Author : Harsh V. Pant

Published on Mar 03, 2020 Updated 0 Hours ago

अमेरिका ने वादा किया है कि वो तालिबान पर अपने लगाए प्रतिबंध हटा लेगा. साथ ही वो अन्य देशों द्वारा तालिबान पर लगाए गए प्रतिबंधों को हटाने में भी सहयोग करेगा.

अंतत: अफग़ानिस्तान में एक समझौता हो ही गया!

महीनों तक कभी आगे और कभी पीछे जाने के बाद, आख़िरकार अफ़ग़ानिस्तान में एक समझौता हो गया है. अमेरिका अंतत:, तालिबान के साथ एक ऐसा समझौता करने में सफल हो गया है, जिसके चलते अगले 14 महीनों में युद्ध से तबाह हुए अफ़गानिस्तान से विदेशी सेनाओं की वापसी होने की संभावना है. अमेरिका और तालिबान के बीच इस बहुचर्चित समझौते पर, मध्य-पूर्व के देश क़तर की राजधानी दोहा में हस्ताक्षर हुए. अमेरिका की तरफ़ से विशेष दूत ज़लमए ख़लीलज़ाद और तालिबान की तरफ़ से उसके राजनीतिक प्रमुख मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर ने इस समझौते पर दस्तख़त किए. इस समझौते से पूर्व दोनों देशों ने आपस में विश्वास पैदा करने के लिए क़रीब एक सप्ताह का आंशिक युद्ध विराम बनाए रखा था. समझौते पर हस्ताक्षर के समारोह में अफ़ग़ानिस्तान, अमेरिका, भारत और पाकिस्तान समेत कई अन्य देशों के राजनयिक मौजूद थे.

अफ़ग़ानिस्तान की जेलों में बंद लगभग पांच हज़ार तालिबानी लड़ाकों को, एक हज़ार अफग़ानी सुरक्षा कर्मियों की रिहाई के बदले में छोड़ा जाना है. ऐसा तब होगा, जब अफग़ानिस्तान की सरकार एवं तालिबान के बीच नार्वे की राजधानी ओस्लो में बातचीत आरंभ होगी. ये वार्ता दस मार्च से शुरू होनी है

तालिबान एवं अमेरिका के बीच जो सहमति बनी है, उसके अनुसार अमेरिका अगले तीन से चार महीनों में अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद अपने 13 हज़ार सैनिकों को घटाकर 8 हज़ार 600 तक ले आएगा. बाक़ी के अमेरिकी सैनिकों को अगले 14 महीनों के अंदर स्वदेश बुला लिया जाएगा. अमेरिका, अफ़ग़ानिस्तान में तैनात अपने सभी सैनिक तभी वापस बुलाएगा, जब तालिबान, इस समझौते के अंतर्गत तय हुई अपने हिस्से की सभी शर्तें पूरी करेगा. जिसकी अन्य शर्तों के अतिरिक्त, तालिबान को अल क़ायदा से ख़ुद को पूरी तरह से अलग करना होगा. साथ ही तालिबान को ये भी सुनिश्चित करना होगा कि अमेरिका अथवा उसके सहयोगी देशों के विरुद्ध हमलों के लिए, अफ़ग़ानिस्तान की धरती का प्रयोग नही किया जाएगा. इस समझौते के अंतर्गत, अमेरिका ने तालिबान को ये वचन दिया है कि वो उसके विरुद्ध लगाए गए प्रतिबंध हटा लेगा. साथ ही तालिबान पर लगे अन्य बहुपक्षीय प्रतिबंधों को हटाने में भी सहयोग करेगा. इस समझौते के अंतर्गत क़ैदियों की अदला-बदली भी होनी है. अफ़ग़ानिस्तान की जेलों में बंद लगभग पांच हज़ार तालिबानी लड़ाकों को, एक हज़ार अफग़ानी सुरक्षा कर्मियों की रिहाई के बदले में छोड़ा जाना है. ऐसा तब होगा, जब अफग़ानिस्तान की सरकार एवं तालिबान के बीच नार्वे की राजधानी ओस्लो में बातचीत आरंभ होगी. ये वार्ता दस मार्च से शुरू होनी है.

