Author : Kabir Taneja

Published on Jul 11, 2019 Updated 0 Hours ago

जनसंपर्क और सोशल मीडिया के इस ज़माने में प्रधानमंत्री मोदी के इन दौरों का भारतीय मुस्लिम समुदाय पर यक़ीनन सकारात्मक असर हुआ. जबकि गुजरात दंगों के दौरान ऐसी बात नहीं थी.

मोदी ने कैसे खाड़ी देशों को भारत का मुरीद बनाया?

2019 के आम चुनाव में ज़बरदस्त जीत के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना दूसरा कार्यकाल शुरू किया, तो इस बात की बड़ी चर्चा हो रही है कि पहले कार्यकाल के पाँच वर्षों में उन्होंने पश्चिमी एशिया के देशों से संबंध सुधारने के लिए कारगर क़दम उठाए हैं. पश्चिमी एशियाई देशों के साथ भारत के संबंधों में आए सुधार को मोदी सरकार की सबसे बड़ी कूटनीतिक कामयाबी कहा जा रहा है.

ये इलाक़ा बहुत उठा-पटक वाला है. इस क्षेत्र से भारत के बड़े राजनीतिक और आर्थिक हित जुड़े हुए हैं. इस के क्षेत्रीय संगठन यानी गल्फ़ को-ऑपरेशन काउंसिल के देश, भारत के सबसे बड़े कारोबारी साथी हैं. इस इलाक़े में 75 लाख से ज़्यादा भारतीय काम करते हैं. जो हर साल क़रीब 55 अरब डॉलर की रक़म स्वदेश भेजते हैं. कुल मिलाकर, पश्चिमी एशिया में रहने वाले भारतीयों की तादाद फिनलैंड की आबादी से भी ज़्यादा है. यानी खाड़ी देशों में भारत को इतने लोगों के हितों का ध्यान रख कर क़दम उठाने पड़ते हैं. 2015 में न्यूयॉर्क में खाड़ी सहयोग परिषद की नौवीं मंत्रिस्तरीय बैठक में पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने जीसीसी और भारत के बीच मुक्त व्यापार समझौते की वक़ालत की थी. सुषमा स्वराज ने तब कहा था कि खाड़ी देश ‘भारत के वृहत्तर पड़ोसी’ हैं. कुछ लोग मज़े में दुबई को भारत का पांचवां सबसे बड़ा (और सबसे साफ़) शहर भी कहते हैं.

पश्चिम एशियाई देशों में लगातार उठा-पटक के बीच जब नरेंद्र मोदी ने 2016 में इज़राइल का दौरा किया, तो ऐसा करने वाले वो देश के पहले प्रधानमंत्री थे. इज़राइल के इस दौरे से प्रधानमंत्री मोदी ने दोनों देशों के बीच बेवजह की दूरी को पाटने का काम किया था. जबकि भारत और इज़राइल ने 1991 में ही कूटनीतिक संबंध स्थापित कर लिए थे. अपने पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी ने दो बार संयुक्त अरब अमीरात का दौरा किया. तो, वो सऊदी अरब, ईरान, जॉर्डन और क़तर के साथ फ़िलिस्तीन के रामल्ला शहर के दौरे पर भी गए. इन दौरों की मदद से भारत, पश्चिमी एशियाई देशों के साथ अपने संबंधों में नई जान फूंकने में क़ामबाय हुआ है. इससे प्रधानमंत्री मोदी को निजी तौर पर भी अपनी छवि बदलने में काफ़ी मदद मिली है. क्योंकि, गुजरात में 2002 के गोधरा दंगों के बाद से ही मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी की छवि मुस्लिम विरोधी नेता की रही है. हालांकि, पिछले 17 वर्षों में उनकी कट्टरपंथी और मुस्लिम विरोधी छवि काफ़ी हद तक धूमिल पड़ी है. क्योंकि मोदी की अगुवाई में बीजेपी ने दो-दो राष्ट्रीय चुनावों में ज़बरदस्त जीत हासिल की है. इससे ये साफ़ हो गया है कि भारत का मतदाता मोदी की तरफ़ बड़ी उम्मीद से देखता है. उसे मोदी से ये अपेक्षा है कि वो विश्व में भारत को नई ऊंचाई तक ले जाएंगे. इस साल आम चुनावों से ठीक पहले भारत ने जनवरी में अरब लीग के 22 देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक की मेज़बानी करने की कोशिश की थी. हालांकि ये बैठक खाड़ी देशों की आपसी राजनीति की वजह से नहीं हो सकी. लेकिन, अगर भारत इस बैठक की मेज़बानी करता, तो ये न केवल क्षेत्रीय बल्कि विश्व कूटनीति में भी बहुत बड़ी कामयाबी होती.

गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर गोधरा दंगों के दाग़ के बावजूद, ज़्यादातर हलकों में मोदी का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई ख़ास विरोध नहीं देखा गया. उनकी बहुत निंदा नहीं हुई थी. इस दौरान खाड़ी देशों के भारत में जो राजदूत थे, उन्होंने न तो कभी इन दंगों के बारे में विदेश मंत्रालय से कोई जानकारी मांगी, और न ही उन्हें इसके बारे में कोई सफ़ाई दी गई. हालांकि, गोधरा के दंगों की वजह से मुस्लिम राष्ट्रों और खाड़ी देशों में मोदी की छवि को धक्का लगा था. फिर भी खाड़ी देशों की स्थानीय राजनीति और ‘व्यवहारिक कूटनीति’ के नज़रिए से देखें, तो सांप्रदायिक तनातनी को लेकर भारत की छवि हमेशा संदिग्ध रही है. फिर चाहे 1986 के मेरठ के दंगे हो, 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हो, जिसकी वजह से खाड़ी देशों और ख़ास तौर से वहां रह रहे मुस्लिम समुदाय के भारतीयों में बहुत नाराज़गी थी. पाकिस्तान ने इस मसले को इस्लामिक सहयोग संगठन के देशों की बैठक में भी उठाया था. लेकिन, इसका उसे कोई फ़ायदा नहीं हुआ था. ये बात संगठन के सदस्य देशों की प्रतिक्रिया से स्पष्ट हो गई थी. इससे ज़्यादा चर्चा तो तब हुई थी जब अमेरिका ने नरेंद्र मोदी को वीज़ा देने पर पाबंदी लगाने का एलान किया था.

हालांकि, 2014 के आम चुनाव में जब बीजेपी ने मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली कांग्रेस की सरकार को हरा कर सत्ता हासिल की, तो खाड़ी देशों में मोदी की जीत पर ज़्यादा उत्साह नहीं था. इन देशों ने भारत में सत्ता परिवर्तन का बहुत ज़ोर-शोर से स्वागत नहीं किया था. इन देशों ने भारत में आए राजनीतिक बदलाव के बाद संबंधों को ठंडे बस्ते में डाल दिया था. हालांकि, खाड़ी देशों की सहयोग परिषद ने मनमोहन सिंह सरकार के दो कार्यकालों में संबंधों में आई बेहतरी की बुनियाद पर भारत से नज़दीकी और बढ़ाने की दिशा में काम शुरू कर दिया था. भारत की कूटनीति हमेशा से पंडित नेहरू के दिखाए रास्ते पर चलती आई थी. जिसमें गुटनिरपेक्षता पर ज़ोर था. खाड़ी युद्ध के दौरान भारत ने खुलकर सद्दाम हुसैन का समर्थन किया था. 2003 में अमेरिका की अगुवाई वाले आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध के मोर्चे में भारत ने शामिल होने से साफ़ इनकार कर दिया था. उस वक़्त के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने ही साथियों के दबाव के बावजूद, इराक़ के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए भारतीय सेना की टुकड़ी भेजने से मना कर दिया था. पश्चिमी एशिया से भारत के ऐतिहासिक रूप से नज़दीकी संबंध रहे हैं. प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी ने इन ऐतिहासिक संबंधों का बख़ूबी फ़ायदा उठाकर, 2014 के बाद से खाड़ी देशों से संबंध लगातार बेहतर बनाए हैं.

