Author : Rasheed Kidwai

Published on Sep 11, 2019 Updated 0 Hours ago

सांप्रदायिक एकता और सतत विकास अत्यावश्यक है, क्योंकि पूरा संसार भारत की ओर आशाभरी नजरों से देख रहा है.

सांप्रदायिक एकता और सतत विकास के लिए उम्मीद जगाती भागवत और मदनी की मुलाकात

मौलाना अरशद मदनी के नेतृत्व में मुस्लिम धार्मिक विद्वानों की RSS प्रमुख मोहन भागवत से मुलाकात स्वागतयोग्य है. यह भेंट कई मायनों में महत्वपूर्ण है. मौलाना मदनी ऐतिहासिक संगठन जमीयत उलमा-ए-हिंद के प्रमुख हैं, जिसका आजादी की जंग में बड़ा योगदान रहा है.

मोहन भागवत से उनकी यह पहली भेंट दूरगामी परिणामों की आधारशिला हो सकती है. कहा जा रहा है कि भागवत और मदनी, दोनों सहमत थे कि धार्मिक कट्टरता एवं वैमनस्य देश के लिए विनाशकारी है. यह भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि के लिए भी नुकसानदेह है.

धार्मिक उन्माद ने देश को किया विभाजित

मदनी के मुताबिक RSS ने उनकी इस बात से सहमति जताई कि 1947 में धार्मिक उन्माद ने देश विभाजित करा दिया. स्वतंत्रता पूर्व के मुसलमान अगर उस धार्मिक उन्माद के जिम्मेदार थे तो आज देश के बहुसंख्यक वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं को आस्था के आधार पर उभरने वाले किसी भी वैमनस्य को टालने की जरूरत है.

इस भेंट में भाजपा के राष्ट्रीय संगठन मंत्री रहे रामलाल की सक्रिय भूमिका बताई जा रही है. प्रधानमंत्री और भाजपा नेताओं से उनकी निकटता भी इसका एक अहम पक्ष है. अपने भतीजे मौलाना महमूद मदनी की तरह मौलाना अरशद मदनी ने कई अहम मुद्दों जैसे NRC, बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि मुकदमा, भीड़ की हिंसा, गोरक्षा आदि पर खासी सक्रियता दिखाई है. जमीयत ने अन्य कई मुस्लिम संगठनों के साथ बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि केस में अपील कर रखी है. उसके साथ ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी इस मामले में मुख्य अपीलकर्ता है.

मस्जिद को अयोध्या या कहीं और स्थानांतरित करने की बात

भागवत-मदनी वार्ता ऐसे वक्त में हुई है जब नवंबर में सुप्रीम कोर्ट इस केस पर फैसला सुना सकता है. राजनीति से प्रभावित मुसलमानों का एक वर्ग और धार्मिक विद्वान अभी भी इस विवाद को अदालत से बाहर सुलझाने के पक्ष में हैं. मौलाना सलमान नदवी जैसे इस्लाम के जानकार मस्जिद को अयोध्या या कहीं और स्थानांतरित करने की बात कहते हैं.

इसके लिए वह खलीफा उमर बिन खत्ताब के दौर की मिसाल देते हैं, जब कूफा, इराक में एक मस्जिद को स्थानांतरित कर वहां खजूर मार्केट बनाया गया था. टकराव टालने की नीयत से दी गई नदवी की यह सलाह तमाम मुस्लिम नेताओं को रास नहीं आई. इसी के चलते उन्हें मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से बाहर कर दिया गया.

अन्य विवादास्पद स्थलों में फंस सकते हैं पेंच

ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि मौलाना अरशद मदनी इस दिशा में क्या करते हैं? मुस्लिम बुद्धिजीवी वर्ग, सेवानिवृत्त उच्चाधिकारी, न्यायविद् और नेताओं को लगता है कि इस मामले में समझौता करना या अपनी ओर से सहृदयता दिखाना उचित उपाय नहीं है. इससे ऐसे अन्य विवादास्पद स्थलों जैसे मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि-ईदगाह और वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर-ज्ञानवापी मस्जिद के मामलों में भी पेंच फंस सकते हैं.

अरुण शौरी ने अपनी किताब ‘व्हाट हैपंड टू द हिंदू टैंपल्स’ में लिखा है कि मुस्लिम शासनकाल में तीन हजार मंदिरों को कथित रूप से तोड़कर मस्जिदें बनाई गईं. भारतीय विदेश सेवा के पूर्व अधिकारी सैयद शहाबुद्दीन कहते थे कि अयोध्या विवाद पर समझौते को लेकर अक्सर विचार करते हैं, लेकिन यह सोचकर रुक जाते हैं कि फिर मथुरा, काशी जैसे स्थलों की बात होने लगेगी.

