Published on Jan 03, 2018 Updated 0 Hours ago
एफआरडीआई विधेयक: जरूरत जमाकर्ताओं की सुरक्षा और पारदर्शिता की
फोटो: दिनेश क्यानैम/एस 2.0 द्वारा सीसी

वित्तीय संकल्प एवं जमा बीमा (एफडीआरआई) विधेयक, 2017 वित्तीय क्षेत्र में संभावित विफलता को दूर करने के लिए एक तंत्र, एक पद्धति, एक रास्ता प्रस्तावित करता है। 2.3 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था वाले देश में अभी तक ऐसी कोई प्रणाली नहीं थी, यह प्रदर्शित करता है कि अभी तक वैधानिक रूप से इसमें कोई कमी थी और यह विधेयक इसी अभाव की पूर्ति करता है। तब सवाल यह है: अर्थव्यवस्था आज किसी बैंक की विफलता को किस प्रकार प्रबंधित करती है? दुख की बात है किः इसका जवाब यह है कि किसी बैंक या इसके विनियामक भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के पास इससे निपटने के लिए कोई प्रक्रिया नहीं है। हमारे पास जो प्रक्रिया है, वह बहुत ही चलताउ और आकस्मिक प्रकार का रवैया है जिसके तहत रिजर्व बैंक किसी बड़े बैंक को विफल बैंक को अधिग्रहित करने के लिए इशारा करता है, जैसाकि ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स के साथ ग्लोबल ट्रस्ट बैंक के एकीकरण के मामले [i] में हुआ। ऐसी स्वच्छंता किसी ‘जुगाड़’ आधारित वित्तीय क्षेत्र के लिए तो कारगर साबित हो सकता है; पर किसी परिष्कृत या आधुनिक अर्थव्यवस्था को रास नहीं आ सकता।

एफडीआरआई विधेयक इन सबमें परिवर्तन लाता है। संक्षेप में, एफडीआरआई विधेयक विनियामकों एवं सरकार को वित्तीय संस्थानों के जोखिम के बारे में अलर्ट करने के लिए आरंभ में ही आगाह कर देने वाले तंत्र के साथ एक प्रक्रिया का निर्माण करता है कि कैसे विफलता पर ध्यान दिया जाए और कैसे उसका समाधान किया जाए।

यह न केवल महत्वपूर्ण है, बल्कि आवश्यक है क्योंकि अंततोगत्वा जो पैसा दांव पर लगा है, वह जमाकर्ताओं का है, इस मामले [ii].में वह पैसा शामिल है-गैर लाभकारी परिसंपत्तियों को खत्म करने के लिए 211,000 करोड़ रुपये के फ्रंट-लोडेड यानी निवेश पूंजी से शुल्क एवं कमीशन निकाल कर बैंक पूंजीकरण का पैसा- जिसका उपयोग वित्तीय उदारता के माध्यम से जमाकर्ताओं के नुकसान को पूरा करने के लिए किया गया था।

अगर इसके पीछे विचार यह है कि बैंकों को विफल होने दिया जाए लेकिन उपभोक्ताओं की सुरक्षा की जाए, तो इसके लिए एक प्रक्रिया की आवश्यकता है। एफडीआरआई विधेयक ऐसी ही प्रक्रिया की सूची तैयार करता है। एक रिजोलुशन कॉरपोरेशन की स्थापना के जरिये, यह विधेयक मुसीबतग्रस्त वित्तीय सेवा प्रदाताओं को राहत प्रदान करने तथा उपभोक्ताओं को जमा बीमा उपलब्ध कराने के लिए एक संरचना के निर्माण का प्रयास करात है। यह बैंकों, बीमा कंपनियों, वित्तीय बाजार बुनियादी ढांचे (भुगतान प्रणालियों, अमानतदारों, समाशोधन निगमों एवं स्टॉक एक्सचेंजों), एवं प्रणालीगत तरीके से महत्वपूर्ण वित्तीय संस्थानों (एक शब्द जो आकार, जटिलता, लेनदेनों की मात्रा एवं अन्य वित्तीय संस्थानों के साथ अंतःसंपर्कों से संबंधित है) को कवर करता है। इन सबका अलग अलग समाधान करने का प्रयास क्यों किया जा रहा है, जब पहले ही संसद द्वारा दिवाला और दिवालियापन कोड [iii] (आईबीसी) कानून बनाया जा चुका है? क्योंकि आईबीसी कंपनियों, साझीदारियों एवं व्यक्ति विशेषों का समाधान करने पर विचार कर रहा है जबकि यह जानबूझकर वित्तीय सेवा प्रदाताओं [iv].को इसमें शामिल नहीं करता।