इस साल अपनी ज़बरदस्त चुनावी जीत के बाद मोदी को फ़ोन कर के बधाई देने वाले में अबू धाबी के शहज़ादे मोहम्मद बिन ज़ायद सबसे पहले नेता थे. चुनाव से ठीक पहले संयुक्त अरब अमीरात ने मोदी को अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान यानी ज़ायद मेडल से भी सम्मानित किया था. उन्हें ये पुरस्कार भारत और खाड़ी देशों को क़रीब लाने के लिए दिया गया था. 2016 में जब प्रधानमंत्री मोदी सऊदी अरब के दौरे पर गए थे, तो सऊदी अरब ने भी उन्हें अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान किंग अब्दुल्लाज़ीज़ सैश से नवाज़ा था. 2014 में जब मोदी ने चुनावी जीत हासिल की थी, तब इन देशों का रवैया इसके ठीक उलट था. तब खाड़ी देश बीजेपी और मोदी को राष्ट्रवादी हिंदुत्व वाली राजनीति करने वाले मानते थे और उनके प्रति सशंकित थे.

यहां ये भी जानना ज़रूरी है कि वर्ष 2000 के बाद के कुछ बरसों में इंटरनेट के ज़रिए अनौपचारिक वार्तालाप कम ही होता था. उस दौर में अप्रवासियों के ख़यालात को समझना और उन्हें प्रभावित करना बड़ी चुनौती थी. प्रधानमंत्री मोदी ने अपने कार्यकाल के शुरुआती दिनों से ही इस इलाक़े का दौरा करके यहां बसे भारतीय मूल के लोगों को प्रभावित करने का काम शुरू कर दिया था. उन्होंने अपने दौरों में प्रिंस ज़ायद और सऊदी अरब के किंग अब्दुल्ला को गले लगाकर अलग ही संकेत दिए थे. इसका मक़सद अपने देश के मुस्लिम नागरिकों को ये संदेश देना था कि अब तो मोदी को विदेशी मुस्लिम नेताओं और मुस्लिम समुदाय ने भी अपना लिया है. इनमें पवित्र मस्जिदों के संरक्षक भी शामिल हैं. आज सूचना के तेज़ी से प्रसार का युग है. जनसंपर्क और सोशल मीडिया के इस ज़माने में प्रधानमंत्री मोदी के इन दौरों का भारतीय मुस्लिम समुदाय पर यक़ीनन सकारात्मक असर हुआ. जबकि गुजरात दंगों के दौरान ऐसी बात नहीं थी. उस वक़्त ऑफ़लाइन दुनिया से मिल रही जानकारियों ने मोदी की छवि बिगाड़ने में अहम रोल निभाया था. हम ये अच्छे से जानते हैं कि उस दौर में भारतीय संविधान की बिगड़ी हुई मुस्लिम विरोधी छवि पेश करने के लिए फ़र्ज़ी तस्वीरें और जानकारियां प्रचारित की गई थीं. जिनसे ये साबित हो सके कि मोदी सरकार मुस्लिम विरोधी है. हालात इतने बिगड़ गए थे कि भारत सरकार को संविधान की एक हज़ार प्रतियां अरब देशों के मीडिया के बीच बांटनी पड़ी थीं. ताकि ऐसी अटकलों को प्रसारित होने से रोका जा सके.

