Author : Renita D'souza

Published on Aug 11, 2020 Updated 1 Days ago

ग़रीबी को रेखांकित करने वाले बहुआयामी सूचकांकों को प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन द्वारा प्रस्तावित क्षमताओं पर आधारित दृष्टिकोणों को भी ध्यान में रखना चाहिए.

ग़रीबी का आकलन कैसे करें: ब्लूप्रिंट की क्षमताओं और तरीक़े का विश्लेषण

2019 में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने बहुआयामी ग़रीबी सूचकांक प्रकाशित किया था. संयुक्त राष्ट्र ने ये सूचकांक ऑक्सफ़ोर्ड पावर्टी ऐंड ह्यूमन डेवेलपमेंट इनिशिएटिव के सहयोग से प्रकाशित किया था. इस सूचकांक के मुताबिक़ भारत में क़रीब 37 करोड़ ग़रीब लोग रहते हैं. किसी भी देश में ग़रीबों की ये सबसे अधिक संख्या है. संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट में ये बात भी कही गई थी कि भारत ने वर्ष 2006 से 2016 के दौरान क़रीब 27 करोड़ लोगों को ग़रीबी के दलदल से उबारने में सफलता प्राप्त की थी. लेकिन, कोविड-19 महामारी के संकट के चलते, भारत के सामने जो संकट पैदा हुआ है, उससे लगभग 26 करोड़ लोगों के दोबारा ग़रीबी रेखा के नीचे चले जाने का ख़तरा मंडरा रहा है. ये वो लोग हैं, जो बमुश्किल ग़रीबी रेखा के ऊपर जीवन यापन कर रहे हैं. मगर, कोरोना वायरस की वजह से लगाए गए लॉकडाउन के कारण जो आर्थिक परिस्थितियां उत्पन्न हुई हैं, उनसे ये 26 करोड़ लोग दोबारा ग़रीबी के दलदल में धंस सकते हैं. इसीलिए, भारत को एक ऐसी रणनीति की ज़रूरत होगी, जो ग़रीबों की मदद करे और उन्हें दोबारा गुरबत के दलदल में धंसने से रोके. सरकार से अपेक्षित इन योजनाओं की बुनियादी बात ये है कि किसी भी योजना को लागू करने से पहले हमें ज़मीनी हालात और ग़रीबी के दुष्चक्र के कारण बिल्कुल स्पष्ट और परिभाषित होने चाहिए. ग़रीबी, निम्न स्तर पर कैसे लोगों को अपने दुष्चक्र में फंसाती है, इसे व्यापक रूप से समझने के साथ-साथ इसकी बारीक़ी को भी समझना ज़रूरी है. इसके लिए एक ऐसी प्रक्रिया की ज़रूरत होगी, जो ग़रीबी का आकलन इस आधार पर कर सके, जिससे ज़मीनी हालात उजागर हो जाएं. सवाल ये है कि, भारत के नीति नियंता देश में ग़रीबी का हिसाब किताब लगाने के लिए जिन पैमानों का उपयोग करते हैं, क्या वो इस परिभाषा को संतुष्ट करते हैं?

कोरोना वायरस की वजह से लगाए गए लॉकडाउन के कारण जो आर्थिक परिस्थितियां उत्पन्न हुई हैं, उनसे ये 26 करोड़ लोग दोबारा ग़रीबी के दलदल में धंस सकते हैं.

डॉक्टर सी. रंगराजन की अगुवाई वाली विशेषज्ञ समिति ने भारत में ग़रीबी का आकलन करने के लिए जिस प्रक्रिया का सुझाव दिया था, उसके अंतर्गत ग़रीबी का आकलन केवल कैलोरी के उपयोग और इसके साथ प्रोटीन और वसा की खपत से ग़रीबी मापना नहीं था. बल्कि, इस समिति ने कहा था लोगों के खान-पान से इतर भी जो ज़रूरी वस्तुएं हैं जैसे कि कपड़े, मकान, किराया, भाड़ा और शिक्षा के ख़र्च को भी ग़रीबी का आकलन करने में शामिल किया जाना चाहिए. भारत द्वारा तय ग़रीबी रेखा में, इन मानकों के अलावा खान-पान के अतिरिक्त अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वर्ष 2011-12 में किए जाने वाले व्यय को भी शामिल किया जाता है. इस ग़रीबी रेखा को तय करने के लिए जिन आंकड़ों की मदद ली गई थी, वो 2011-12 में हर घर की खपत और व्यय का पता लगाने वाले NSSO के सर्वे से प्राप्त किए गए थे.