एक रिजोलुशन कॉरपोरेशन की स्थापना के जरिये, यह विधेयक मुसीबतग्रस्त वित्तीय सेवा प्रदाताओं को राहत प्रदान करने तथा उपभोक्ताओं को जमा बीमा प्रदान करने के लिए एक संरचना के निर्माण का प्रयास करता है।


इसकी वजह सरल है। वित्तीय कंपनियों के लिए व्यवसाय करने की करेंसी उपभोक्ता जमाएं हैं। उत्पादकों को जटिल जोखिम-रिटर्न उम्मीदों के साथ धन जारी करने के जरिये वे जमाकर्ताओं एवं उद्यमियों के बीच एक मध्यस्थ की भूमिका निभाते हैं। उनमें से कुछ प्रणालीगत रूप से महत्वपूर्ण होते हैं और उनकी विफलता वास्तविक अर्थव्यवस्था को बाधित कर सकती है। नतीजतन, मानक दिवाला एवं दिवालियापन प्रक्रियाएं, जो अक्सर कई वर्षों तक चलती रहती हैं, वित्तीय कंपनियों की समस्याओं के समाधान के लिए अनुकूल नहीं हैं। उदाहरण के लिए, इसका परिणाम ‘रन ऑफ द बैंक’ यानी ऐसा बैंक जिसके बंद होने की आशंका से बड़ी संख्या में लोग अपने पैसे निकाल लेते हैं, के रूप में आ सकता है, भले ही ऐसे बैंक वास्तव में विफल ख्अ,ण् नहीं भी हुए हों। वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग (रिपोर्ट [v]., एवं ड्राफ्ट कानून [vii],)एवं वित्तीय संस्थानों के लिए समाधान व्यवस्था पर उच्च स्तरीय कार्य समूह [viii], द्वारा किए गए कार्यों के आधार पर एक विशेषज्ञ समाधान निगम-एफआरडीआई की सिफारिश की गई।

दुर्भाग्य से, वित्तीय क्षेत्र में जो वास्तविक पहला प्रक्रिया आधारित विफलता प्रबंधन है-वह यह है कि ऐसी पद्धति, जो सार्वजनिक वित्तों (जमाकर्ताओं को भुगतान करने के लिए करदाताओं के पैसे का उपयोग) या अधिक दक्ष संस्थाओं (एक मजबूत बैंक द्वारा कमजोर बैंक को अधिग्रहित करने) पर कोई जोर नहीं देती-को अनावश्यक रूप से कमजोर साबित किया जा रहा है। ऐसा ‘सार्वजनिक हित’ के आवरण के तहत किया जा रहा है, भले ही जहां एफआरडीआई कानून में वर्णित सुरक्षा, अच्छे इरादों की वर्तमान अनियमितता की तुलना में आम जनता के हितों को कानूनी रूप से उच्च स्तर पर रखती हैं।

अधिकांश आलोचना [ix] ‘जमानत खंड’ किसी गुप्त (कवर्ड) सेवा प्रदाता की बकाया बाध्यता को रद्द करने वाला प्रावधान; ऐसा प्रावधान जो किसी गुप्त सेवा प्रदाता की बकाया बाध्यता के रूप को बदलता या संशोधित करता हो; ऐसा प्रावधान कि एक अनुबंध या समझौता जिसके तहत किसी कवर्ड सेवा प्रदाता के पास ऐसे प्रभाव की जवाबदेही हो, जैसेकि इसके तहत किसी विशिष्ट अधिकार का उपयोग किया जाता रहा हो- के इर्द गिर्द रही है।