समझौते की शर्तों के बीच आरोप-प्रत्यारोप

एक पूर्व अफसरशाह और मुस्लिम बुद्धिजीवी गोपनीयता की शर्त पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को प्राथमिकता देने के पक्ष में हैं. वह कहते हैं कि समझौता न करने के पीछे कुछ ठोस कारण हैं, जैसे समझौते की शर्तें कितनी भी आपके पक्ष में हों, समय के साथ आरोप-प्रत्यारोप बढ़ते जाएंगे. कहा जाने लगेगा कि करार करने वालों ने मुस्लिम हितों का सस्ते में सौदा कर दिया.

ऐसी बातें बढ़ती जाएंगी, जबकि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला भले ही खिलाफ आए, लेकिन उससे मामले का पटाक्षेप हो जाएगा. 1859 से अब तक आपसी समझौते द्वारा अयोध्या विवाद को हल करने के नौ बार प्रयास हो चुके हैं. ध्यान रहे कि इस धर्मस्थल को लेकर विवाद होने पर 1859 में अंग्रेज सरकार ने यह व्यवस्था कर दी थी कि भीतरी स्थल का उपयोग मुसलमान करेंगे और बाहरी स्थल का हिंदू.

तीन पूर्व प्रधानमंत्रियों चंद्रशेखर, पीवी नरसिंहराव और अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में भी इसे अदालत से बाहर सुलझाने के गंभीर प्रयास हुए, जिनमें मुस्लिमों की सहभागिता थी.

जब चंद्रशेखर ने वार्ता के शुरू कराई

1990 में चंद्रशेखर ने विश्व हिंदू परिषद और मुस्लिम पक्ष के बीच वार्ता शुरू कराई, लेकिन विहिप कार्यकर्ताओं ने विवादित ढांचे पर हमला कर उसके कुछ भाग को क्षतिग्रस्त कर दिया. इससे वार्ता वहीं ठप हो गई. 6 दिसंबर 1992 को विवादित ढांचा ध्वंस से पहले राव ने विहिप को आंदोलन करने से रोकने का प्रयास किया था.

‘अयोध्या 6 दिसंबर 1992’ के कुछ अंश

अपनी किताब ‘अयोध्या 6 दिसंबर 1992’ में राव ने लिखा है कि भाजपा ने अयोध्या समझौते को विफल कराया. शब्द चयन में हमेशा सतर्क रहने वाले राव ने यह भी लिखा है कि अराजनीतिक साधु-संन्यासियों से अगस्त 1992 तक उनकी यह बात चलती रही कि ‘कानून का उल्लंघन और सांप्रदायिक सौहार्द को ठेस पहुंचाए बिना’ अयोध्या में कैसे और कहां राम मंदिर बनवाया जा सकता है.

तभी अचानक साधुओं ने बात करने से मना कर दिया. राव ने इस पर अचरज व्यक्त करते हुए कहा, ‘ या तो साधुओं की सोच बदल गई है या उन सियासी ताकतों की जो उन्हें नियंत्रित कर रही थीं. ये ताकतें जानबूझकर इस विवाद के शांतिपूर्ण हल वाली पहल से बाहर होना चाहती थी, जो मेरे और साधुओं के बीच तय किया जा रहा था. अगर यह हो जाता तो मंदिर का मुद्दा पूरी तरह अराजनीतिक हो जाता.’

2003 में समझौते का प्रारूप

वाजपेयी की पहल पर तो उत्साहित मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने 2003 में समझौते का प्रारूप बना लिया था. कांची के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती ने जिम्मेदारी ले ली थी कि वह विहिप को अदालत का फैसला मानने के लिए राजी कर लेंगे, लेकिन आखिरी वक्त के बदलाव ने वाजपेयी को भारतीय इतिहास का महानतम व्यक्ति बनने से रोक दिया.

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने जो प्रस्ताव तैयार किया था उसके मुताबिक अविवादित 67 एकड़ भूमि में मस्जिद निर्माण होगा, एक कानूनी प्रक्रिया के जरिये हिंदुत्ववादी ताकतों को मथुरा और काशी जैसे मुद्दे उठाने से वंचित कर दिया जाएगा तथा विवाद के इतिहास एवं रिकॉर्ड की जानकारी विवादित स्थल पर अंकित कर दी जाएगी.

मुस्लिम सांसदों और अन्य प्रभावशाली शख्सियतों की बैठक 

इस प्रक्रिया के दौरान मुस्लिम पक्ष पूरी तरह समझौते के पक्ष में था. प्रतिष्ठित धार्मिक संस्थान नदवतुल उलमा के प्रमुख मौलाना राबे हसनी नदवी ने कहा कि ऐसे समझौते में कोई नुकसान नहीं है. इसे लेकर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मुस्लिम सांसदों और अन्य प्रभावशाली मुस्लिम शख्सियतों की बैठक भी बुलाई थी. इसी पृष्ठभूमि में भागवत और मदनी की मुलाकात महत्वपूर्ण है. दोनों इससे सहमत हैं कि सांप्रदायिक एकता और सतत विकास अत्यावश्यक है, क्योंकि पूरा संसार भारत की ओर आशाभरी नजरों से देख रहा है.


ये लेख जागरण में प्रकाशित हुआ था.

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