कैलोरी, प्रोटीन और वसा की खपत के आधार पर पोषण के मानकों की परिभाषा तय करने के लिए, डॉक्टर रंगराजन की अगुवाई वाले विशेषज्ञ समूह ने ICMR के साथ मिलकर काम किया था. जिसके तहत भारत के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में इन चीज़ों की खपत को अलग-अलग आयु, सेक्स और लोगों की कामकाजी गतिविधियों को आधार बनाया गया था. इस अध्ययन के दौरान ये पता चला था कि ICMR द्वारा कैलोरी की खपत के लिए तय पैमानों की पूर्ति ग्रामीण क्षेत्र में केवल आबादी का छठा हिस्सा (25-30 प्रतिशत) कर रहा था. वहीं, शहरों में केवल एक चौथाई लोग ही पोषण के तय पैमानों के अनुरूप कैलोरी, प्रोटीन और वसा का सेवन कर रहे थे. खान-पान के लिए देश की जनता के न्यूनतम ख़र्च को तय करने का पैमाना ये था कि ग़रीबी रेखा के नीचे आने वाला एक औसत व्यक्ति खाने पीने में हर महीने 554 रुपए गांवों में और 656 रुपए शहरों में ख़र्च करना चाहिए. तभी उस व्यक्ति के ग़रीबी रेखा के ऊपर या नीचे रहने का फ़ैसला होगा.

लेकिन, इस प्रक्रिया की अपनी सीमाएं हैं. ये भी बहुत मुमकिन है कि लोग अपनी अन्य बेहद ज़रूरी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने खान-पान में कटौती करें. जिससे इस ज़रूरत को पूरा कर सकें. इसका मतलब ये होगा कि वो अपने पोषण पर होने वाले व्यय में तो कमी कर लें. मगर उनका कुल व्यय एक जैसा ही होगा. यानी पैसा तो ख़र्च होगा, मगर पर्याप्त पोषण फिर भी नहीं मिलेगा. एक और मसला इस बात का है कि, ग़रीबी का आकलन करने की इस प्रक्रिया में कैलोरी, प्रोटीन और वसा की खपत में बदलाव को मापने का कोई प्रोटोकॉल नहीं है. ऐसे में हो सकता है कि कोई व्यक्ति तय मानक से कम पैसा खाने पर खर्च कर रहा हो, जिससे उसे पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन, कैलोरी या वसा न मिल रहे हों. इससे ग़रीबी रेखा के नीचे रह रहे लोगों का हिसाब किताब तो बिल्कुल ही गड़बड़ हो जाएगा.

ये भी बहुत मुमकिन है कि लोग अपनी अन्य बेहद ज़रूरी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने खान-पान में कटौती करें. जिससे इस ज़रूरत को पूरा कर सकें. इसका मतलब ये होगा कि वो अपने पोषण पर होने वाले व्यय में तो कमी कर लें.

और जहां तक खान-पान के अलावा अन्य ज़रूरी चीज़ों का सवाल है, तो ये विशेषज्ञ समूह भी मानता है कि किसी व्यक्ति या परिवार के व्यय में खान-पान और अन्य ज़रूरी चीज़ों के ख़र्च के बीच फ़र्क़ कर पाना बहुत मुश्किल है. डॉक्टर रंगराजन की अध्यक्षता वाले विशेषज्ञ समूह ने इस चुनौती का जो समाधान सुझाया है, उसके अनुसार मोटे तौर पर ये मान लेना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति या परिवार खान-पान के अलावा अन्य ज़रूरी चीज़ों पर अपने कुल व्यय का लगभग आधा या 45-50 प्रतिशत ख़र्च करता है. अब ये समझ से परे है कि इस मानक के पीछे विशेषज्ञ समूह का तर्क क्या है? किसी भी परिवार के व्यय का मध्यमान वो रक़म है जो नियमित रूप से हर घर ख़र्च करता रहता है. ऐसे में अगर हम इस ख़र्च को ही ग़रीबी रेखा का आकलन करने के लिए मानक मान लें, तो ये आबादी के बड़े हिस्से पर लागू हो जाएगा. लेकिन, भारत जैसे ग़रीब देश में खान-पान के अलावा अन्य ज़रूरी ख़र्चों को कुल व्यय का आधा मान लेना, किसी परिवार के ख़र्चे का ग़लत आकलन करना होगा. इसका आदर्श तरीक़ा ये हो सकता है कि सरकारी एजेंसियों को इस बारे में व्यापक अध्ययन की ज़िम्मेदारी दी जाए. जो वैज्ञानिक आधार पर स्टडी करके ये पता लगाएं कि किसी भी परिवार का खान-पान के अलावा अन्य ज़रूरी सेवाओं या वस्तुओं पर वास्तव में कितना ख़र्च होता है.