दूसरे शब्दों में, इस विधेयक में समाधान निगम (रिजोलुशन कॉरपोरेशन) को अधिकार प्रदान किए गए हैं कि वह वित्तीय संस्थानों को चलते रहने के लिए उपभोक्ताओं के पैसे (उदाहरण के लिए, बैंकों में जमा धनराशि) का एक हिस्सा ले सकता है। इस खंड को इसलिए रखा गया जिससे कि किसी वित्तीय व्यवसाय को ‘कर-वित पोषित राहत देने की अधिक सभावना बन सके,’ और सभी समान रूप से किए गए दावों को समान मात्रा मात्रा में लिखा जा सके ताकि समान प्रकार के ऋणदाताओं [x] के साथ एक प्रकार का बर्ताव किया जा सके।

लेकिन यहां भी विधेयक जमाकर्ताओं को विकल्पों के रूप में सुरक्षा प्रदान करता है। खंड 55 (2) (बी) में कहा गया है कि केवल उन देयताओं को रद़द किया जा सकता है जिसकी लिखतों में इस आशय का एक प्रावधान शामिल हो कि संविदागत पक्ष इस बात से सहमत होते हैं कि देयता किसी प्रकार की राहत की पात्र है। दूसरे शब्दों में, जमाकर्ता को अनुबंध पर हस्ताक्षर करते समय राहत की बात पर सहमत होने की जरूरत है। यहां समस्या यह है कि बैंक उपभोक्ता को उस विकल्प की सुविधा नहीं प्रदान करेंगे। इससे भी बुरी बात यह है कि उपभोक्ता सुरक्षा के बजाये स्थिरता की परवाह करने की वजह से, इस बात की उम्मीद बहुत कम है कि विनियामक रिजर्व बैंक यह सुनिश्चित करेगा कि बैंक यह विकल्प दें। उपभोक्ताओं के प्रति उदासीन नियामक समर्थित बैंकों की इस समस्या का एक समाधान यह है कि अंतिम कानून [xi] में उपभोक्ताओं को लिखित रूप से अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान की जाए कि बैंक ग्राहकों को यह विकल्प देगा। यह विधेयक अभी जिस स्थायी समिति के समक्ष विचारार्थ प्रस्तुत है, उसे इस बिंदु का समाधान अवश्य सुनिश्चित करना चाहिए। जहां तक बैंकों का सवाल है तो अगर वे वास्तव में इस खंड का समाधान चाहते हैं तो वे जमाओं पर उच्च दर की पेशकश करेंगे, जहां उपभोक्ता लगभग 150 से 200 आधार अंक उच्चतर पर राहत खंड के लिए सहमत हो सकते हैं। इसलिए, अगर कोई वरिष्ठ नागरिक जो 5 वर्ष की मियादी जमा करना चाहता है, तो उसे 8.5 प्रतिशत का ब्याज प्राप्त हो सकता है अगर वह 6.5 प्रतिशत के मुकाबले राहत खंड पर हस्ताक्षर करता है। यह विभेदक रिटर्न उस जोखिम की कीमत हैं जो वह उठा सकता है।


विधेयक जमाकर्ताओं को विकल्पों के रूप में सुरक्षा प्रदान करता है। यहां समस्या यह है कि बैंक उपभोक्ता को उस विकल्प की सुविधा नहीं प्रदान करेंगे।


