Author : Kabir Taneja

Expert Speak Raisina Debates
Published on Feb 23, 2023 Updated 17 Hours ago

भू-राजनीति के लिहाज़ से देखा जाए तो HADR की क्षमताएं और इसकी मौज़ूदगी एक बेहद दिलचस्प मोड़ पर हैं. उल्लेखनीय है कि यह एक सॉफ्ट पावर है, जब किसी आपदा से पीड़ित आबादी को बहुत अधिक सहायता की ज़रूरत होती है, तो इसमें एक समय में अपनी मौज़ूदगी और नैरेटिव को एकजुटता और सहानुभूति के साथ मिलाया जाता है.

भारत की HADR कूटनीति: तुर्की और सीरिया में भूकंप राहत

तुर्की और सीरिया में हाल ही में आए भीषण भूकंप को शताब्दी में आए सबसे विनाशकारी भूकंपों में से एक माना जा रहा है. 40 हज़ार से अधिक नागिरकों की मौत के साथ ही इस भूकंप ने पूरे क्षेत्र में इतने व्यापक स्तर पर तबाही मचाई है कि जिसका आमतौर पर अनुमान लगाया जाना बेहद मुश्किल है. भूकंप की त्रासदी ने उत्तरी सीरिया के एक बड़े हिस्से को भी प्रभावित किया है, यानी भूकंप ने सीरिया के एक ऐसे इलाक़े पर क़हर ढाया है, जो वर्षों के संघर्ष के कारण पहले से ही गंभीर संकट में घिरा हुआ है, जिसमें लगभग आधे दशक से जारी इस्लामिक स्टेट (ISIS या अरबी में आतंकवादी संगठन) का आतंकवाद भी शामिल है.

भूकंप की त्रासदी ने उत्तरी सीरिया के एक बड़े हिस्से को भी प्रभावित किया है, यानी भूकंप ने सीरिया के एक ऐसे इलाक़े पर क़हर ढाया है, जो वर्षों के संघर्ष के कारण पहले से ही गंभीर संकट में घिरा हुआ है.

भारत की ह्यूमैनिटेरियन असिस्टेंस एंड डिज़ास्टर रिलीफ़ (HADR) यानी मानवीय सहायता और आपदा राहत की जो भी क्षमताएं हैं, वो इसकी ख़ास कूटनीति से बंधी हुई है और जब से इसकी शुरुआत हुई है, देखा जाए तो तभी से ये क्षमताएं दिनोंदिन विशेष तौर पर बढ़ती जा रही हैं. वर्ष 2011 की सुनामी आपदा के दौरान भारत की यह मानवीय सहायता और आपदा राहत की कूटनीति ने संस्थागत रूप हासिल किया था। ज़ाहिर है कि इस आपदा ने एशिया के आसपास की कई जगहों को बुरी तरह से प्रभावित किया था. इसमें कोई संदेह नहीं है कि दुनिया के इस हिस्से में सबसे पुख़्ता तौर पर दिखाई देने वाली कूटनीति पहलों में से एक क्वाड है. क्षेत्र में आपदा प्रतिक्रिया सिस्टम के निर्माण के लिए एक प्रारंभिक ब्लूप्रिंट के लिहाज़ से भी क्वाड की कल्पना की गई थी. तभी से भारत अपनी क्षमताओं के बल पर कई आपदा प्रभावित क्षेत्रों में अपनी मौज़ूदगी दर्ज़ करा रहा है. अक्सर मानव निर्मित और जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाली आपदाओं के वक़्त नेशनल डिज़ास्टर रिस्पॉन्स फोर्स (NDRF) को तैनात किया जाता है और यह समय के साथ-साथ बढ़ता जा रहा है. यहां तक कि नई दिल्ली ने पिछले साल के अंत में विनाशकारी बाढ़ से जूझ रहे पाकिस्तान को भी मदद की पेशकश की थी. इतना ही नहीं भारत कोविड-19 महामारी के दौरान पश्चिम एशियाई क्षेत्र में अपनी क्षमताओं को तैनात करने वाले पहले देशों में से एक था. भारत के इन क़दमों के मद्देनज़र इसमें कोई हैरानी वाली बात नहीं थी कि भूकंप के पश्चात नई दिल्ली तुर्किये और सीरिया दोनों के लिए सहायता उपलब्ध कराने के लिए तेज़ी के साथ जुट गई.