अमेरिका ने सावधानी पूर्वक संतुलन बनाने के अपने प्रयासों का संकेत उस वक़्त दिया. जब एक तरफ़ उसके विशेष दूत, तालिबान के साथ समझौते पर दोहा में हस्ताक्षर कर रहे थे. ठीक उसी समय अमेरिका के रक्षा सचिव मार्क एस्पर, अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल में राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी के साथ मुलाक़ात कर रहे थे. एस्पर के इस काबुल दौरे का मक़सद, अशरफ़ ग़नी को ये भरोसा देना था कि अमेरिकी सरकार ने तालिबान के साथ समझौता भले कर लिया हो, लेकिन वो पूरी तरह से अफ़ग़ान सरकार के साथ है. मार्क एस्पर ने ये उम्मीद जताई कि ये उम्मीदों का लम्हा है. और अफ़ग़ानिस्तान में स्थायी शांति की शुरुआत भर है. स्थायी शांति के लिए सभी पक्षों को धैर्य से काम लेना होगा. साथ ही सभी को कुछ न कुछ समझौते भी करने पड़ेंगे.

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के लिए ये चुनावी साल में बेहद महत्वपूर्ण समझौता है. पिछली बार राष्ट्रपति पद के प्रचार अभियान के दौरा ट्रंप ने अमेरिकी जनता से ये वादा किया था कि वो इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के ‘अंतहीन युद्धों’ को समाप्त करेंगे. इस समझौते के पश्चात, ट्रंप के पास मौक़ा है कि वो अपनी जनता को ये बता सकें कि उन्होंने अपना ये वादा पूरा कर दिया है. इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने इस समझौते को बहुत अच्छा साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. ट्रंप ने कहा कि तालिबान, लंबे समय से अमेरिका के साथ समझौता करना चाह रहा था. ट्रंप ने अपना आशावादी रवैया जताते हुए कहा कि, ‘तालिबान कुछ ऐसा करना चाह रहा है, जिससे वो ये जता सके कि हम उससे बात करने में अपना समय नहीं गंवा रहे.’ लेकिन, इसके साथ ही अमेरिकी राष्ट्रपति ने ये भी कहा कि, ‘अगर तालिबान कुछ भी गड़बड़ करता है, तो हम इतनी ताक़त से पलटवार करेंगे जैसा इससे पहले दुनिया ने देखा नहीं होगा.’

ये समझौता इसलिए हो सका, क्योंकि दोनों पक्षों को इस बात का एहसास अच्छे से हो चुका है कि पूर्ण विजय दूर-दूर तक उनके हाथ आती नहीं दिख रही है. अमेरिका को इस युद्ध में काफ़ी क्षति उठानी पड़ी है. इस कारण से अमेरिका का राजनीतिक परिदृश्य में इस युद्ध को लेकर बहुत नाराज़गी है.

18 साल पुराने अफ़ग़ानिस्तान युद्ध में इस समझौता वार्ता का अपनी मंज़िल तक पहुंचा एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है. इस युद्ध के दौरान, अमेरिका ने एक ख़रब डॉलर से भी ज़्यादा धन ख़र्च किया है. साथ ही अमेरिका के 2400 से अधिक सैनिक इस जंग की भेंट चढ़ गए. इनके अतिरिक्त, दसियों हज़ार अफ़ग़ानी सुरक्षा बल, आम नागरिक और उग्रवादी भी इस युद्ध के दौरान मारे जा चुके हैं. ये समझौता इसलिए हो सका, क्योंकि दोनों पक्षों को इस बात का एहसास अच्छे से हो चुका है कि पूर्ण विजय दूर-दूर तक उनके हाथ आती नहीं दिख रही है. अमेरिका को इस युद्ध में काफ़ी क्षति उठानी पड़ी है. इस कारण से अमेरिका का राजनीतिक परिदृश्य में इस युद्ध को लेकर बहुत नाराज़गी है. ख़ास तौर से डोनल्ड ट्रंप, राष्ट्रपति बनने के बाद लगातार ये कहते आए हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में शांति बहाल करने के लिए अन्य देशों को अधिक प्रयास करने होंगे. उनका ये विचार, इस समझौते पर हस्ताक्षर के पश्चात भी दिखा, जब उन्होंने कहा कि अमेरिकी सेनाएं, लंबे समय से अफ़ग़ानिस्तान में ‘हज़ारों आतंकवादियों’ को मारती आई हैं. और अब समय आ गया है कि अन्य देश भी शांति स्थापित करने के लिए अपने-अपने स्तर पर प्रयास करें. इसका मतलब ये कि अब अफ़ग़ानिस्तान में स्थायी शांति की ज़िम्मेदारी तालिबान एवं अफ़ग़ानिस्तान के अन्य पड़ोसी देशों की होगी. तालिबान को भी धीरे-धीरे ये एहसास हो रहा था कि वो वार्ता के माध्यम से ही अफ़ग़ानिस्तान में जल्द से जल्द अपने लिए कोई राजनीतिक भूमिका प्राप्त कर सकते हैं.