जहां तक कानूनी पक्ष है तो वर्तमान में किसी बैंक जमाकर्ता को जो सुरक्षा प्राप्त होती है, वह जमा बीमा एवं ऋण गारंटी निगम (डीआईसीजीसी) अधिनियम, 1961 के माध्यम से प्रति बैंक प्रति व्यक्ति मूल एवं ब्याज राशि के लिए अधिकतम 100,000 रू [xii] है, जिसके लिए बैंक जमाओं के प्रत्येक 100 रू. के लिए 10 पैसे का प्रीमियम अदा करता है [xiii].। जहां 30,00,000 करोड़ रू. से अधिक राशि का सवाल है तो इसके द्वारा प्रदान किया गया कवर पर्याप्त है, लेकिन प्रति जमाकर्ता 1 लाख रू. की संख्या को संशोधित किए जाने की आवश्यकता है। उल्लेखनीय है कि फेडेरल डिपोजिट इंश्योरेंस कॉरपोरेशन के तहत अमेरिका में बीमा 250,000 डॉलर [xiv] का हैं, आस्ट्रेलिया में बड़ी जमाओं एवं थोक उधारी के लिए गारंटी स्कीम के जरिये यह 250,000 [xv], अमेरिकी डॉलर है, जो 1 फरवरी 2012 तक के 1 मिलियन डॉलर से कम है; और ब्रिटेन में फाइनेंशियल सर्विसेज कंपनसेशन स्कीम के जरिये यह जीबीपी 85,000 [xvi] है जो 3 जुलाई 2015 तक के जीबीपी एक मिलियन से कम है। भारत में बीमा गारंटी 1 जनवरी, 1962 से 5,000 रूपये के साथ आरंभ हुई। 1 जनवरी 1970 को बढ़ा कर इसे 10,000 रूपये कर दिया गया, 1 जनवरी, 1976 को 20,000 रूपये कर दिया गया, 1 जुलाई 1980 को 30,000 रूपये कर दिया गया और आखिरकार 1 मई 1993 को [xvii]. इसे 100,000 रू. कर दिया गया। इसका यह अर्थ हुआ कि यह राशि पिछले 25 वर्षों 1968 से 1993 के बीच 12.7 प्रतिशत की संयोजित वार्षिक दर से बढ़ी है। अब जबकि 25 वर्ष और गुजर चुके हैं, इस संख्या को बढाये जाने की तत्काल आवश्यकता है। अगर हम 12.7 प्रतिशत की विकास दर को ही लें, तो यह लगभग 20 लाख रू. होगी। जैसे ही एफआरडीआई विधेयक कानून की शक्ल ले लेता है, जोकि नए निगम के सर्वप्रथम कार्यों में से एक है- यह विधेयक डीआईसीजीसी अधिनियम को निरस्त करने तथा भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, बैंकिंग विनियमन अधिनियम, जीवन बीमा निगम अधिनियम और भारतीय स्टेट बैंक अधिनियम सहित 12 अन्य कानूनों में संशोधन के जरिये यह न्यूनतम गारंटी बढ़ाई जानी चाहिए। प्रस्तावित निगम इस सीमा को चाहे जब भी बढ़ाए, सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि नए विधेयक में जमाकर्ताओं को उसी प्रकार सुरक्षा दिए जाने का प्रावधान है जैसा वर्तमान में है [xviii]। इसलिए, कोई भी परिवर्तन नहीं हुआ है। इसमें यह भी कहा गया है कि एफआरडीआई विधेयक में बगैर बीमित उधारदाताओं एवं यहां तक कि सरकारी बकायों पर वर्तमान कानूनी व्यवस्था की तुलना में बगैर बीमित जमाकर्ताओं को उच्च स्तर पर रखा गया है।

ऐसी प्रणालियों को स्थापित करने की भावना के अनुरूप, जिससे विफलता के कगार पर पहुंच चुके वित्तीय संस्थानों को निर्धारित किया जा सके, विधेयक में व्यावहार्यता के जोखिमों को वर्गीकृत करने के लिए वस्तुपरक मानदंड का प्रावधान रखा गया है। [xix]., 10 विशेषताओं-जिनमें पूंजी पर्याप्तता, परिसंपत्ति गुणवत्ता एवं लाभ (लेवरेज) अनुपात शामिल हैं, के आधार पर यह पांच शीर्षों के तहत वित्तीय संस्थानों पर जोखिम को वर्गीकृत करता है। निम्न-विफलता की संभावना विफलता की स्वीकार्य संभाव्यता से काफी कम है। मध्यम-विफलता की संभावना विफलता की स्वीकार्य संभाव्यता से मामूली कम या समान है। भौतिक (मैटेरियल)- विफलता की संभावना विफलता की स्वीकार्य संभाव्यता से मामूली अधिक है। सन्निकट (इमिनेंट)- विफलता की संभावना विफलता की स्वीकार्य संभाव्यता से काफी अधिक है। और नाजुक (क्रिटिकल)- जहां विफलता की संभावना स्वीकार्य संभाव्यता से काफी अधिक है और इसके तहत शामिल सेवा प्रदाता अपने उपभोक्ताओं को अपनी देयताएं पूरी करने में विफल होने के कगार पर है।

