Published on Oct 24, 2019 Updated 0 Hours ago

हमें सिर्फ़ उच्च शिक्षा में लोगों के दाख़िले बढ़ाने पर ही ज़ोर देने की ज़रूरत नहीं. आला दर्ज़े की उच्च शिक्षा सुनिश्चित करना भी आवश्यक है.

उच्च शिक्षा में ज़्यादा लोगों की भागीदारी: गुणवत्ता और गिनती सुधारने की दोहरी चुनौती!

भारत की प्रस्तावित राष्ट्रीय शिक्षा नीति का एक प्रमुख लक्ष्य ये भी है कि साल 2035 तक उच्च शिक्षा में लोगों का नामांकन कम से कम 50 प्रतिशत तक बढ़ाया जाए. चूंकि अभी उच्च शिक्षा में ग्रॉस एनरोलमेंट रेशियो (GER) केवल 26.3 प्रतिशत है, तो अगले 15 वर्षों में इसे बढ़ा कर दोगुना करने की कई चुनौतियां हैं. इसके लिए योजनाएं बनानी होंगी, शिक्षा व्यवस्था में सुधार करना होगा और फिर इन क़दमों को लागू करने का सतत प्रयास भी करना होगा. इस रौशनी में देखें तो हाल ही में जारी हुई ऑल इंडिया सर्वे फॉर हायर एजुकेशन (AISHE) 2018 की रिपोर्ट काफ़ी महत्वपूर्ण हो जाती है. ये रिपोर्ट न केवल उच्च शिक्षा के देश में मौजूदा हालात की जानकारी देती है. बल्कि इस रिपोर्ट से ये भी पता चलता है कि 2035 का लक्ष्य हासिल करने के लिए किन क्षेत्रों में क़दम उठाने की ज़रूरत है.

लैंगिक समानता

शैक्षणिक वर्ष 2018-2019 में कुल मिला कर 3.74 करोड़ छात्र उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं. इन में से 1.82 करोड़ छात्राएं हैं. यानी उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे छात्रों में से 48 प्रतिशत छात्राएं हैं. ये पिछले शैक्षणिक वर्ष के मुक़ाबले एक फ़ीसद ज़्यादा है. पीछे मुड़ कर देखें तो वर्ष 2010-2011 में केवल 1.2 करोड़ छात्राएं ही उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही थीं. आज जो सुधार आया है वो क़ाबिल-ए-ग़ौर तो है. लेकिन अलग-अलग क्षेत्रों में ये सुधार समान रूप से नहीं हुआ है. चूँकि उच्च शिक्षा के लिए आगे आने वाले छात्रों में से 80 फ़ीसद स्नातक की डिग्रियों के लिए होते हैं, ऐसे में अगर हम उच्च शिक्षा के सभी पांच वर्गों, कला, विज्ञान, कॉमर्स, इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी, मेडिकल साइंस और क़ानून की पढ़ाई के नामांकन पर ग़ौर करें, तो हमें लैंगिक विभेद की तस्वीर साफ़ दिखाई देती है.

कला और विज्ञान के क्षेत्र में छात्रों और छात्राओं की संख्या कमोबेश बराबर है. लेकिन इंजीनियरिंग में छात्राओं की संख्या केवल 29 प्रतिशत है. ये बहुत महत्वपूर्ण है. क्योंकि इस में इलेक्ट्रॉनिक्स, कंप्यूटर, मेकैनिकल और इन्फ़ॉर्मेशन टेक्नोलॉजी भी शामिल हैं. ये वो क्षेत्र हैं, जहां नौकरियां मिलने की संभावना ज़्यादा होती है. इसी तरह, मैनेजमेंट और लॉ की पढ़ाई में भी छात्राओं की संख्या 40 फ़ीसद से कम है. इसके उलट, मेडिकल साइंस की पढ़ाई करने वालों में छात्राओं की संख्या 60 प्रतिशत से ज़्यादा है. छात्राओं और छात्रों की उच्च शिक्षा की पढ़ाई की ये पसंद, कामगारों में लैंगिक असमानता के तौर पर दिखाई देती हैं. इससे तनख़्वाहों में भी फ़र्क़ दिखाई देता है.

2018 में IIT-JEE (भारत की प्रमुख इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा) में 30 फ़ीसद से भी कम छात्राएं थीं. इन में से भी केवल 12 प्रतिशत ही पास होने वाले 25 हज़ार छात्रों में जगह बना सकीं. इन आंकड़ों में सुधार के लिए ज़रूरी है कि हम अपनी शिक्षा व्यवस्था में बुनियादी तौर पर मौजूद महिला-पुरुष भेदभाव को दूर करें.

