Author : Aparna Roy

Published on Jan 28, 2022 Updated 0 Hours ago

वनों की नाज़ुक स्थिति को देखते हुए, प्रतिपूरक वनीकरण से आगे बढ़ना और ज़मीनी स्तर पर गंभीर बदलाव पैदा करने के लिए सार्थक रणनीति अपनाना ज़रूरी है 

भारत में वन-प्रबंधन के लिए चार सूत्रीय कार्य-योजना

पिछले हफ्ते पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) द्वारा जारी इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट ने कुछ चौंकाने वाले निष्कर्ष हमारे सामने रखे. इस रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2019 की तुलना में पेड़ों की संख्या में महज़ 0.22 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और इसी के साथ साल 2021 में भारत के वन क्षेत्र की वृद्धि आठ साल के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है. इस के साथ ही साल 2030 तक, भारत के 45-64 प्रतिशत वनों के जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान से प्रभावित होने का अनुमान है.

भारत में आबादी का पांच फीसदी हिस्सा अपनी आजीविका के लिए वनों पर निर्भर है और इसके समृद्ध पारिस्थितिक, आर्थिक और विकास मूल्य के साथ, क्या भारत अपने वन क्षेत्र में और गिरावट को बर्दाश्त कर सकता है? ऐसे में भारत पारिस्थितिकीय और सामाजिक दोनों रूप से वन आवरण के नुकसान का एक सार्थक प्रबंधन कैसे सुनिश्चित कर सकता है?

संयुक्‍त राष्‍ट्र मरुस्‍थलीकरण रोकथाम कन्‍वेंशन यानी यूएनसीसीडी (United Nations Convention to Combat Desertification, UNCCD) के लक्ष्यों के तहत भारत ने साल 2021 और 2030 के बीच पांच मिलियन हेक्टेयर ख़राब और वनों की कटाई से प्रभावित भूमि को दोबारा हराभरा करने की प्रतिबद्धता दिखाई है. इसके साथ ही, जलवायु परिवर्तन के लिए भारत के राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Intended Nationally Determined Contribution, INDC) का लक्ष्य, वृक्ष आवरण के ज़रिए साल 2030 तक 2.5 से तीन बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड को वातावरण से हटाना है. हालाँकि, भारत की 29.7 फीसदी यानी 97.85 मिलियन हेक्टेयर भूमि को गुणवत्ता की दृष्टि से ख़राब माना जाता है. जलवायु प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए यह ज़रूरी है कि भारत अगले दशक में वृक्षों के आवरण को 12 फीसदी तक बढ़ाए. भारत में आबादी का पांच फीसदी हिस्सा अपनी आजीविका के लिए वनों पर निर्भर है और इसके समृद्ध पारिस्थितिक, आर्थिक और विकास मूल्य के साथ, क्या भारत अपने वन क्षेत्र में और गिरावट को बर्दाश्त कर सकता है? ऐसे में भारत पारिस्थितिकीय और सामाजिक दोनों रूप से वन आवरण के नुकसान का एक सार्थक प्रबंधन कैसे सुनिश्चित कर सकता है?

पेड़ों का घनत्व मात्र ‘जंगल’ नहीं 

सबसे पहले, भारत के ‘जंगलों’ को फिर से परिभाषित करने की तत्काल आवश्यकता है. उपग्रह इमेजरी और रिमोट सेंसिंग डेटा पर भरोसा करते हुए, भारतीय वन सर्वेक्षण वनों को निम्न रूप से परिभाषित करता है, “भूमि के वह सभी टुकड़े जहां पेड़ों की छाया का घनत्व 10 फीसदी से अधिक हो और वह एक हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हो, भले ही वह ज़मीन किसी भी तरह को उपयोग में हो और वहां किसी भी प्रकार के पेड़ हों.” सैटेलाइट इमेजरी वृक्षारोपण और जंगल के बीच अंतर का पता लगाने में असमर्थ है और यही वजह है कि किसी भी तरह का पेड़ों का फैलाव वह चाहे बांस के पेड़ हों, कॉफी के पेड़, बगीचे, या शहरी पार्क उन्हें वर्तमान में ‘जंगल’ के रूप में पहचाना जाता है. इंसानी हस्तक्षेप से किए गए वृक्षारोपण के उलट, प्राकृतिक वन जटिल पारिस्थितिकी तंत्र लिए रहते हैं जहां पेड़ों की 30 से 40 अलग अलग प्रजातियां बसती हैं और जो लाखों सालों के विकास का नतीजा हैं. दुर्लभ प्राकृतिक विकास के इन सालों में किसी क्षेत्र में पैदा हुए यह वन उस इलाक़े की विशिष्ट जैव-भौतिकीय विशेषताओं को आकार देते हैं. वे कार्बन को सोखने वाले सबसे शक्तिशाली साधन के रूप में कार्य करते हैं. इसलिए, पेड़ों के मिले जुले घनत्व मात्र को ही जंगल नहीं माना जा सकता है. यही वजह है कि जंगलों की एक अधिक विचारशील परिभाषा भारत को ‘जंगलों’ की रक्षा, उनकी पुनर्स्थापना और संरक्षण के लिए प्रभावी हस्तक्षेप की योजना बनाने और उसे लागू करने में मदद करेगी.

