडार बनाना शामिल था, जिसमें कमजोर वर्गों और शहरी गरीबों की सामर्थ्य पर विशेष ध्यान दिया गया था.
किफ़ायती आवास की अवधारणा का एक महत्वपूर्ण घटक सस्ती ज़मीन है. भारत में या तो सीधे या अपने तमाम सार्वजनिक उद्यमों के माध्यम से, विशेष रूप से भारतीय रेलवे और रक्षा बलों के माध्यम से सबसे बड़ी भू-स्वामी सरकार है.
2015 के व्यापक उद्देश्यों में सरकार (राज्य) से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन द्वारा सोशल रेंटल हाउसिंग (एसआरएच) या सामाजिक किराएदारी वाले घर को बढ़ावा देकर पर्याप्त किराये के घरों का भंडार बनाना शामिल था, जिसमें कमजोर वर्गों और शहरी गरीबों की सामर्थ्य पर विशेष ध्यान दिया गया था.
सरकारें (केंद्र और विभिन्न राज्य) ‘बिक्री के लिए किफायती आवास’ और ‘सोशल रेंटल हाउसिंग के आवास’ पूल बनाने के लिए अपने भूमि-बैंक का इस्तेमाल कर सकती हैं. यह प्रोत्साहन इन विकल्पों के साथ हासिल किया जा सकता है:
इन परियोजनाओं को हर राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में समयबद्ध, एकल खिड़की अनुमोदन के साथ तेजी से पूरा करने की ज़रूरत है. देरी होने पर लागत बढ़ जाने से परियोजनाएं कम कारगर रह जाएंगी और निजी निवेशक आगे आने से हतोत्साहित होगा. निवेशकों का दायरा बढ़ाने के लिए ऐसी परियोजनाओं पर सरकार द्वारा समय-समय पर कर-रियायतों की पेशकश करना उपयोगी होगा. नेशनल अर्बन रेंटल हाउसिंग पॉलिसी की योजना को हक़ीक़त बनने के लिए समय की कसौटी का इंतजार करना होगा. उम्मीद है कि यह दूर की कौड़ी के बजाय दूरदर्शी योजना साबित होगी.
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