इंजीनियरिंग और दूसरे टेक्निकल कोर्स में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने और लैंगिक समानता लाने के लिए कई अहम बातों पर ध्यान देने की ज़रूरत है. 2018 में IIT-JEE (भारत की प्रमुख इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा) में 30 फ़ीसद से भी कम छात्राएं थीं. इन में से भी केवल 12 प्रतिशत ही पास होने वाले 25 हज़ार छात्रों में जगह बना सकीं. इन आंकड़ों में सुधार के लिए ज़रूरी है कि हम अपनी शिक्षा व्यवस्था में बुनियादी तौर पर मौजूद महिला-पुरुष भेदभाव को दूर करें. इस के लिए हमें उन सोचों को भी चुनौती देनी होगी, जो लैंगिक विभेद को बढ़ावा देते हैं. मसलन, इंजीनियरिंग की पढ़ाई को लेकर स्कूल के स्तर से ही ये माना जाता है कि ये तो लड़कों का क्षेत्र है. इसी तरह, छात्रों और छात्राओं तक शिक्षा के मौक़ों की बराबर पहुँच मुहैया कराना ज़रूरी है. साथ ही सभी छात्रों को कोचिंग की सुविधा हो, ताकि वो इम्तिहान में बराबरी के स्तर पर भाग ले सकें. कॉलेज और यूनिवर्सिटी में सब के लिए मौक़े होने वाला माहौल बनाना होगा. रोज़गार देने वालों का दृष्टिकोण बदलना भी ज़रूरी है. ताकि वो महिलाओं को भी तकनीकी क्षेत्र में नौकरियां दें. इससे टेक्निकल क्षेत्र की पढ़ाई में छात्राओं की संख्या बढ़ेगी. इन सब क़दमों को उठाने से पहले हमें ये समझना होगा चुनौतियां क्या हैं और कहां-कहां हैं. तभी असल सुधार लाया जा सकेगा.

उच्च शिक्षा का केंद्रीकरण

भारत के छह राज्य-उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक के छात्र मिलकर देश में उच्च शिक्षा के लिए आगे आने वाले 54 फ़ीसद छात्र देते हैं. पूरे देश में 39 हज़ार 931 कॉलेज हैं. उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले कुल छात्रों में से 32 प्रतिशत देश के 731 ज़िलों में से 50 ज़िलों से आते हैं.

इसका नतीजा ये होता है कि देश भर में जहां हर एक लाख की आबादी पर कॉलेज का औसत 28 है. वहीं, क्षेत्रीय स्तर पर इस में काफ़ी असमानताएं हैं. जैसे, बिहार में एक लाख की आबादी पर केवल सात कॉलेज हैं. तो, कर्नाटक में हर एक लाख लोगों के लिए 53 कॉलेज उपलब्ध हैं. इन क्षेत्रीय असमानताओं की वजह से ही लैंगिक समानता का अनुपात बराबर करने में दिक़्क़त आती है. समाज के उस तबक़े के लिए जो संसाधनों से महरूम है, उच्च शिक्षा प्राप्त करना महंगा और चुनौतीपूर्ण हो जाता है. उनके लिए आवाजाही से लेकर फ़ीस भरने तक की चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं. कई बार तो फ़ीस वग़ैरह इतनी महंगी होती है कि ग़रीबों के लिए उसे भरना क़रीब क़रीब नामुमकिन सा हो जाता है. अक्सर ये उच्च शिक्षा पाने या न पाने का फ़ैसला करने का प्रमुख कारण बन जाता है. चूंकि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बाज़ार की ताक़तों ने अहम रोल निभाया है. इसलिए भौगोलिक समानता हासिल करना दूर की कौड़ी बन गया है. भारत के शहरी क्षेत्रों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के मौक़े उचित रूप से मौजूद हैं. लेकिन दूर-दराज़ के इलाक़ों में उच्च शिक्षा के संसाधन, केंद्र और अवसर मुहैया कराने के लिए नीतियों में बदलाव की ज़रूरत है. तभी समाज के हर तबक़े की आकांक्षाओं की पूर्ति हो सकेगी और उच्च शिक्षा में लैंगिक समानता आ सकेगी.