वित्तीय संस्थान कानूनी रूप से इस सूचना को बैंकों के लिए ‘उपयुक्त विनियामक’ (बैंकों के लिए भारतीय रिजर्व बैंक बीमा कंपनियों के लिए इरडा, आदि) के साथ साझा करने के लिए बाध्य होंगे। केवल जब जोखिम ‘मैटेरियल’ होने की सीमा तक पहुंच जाता है तो समाधान निगम का बोर्ड इस मामले में सामने आएगा और वित्तीय कंपनी को 30 दिनों (प्रणाली के लिहाज से महत्वपूर्ण वित्तीय संस्थानों के लिए 90 दिन) के भीतर एक समाधान योजना उपलब्ध करानी होगी। जैसे ही जोखिम ‘क्रिटिकल’ चरण में पहुंच जाता है, समाधान निगम इसका जिम्मा संभाल लेता है। निश्चित रूप से विधेयक के जरिये यह एक सुविचारित कदम है।


निम्न-विफलता की संभावना विफलता की स्वीकार्य संभाव्यता से काफी कम है। मध्यम-विफलता की संभावना विफलता की स्वीकार्य संभाव्यता से मामूली कम या समान है। भौतिक (मैटेरियल)- विफलता की संभावना विफलता की स्वीकार्य संभाव्यता से मामूली अधिक है। सन्निकट (इमिनेंट)- विफलता की संभावना विफलता की स्वीकार्य संभाव्यता से काफी अधिक है।


लेकिन एक महत्वपूर्ण बिंदु जिसे यह विधेयक नजरअंदाज करता है, वह खुलासों (डिस्क्लोजर) को लेकर है। जहां इस प्रणाली की पूरी संरचना वित्तीय संस्थानों द्वारा विनियामक या समाधान निगम या दोनों के साथ जानकारियां साझा करने पर आधारित है, जो सारा कुछ ‘उपभोक्ताओं की सुरक्षा’ के नाम पर किया जा रहा है, कानून रूप से ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह कहता हो कि सूचनाओं को उपभोक्ताओं के साथ साझा किए जाने की जरूरत है। प्रकटतया इसकी वजह यह हो सकती है कि अगर उपभोक्ताओं को यह जानकारी मिल गई कि बैंक की श्रेणी मझोले जोखिम से निम्न जोखिम की हो गई है तो बैंक के लिए बेहद असामान्य स्थिति पैदा हो जाएगी और भले ही कथित बैंक सुरक्षित हो, लेकिन सिस्टम के लिए यह जोखिमपूर्ण होगा। यह तर्क उपभोक्ताओं को बेकार आर्थिक कारकों (एजेंट) के रूप में देखता है। इसकी जगह, ग्राहक भी वैसी ही प्रतिक्रिया जताने लगेंगे जैसा बाजार रेटिंग को डाउनग्रेड किए जाने के मामले में प्रतिक्रिया जताता है- अगर रेटिंग ट्रिपल ए से गिरकर डबल ए भी हो जाए तो भी कोई बांडों को बेच देने की हड़बड़ी में नहीं दिखता।