अमेरिका एवं तालिबान के बीच इस डील के पश्चात, अब अफ़ग़ानिस्तान के तमाम पक्षों के बीच वार्ता की भूमिका तैयार हो गई है. और शांति वार्ता का ये दौर अधिक मुश्किल एवं अड़ियल होगा. अफ़ग़ानिस्तान के पक्षों के बीच मतभेद उस वक़्त खुलकर सामने आ गए, जब अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी ने अमेरिका और तालिबान के बीच समझौते की एक शर्त, यानी क़ैदियों की अदला-बदली का विरोध किया और कहा कि, ‘क़ैदियों की ऐसी अदला-बदली किसी भी वार्ता से पूर्व की शर्त नहीं हो सकती. बल्कि इसे तो समझौता वार्ता का हिस्सा होना चाहिए.’ असल में अशरफ़ ग़नी इस समझौता वार्ता में अपने आधिपत्य को स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं, ताकि वो कुछ अन्य रियायतें हासिल कर सकें. इसीलिए उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि क़ैदियों की रिहाई, ‘अमेरिका के अधिकार क्षेत्र में नहीं है’ बल्कि ये ‘अफग़ान सरकार के अधिकार क्षेत्र में आती है.’

यहां से आगे, अफ़ग़ानिस्तान में शांति स्थापित करने की राह में चुनौतियां और भी गंभीर होने वाली हैं. इस वक़्त अफ़ग़ानिस्तान में दो राजनीतिक परिकल्पनाएं आमने-सामने हैं. एक तरफ़ तालिबान की इस्लामिक अमीरात है. तो दूसरी तरफ़ एक लोकतांत्रिक अफ़ग़ानिस्तान गणराज्य है, जो 2001 के हमलों के पश्चात तबाही के खंडहरों के बीच से उठा है. इन दोनों के बीच सहमति बन पाना मुश्किल है. आज भी अफ़ग़ानिस्तान की जनता के ज़हन में तालिबान के राज की बुरी यादें बसी हुई हैं. आम अफ़ग़ानी नागरिक, ख़ास तौर से महिलाओं को पिछले दो दशकों में काफ़ी खुलापन और स्वतंत्रता हासिल हुई है. तालिबान की वापसी की सूरत में, उन्हें इसे गंवाने की फ़िक्र होगी. उनके लिए तालिबान की नीयत पर भरोसा करना मुश्किल होगा. क्योंकि इस समझौते के पश्चात ही तालिबान इसे अपनी विजय कह कर प्रचारित कर रहा है.

तालिबान को लेकर भारत की चिंताओं से दुनिया भलीभांति परिचित है. उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है. अमेरिका और तालिबान के बीच इस समझौते पर भारत ने सधी हुई प्रतिक्रिया दी थी. और कहा था कि भारत, अफ़ग़ानिस्तान में शांति, सुरक्षा एवं स्थिरता के सभी अवसरों और प्रयासों का समर्थन करता है, जिनसे आतंकवाद पर पूर्ण विराम लगना सुनिश्चित होता हो. और अफ़ग़ानिस्तान का नज़दीकी पड़ोसी होने के नाते भारत, भविष्य में भी ऐसे प्रयासों को अपना पूरा समर्थन देता रहेगा. भारत के इस बयान को पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर पर भारत के दावे से जोड़ कर देखा जाना चाहिए. अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप के हालिया दौरे से भारत को अपनी चिंताएं, अमेरिका से साझा करने का अवसर मिला था. और अब दोनों देशों के बीच परस्पर सहयोग बढ़ा है. लेकिन, भारत को अब नई परिस्थियों में अधिक दक्षता से अपनी प्रतिक्रिया देनी होगी. क्योंकि आने वाले दिनों और महीनों में परिस्थियों में तेज़ी से परिवर्तन होने जा रहा है. पिछले दो दशकों से भारत का सामरिक समुदाय पर्दे के पीछे से अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान के मुद्दे पर सलाह-मशविरा देता आया है. ताकि, अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान में एक विश्वसनीय नीति बनाने में मदद मिल सके. लेकिन अब समय आ गया है कि अफग़ानिस्तान के संदर्भ में, भारत को अधिक सक्रियता से अपनी स्वतंत्र नीति बनानी होगी.

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