कश्मीर के मुद्दे पर लंबे समय से चले आ रहे अंकारा के रुख और उसके पाकिस्तान का समर्थन करने, विशेष रूप से संयुक्त राष्ट्र (यूएन) में भारत के विरोध को देखते हुए, देश में कुछ लोगों ने यह सवाल ज़रूर उठाया कि अगर तुर्किये ने भारत की संप्रभुता का समर्थन नहीं किया है, तो भारत उसकी मदद क्यों कर रहा है.

भू-राजनीति के लिहाज़ से देखा जाए तो HADR की क्षमताएं और इसकी मौज़ूदगी एक बेहद दिलचस्प मोड़ पर हैं. उल्लेखनीय है कि यह एक सॉफ्ट पावर है, जब किसी आपदा से पीड़ित आबादी को बहुत अधिक सहायता की ज़रूरत होती है, तो इसमें एक समय में अपनी मौज़ूदगी और नैरेटिव को एकजुटता और सहानुभूति के साथ मिलाया जाता है. हालांकि, सॉफ्ट पावर में भी अक्सर भू-राजनीतिक संतुलन बनाने की ज़रूरत होती है, क्योंकि आपदाग्रस्त इलाक़ों में राहत और बचाव का कार्य करने वाले देशों और उनके संस्थानों की सकारात्मक कार्रवाई अक्सर वहीं की सरकारों को दरकिनार कर देती है और सीधे पीड़ित जनता के साथ संपर्क स्थापित करती है. नई दिल्ली के लिए आपदा राहत की यह क्षमताएं अब इसकी वैश्विक तौर पर उपस्थिति को दर्ज़ कराने का हिस्सा है क्योंकि यह वैश्विक व्यवस्था में एक 'इंडियन पोल' को बढ़ाने व स्थापित करने का काम करती हैं.

तुर्किये के लिए सहायता

भारत ने भूकंप की विभीषिका के पश्चात तुर्किये के लिए मदद का ऐलान करने और सहायता जुटाने को लेकर तनिक भी देरी नहीं की. एनडीआरएफ की टीमों ने भारतीय वायु सेना के सी-17 विमान के साथ तुर्किये तक सहायता और खोजी दस्तों को पहुंचाने, आपदाग्रस्त क्षेत्रों में फील्ड हॉस्पिटल स्थापित करने और इसी तरह की दूसरी मदद के लिए कई चक्कर लगाए. जैसी कि उम्मीद थी कि भारत के इस क़दम की देश में मिली-जुली प्रतिक्रिया दिखाई दी. कश्मीर के मुद्दे पर लंबे समय से चले आ रहे अंकारा के रुख और उसके पाकिस्तान का समर्थन करने, विशेष रूप से संयुक्त राष्ट्र (यूएन) में भारत के विरोध को देखते हुए, देश में कुछ लोगों ने यह सवाल ज़रूर उठाया कि अगर तुर्किये ने भारत की संप्रभुता का समर्थन नहीं किया है, तो भारत उसकी मदद क्यों कर रहा है. हालांकि, इसका आसान सा जवाब यह है कि कूटनीति बेहद जटिल होती है और अक्सर कूटनीति में जो सामने से दिखाई देता है, वो सच नहीं होता है, बल्कि इसमें पर्दे के पीछे बहुत कुछ छिपा हुआ मकसद होता है. आपदा के दौरान इस तरह की कार्रवाई को किसी देश की सहायता के तौर पर शायद ही कभी देखा जाता है, बल्कि इसे उन लोगों की मदद के रूप में देखा जाता है, जिनके साथ एक मज़बूत संबंध बनाया और संरक्षित किया जाना चाहिए. कई लोगों ने जबकि भू-राजनीति के दृष्टिकोण से तुर्किये को दी गई भारतीय सहायता पर सवाल उठाए, हालांकि इनमें से बहुत से लोगों ने इस सच्चाई को उजागर नहीं किया कि वर्ष 2021 में जब कोविड डेल्टा की लहर चरम पर थी, तब दूसरे देशों की तरह तुर्किये ने भी भारत को ऑक्सीजन सहायता भेजी थी.