 इसके अतिरिक्त, 21वीं सदी के बेहद पारदर्शी एवं तत्काल सूचना के युग में जोखिमों के बारे में धीरे-धीरे आम जनता तक सूचना पहुंचने में कोई वक्त नहीं लगता। बैंकों एवं नियामकों के लिए ज्यादा अच्छा यह रहेगा कि वे सूचनाओं को साझा करें बजाये जानबूझकर इसे दबाकर रखने के- क्योंकि इसी पर पूरी वित्तीय प्रणाली एवं सरकार की साख दांव पर लगी है। वृहद विवेकपूर्ण (माइक्रोप्रुडेंशियल) नजरिये से देखें तो खुलासे लाभदायक हैं क्योंकि वे वित्तीय स्थिरता को बढ़ावा देते हैं [xx]। एफआरडीआई के मुद्दे पर वापस लौटते हुए, यह जरूरी है कि किसी वित्तीय संस्थान के जोखिम प्रोफाइल में किसी भी परिवर्तन की जानकारी निश्चित रूप से जमाकर्ताओं के साथ साझा की जानी चाहिए। अगर ये खुलासे कानूनी और नियामक ढांचे से संबंधित हैं जिसके आधार पर ग्राहकों से मांग-पक्ष पर बुद्धिमत्तापूर्ण वित्तीय विकल्पों को चुनने की उम्मीद जताई जा रही हो तो खुलासा-अधिदेशित एफआरडीआई विधेयक द्वारा इस जानकारी को आपूर्ति पक्ष पर भी उपभोक्ताओं को भी उपलब्ध कराए जाने की जरूरत है। अगर यह एक खंड है, कोई पूरा अध्याय नहीं तो स्थायी समिति को अनिवार्य रूप से इसे विधेयक में जोड़ देना चाहिए। अगर उपभोक्ताओं की रक्षा करनी है तो सूचना को उनका कवच बनाना ही होगा।


[i] Reserve Bank of India Notice: ‘Global Trust Bank Limited (Amalgamation with Oriental Bank of Commerce) Scheme, 2004’, 26 July 2004

[ii] Press Information Bureau, ‘Strong Macro-Economic Fundamentals And Reforms for Sustained Growth’, Part IV, 24 October 2017

[iii] Gazette of India, Ministry of Law and Justice, The Insolvency and Bankruptcy Code, 2016, 28 May 2016

[iv] Gazette of India, Ministry of Law and Justice, The Insolvency and Bankruptcy Code, 2016, 28 May 2016, Part I, 3(7)

[v] Report of Committee to Draft Code on Resolution of Financial Firms, Department of Economic Affairs, Ministry of Finance, 28 September 2016, Page 5

[vi] Report of the Financial Sector Legislative Reforms Commission, Volume I: Analysis and Recommendations, 22 March 2013, Page 69

[vii] Report of the Financial Sector Legislative Reforms Commission, Volume II: Draft Law, Chapter 7, Sections 16 to 19, Establishment of the Resolution Corporation

[viii] Reserve Bank of India, Report of the Working Group on Resolution Regime for Financial Institutions, 18 January 2014

[ix] The Financial Resolution and Deposit Insurance Bill, 2016, Chapter 12, Clause 52 (2)

[x] Report of Committee to Draft Code on Resolution of Financial Firms, Department of Economic Affairs, Ministry of Finance, 28 September 2016, Page 34

[xi] Monika Halan, ‘FRDI Bill’s bail-in clause: Two options for the government’, Mint, 20 December 2017

[xii] A Guide to Deposit Insurance, Deposit Insurance and Credit Guarantee Corporation

[xiii] Initially, rate of premium was fixed at 5 paise per annum for every Rs 100 of total deposits. The rate was reduced to 4 paise from 1 October 1971, again increased to 5 paise, and further to 8 paise from 1 April 2004 and to 10 paise from 1 April 2005: The Deposit Insurance and Credit Guarantee Corporation Act, 1961

[xiv] Federal Deposit Insurance Corporation website, accessed on 26 December 2017

[xv] Guarantee Scheme for Large Deposits and Wholesale Lending, accessed on 26 December 2017

[xvi] Financial Services Compensation Scheme, accessed on 26 December 2017

[xvii] Annual Report for the year ended 31 March 2009, Deposit Insurance and Credit Guarantee Corporation, Page 2

[xviii] Press Information Bureau, ‘Provisions of the Financial Resolution and Deposit Insurance Bill, 2017 meant to protect interests of depositors, 07 December 2017

[xix] The Financial Resolution and Deposit Insurance Bill, 2016, Chapter 8, Clauses 37 and 38

[xx] Itay Goldstein and Haresh Sapra, Should Banks’ Stress Test Results be Disclosed? An Analysis of the Costs and Benefits, Foundations and Trends in Finance, Vol. 8, No. 1 (2013)

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