खाड़ी देशों द्वारा अमेरिका के साथ अपने रिश्तों को नए सिरे से ढालने की कोशिश!
क्षेत्रीय स्थिरता और राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी ख़ुद की अलग अलग चिंताओं के चलते सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के साथ अमेरिका के रिश्तों में गतिरोध आ गया है. चूंकि अब क्षेत्र में सुरक्षा की गारंटी देने को लेकर अमेरिका भरोसेमंद नहीं रह गया है और मध्य पूर्व में रूस का प्रभाव भी बढ़ रहा है. इसके अलावा चीन के उभार के चलते सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और मध्य पूर्व के अन्य देशों ने अब अन्य देशों के साथ रिश्तों पर दांव लगाया है और अब वो इस बारे में ऐसे विकल्प अपना रहे हैं, जो हो सकता है कि अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी हितों से मेल न खाएं. खाड़ी क्षेत्र में आज अमेरिका का वैसा प्रभुत्व नहीं है, जैसा कभी पहले था. आज की पेचीदा हक़ीक़तों के लिए ऐसे कूटनीतिक, राजनीतिक और आर्थिक राजनय की ज़रूरत है, जो अमेरिका के मशहूर मंत्र, ‘हमारे साथ या फिर हमारे ख़िलाफ़’ से बिल्कुल अलग हो. आज सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के लिए अमेरिका के साथ साथ अन्य देशों से भी ऐसे द्विपक्षीय संबंध स्थापित करने की ज़रूरत है, जो सिर्फ़ लेन देन वाले संबंध से ज़्यादा हो और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी हितों की पूर्ति करे, जैसे कि रूस और चीन के साथ संबंध स्थापित करना.
आज सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के लिए अमेरिका के साथ साथ अन्य देशों से भी ऐसे द्विपक्षीय संबंध स्थापित करने की ज़रूरत है, जो सिर्फ़ लेन देन वाले संबंध से ज़्यादा हो और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी हितों की पूर्ति करे, जैसे कि रूस और चीन के साथ संबंध स्थापित करना.
ब्रेज़िंस्की की विशाल चौपड़ और मध्य पूर्व के देश
बीसवीं सदी के मशहूर रणनीतिकारों में से एक अमेरिका के राष्ट्रपति जिमी कार्टर के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे ज़ीबिगन्यू ब्रेज़िंस्की ने अपनी मशहूर किताब, ‘द ग्रैंड चेसबोर्ड’ ने कहा था कि अगर अमेरिका को दुनिया पर अपनी दादागीरी बनाए रखनी है तो फिर उसे पूरे यूरेशिया में अपना प्रभाव बनाए रखना होगा. अपने तर्क में उन्होंने यूरेशिया को चार हिस्सों में बांटा था: पश्चिम, पूरब, दक्षिण और मध्य. ब्रेज़िंस्की का तर्क था कि भू-राजनीतिक तौर पर अपनी दादागीरी बनाए रखने के लिए, ‘दक्षिणी (मध्य पूर्व) क्षेत्र पर किसी एक देश का प्रभुत्व नहीं होने देना चाहिए.’ इसके अलावा, अमेरिका को रूस के नेतृत्व में मध्यम दर्जे की ताक़तों के बीच पश्चिम विरोधी गठबंधन और चीन की अगुवाई में एकजुट पूरब की स्थिति भी नहीं बनने देनी चाहिए. इस भू-राजनीतिक और भू-सामरिक परिदृश्य में जब अमेरिका को अलग अलग क्षेत्रों में अपना प्रभुत्व उसी तरह क़ायम करना है, जैसा वो दूसरे विश्व युद्ध के बाद के दशकों में करता आया है, तो उसे अपने पास संसाधनों की कमी की हक़ीक़त को स्वीकार करना होगा.
आज मध्य पूर्व के बेहद अहम सामरिक क्षेत्र को लेकर अमेरिका की विदेश नीति बनाने वाले अभी भी बुनियादी सामरिक दुविधाओं का शिकार हैं.
आज मध्य पूर्व के बेहद अहम सामरिक क्षेत्र को लेकर अमेरिका की विदेश नीति बनाने वाले अभी भी बुनियादी सामरिक दुविधाओं का शिकार हैं. पहला तो ये कि हिंद प्रशांत क्षेत्र को प्राथमिकता देने के चलते मध्य पूर्व की हैसियत पहले ही कम हो गई है. दूसरा, आज भी दुनिया के ऊर्जा संबंधी समीकरणों पर मध्य पूर्व का नियंत्रण है और उसी के इशारे पर चलता है. आज मध्य पूर्व के देश अमेरिका को सुरक्षा देने के मामले में भरोसेमंद नहीं मानते हैं. और आख़िर में अमेरिका ने जो जगह ख़ाली की है, उसके एक हिस्से को रूस और चीन पहले ही भरने लगे हैं.