फिर, आख़िरकार खाड़ी देशों के ताक़तवर मुस्लिम नेताओं ने मोदी को पिछले पांच वर्षों में गले क्यों लगाया? जबकि इन देशों के बारे में चर्चा यही थी कि वो मोदी को पसंद नहीं करते हैं. इसमें मोदी सरकार की अपनी कोशिशों से ज़्यादा, इस सवाल का जवाब खाड़ी देशों के अपने हितों से जुड़ा है. मोदी सरकार ने धन से मालामाल इन देशों के हितों के साथ भारत के हितों को जोड़कर न सिर्फ़ उनका राजनीतिक भविष्य मज़बूत किया, ताकि सऊदी अरब जैसे पेट्रो-डॉलर पर लंबे समय से निर्भर देश भारत के बड़े बाज़ार से जुड़कर अपने लिए आमदनी के वैकल्पिक स्रोत तलाशें. ऐसे में 2019 के चुनाव में शानदार जीत से मोदी की अगुवाई में ऐसी सरकार बनी है, जो गठबंधन की मजबूरियों से आज़ाद है. इस जीत से भारत ने ऐसी सरकार चुनी है, जो बिना किसी मजबूरी के कारोबारी रिश्ते निभा सकती है. खाड़ी देशों की भारत में दिलचस्पी की ये भी एक बड़ी वजह रही है. इसके अलावा मोदी की छवि एक ‘मज़बूत नेता’ की भी रही है. खाड़ी देशों में भी व्यक्ति पूजा होती आई है. वहां पर भी कुछ ख़ास, मज़बूत किरदारों वाले लोगों को अहमियत दिए जाने का लंबा इतिहास है. खाड़ी देशों के नेताओं और प्रधानमंत्री मोदी, दोनों के लिए ही ये ताल्लुक़ात अपने-अपने हित साधने वाले कारोबारी रिश्ते हैं.

मोदी सरकार ने न सिर्फ़ खाड़ी देशों के साथ संबंधों में, बल्कि दूसरे देशों के साथ भी इसी नीति पर चलने पर ज़ोर दिया है. ईरान जैसे देशों के साथ संबंध अपनी क़ुदरती प्रक्रिया से आगे बढ़ रहे हैं. वहीं, संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों के साथ भारत ने तेज़ी से संबंध बेहतर किए हैं. ये संबंध सामरिक और आर्थिक दोनों मोर्चों पर बेहतर हो रहे हैं. संयुक्त अरब अमीरात को सऊदी अरब की ‘रिसर्च लैब’ भी कहा जाता है. जहां दुबई जैसे बड़े और चमकदार शहर हैं. अरब देशों के बीच संयुक्त अरब अमीरात की छवि तरक़्क़ीपसंद देश की है. सऊदी अरब जैसे देश उसकी नक़ल करना चाहते हैं. संयुक्त अरब अमीरात और भारत के बीच बढ़ता सहयोग मोदी सरकार की बड़ी क़ामयाबियों में से एक है. संयुक्त अरब अमीरात को लगता है कि मोदी की अगुवाई में भारत में राजनीतिक स्थिरता बनी रहेगी और भारत ज़्यादा तेज़ी से आर्थिक तरक़्क़ी करेगा. प्रधानमंत्री मोदी भी अपनी पहले की छवि को पीछे छोड़कर एक ऐसे नेता के तौर पर देखे जा रहे हैं, जो बदलाव चाहता है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी धाक जमा रहा है. इन तमाम तर्कों के बावजूद, आर्थिक विकास और स्थिरता दो ऐसे पहलू हैं, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबसे ज़्यादा मायने रखते हैं. आज अमेरिका बड़ी तेज़ी से तेल के मोर्चे पर आत्मनिर्भर हो रहा है. ऐसे में भारत और चीन की अगुवाई में एशियाई देश ही, कच्चे तेल के सबसे बड़े ख़रीदार बनते जा रहे हैं. इसके अलावा इन देशों में निवेश पर बेहतर रिटर्न और इन के विशाल बाज़ार भी खाड़ी देशों को लुभा रहे हैं. वहां के अमीरों के लिए भारत निवेश के अच्छे विकल्प के तौर पर उभरा है, जहां कच्चे तेल से हो रही कमाई का भविष्य के लिए निवेश किया जा सकता है.