जंगलों की एक अधिक विचारशील परिभाषा भारत को ‘जंगलों’ की रक्षा, उनकी पुनर्स्थापना और संरक्षण के लिए प्रभावी हस्तक्षेप की योजना बनाने और उसे लागू करने में मदद करेगी.

दूसरा, वनों की रक्षा के लिए, गैर-वन उद्देश्यों के लिए वन भूमि के तेज़ी से हस्तांतरण को रोका जाना चाहिए. भारत का प्रतिपूरक वनरोपण कार्यक्रम इस धारणा पर निर्भर करता है कि वन बदले जा सकते हैं और आसानी से दूसरी भूमि पर बनाए जा सकते हैं. इसलिए, उन परियोजनाओं को मंज़ूरी दी जाती है जिनके तहत गैर-वन उद्देश्यों के लिए वन क्षेत्रों के उपयोग की आवश्यकता होती है. यह काम पर्यावरण मुआवज़े के रूप में एक मौद्रिक मूल्य एकत्र करके, जो राज्यों को एक गैर-वन भूमि पर ‘प्रतिपूरक वनीकरण’ करने के लिए आवंटित किए जाते हैं. नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्डलाइफ (National Board for Wildlife, NBWL) ने 2020 में 48 परियोजनाओं के लिए लगभग 1,792 हेक्टेयर सुरक्षात्मक भूमि या पर्यावरण के नज़रिए से संवेदनशील क्षेत्रों को बदले जाने की मंज़ूरी दी है. यह परियोजनाएं सड़कें व रेलवे बनाए जैसे कार्यों से जुड़ी हैं जो प्राकृतिक रूप से अशांतकारी साबित होंगी. मैरीलैंड विश्वविद्यालय के जंगल परिवर्तन से जुड़े आंकड़ों के मुताबिक साल 2020 में भारत ने क़रीब 143,000 हेक्टेयर वन क्षेत्र को खो दिया. 

तीसरा, वन संरक्षण के लिए प्रभावी हस्तक्षेप की आवश्यकता है. ‘जंगलों’ के नुकसान की भरपाई के लिए, भारत का वनीकरण कार्यक्रम गैर-वन भूमि पर बड़े पैमाने पर मोनोकल्चर, गैर-स्वदेशी, व्यावसायिक प्रजातियों जैसे यूकेलिप्टस और सागौन के एकल किस्म के वृक्षारोपण पर केंद्रित है. जंगलों के विपरीत, मोनोकल्चर वृक्षारोपण में जैव विविधता या पारिस्थितिक मूल्य, प्रजातियों की विविधता या गुणवत्ता, या पेड़ों की लंबी जीवित रहने की दर का अभाव है. इन बागानों में कार्बन धारण करने की क्षमता बहुत कम होती है और लकड़ी के जलने पर कार्बन का उत्सर्जन होता है. नतीजतन, लगातार किए जाने वाले इस तरह के  प्रयासों के बावजूद यह कार्यक्रम भारत में किसी भी पर्याप्त पारिस्थितिक हरियाली को पूरा करने में काफी हद तक अप्रभावी रहा है. यही वजह है कि आईएसएफआर 2021 के अनुसार मध्यम घने जंगलों या प्राकृतिक वनों में 1,582 वर्ग किमी की गिरावट आई है. खुले वन क्षेत्रों में 2,621 वर्ग किमी की वृद्धि के साथ कम घने खुले जंगलों में आई यह कमी महत्वपूर्ण रूप से एक गिरावट को उजागर करती है.