धुन नई मगर रट पुरानी
हाल के दिनों में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के साथ अमेरिका रिश्तों के मामले में ज़िच पैदा हो गई है. 2015 जब बराक ओबामा प्रशासन ने ईरान के साथ परमाणु समझौता किया था, तो इसमें खाड़ी देशों को शामिल नहीं किया था. इसे खाड़ी के सुरक्षा हितों की खुलकर अनदेखी के तौर पर देखा गया था. इस माहौल में जब 2019 में सऊदी अरब के तेल के ठिकानों पर ईरान द्वारा हमला किया गया, और जब ट्रंप प्रशासन ने इस हमले का जवाब न देने का फ़ैसला किया, तो एक तरह से कार्टर सिद्धांत का मर्सिया पढ़ दिया गया था. राष्ट्रपति जो बाइडेन ने चुनाव प्रचार के दौरान सऊदी अरब के साथ ‘अछूत देश’ जैसा बर्ताव करने का फ़ैसला किया था. सत्ता में आने के बाद से बाइडेन प्रशासन ने सऊदी अरब के शहज़ादे मोहम्मद बिन सलमान से सीधे बातचीत करने से इंकार कर दिया और यमन में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात की अगुवाई में चलाए जा रहे सैन्य अभियान से समर्थन वापस ले लिया. ईरान के साथ एक बार फिर से परमाणु समझौता करने की बातचीत शुरू कर दी और हूथी विद्रोहियों को आतंकवादी कहना बंद कर दिया. यही नहीं, अमेरिका ने सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के साथ हथियारों के सौदे करने में भी देर की.
राष्ट्रपति जो बाइडेन ने चुनाव प्रचार के दौरान सऊदी अरब के साथ ‘अछूत देश’ जैसा बर्ताव करने का फ़ैसला किया था. सत्ता में आने के बाद से बाइडेन प्रशासन ने सऊदी अरब के शहज़ादे मोहम्मद बिन सलमान से सीधे बातचीत करने से इंकार कर दिया और यमन में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात की अगुवाई में चलाए जा रहे सैन्य अभियान से समर्थन वापस ले लिया.
ओबामा से लेकर ट्रंप और बाइडेन तक अमेरिका के कुछ क़दम उठाने और कुछ न उठाने के चलते सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात की सामरिक सोच को सावधान कर दिया. दोनों देशों की नज़र में अब अमेरिका सुरक्षा की गारंटी दे सकने वाला भरोसेमंद देश नहीं रह गया था. इसके अलावा अमेरिका के साथी देशों और साझीदारों ने चीन और भारत के उभार और रूस के पुराने समीकरण ज़िंदा करने के चलते बदल रही विश्व व्यवस्था के हिसाब से अपने अपने सामरिक समीकरण बदल लिए. इसके अलावा, खाड़ी देशों को अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना वापस बुलाने के दौरान फैली अराजकता और बढ़े हुए घरेलू राजनीतिक संघर्ष और नस्लवादी ध्रुवीकरण से पैदा हुई अंदरूनी अस्थिरता से निपटने में अमेरिका की विदेश नीति का नाकारापन भी देखने को मिला.
और अधिक तेल का उत्पादन क्यों नहीं?
अमेरिका को आज किस तरह से नई और तल्ख़ सच्चाइयों का सामना करना पड़ रहा है, इसकी सबसे अच्छी मिसाल तो ये है कि सऊदी अरब के वली अहद शहज़ादे मुहम्मद बिन सलमान और संयुक्त अरब अमीरात के शेख़ मुहम्मद बिन ज़ायद अल नहयान ने अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन से बात करने से इंकार कर दिया. जबकि एक हफ़्ते बाद दोनों शहज़ादों ने रूस के राष्ट्रपति पुतिन और यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की से बात ज़रूर की. बाइडेन प्रशासन चाहता है कि खाड़ी के ये दोनों देश तेल का उत्पादन बढ़ाकर दुनिया भर में ईंधन की बढ़ती क़ीमतों पर क़ाबू पाने में मदद करें. लेकिन इससे ओपेक प्लस के ढांचे की राह में रोड़े खड़े हो जाएंगे. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन भी सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात से यही अपील करने रियाद और अबू धाबी पहुंचे थे, जिसकी कोशिश बाइडेन प्रशासन काफ़ी समय से कर रहा है. ज़ाहिर है पश्चिमी देश जो उम्मीद कर रहे थे, वो बोरिस जॉनसन के दौरे से भी पूरी नहीं हो सकी. इसके अलावा सऊदी अरब के विदेश मंत्रालय ने ऐसी ख़बरों को भी ख़ारिज कर दिया कि अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन, उसके यहां का दौरा करने वाले हैं.
बाइडेन प्रशासन चाहता है कि खाड़ी के ये दोनों देश तेल का उत्पादन बढ़ाकर दुनिया भर में ईंधन की बढ़ती क़ीमतों पर क़ाबू पाने में मदद करें. लेकिन इससे ओपेक प्लस के ढांचे की राह में रोड़े खड़े हो जाएंगे.