अब सवाल ये है कि उपरोक्त प्रक्रिया के अलावा क्या कोई और विकल्प है, जिस पर भरोसा करके हम ग़रीबी का आकलन कर सकें? हालांकि, विशेषज्ञों के बीच इस बात पर आम सहमति है कि ग़रीबी का हिसाब किताब लगाने के लिए बहुआयामी पैमानों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. लेकिन, जब भी ग़रीबी के सूचकांक को तय करने की बात आती है, तो विशेषज्ञों की सहमति, असहमति में तब्दील हो जाती है. ग़रीबी का पता लगाने के लिए कई बहुआयामी सूचकांक विकसित किए गए हैं. मिसाल के तौर पर अल्किरे-फोस्टर सूचकांक, दत्त सूचकांक, चक्रवर्ती, मुखर्जी और रानाडे सूचकांक. चक्रवर्ती, डायचे और सिल्बर सूचकांक. सुई सूचकांक. बोरगिनन और चक्रवर्ती सूचकांक वग़ैरह, वग़ैरह…इन सभी सूचकांकों की समीक्षा कुछ ख़ास मानकों के आधार पर हो चुकी है. इन सूचकांकों की प्रामाणिकता मापने के लिए जो सैद्धांतिक फ्रेमवर्क तय किया गया है, वो ये सुनिश्चित करता है कि सभी सूचकांक भरोसेमंद हों. और, उनमें आपस में अनुकूलता हो. यूं तो सैद्धांतिक रूप से ये सूचकांक बिल्कुल सही लगते हैं. मगर, सवाल ये है कि क्या वो वास्तविक रूप से ज़मीनी स्तर पर मौजूद ग़रीबी के स्तर को दिखा पाते हैं? इस सवाल का कोई सीधा जवाब नहीं है. और न ही ऐसे विचार विकसित किए जा सके हैं, जो इस सवाल का उचित उत्तर दे सकें. इसके बावजूद, प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन के क्षमताओं पर आधारित दृष्टिकोण में कुछ ऐसी ख़ूबियां हैं, जिन्हें लागू किया जाए तो हम ग़रीबी के सूचकांकों को वास्तविकता के बेहद क़रीब ला सकते हैं. दुर्भाग्य की बात ये है कि प्रोफ़ेसर सेन द्वारा प्रस्तावित दृष्टिकोण को पहले उल्लिखित ग़रीबी के बहुआयामी अध्ययन में बमुश्किल ही शामिल किया जाता है. इस परिचर्चा का मक़सद यही है कि प्रोफ़ेसर सेन द्वारा प्रस्तावित इन बारीक़ियों पर नए सिरे से रौशनी डाली जाए.