सॉफ्ट पावर को अमूमन वैश्विक संकट के समय मदद और एकजुटता जैसे साधनों का उपयोग करके विकसित किया जाता है. ज़ाहिर है कि इस तरह के संकटों के लगातार होने के साथ ही दूसरे पर हावी होने वाली भू-राजनीति कम होती जाएगी, उदाहरण के लिए ऐसी जगहों पर जहां प्रतिकूल जलवायु आपदाएं घटित होती हैं, क्योंकि इस तरह के संकट या आपदाएं इंसानों द्वारा भौतिक और मानसिक तौर पर निर्मित सीमाओं की हदों को नहीं पहचानती हैं. नई दिल्ली ने तुर्किये की तत्काल मदद ऐसे वक़्त में की है, जब देशों के बीच संबंध कुछ हद तक बिगड़े हुए हैं. इसके पीछे तुर्किये में आर्थिक संकट से लेकर संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और सऊदी अरब जैसी दूसरी क्षेत्रीय ताक़तों के साथ संबंधों को बेहतर बनाने जैसी कई वजहें भी शामिल हैं. देखा जाए तो तुर्किये के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन की विचारधारा और शक्ति दोनों में जो दृढ़ता है वो वर्ष 2016 के बाद के तख्तापलट की कोशिशों के बाद से आई है, जिसके लिए उन्होंने बाहरी ताक़तों ज़िम्मेदार ठहराया था. इतना ही नहीं तभी से उन्होंने एक कमज़ोर नेता के रूप में अपनी छवि को बदलने के लिए घरेलू, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी राजनीतिक स्थिति को मज़बूत करने के लिए कार्य किया. यह भूकंप एर्दोगन के लिए और ज़्यादा चुनौतियां लेकर आया है, क्योंकि इस साल जून में तुर्किये में चुनाव होना है, ऐसे में वहां के नेतृत्व के पास भूकंप से बचे लोगों के सामाजिक और आर्थिक रूप से सफलतापूर्वक पुनर्वास के लिए केवल कुछ ही दिन शेष बचे हैं.

 

सीरिया को मदद में दिक़्क़तें

तुर्किये की सीमा के दूसरी तरफ़ भूकंप प्रभावित सीरिया के उत्तरी हिस्से में एक हिसाब से खामोशी सी छाई हुई है. ज़ाहिर है कि सीरिया के उत्तरी हिस्से पहले से ही अरब स्प्रिंग और इस्लामिक स्टेट (ISIS या दाएश) के विद्रोह के कारण वर्षों से जारी गृह युद्ध के चलते तबाह हो चुके हैं. यहां के इदलिब जैसे विवादित क्षेत्रों की बात करें, तो सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद की सरकार के विरुद्ध लड़ रहे मिलिशिया का इस इलाक़े पर नियंत्रण है और आपदा प्रबंधन का काम उनके शासन वाले क्षेत्र में आ गया है, इस वजह से ज़रूरतमंदों तक सहायता पहुंचाना बेहद मुश्किल हो गया है. वर्ष 2013 में अमेरिका द्वारा आधिकारिक रूप से अलकायदा से अलग हुए समूह अल नुसरा फ्रंट का नेता होने के कारण आतंकवादी घोषित किए गए विद्रोही नेता अबू मोहम्मद अल-जिलानी ने संयुक्त राष्ट्र से सीरिया के उस क्षेत्र में मदद भेजने की मांग की है, जिसे उसकी साल्वेशन सरकार नियंत्रित करती है.

देखा जाए तो ज़्यादातर संकटों के दौरान भारत ने दमिश्क के साथ अपने सामान्य संबंध बनाए रखे हैं, जबकि असद के सत्ता में बने रहने को सुनिश्चित करने के लिए ईरान और रूस ने पिछले कुछ वर्षों में अपना दख़ल दिया है.

