Published on Dec 29, 2020 Updated 0 Hours ago

देश के बाहर की कंपनियों से साझेदारी न होने पर भी भारतीय स्टार्टअप और कंपनियां अंतरिक्ष तकनीकी और बुनियादी ढांचे के विकास और व्यवसायीकरण में अपना अभिन्न योगदान दे सकेंगी.  

क्या अंतरिक्ष क्षेत्र में निजी निवेश भारतीय सेना के लिए मददगार हो सकता है?

मोदी सरकार में अंतरिक्ष विभाग और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा अंतरिक्ष नीति के नए दिशानिर्देशों की घोषणा एक नई ताज़गी लिए है और इससे भारतीय अंतरिक्ष सेक्टर को नई गतिशीलता मिलने के पूरे आसार हैं. हाल ही में घोषित अंतरिक्ष नीति के दिशानिर्देशों में कई उपायों की चर्चा है जिन्हें जल्द ही लागू किए जाने की संभावना है. इनके तहत विदेशी कंपनियों को भारत में अपने संस्थान स्थापित करने और अंतरिक्ष सेक्टर में सीधे विदेशी निवेश (एफडीआई) को मंज़ूरी दी गई है. अंतरिक्ष नीति के तहत निवेश के क्षेत्र में सबसे अहम बदलाव के तौर पर इस क्षेत्र में एफडीआई की मंज़ूरी को देखा जा सकता है. भारतीय और विदेशी कंपनियों के बीच साझेदारी से इस क्षेत्र में नए उपक्रमों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त होगा. इन साझा उपक्रमों के तहत उपग्रहों के विकास में साझेदारी के मामले भी आ सकते हैं. देश के बाहर की कंपनियों से साझेदारी न होने पर भी भारतीय स्टार्टअप और कंपनियां अंतरिक्ष तकनीकी और बुनियादी ढांचे के विकास और व्यवसायीकरण में अपना अभिन्न योगदान दे सकेंगी.

देश के दूरदराज के वो भूभाग जिन्हें ऑप्टिकल फाइबर के ज़रिए नहीं जोड़ा जा सकता, उन्हें इस गठजोड़ से काफी फायदा पहुंचने वाला है.

अंतरिक्ष के क्षेत्र में भारत में व्यावसायिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अपार संभावनाएं हैं और इन नीतिगत बदलावों से इस क्षेत्र में पहले से बेहतर औऱ अहम तकनीकी लाने में मदद मिलेगी. भारत में अंतरराष्ट्रीय मानदंड के हिसाब से बेहतर कार्यपद्धति के साथ विशेषज्ञता को आकर्षित किया जा सकेगा. इतना ही नहीं अब भारतीय युवाओं को अंतरिक्ष विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में करियर बनाने की भी नई प्रेरणा मिलेगी. निवेश के नए नियमों के तहत विदेशी कंपनियों को इसरो द्वारा विकसित अंतरिक्ष प्रक्षेपण और दूरमापी सुविधाओं के इस्तेमाल की छूट मिल सकेगी. और तो और इन कंपनियों को दूरसंचार और दूरमापी सुविधाओं के लिए भूतल केंद्रों के निर्माण में भी शामिल किया जा सकेगा. यहां यह बताना अहम हो जाता है कि भारतीय दूरसंचार कंपनी एयरटेल तो नार्वे-स्थित कांग्सबर्ग सैटेलाइट सर्विसेस (केसैट) के साथ साझेदारी की प्रक्रिया शुरू भी कर चुकी है. केसैट दुनियाभर में भूतल केंद्रों के एक बड़े नेटवर्क का संचालन करती है. इसके ज़रिए यह डाउनलिंक सेवाएं और हाई थ्रूपुट ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी सेवाएं मुहैया कराती है. अब यही कंपनी भारती इंटरप्राइजेज़ की एयरटेल के साथ मिलकर भारत में भूतल केंद्रों के एक बड़े जाल का निर्माण करने की दिशा में कार्य कर रही है. एयरटेल का वनवेब कंपनी में हिस्सा है और यही कंपनी पृथ्वी की निचली कक्षा में चक्कर लगाने वाले 648 उपग्रहों के एक समूह का निर्माण करने वाली है. यह दुनिया में छोटे उपग्रहों के सबसे बड़े समूहों में से एक होगा. स्पष्ट है कि देशभर में भूतल केंद्रों की स्थापना के मकसद से वनवेब में एयरटेल की हिस्सेदारी और केसैट के साथ उसका समझौता भारतीय अंतरिक्ष क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी की दिशा में एक बड़ा कदम है. दोनों कंपनियां एक दूसरे की पूरक का काम करेंगी. देश के दूरदराज के वो भूभाग जिन्हें ऑप्टिकल फाइबर के ज़रिए नहीं जोड़ा जा सकता, उन्हें इस गठजोड़ से काफी फायदा पहुंचने वाला है.