प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन दो तरह की स्वतंत्रताओं की रेखा खींचते हैं. पहले प्रकार की स्वतंत्रता वो होती है, जो विकास के सिद्धांत का मुख्य अंग है. ये स्वतंत्रता विकास की अवधारणा का महत्वपूर्ण तत्व है. क्योंकि दोनों के अपने आंतरिक मूल्य हैं. मतलब ये कि विकास की प्रक्रिया में स्वतंत्रता का अपना मूल्य है. इनमें से कुछ स्वतंत्रताएं इस प्रकार हैं- जैसे कि अच्छा स्वास्थ्य एवं शिक्षा, साफ़ सफ़ाई और पीने का साफ़ पानी. प्रोफ़ेसर सेन के अनुसार दूसरे तरह की स्वतंत्रताएं वो होती हैं, जो विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में निर्णायक भूमिकाएं निभाती हैं. जैसे कि राजनीतिक स्वतंत्रता, सामाजिक अवसर, आर्थिक सुविधाएं, पारदर्शिता की गारंटी और संरक्षण देने वाली सुरक्षा. ये स्वतंत्रताएं अन्य अहम स्वतंत्रताओं को प्राप्त करने में मददगार साबित होती हैं. प्रोफ़ेसर सेन की नज़र में ग़रीबी, ‘अस्वतंत्रता’ है. और अगर कोई व्यक्ति ग़रीब है तो वो इन दोनों तरह की आज़ादियों से महरूम होता है. ऊपर ग़रीबी को मापने वाली जिन बहुआयामी ग़रीबी सूचकांकों का ज़िक्र किया गया है, वो ग़रीबी का आकलन केवल इन स्वतंत्रताओं से वंचित होने के आंतरिक मूल्य का ही आकलन कर सकते हैं. ये स्वतंत्रताएं जो अन्य तरह की आज़ादियों की प्राप्ति में महती भूमिका निभाती हैं, उसे ऊपर उल्लिखित किसी भी ग़रीबी सूचकांक से नहीं मापा जा सकता. प्रोफ़ेसर सेन ने क्षमताओं पर आधारित ग़रीबी के आकलन के जिस दृष्टिकोण को प्रस्तावित किया है, उसके अंतर्गत दो बुनियादी बातें आती हैं. पहली तो है क्षमता और दूसरी है उनकी क्रियात्मकता या फंक्शनिंग. इसका अर्थ होता है कुछ होना या करना. और ये असल में वास्तविक उपलब्धियों को दिखाती हैं. जैसे कि अच्छा पढ़ा लिखा होना. घर या वाहन का मालिक होना वग़ैरह. वहीं क्षमताओं का अर्थ यहां वो शक्ति होती है कि कुछ बन जाए या कुछ कर सके. इसके माध्यम से वो कार्य किए जाते हैं, जिनसे किसी को असरदार तरीक़े से संसाधनों और सुविधाओं तक पहुंच बनाने का अवसर होता है. पर, ऐसा भी हो सकता है कि कोई व्यक्ति सक्षम होने के बावजूद, इन सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए प्रयास ही न करे. कोई लड़की ऐसे परिवार से संबंध रखती है, जो उसे पढ़ा लिखा सकता है. लेकिन, हो सकता है कि वो परिवार अपनी बेटी को न पढ़ाने का निर्णय करे. ये क्षमता होने के बावजूद उसका क्रियान्वयन न करने का एक उदाहरण है.

जब भी ग़रीबी के सूचकांक को तय करने की बात आती है, तो विशेषज्ञों की सहमति, असहमति में तब्दील हो जाती है. ग़रीबी का पता लगाने के लिए कई बहुआयामी सूचकांक विकसित किए गए हैं.

ग़रीबी का आकलन इस तरह से होना चाहिए कि उसमें वो तत्व समा जाएं जिनका मूल्यांकन किया जाना है. मतलब ये कि ग़रीबी कैसे काम करती है, इसका मूल्यांकन करने का दायरा व्यापक होना चाहिए. ऊपर, ग़रीबी के जिन सूचकांकों का ज़िक्र किया गया है, वो ये मान कर चलते हैं कि वो जिस निर्धनता का आकलन कर रहे हैं, उसकी तादाद के हिसाब से उसे मापा जाना है. इसलिए उसे संख्या के आधार पर ही गिना जा सकता है. और इसकी सीमा को बिल्कुल स्पष्ट तरीक़े से परिभाषित किया जाना चाहिए. इसी कारण से इन मानकों से ग़रीबी कैसे काम करती है, उसका आकलन तो हो जाता है. मगर, तमाम लोगों की निर्धनता के पीछे उनकी क्षमता और अक्षमताओं का सटीक तौर पर आकलन नहीं हो पाता. जबकि, इन क्षमताओं को मानक मान कर ग़रीबी का मूल्यांकन करने से स्थिति अधिक स्पष्ट हो सकती है. उदाहरण के लिए कोई परिवार गाड़ी ख़रीद पाने की क्षमता रखता है. लेकिन, हो सकता है कि वो गाड़ी ख़रीदने का फ़ैसला न करे और सार्वजनिक परिवहन से ही यात्रा करने को तरज़ीह दे. तो, उस व्यक्ति को गाड़ी न होने के कारण ग़रीब तो नहीं माना जा सकता. यहां पर उस परिवार की ग़रीबी का आकलन करने का सही पैमाना उसकी क्षमता को आधार बनाना होगा. कुछ मामलों में, क्षमताओं का क्रियान्वयन, उनसे अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है. उदाहरण के लिए, कई बार किसी के लिए अपनी क्षमताओं का उपयोग कर पाना सामाजिक नियमों के विपरीत हो जाता है. जैसे कि, हो सकता है कि कोई व्यक्ति समाज को देखते हुए शौचालय न बनाए. जबकि, उसके परिवार की बेहतरी के लिए शौचालय का होना आवश्यक है. तो, यहां पर क्षमताओं को लागू करने को पैमाना बनाकर ग़रीबी का आकलन करना चाहिए. इसीलिए, ग़रीबी के सूचकांकों में ये लचीलापन होना चाहिए कि उन्हें किस चीज़ का हिसाब किताब लगाना है.