महामारी के शुरुआती दौर में तेल के दामों को लेकर रूस के साथ ज़बरदस्त होड़ लगी थी. उसके बाद ही सऊदी अरब ने अपने भू-राजनीतिक और आर्थिक हित साधने के लिए ओपेक प्लस का नुस्खा निकाला. ऐसे में सऊदी अरब से और अधिक तेल का उत्पादन करने के लिए कहने का मतलब यही है कि अमेरिका, उससे ओपेक प्लस के ढांचे को तितर बितर करने को कह रहा है. इससे तेल उत्पादक देशों के ताक़तवर अगुवा के तौर पर सऊदी अरब की बात की विश्वसनीयता ख़त्म हो जाएगी. अब इसमें हैरानी नहीं होनी चाहिए कि सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने अमेरिका से सबसे बुनियादी सवाल पूछा: हमें ऐसा क्यों करना चाहिए? और अगर सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात, अमेरिका की गुज़ारिश को मान लेते हैं, तो फिर उन्हें ये काम मुफ़्त में क्यों करना चाहिए? आख़िर इसके बदले में अमेरिका उन्हें किया देगा? और, सबसे अहम सवाल तो ये है कि अमेरिका ये सोचता है कि उसकी इतनी महंगी मांग मुफ़्त में ही मान ली जानी चाहिए और ज़्यादा से ज़्यादा इसके लिए सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के नेताओं को अमेरिका के विदेश मंत्री ब्लिंकेन के साथ एक तस्वीर खिंचवाने या फिर राष्ट्रपति बाइडेन से फ़ोन पर बात करने का मौक़ा मिल जाएगा. आख़िर इससे क्या पता चलता है कि अमेरिका की नज़र में खाड़ी देशों की क्या हैसियत है?
राष्ट्रपति जो बाइडेन को फ़ोन करने और अमेरिका के विदेश मंत्री की मेज़बानी से इनकार करके, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात, अमेरिका को साफ़ तौर पर ये संदेश देना चाहते हैं कि उसे तेज़ी से उभर रही बहुध्रुवीय दुनिया की हक़ीक़त को स्वीकार करना चाहिए और फिर संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब के साथ अपने रिश्तों को इसी नज़रिए से परिभाषित करना चाहिए, न कि अमेरिका की दादागीरी वाले पुराने दौर के हिसाब से सोचना चाहिए. आज अमेरिका को ख़ास तौर से ये समझने की ज़रूरत है कि सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के चीन और रूस से सुरक्षा संबंधी, सैनिक और आर्थिक स्तर पर गहरे संबंध बन चुके हैं.
दशकों पुराने नुस्खे अब काम नहीं आने वाले हैं
खाड़ी देशों की सामरिक स्वायत्तता की रणनीति में अपनी सैन्य और तकनीकी क्षमताओं का विकास करना, नए क्षेत्रीय समीकरण जैसे कि भारत और खाड़ी देशों के बीच नए समीकरण बनाना और अमेरिका से इतर, चीन, रूस, ब्रिटेन, भारत, यूनान, इज़राइल और फ्रांस के साथ अलग अलग स्तर पर गठबंधन करना शामिल है. इसके अलावा सामरिक स्वायत्तता अब केवल सैन्य क्षमता तक सीमित नहीं रही है, बल्कि अब इसमें आर्थिक रिश्तों में विविधता लाना भी शामिल हो गया है. मिसाल के तौर पर सऊदी अरब अब चीन को उसकी मुद्रा युआन में तेल बेचने की संभावना पर विचार कर रहा है. ये किसी एक ताक़त की तुलना में दूसरी महाशक्ति को तरज़ीह देना नहीं है. बल्कि ये खाड़ी देशों के हितों को साधने का फ़ैसला है. अमेरिका को समझना चाहिए कि अब विश्व संबंधों के नए नियम दोनों देशों के लिए फ़ायदेमंद होने चाहिए और खाड़ी देशों के साथ रिश्ते बराबरी के लेन-देन वाले होने चाहिए.
अमेरिका को समझना चाहिए कि अब विश्व संबंधों के नए नियम दोनों देशों के लिए फ़ायदेमंद होने चाहिए और खाड़ी देशों के साथ रिश्ते बराबरी के लेन-देन वाले होने चाहिए.
कुल मिलाकर खाड़ी देशों को ये महसूस होता है कि अमेरिका उन्हें बहुत हल्के में लेता है. इसीलिए, अब उन्हें दूसरे देशों के साथ बराबरी वाले नए संबंध विकसित करने चाहिए, जो उनके राष्ट्रीय हितों के लिए मुफ़ीद हों. वैसे तो सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात की अमेरिका से रिश्ते तोड़ने की कोई मंशा नहीं है. लेकिन, उनकी ये उम्मीद ज़रूरी है कि ये द्विपक्षीय संबंध सम्मान और एक दूसरे को समझने वाली सोच पर आधारित हों. आज जब बड़ी ताक़तों के बीच मुक़ाबला बढ़ रहा है, तो हर साझीदार और दोस्त देश की अहमियत बढ़ गई है. लेकिन, ऐसा लगता है कि अमेरिका अब भी यही सोचता है कि वो आज भी इतिहास का आख़िरी मकाम है.
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