अंतरराष्ट्रीय छात्रों की कम तादाद

किसी भी देश की उच्च शिक्षा के स्तर को परखना हो, तो वहां पढ़ने आने वाले विदेशी छात्रों की संख्या एक अच्छा मानक मानी जाती है. 2018-19 में केवल 47 हज़ार 427 विदेशी छात्र ही भारत में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए आए थे. 950 विश्वविद्यालयों वाले भारत देश में इतने कम विदेशी छात्रों का ही पढ़ने के लिए आना बिल्कुल भी पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है. इसके मुक़ाबले, इसी दौरान चीन में 4 लाख से ज़्यादा विदेशी छात्र पढ़ने आए. वहीं जर्मनी में तीन लाख से ज़्यादा विदेशी छात्र पढ़ने के लिए गए. यहां तक कि भारत के कई शहरों से कम आबादी वाले सिंगापुर में भी 75 हज़ार से ज़्यादा विदेशी छात्र पढ़ते हैं. हम विश्व स्तर के आंकड़ों से तुलना करें, तो विदेश पढ़ने जाने वाले कुल छात्रों में से केवल एक प्रतिशत भारत आते हैं.

किसी और देश में पढ़ने जाने से पहले छात्र उस देश के उच्च शिक्षा संस्थानों की इंटरनेशनल रैंकिंग देखते हैं. वहां रहने खाने का ख़र्च और दाख़िले में आसानी जैसे पैमानों को भी देखते हैं. अफ़सोस की बात ये है कि भारत के उच्च शिक्षण संस्थान दुनिया की टॉप 100 यूनिवर्सिटी की रैंकिंग में जगह पाने में नाकाम रहे हैं.

किसी और देश में पढ़ने जाने से पहले छात्र उस देश के उच्च शिक्षा संस्थानों की इंटरनेशनल रैंकिंग देखते हैं. वहां रहने खाने का ख़र्च और दाख़िले में आसानी जैसे पैमानों को भी देखते हैं. अफ़सोस की बात ये है कि भारत के उच्च शिक्षण संस्थान दुनिया की टॉप 100 यूनिवर्सिटी की रैंकिंग में जगह पाने में नाकाम रहे हैं. ये रैंकिंग दुनिया की सम्मानित संस्थान जारी करते हैं. मज़े की बात ये है कि भारत पढ़ने आने वाले विदेशी छात्रों के मुक़ाबले 15 गुना ज़्यादा भारतीय छात्र दूसरे देशों में पढ़ने जाते हैं. इसका साफ़ मतलब है कि हमें हर क्षेत्र में अच्छी तालीम देने वाले उच्च शिक्षण संस्थानों की सख़्त ज़रूरत है. यूं तो भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 2018 में भारत में पढ़ें अभियान शुरू किया है. इस अभियान का लक्ष्य 2024 तक भारत आने वाले विदेशी छात्रों की संख्या बढ़ा कर 2 लाख से ज़्यादा करना है. लेकिन हमें ध्यान रखना होगा कि वज़ीफ़े और छात्रवृत्ति से नहीं, बल्कि अच्छे शिक्षण संस्थानों से ही विदेशी छात्र पढ़ने के लिए भारत आएंगे.

इस समय भारत के पड़ोसी देशों के अलावा सूडान और नाइजीरिया के छात्र, भारत आने वाले विदेशी छात्रों का कुल आठ प्रतिशत बनते हैं. हालांकि हमारे उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई का स्तर सुधारना लंबा काम है. लेकिन, अफ्रीकी देशों से भारत आने वाले छात्रों को यहां के माहौल में ढलने में मदद करना और उनके देश की शिक्षा व्यवस्था से भारतीय शिक्षा व्यवस्था का हिस्सा आसानी से बनने की राह बनाने से विदेशी छात्रों की संख्या बढ़ाने के तेज़ नतीजे आ सकते हैं. इसके तहत हम वीज़ा देने की प्रक्रिया में तेज़ी ला सकते हैं. विदेशी छात्रों के रहने का इंतज़ाम कर सकते हैं. उन्हें ऐसी जगहों पर ठहरने में मदद कर सकते हैं, जो उनकी संस्कृति के प्रति संवेदनशील हों. इसके अलावा विदेशी छात्रों की शिकायतों के फौरी निपटाने के क़दम कारगर साबित हो सकते हैं.