क्षमताओं को आधार मानकर ग़रीबी का पता लगाने के पीछे तर्क ये है कि ग़रीबी का मूल्यांकन और किसी वस्तु या अधिकार से वंचित रहने को एक सामाजिक चुनाव की प्रक्रिया बनाया जाए. ऐसे मूल्यांकन से ये अपेक्षा होती है कि ये सार्वजनिक वाद-विवाद औऱ परिचर्चा के बाद तैयार आम सहमति का उत्पाद होगा. और इसे लोकतांत्रिक समझ और स्वीकार्यता से तैयार किया जाएगा. जब ग़रीबी का आकलन एक सामाजिक चुनाव की प्रक्रिया के तौर पर किया जाता है, तो इसके कई फ़ायदे निकल सकते हैं. मिसाल के तौर पर, इस लेख की लेखिका ने बहुआयामी ग़रीबी सूचकांक विकसित करने की कोशिश के दौरान ऐसे चार फ़ायदों की खोज की. एकतरफ़ा तरीक़े से ग़रीबी रेखा का निर्धारण एक व्यर्थ की प्रक्रिया साबित होती है. चूंकि, न तो विश्व स्तर पर और न ही देश के भीतर इस बात पर आम सहमति है कि कौन सी ग़रीबी रेखा सबसे उचित होगी, तो हर देश द्वारा अपनी अपनी ग़रीबी रेखा तय करने की समस्या का अपने आप समाधान हो जाएगा. ग़रीबी के सूचकांकों की एक और समस्या है कि ये किसी सुविधा से वंचित रहने के कारणों को भी ग़रीबी तय करने में शामिल किया जाता है. लेकिन, अगर हम ग़रीबी के निर्धारण को एक सामाजिक चुनाव की प्रक्रिया बना लें, तो इससे सूचकांक में किसी भी एक पैमाने का भार तार्किक तरीक़े से तय होता है. न कि इसे पक्षपातपूर्ण ढंग से तय किया जाए. इससे ग़रीबी का आकलन करने में वर्गीकृत और अस्थिर वस्तुओं को भी शामिल किया जाता है.

प्रोफ़ेसर सेन ने क्षमताओं पर आधारित ग़रीबी के आकलन के जिस दृष्टिकोण को प्रस्तावित किया है, उसके अंतर्गत दो बुनियादी बातें आती हैं. पहली तो है क्षमता और दूसरी है उनकी क्रियात्मकता या फंक्शनिंग.

ग़रीबी को एक सामाजिक चुनाव की प्रक्रिया बनाने से ग़रीबी के सूचकांक, संसाधनों पर अलग-अलग व्यक्तियों के अधिकार को भी अपने मूल्यांकन में शामिल करते हैं. और इसके साथ-साथ, इन संसाधनों को वास्तविक उपलब्धियों में तब्दील करने की उनकी क्षमताओं का भी आकलन किया जाता है. उदाहरण के लिए अगर किसी अरबपति को लाइलाज बीमारी हो जाती है औऱ उसके तमाम संसाधनों और पैसे की ताक़त से उस बीमारी का इलाज कर पाना मुमकिन नहीं हो पाता, क्योंकि रोग का इलाज ही नहीं है. और अंतत: उस व्यक्ति की मौत हो जानी है.

उपरोक्त परिचर्चा के निष्कर्ष से जो प्रमुख सुझाव दिए जा सकते हैं, वो ये हैं कि ग़रीबी के बहुआयामी सूचकांकों को उपरोक्त सभी विचारों को अपनी गणना में शामिल करना चाहिए. ताकि, वो प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन द्वारा प्रस्तावित क्षमता पर आधारित दृष्टिकोण से भी ग़रीबी को माप सकें. आज ये ज़रूरी हो गया है कि ग़रीबी बताने वाला ऐसा सूचकांक तैयार किया जाए, जो हर पक्षपातपूर्ण तत्व को आकलन की प्रक्रिया से बाहर कर दे. और, तार्किक तरीक़े से ग़रीबी की गणना और मूल्यांकन के सिद्धांतों को तैयार करे. ऐसा सूचकांक तैयार होने से ग़रीबी का हिसाब किताब लगाने की प्रक्रिया के लिए आम सहमति तैयार हो सकेगी, जिसकी बहुत सख़्त आवश्यकता है. इससे आख़िर में भारत को ही मदद मिलेगी. जिससे वो ग़रीबी में अचानक वृद्धि की चुनौती का सामना करने के लिए तैयार रहेगा. इस महामारी के कारण आने वाले समय में इसकी आशंका भी है.

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