भारत के बारे में ये बदली हुई राय, 1990 के हालात से ठीक उलट है. ये सोच अमेरिका पर 9/11 के आतंकवादी हमले के बाद से बदलनी शुरू हुई. आतंकवाद के ख़िलाफ़ अमेरिका के युद्ध की वजह से संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब जैसे देशों को ये महसूस हुआ कि वो अपनी तरक़्क़ी के लिए केवल अमेरिका पर पूरी तरह निर्भर नहीं रह सकते. 2006 में मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान सऊदी अरब के किंग अब्दुल्लाह बिन अब्दुल्लाज़ीज़ अल सऊद भारत के दौरे पर आए थे. ये एक ऐतिहासिक दौरा था. इस दौरे ने भारत और सऊदी अरब के बीच बेहतर संबंधों की नींव डाली थी. सऊदी अरब के किंग अब्दुल्ला के भारत दौरे से पहले पूर्व भारतीय राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम 2003 में संयुक्त अरब अमीरात गए थे. उस समय कलाम के साथ गए प्रतिनिधिमंडल को ये बताया गया था कि संयुक्त अरब अमीरात, भारत में बड़े पैमाने पर निवेश का इच्छुक है. क्योंकि उस वक़्त भारत की अर्थव्यवस्था की तरक़्क़ी की रफ़्तार तेज़ी से बढ़ रही थी. लेकिन, तब भारतीय अर्थव्यवस्था में निवेश की राह में कई बाधाएं और कई सीमाएं भी थीं.

इसके अलावा कई और क्षेत्रीय कारक भी रहे, जिन्होंने खाड़ी देशों को भारत के क़रीब लाने में अपना रोल निभाया. इज़राइल और अरब देशों के बीच गुपचुप सहयोग से भारत को भी अपनी कूटनीति का दायरा बढ़ाने का मौक़ा मिला. 2018 में जब भारत ने सऊदी अरब की हवाई सीमा से होते हुए इज़राइल के शहर तेल अवीव के लिए उड़ान शुरू की, तो ये पहला मौक़ा था कि इज़राइल जाने वाली उड़ान किसी अरब देश से गुज़र रही थी. इससे भारत से ज़्यादा अरब देशों को इज़राइल से अपने संबंध बेहतर करने का फ़ायदा हुआ. ईरान और खाड़ी सहयोग परिषद के बीच बढ़ते तनाव ने अरब देशों और इज़राइल को साथ आने का मौक़ा दिया है. क्योंकि दोनों के लिए दुश्मन एक है यानी ईरान. अब इस बात पर बहस हो सकती है कि अरब देशों और इज़राइल के बीच ये दोस्ती कितनी लंबी खिंचती है. लेकिन, फिलहाल तो ये दोनों ही पक्षों के लिए फ़ायदे का सौदा साबित हो रही है.

और आख़िर में पश्चिमी एशियाई देशों से बेहतर संबंध बनाने में मोदी की कामयाबी की एक बड़ी वजह भारतीय कूटनीतिक व्यवस्था की भी विजय है, जो पिछले एक दशक में काफ़ी बदल गई है. हालांकि, इसकी सबसे बड़ी वजह दुनिया में बह रही बदलाव की बयार है. अब विश्व की राजनीतिक व्यवस्था में नए खिलाड़ियों का प्रवेश हो रहा है. नई सियासी हक़ीक़त ने नए समीकरणों को जन्म दिया है. खाड़ी देशों को भी अब ये बात समझ में आ रही है. इन बदलावों को स्वीकार करने से सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात को अपने कूटनीतिक प्रयासों की बदौलत बदले माहौल का फ़ायदा उठाने का मौक़ा मिल रहा है. ये देश उस इलाक़े में स्थित हैं जो विश्व का सबसे ज़्यादा उठा-पटक वाला क्षेत्र है. ऐसे में इन देशों को भारत से नज़दीकी बढ़ाने का आर्थिक फ़ायदा आने वाले वक़्त में होगा. हालांकि ये देखने वाली बात होगी कि इन बदलावों से कारोबार और सामरिक मोर्चे पर कैसी साझेदारियां विकसित होती हैं. लेकिन, ये तय है कि पश्चिमी एशिया, मोदी सरकार की कूटनीतिक कामयाबी का सबसे अहम क्षेत्र है. इस क्षेत्र से देश को काफ़ी उम्मीदें भी हैं. यही वजह है कि भारत ने अपने परंपरागत कूटनीतिक आलस्य को त्यागकर इन देशों से संबंधों को नई धार और रफ़्तार दी है.

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