वन संरक्षण के लिए प्रभावी हस्तक्षेप की आवश्यकता है. ‘जंगलों’ के नुकसान की भरपाई के लिए, भारत का वनीकरण कार्यक्रम गैर-वन भूमि पर बड़े पैमाने पर मोनोकल्चर, गैर-स्वदेशी, व्यावसायिक प्रजातियों जैसे यूकेलिप्टस और सागौन के एकल किस्म के वृक्षारोपण पर केंद्रित है.

सार्थक रणनीति की दरकार

भारत को वनों की कटाई को कम करने के उद्देश्य से वन प्रबंधन पर एक नीतिगत ढांचा तैयार करना चाहिए. इस के साथ ही इन इलाक़ों की पारिस्थितिकी और जैव विविधता में सुधार करना चाहिए जो समुदायों के लिए खाद्य सुरक्षा, पानी की उपलब्धता और जलवायु अनुकूलन को सुनिश्चित करेगा. भागीदारी को केंद्र में रखकर अपनाए जाने वाले इस दृष्टिकोण के साथ-साथ वैज्ञानिक साक्ष्य आधारित पद्धति को नियोजित करने से सरकार को जंगलों को पुन: बसाने के लिए सबसे उपयुक्त पेड़ लगाए जाने की रणनीति बनाने में मदद मिलेगी. बड़े पैमाने पर पुन:स्थापन के अवसरों के आकलन से जुड़ी पद्धति यानी आरओएएम (Restoration Opportunities Assessment Methodology, ROAM) को अपनाने से वन बहाली के लिए सर्वोत्तम हस्तक्षेप की योजना बनाने के लिए स्थानिक, क़ानूनी और सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों के विश्लेषण में मदद मिल सकती है.

भारत में, नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट (नाबार्ड) का ‘वाडी’ मॉडल और फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी की गांवों में हरियाली को वापस लाने से संबंधित परियोजनाएं, पेड़-आधारित ऐसे हस्तक्षेप हैं जो मूल्य और लाभ प्रदान करने की दिशा में प्रभावी मॉडल साबित हुए हैं.

अंतत: ज़मीन को एक बार फिर जंगलों से हरा-भरा करने के लिए या वनरोपण के किसी भी प्रयास के लिए स्थानीय समुदायों के समर्थन की ज़रूरत होगी जो वनों व प्रकृति के अनुकूल प्रबंधन करने का हुनर रखते हैं और नज़दीकी से निगरानी बनाए रखने की क्षमता रखते हैं. इस तरह के किसी भी हस्तक्षेप के लिए वन संसाधनों के संरक्षण में लंबे समय से चली आ रही ज्ञान प्रणालियों और सामुदायिक प्रयासों को औपचारिक रूप से वन प्रबंधन का हिस्सा बनाने के लिए पहचाना जाना ज़रूरी है. किसान-प्रबंधित प्राकृतिक पुनर्जनन यानी एफएमएनआर (Farmer-managed natural regeneration, FMNR) प्रणालियाँ जहाँ स्थानीय समुदाय प्राकृतिक रूप से पुनर्जीवित होने वाले पेड़ों के विकास की रक्षा और प्रबंधन करते हैं, कई आर्थिक और पारिस्थितिकी तंत्र लाभ देने की क्षमता रखते हैं. भारत में, नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट (नाबार्ड) का ‘वाडी’ मॉडल और फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी की गांवों में हरियाली को वापस लाने से संबंधित परियोजनाएं, पेड़-आधारित ऐसे हस्तक्षेप हैं जो मूल्य और लाभ प्रदान करने की दिशा में प्रभावी मॉडल साबित हुए हैं. 

भारत में वनों की नाज़ुक स्थिति को देखते हुए, प्रतिपूरक वनीकरण (compensatory afforestation) से आगे बढ़ना और ज़मीनी स्तर पर गंभीर बदलाव पैदा करने के लिए सार्थक रणनीति अपनाना ज़रूरी है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.