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किसानों की तादाद सबसे कम होने के बावजूद किसानों का विरोध पंजाब, हरियाणा और एनयूजीपी तक ही सीमित क्यों रह गया?
#किसान आंदोलन: किसानों के विरोध की पहेली?
साल 2020-21 में सियासी चर्चाओं के बीच दो मुद्दे हावी रहे; कोरोना महामारी और सुधारोन्मुखी कृषि कानूनों के ख़िलाफ़ किसानों का विरोध प्रदर्शन. एक साल से अधिक समय तक चले किसानों के प्रदर्शन ने पीएम मोदी जैसी लोकप्रिय सरकार को नवंबर 2021 में कृषि कानूनों को निरस्त करने के लिए मज़बूर कर दिया. किसानों के विरोध का केंद्र पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के उत्तरी इलाकों में बसे ऊपरी गंगा के मैदान (एनयूजीपी) के ज़िले रहे थे. हालांकि, यह एक पहेली बनी हुई है कि देश के ये वो राज्य या क्षेत्र हैं जहां किसानों की संख्या सबसे कम है! देश के इन तीनों क्षेत्रों में कृषि क्षेत्र से जुड़ी श्रम शक्ति का हिस्सा बड़े राज्यों में सबसे कम है और राष्ट्रीय औसत से भी यह काफी कम है.
किसानों के विरोध का केंद्र पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के उत्तरी इलाकों में बसे ऊपरी गंगा के मैदान (एनयूजीपी) के ज़िले रहे थे.
साल 2018-19 के लिए आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण की वर्तमान साप्ताहिक स्थिति पर यूनिट स्तर के आंकड़ों का इस्तेमाल करते हुए इस लेखक ने पाया है कि पंजाब में कृषि का हिस्सा 24 प्रतिशत था, हरियाणा में यह 27 प्रतिशत था और उत्तरी ऊपरी गंगा के मैदानी इलाक़ों में यह 29 प्रतिशत था, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर कृषि क्षेत्र में श्रम बल की हिस्सेदारी 44 प्रतिशत थी. युवा (आयु <30 वर्ष) श्रम शक्ति के संदर्भ में विश्लेषण से पता चलता है कि पंजाब, हरियाणा और एनयूजीपी में कृषि में युवा श्रम बल का हिस्सा 20 प्रतिशत से कम था, जो 31 प्रतिशत की राष्ट्रीय हिस्सेदारी के मुक़ाबले बड़े राज्यों में सबसे कम और काफी कम था.
एक अवधारणा जो अब सामने आ रही है वह यह है कि इन क्षेत्रों में किसान आंदोलन फैलने की मुख्य वजह थी स्थानीय स्तर पर बेरोज़गारी का होना. आंकड़ों से पता चलता है कि हरियाणा और एनयूजीपी में बेरोज़गारी दर क्रमशः 12.2 प्रतिशत और 11 प्रतिशत था, जबकि पंजाब में राष्ट्रीय स्तर 8.8 प्रतिशत के मुक़ाबले यह 9 प्रतिशत था, जो कुछ हद तक राष्ट्रीय स्तर के समान ही था. हालांकि, अधिक चौंकाने वाला तथ्य यह है कि भारत के कई बड़े राज्यों में पंजाब की तुलना में बेरोज़गारी की दर काफी अधिक थी लेकिन कृषि विधेयकों के विरोध में कोई लामबंदी नहीं हुई. अन्य बड़े राज्यों जैसे ओडिशा (11.9 प्रतिशत), केरल (11.8 प्रतिशत), बिहार (10.7 प्रतिशत), तेलंगाना (10.4 प्रतिशत), तमिलनाडु (9.9 प्रतिशत), आंध्र प्रदेश (9.4 प्रतिशत), महाराष्ट्र (9.2 प्रतिशत) और राजस्थान (9.1 प्रतिशत) में पंजाब की तुलना में कहीं ज़्यादा रोज़गार संकट की स्थिति की ओर इशारा करते हैं.
अधिक चौंकाने वाला तथ्य यह है कि भारत के कई बड़े राज्यों में पंजाब की तुलना में बेरोज़गारी की दर काफी अधिक थी लेकिन कृषि विधेयकों के विरोध में कोई लामबंदी नहीं हुई.
विरोध के लिए एक और संभावित तर्क युवाओं की बेरोज़गारी भी हो सकती है. हालांकि, जब हम अन्य बड़े राज्यों के साथ हरियाणा, पंजाब और एनयूजीपी की तुलना करते हैं तो हम पाते हैं कि केरल, बिहार, तेलंगाना, ओडिशा और तमिलनाडु जैसे बड़े राज्यों की तुलना में इन राज्यों में युवा बेरोज़गारी दर काफी कम थी. इससे ऐसा लगता है कि न तो कुल मिलाकर बेरोज़गारी का संकट और न ही इन क्षेत्रों की युवा निष्क्रियता का स्तर, पंजाब, हरियाणा और एनयूजीपी राज्यों में पिछले साल किसान आंदोलन का ख़ास कारण हो सकता है.
ऐसा लगता है कि न तो कुल मिलाकर बेरोज़गारी का संकट और न ही इन क्षेत्रों की युवा निष्क्रियता का स्तर, पंजाब, हरियाणा और एनयूजीपी राज्यों में पिछले साल किसान आंदोलन का ख़ास कारण हो सकता है.
यही वजह है कि यह एक पहेली बनी हुई है कि सैद्धांतिक रूप से सितंबर 2020 में भारत सरकार द्वारा शुरू किए गए तीन कृषि अधिनियमों के ख़िलाफ़ पंजाब, हरियाणा और एनयूजीपी देश में लंबे समय तक विरोध प्रदर्शन के क्षेत्रों के रूप में उभरे. इन विरोध प्रदर्शनों को देश के उन बाकी हिस्सों से बहुत कम या ना के बराबर समर्थन मिल पाया, जिसमें कृषि आबादी का अनुपात काफी अधिक है. ऐसे में स्वाभाविक रूप से यह एक यक्ष प्रश्न है कि : भारत में इन विरोधों को किस बात ने ताक़त दी ?
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