भारतीय सशस्त्र सेवाओं के लिए चुनौतियां और मौके         

इन फायदों और स्वागतयोग्य बदलावों से इतर निवेश के इन नए नियमों से एक क्षेत्र जिसमें भारतीय निजी कंपनियों के लिए सबसे ज़्यादा अवसर प्रस्तुत होने वाले हैं वो हैं भारत की सशस्त्र सेवाएं. हालांकि इस रास्ते में कई चुनौतियां भी हैं. केसैट-भारती एयरटेल का साझा उपक्रम अंतरिक्ष क्षेत्र के व्यापारिक और असैनिक इस्तेमाल के मामले में तो शायद बेहद अहम और सफल गठजोड़ है लेकिन सेना के दृष्टिकोण से ऐसे गठजोड़ के बारे में कुछ कहना इतना आसान नहीं है. इसरो के अध्यक्ष और अंतरिक्ष विभाग के सचिव के सिवन ने इस मामले में सचेत करते हुए कहा है कि, ’हालांकि नीतिगत तौर पर विदेशी निवेश को मंज़ूरी दी गई है लेकिन अंतरिक्ष क्षेत्र की संवेदनशीलता को देखते हुए विदेशी निवेश के बारे में कोई भी फैसला हर बार और हर मामले में ठीक से जांच-पड़ताल के बाद ही लिया जाएगा. राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रहित हमारी प्राथमिकता है और कंपनियों को यह लिखकर देना होगी कि वे हमारे द्वारा बनाए गए दिशानिर्देशों का अक्षरशः: पालन करेंगी.’

हालांकि ठीक-ठीक तो नहीं कहा जा सकता लेकिन अगर अभी भारत की निजी दूरसंचार कंपनियां सेना की ज़रूरतों को पूरा करने को लेकर खास उत्साहित न भी हों तो भी दूरसंचार और बड़े पैमाने पर डेटा सुविधाएं मुहैया करा रहीं भारत की मोबाइल और इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियां (आईएसपी) आगे चलकर सेना के तीनों अंगों के लिए भारतीय दूरसंचार उद्योग का द्वार खोलने में अग्रणी भूमिका निभा सकती हैं. केसैट, भारती एयरटेल और वनवेब के गठजोड़ के बावजूद ऐसा ज़रूरी नहीं है कि सेना के साथ भविष्य में होने वाले ऐसे किसी गठजोड़ में विदेशी कंपनियां शामिल हों. अलबत्ता ये ज़रूर हो सकता है कि विदेशी की बजाए भारतीय निजी क्षेत्र को सेना की ज़रूरतों को पूरा करने वाले महत्वपूर्ण भारकों से लैस उपग्रहों के समूहों के प्रक्षेपण की ज़िम्मेदारी मिल जाए.

अब जब भारतीय निजी क्षेत्र और इसरो आपसी गठजोड़ कर सकते हैं तो भारत की सेना और भारतीय निजी क्षेत्र के संचालक भी कदम से कदम मिलाकर चल ही सकते हैं. बेशक सेना और उद्योग जगत के बीच सहयोग को मंज़ूरी देने वाले अंतरिक्ष विभाग के नए दिशानिर्देशों को और स्पष्ट किए जाने की ज़रूरत है.

चीन और अमेरिका अपनी सेनाओं की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अंतरिक्ष क्षेत्र के व्यापारिक इस्तेमाल में अग्रणी हैं. भारतीय निजी क्षेत्र और सशस्त्र सेवाओं को भी इसी तरीके से आपसी तालमेल से काम करने की ज़रूरत है. अब जब भारतीय निजी क्षेत्र और इसरो आपसी गठजोड़ कर सकते हैं तो भारत की सेना और भारतीय निजी क्षेत्र के संचालक भी कदम से कदम मिलाकर चल ही सकते हैं. बेशक सेना और उद्योग जगत के बीच सहयोग को मंज़ूरी देने वाले अंतरिक्ष विभाग के नए दिशानिर्देशों को और स्पष्ट किए जाने की ज़रूरत है. हालांकि इन्हीं दिशानिर्देशों में कुछ ऐसे बिंदु मौजूद हैं जो भारतीय सशस्त्र सेवाओं और दूरसंचार क्षेत्र से जुड़ी बड़ी कंपनियों, अंतरिक्ष क्षेत्र की छोटी कंपनियों और स्टार्ट अप के लिए मानक बन सकती हैं.