देखा जाए तो ज़्यादातर संकटों के दौरान भारत ने दमिश्क के साथ अपने सामान्य संबंध बनाए रखे हैं, जबकि असद के सत्ता में बने रहने को सुनिश्चित करने के लिए ईरान और रूस ने पिछले कुछ वर्षों में अपना दख़ल दिया है. जिन पड़ोसी अरब देशों ने असद को अलग-थलग कर दिया था, उन्होंने पिछले एक साल में उनके साथ अपने सामान्य स्तर के संबंधों को स्थापित कर एक लिहाज़ से उन्हें स्वीकृति देने के संकेत दिए हैं. ज़ाहिर है कि ऑर्गेनाइजेशन फ़ॉर दि प्रोहिबिशन ऑफ़ केमिकल वीपन (OPCW) की रिपोर्ट के बावज़ूद असद सत्ता पर काबिज होने में कामयाब रहे थे. उस रिपोर्ट में कहा गया था कि इसका 'उचित आधार' था कि सीरियाई सरकार ने अपनी आबादी के विरुद्ध प्रतिबंधित हथियारों का उपयोग किया था. हालांकि अब संघर्षों और विवादों को काबू पाने या उनका प्रबंधन करने की जो वैश्विक क्षमता है, उसको देखते हुए सीरिया की अब कोई ख़ास भूमिका नहीं रह गई है. ऐसे में असद अपनी सरकार की दीर्घकालिक स्थिरता और अंतर्राष्ट्रीय स्वीकार्यता के लिए इस 'आपदा कूटनीति' को अपने पक्ष में भुनाने की पूरी कोशिश करने में जुटे हुए हैं.

इन्हीं सब जटिलताओं की वजह से भारत ने सीरिया के भूकंप प्रभावित इलाक़ों में दमिश्क और संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से सीधे सहायता भेजने का विकल्प चुना और एनडीआरएफ की टीमों को सीरिया में सीधे उन क्षेत्रों में तैनात नहीं किया. क्योंकि ये ऐसे क्षेत्र हैं, जो ना सिर्फ़ राजनीतिक रूप से विवादित हैं, बल्कि वहां जो शासन है, उसकी मान्यता को लेकर भी स्पष्टता नहीं है.

 निष्कर्ष

अपने क़रीबी पड़ोसियों को राहत और मदद प्रदान करने के साथ ही पश्चिम एशिया के विस्तारित पड़ोस में भी ऐसा करके भारत भविष्य में जिस तरह की कूटनीति को आगे बढ़ाना चाहता है, उसके मद्देनज़र यह सब बहुत बढ़िया है. हालांकि, जनता को इसके बारे में भलीभांति बताना चाहिए कि कूटनीति का मतलब होता है, ऐसे लोगों के साथ संबंध बनाने की कोशिश करना है, जिनके साथ आप सबसे अधिक असहमत हैं. ऐसे में देखा जाए तो HADR यानी मानवीय सहायता और आपदा राहत जैसी पब्लिक डिप्लोमेसी लोगों के स्तर पर संबंध स्थापित करने के सबसे प्रभावी उपायों में से एक हैं. इस सार्वजनिक कूटनीति को बहुत ही विनम्र तरीके से अमल में लाना चाहिए, साथ ही इसे उन लोगों को ध्यान में रखकर बनाना चाहिए, जो किसी आपदा या संकट से पीड़ित हैं, ना कि इसे अपनी क्षमताओं और ताक़त को प्रदर्शित करने और मदद का दिखावा करने के इरादे से आगे बढ़ाना चाहिए. सफलतापूर्वक मानवीय आधार पर दी गई सहायता और HADR खुद-ब-खुद कूटनीतिक तौर पर लाभ पहुंचाने वाली होती है, इसके लिए बस इस बात को ध्यान रखने की आवश्यकता होती है कि इसे सावधानी के साथ मदद पहुंचाने की नियत से दीर्घकालिक उद्देश्य को हासिल करने के लिए अंजाम दिया जाए.

 
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