पीएचडी का सवाल

इस समय उच्च शिक्षा संस्थानों में पढ़ रहे कुल छात्रों में से केवल 0.5 फ़ीसद ही पीएचडी कर रहे हैं. इसकी बड़ी वजह ये है कि पीएचडी की डिग्री वाले छात्रों के लिए नौकरी के अवसर बहुत ही कम हैं. अकादमिक क्षेत्र को छोड़ दें तो ग़ैर-इंजीनियरिंग सेक्टर में पीएचडी करने वालों के लिए बहुत कम संभावनाएं हैं. लेकिन, तादाद से ज़्यादा चिंता हमारे देश में पीएचडी की गुणवत्ता की है. चूंकि हमारे देश के पीएचडी करने वाले देश के उच्च शिक्षण संस्थानों से ही पढ़ाई कर के निकलते हैं. इसलिए उनकी रिसर्च में इतनी मेहनत नहीं दिखती, जिनती आम तौर पर होनी चाहिए. इसके अलावा भारत का अकादमिक क्षेत्र, लंबे समय से फ़र्ज़ी लेखों और नक़ल कर के थीसिस लिखने जैसी समस्याओं का शिकार है. बड़े और सम्मानित संस्थानों में ऊंचे पदों पर बैठे लोगों के रिसर्च की प्रामाणिकता पर सवाल उठे हैं. यही वजह है कि कॉरपोरेट सेक्टर ऐसे पीएचडी करने वालों को अपने यहां नौकरी देने से हिचकता है. इससे पीएचडी करने वालों के लिए रोज़गार के पहले से ही कम मौक़े और भी मुश्किल हो जाते हैं. मई 2019 में यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन ने भारतीय विश्वविद्यालयों में पिछले एक दशक में हुई पीएचडी थीसिस की गुणवत्ता की जांच करने का एलान किया था. अगर इस योजना को सही तरीक़े से लागू किया गया, इससे उन विभागों और संस्थानों की पहचान हो सकेगी, जो आला दर्ज़े के रिसर्च कर रहे हैं. साथ ही इससे पीएचडी में होने वाला फ़र्ज़ीवाड़ा भी ख़त्म होगा.

बहुत सी कंपनियां ये शिकायत करती हैं कि वो देश के स्नातकों को रोज़गार नहीं दे सकतीं, क्योंकि उनके पास हुनर नहीं होता.बहुत से उद्योग लोगों को अपने यहां काम करने के लिए तैयार करने के लिए काफ़ी रक़म और पैसे ख़र्च करती हैं. क्योंकि, ये लोग उनके यहां नौकरी करने के लिए पर्याप्त हुनरमंद नहीं होते.

पीएचडी के उम्मीदवार, हमारे उच्च शिक्षा संस्थानों में होने वाले रिसर्च के प्रतिनिधि और मशाल धारक हैं. इसे और बेहतर बनाने के लिए हमें पीएचडी के इकोसिस्टम को बेहतर बनाना होगा. और आंत्रेप्रेन्योरशिप के हुनर को आगे बढ़ाने के लिए नई तरह की रिसर्च पर ज़ोर देना होगा.

ऊपर जिन मुद्दों का उल्लेख किया गया है, उनके अलावा देश में उच्च शिक्षण संस्थानों की नई रिपोर्ट को हमारे देश की उच्च शिक्षा की गुणवत्ता के बारे में भी सोचना होगा. बहुत सी कंपनियां ये शिकायत करती हैं कि वो देश के स्नातकों को रोज़गार नहीं दे सकतीं, क्योंकि उनके पास हुनर नहीं होता.बहुत से उद्योग लोगों को अपने यहां काम करने के लिए तैयार करने के लिए काफ़ी रक़म और पैसे ख़र्च करती हैं. क्योंकि, ये लोग उनके यहां नौकरी करने के लिए पर्याप्त हुनरमंद नहीं होते. इसीलिए AISHE की भविष्य की रिपोर्टों को उच्च शिक्षण संस्थानों की डिग्री और उन से स्किल डेवेलपमेंट इंस्टीट्यूट का ताल्लुक़ कराने पर भी ध्यान दें. स्कूली शिक्षा में भारत ने क़रीब 100 फ़ीसद एनरोलमेंट हासिल कर लिया है. लेकिन, यहां भी शिक्षा की गुणवत्ता एक बड़ी समस्या बनी हुई है. ऐसे में उच्च शिक्षा की व्यवस्था को इसी दलदल में नहीं फंसना चाहिए. हमें सिर्फ़ उच्च शिक्षा में लोगों के दाख़िले बढ़ाने पर ही ज़ोर देने की ज़रूरत नहीं. आला दर्ज़े की उच्च शिक्षा सुनिश्चित करना भी आवश्यक है.

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