इस प्रसंग में बीजिंग स्थित शिनवेई टेलीकॉम कंपनी और शिंघुआ यूनिवर्सिटी के बीच के करार का उदाहरण लिया जा सकता है. इन दोनों ने मिलकर सिमसैट उपग्रहों का एक जाल बिछाया है जिनकी संख्या आगे चलकर 300 तक पहुंच सकती हैं. इनके ज़रिए समुद्री जहाज़ों, मोबाइल उपभोक्ताओं, गाड़ियों और हवाई जहाज़ों को तेज़ रफ्तार वाली ब्रॉडबैंड इंटरनेट सेवा, नैरोबैंड दूरसंचार और डेटा प्रोसेसिंग क्षमता उपलब्ध कराई जा सकती है. चीनी फौज़ अपनी ज़रूरतों के हिसाब से उपग्रहों के इसी जाल में अपने भारक भी बिठा सकती है. वैसे चीन की एयरोस्पेस साइंस और टेक्नोल़ॉजी कॉरपोरेशन (सीएएससी) द्वारा विकसित और पृथ्वी की निचली कक्षा में स्थापित 300 से भी ज़्यादा उपग्रहों वाले होंग्यान महासमूह का चीनी फौज़ और असैनिक उपभोक्ताओं तक सैटेलाइट ब्रॉडबैंड सेवाएं मुहैया कराने में अहम भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है. हालांकि अंतरिक्ष क्षेत्र में काम कर रहा चीन का निजी क्षेत्र निचली कक्षा में स्थापित किए जाने वाले उपग्रहों के व्यापारिक इस्तेमाल की संभावनाओं की तलाश में थोड़ा सुस्त रहा है लेकिन अमेरिका-स्थित कंपनियों को ऐसी कोई समस्या नहीं है. जैसा कि अमेरिका की वायुसेना के एक अध्ययन में पाया गया है- निजी क्षेत्र कम लागत में प्रक्षेपण की कामयाबी की दिशा में आगे बढ़ रहा है और सेंसिंग, संचार और अंतरिक्ष में कमांड और कंट्रोल (सी2) के लिए कई उपग्रह समूहों के विस्तार की दिशा में अग्रसर है. इससे न केवल वायुसेना के सभी पांच गूढ़ मिशनों के लिए अहम योगदान की संभावनाएं बढ़ गई हैं बल्कि पूरी फौज़ के साझा मिशनों के लिए अल्पावधि, मध्यावधि और दीर्घकालिक योजनाओं के लिए अवसर के द्वार खुले हैं.’

जहां तक भारत की घरेलू निजी कंपनियों का सवाल है तो उन्हें सेना के किसी खास अंग के साथ काम करने की सुविधा मिलनी चाहिए.

ज़ाहिर तौर पर अगर लागत कम आए तो निजी क्षेत्र और सशस्त्र सेवाओं में गठजोड़ फ़ायदे  का सौदा होगा. चीनी कानूनों के मुताबिक विदेशी कंपनियां चीनी नागरिकों को दूरसंचार सेवाएं मुहैया नहीं करा सकतीं. ऐसे में सिर्फ चीन की ही कंपनियां दूरसंचार और डेटा से जुड़ी सुविधाएं मुहैया करवा सकती हैं. भारत में इन नए नियमों के तहत ठीक से जांच पड़ताल होने के बाद दूरसंचार और डेटा सेवाओं में विदेशी निवेश की इजाज़त मिल जाएगी. भारतीय उपभोक्ताओं को ध्यान में रखकर बनाई गए वनवेब-एयरटेल और एयरटेल-केसैट के साझा उपक्रमों से यह बात सामने भी आ रही है.

बहरहाल, जैसा कि इसरो चेयरमैन के सिवन ने पहले ही स्पष्ट किया है कि अंतरिक्ष क्षेत्र की संवेदनशीलता को देखते हुए रिमोट सेंसिंग, दूरसंचार और अंतरिक्ष से खींची जाने वाली तस्वीरों के मामलों में भारतीय सेना का न तो विदेशी कंपनियों से कोई गठजोड़ होगा और न ही इन संवेदनशील क्षेत्रों में विदेशी निवेश की मंज़ूरी दी जाएगी. राष्ट्रीय सुरक्षा हित को देखते हुए ऐसा करना ज़रूरी हो जाता है. स्पष्ट है कि वनवेब और एयरटेल के साझा उपक्रम के ये मायने नहीं हैं कि भारतीय सेना और विदेशी कंपनियों के बीच भी ऐसी ही साझेदारी होने लगे. जहां तक भारत की घरेलू निजी कंपनियों का सवाल है तो उन्हें सेना के किसी खास अंग के साथ काम करने की सुविधा मिलनी चाहिए. वैसे एक बाधा ये ज़रूर हो सकती है कि भारत के निजी क्षेत्र को सेना के भारकों को ले जा सकने वाले अपने उपग्रह-समूह को प्रक्षेपित करने के पीछे फ़ायदे का सौदा न दिखता हो.

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